श्रद्धेय श्रीजयदयालजी गोयन्दका (सेठजी)
संत लोग भगवान्के भावको समझकर ऐसा प्रयास करते हैं कि जीव किसी तरह अपना कल्याण कर ले, यह महान् दु:खोंसे बच जाय। उनके भावी दु:खोंका चित्र उनके हृदयके सामने आ जाता है। इसलिये उनके द्वारा स्वाभाविक ऐसी चेष्टाएँ होती हैं कि कोई भी बात स्वीकार करके यह मनुष्य अपने जीवनको उन्नत बना ले, किसी प्रकार भगवान्की ओर चल पड़े तो यह महान् दु:खोंसे बचकर महान् आनन्दको प्राप्त कर ले।
गीताप्रेसके संस्थापक श्रद्धेय श्रीजयदयालजी गोयन्दकाने अपनी छोटी अवस्थासे ही इस प्रकारका प्रयास आरम्भ कर दिया था। वे छोटी आयुसे (सन् १९१८) ऋषिकेश जाने लग गये थे। वहाँ गंगाजी, वैराग्यकी भूमिमें उन्हें भगवद्धॺानमें बहुत ही आनन्द आता था। उनके मनमें आती कि जैसा थोड़ा-सा भगवद्विषयक आनन्द मुझे प्राप्त है, यह सभी भाई-बहिनोंको भी प्राप्त हो जाय। इस उद्देश्यकी पूर्तिके लिये वे सत्संग कराते और सत्संगी भाई-बहिनोंके लिये ठहरने एवं भोजनादिकी व्यवस्था भी गीताभवन स्वर्गाश्रममें उन्होंने की।
गीताभवनकी स्थापनासे पूर्व प्राय: कानपुरवालोंकी कोठीमें ठहरकर वटवृक्षके नीचे सत्संग कराया करते थे। वटवृक्षके सत्संगकी महिमा ही अलग थी। गंगाजीकी रेणुका, वन, गङ्गा, पहाड़ तथा ऐसे स्थानपर भगवत्-अधिकारप्राप्त महापुरुषके द्वारा सत्संग, यह दुर्लभ आयोजन था। वहाँ जो बातें कही जाती थीं, उन बातोंको सत्संगी श्रद्धालु भाई लिख लेते थे। उन बातोंमें माता, बहिनों, बालकों तथा गृहस्थ भाइयोंके लिये बहुत महत्त्वपूर्ण बातें कही गयी हैं। सरल भाषामें सुगमतासे जीवनमें आनेवाली बातें तथा गृहस्थमें कलह न रहे, व्यापार कैसे शुद्ध बने, इस प्रकारके प्रवचन मिलते हैं। ऊँची-से-ऊँची ध्यानकी, ज्ञानकी, भक्तिकी, वैराग्यकी तथा साधारण-से-साधारण बात बड़ोंको प्रणाम करनेकी, घरोंमें रसोईमें भेद न रखना तथा किसीको कठोर वचन न कहना आदि मिलती है।
इन बातोंको हम अपने जीवनमें लाकर घरमें शान्ति तथा अपना कल्याण सुगमतासे कर सकते हैं।
श्रद्धेय श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार (भाईजी)
श्रीभाईजीका जीवन वैविध्यपूर्ण था। वे आदर्श पिता थे, आदर्श पुत्र थे, आदर्श पति थे, आदर्श मित्र थे, आदर्श बन्धु थे, आदर्श सेवक थे, आदर्श स्वामी थे, आदर्श आत्मीय थे, आदर्श स्नेही थे, आदर्श सुहृद् थे, आदर्श शिष्य थे, आदर्श गुरु थे, आदर्श लेखक थे, आदर्श सम्पादक थे, आदर्श जननेता थे, आदर्श गृहस्थ थे, आदर्श साधक थे, आदर्श सिद्ध थे, आदर्श प्रेमी थे, आदर्श कर्मयोगी थे, आदर्श ज्ञानी थे।
इस प्रकार उन्हें लौकिक एवं पारलौकिक, सभी विषयोंका सम्यक्-रूपसे ज्ञान था, अनुभव था और यही हेतु है कि वे व्यवहार और परमार्थकी जटिल-से-जटिल समस्याओंका समाधान बड़े ही सुन्दर और मान्य रूपमें कर पाते थे। व्यक्तिके जीवनका प्रभाव सर्वोपरि होता है और वह अमोघ होता है। श्रीभाईजी अध्यात्म-साधनाकी उस परमोच्च स्थितिमें पहुँच गये थे, जहाँ पहुँचे हुए व्यक्तिके जीवन, अस्तित्व,श्वास-प्रश्वास, उसके दर्शन, स्पर्श एवं सम्भाषण—यहाँतक कि उसके शरीरसे स्पर्श की हुई वायुसे ही जगत्का परमार्थके पथपर बढ़ते हुए जिज्ञासुओं एवं साधकोंका मङ्गल होता है।
मेरा विश्वास है कि जो व्यक्ति इन पत्रोंको मननपूर्वक पढ़ेंगे, इनमें कही हुई बातोंको अपने जीवनमें उतारनेका प्रयत्न करेंगे, उनको निश्चय ही इस जीवनमें तथा जीवनके उस पार वास्तविक सुख और शान्तिकी उपलब्धि होगी।
- चिम्मनलाल गोस्वामी (प्रबोधिनी एकादशी, सं० २०३० सम्पादक ‘कल्याण’)
श्रद्धेय स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराज (स्वामीजी)
परम वीत राग एवं "गीता मर्मज्ञ" परम श्रद्धेय स्वामी श्री रामसुखदास जी महाराज एक सौ एक(101) से अधिक वर्ष की अवस्था तक "गीता में आए भगवत भावों" के प्रचार में तन - मन से जुटे रहे!
व्यक्तिगत प्रचार से दूर रहकर भगवान और उनकी वाणी "गीता का प्रचार" करना ही उनके जीवन का मुख्य ध्येय रहा! इसलिए अपनी फोटो खींचवाने, चरण स्पर्श करवाने, पूजा करवाने, चेला - चेली बनवाने, भेंट स्वीकार करने, रुपए और वस्तुओं का संग्रह करने, आश्रम बनाने, टोली बनाने आदि बातो से वे सर्वथा दूर रहे और इस प्रकार उन्होंने लोगों को अपनी तरफ न लगाकर "भगवान की तरफ ही" लगाया!
कम से कम समय मे तथा सुगम से सुगम उपाय से "मनुष्य मात्र का कैसे कल्याण हो" ये ही उनका एक मात्र लक्ष्य था! इस विषय में उन्होंने अनेक नए - नए विलक्षण उपायों की खोज की ! उन्होंने "गीता" पर एक विस्तृत व्याख्या भी लिखी थी जो "साधक - संजीवनी" नाम से "गीता प्रेस गोरखपुर" से प्रकाशित हुई! इसके सिवाय उन्होंने गीता दर्पण, गीता माधुर्य, "गीता - प्रबोधिनी", "गृहस्थ में कैसे रहें?", "क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं?", "मानव मात्र के कल्याण के लिए", "साधन के दो प्रधान सूत्र" आदि आदि अनेक पुस्तकों की रचना की, जो अत्यंत लोकप्रिय हुई!
उनकी पुस्तकें पाठकों के हृदय पर अमिट प्रभाव डालती है, क्योंकि ये पुस्तकें विद्वता के आधार पर लिखी हुई नहीं है, प्रत्युत अनुभव के आधार पर लिखी हुई है!
श्री स्वामीजी महाराज के कुछ मुख्य सिद्धांत
- मनुष्य मात्र को "परमात्म प्राप्ति का" जन्म सिद्ध अधिकार है!
- मनुष्य जिस वर्ण - आश्रम , धर्म, संप्रदाय,वेश - भूषा, देश आदि में है, वहीं रहते हुए वह अपना कल्याण कर सकता है!
- मनुष्य मात्र प्रत्येक परिस्थिति में अपना कल्याण कर सकता है!
- सांसारिक वस्तुओं की प्राप्ति तो कर्म करने से होती है, पर परमात्मा की प्राप्ति कुछ भी न करने से होती है!
- परमात्मा की प्राप्ति जड़ता के द्वारा नहीं होती प्रत्युत्त जड़ता शरीर, इन्द्रियां, मन - बुद्धि -- इनके त्याग से होती है!
इस प्रकार के उनके विचार साधक - समुदाय को "चौंका देने वाले" होने पर भी "यथार्थ मे सत्य" है! उनका साहित्य पढ़ने से और उनकी वाणी सुनने से "हमारी आध्यात्मिक उन्नति" के विषय में भ्रमित धारणाएं दूर हो जाती है!