तीन योगमार्ग हैं- कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग । मनुष्य कर्मयोगसे संसारके लिये, ज्ञानयोगसे अपने लिये और भक्तियोगसे भगवान्के लिये उपयोगी होता है। कर्मयोगसे संसारकी सेवा होती है, ज्ञानयोगसे अपना बोध होता है और भक्तियोगसे भगवान् में प्रेम होता है।
||श्रीहरि:||
तीन योगमार्ग हैं- कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग । मनुष्य कर्मयोगसे संसारके लिये, ज्ञानयोगसे अपने लिये और भक्तियोगसे भगवान्के लिये उपयोगी होता है। कर्मयोगसे संसारकी सेवा होती है, ज्ञानयोगसे अपना बोध होता है और भक्तियोगसे भगवान् में प्रेम होता है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ २०७
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ २०७··
किसीको बुरा न समझना, किसीका बुरा न चाहना और किसीका बुरा न करना - यह कर्मयोग हो गया। सबमें 'है' रूपसे परमात्मा है - यह ज्ञानयोग हो गया। भगवान् मेरे हैं - यह भक्तियोग हो गया।
||श्रीहरि:||
किसीको बुरा न समझना, किसीका बुरा न चाहना और किसीका बुरा न करना - यह कर्मयोग हो गया। सबमें 'है' रूपसे परमात्मा है - यह ज्ञानयोग हो गया। भगवान् मेरे हैं - यह भक्तियोग हो गया।- पायो परम बिश्रामु १०४
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पायो परम बिश्रामु १०४··
कर्मयोगमें यह मानना ही होगा कि हमारे पास जो वस्तु, बल, योग्यता आदि है, वह दूसरोंके लिये ही है। ज्ञानयोगमें यह मानना ही होगा कि शरीर अपना नहीं है। भक्तियोगमें यह मानना ही होगा कि भगवान् मेरे हैं।
||श्रीहरि:||
कर्मयोगमें यह मानना ही होगा कि हमारे पास जो वस्तु, बल, योग्यता आदि है, वह दूसरोंके लिये ही है। ज्ञानयोगमें यह मानना ही होगा कि शरीर अपना नहीं है। भक्तियोगमें यह मानना ही होगा कि भगवान् मेरे हैं।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ २०९
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ २०९··
दूसरोंकी चाहना पूरी करना कर्मयोगीका काम है। कुछ भी चाहना न रखना ज्ञानयोगीका काम है । भगवान्की चाहनामें अपनी चाहना मिला देना भक्तका काम है।
||श्रीहरि:||
दूसरोंकी चाहना पूरी करना कर्मयोगीका काम है। कुछ भी चाहना न रखना ज्ञानयोगीका काम है । भगवान्की चाहनामें अपनी चाहना मिला देना भक्तका काम है।- स्वातिकी बूँदें ३५
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स्वातिकी बूँदें ३५··
मुक्तिकी माँग (स्वयंकी भूख ) ज्ञानयोगसे, दुःखनिवृत्तिकी माँग कर्मयोगसे और परमप्रेमकी माँग भक्तियोगसे पूरी होती है।
||श्रीहरि:||
मुक्तिकी माँग (स्वयंकी भूख ) ज्ञानयोगसे, दुःखनिवृत्तिकी माँग कर्मयोगसे और परमप्रेमकी माँग भक्तियोगसे पूरी होती है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये ३२
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मानवमात्रके कल्याणके लिये ३२··
विवेक-विचारपूर्वक संसारसे मिली हुई वस्तुओंसे अलग हो जाय - यह ज्ञानयोग है। उन वस्तुओंको संसारकी ही सेवामें लगा दे - यह कर्मयोग है। मनुष्य स्वयं जिसका अंश है, उस भगवान्में लग जाय - यह भक्तियोग है।
||श्रीहरि:||
विवेक-विचारपूर्वक संसारसे मिली हुई वस्तुओंसे अलग हो जाय - यह ज्ञानयोग है। उन वस्तुओंको संसारकी ही सेवामें लगा दे - यह कर्मयोग है। मनुष्य स्वयं जिसका अंश है, उस भगवान्में लग जाय - यह भक्तियोग है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये ५३
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मानवमात्रके कल्याणके लिये ५३··
करना' चाहते हो तो सेवा करो, 'जानना चाहते हो तो अपने-आपको जानो और 'मानना' चाहते हो तो प्रभुको मानो । तीनोंका परिणाम एक ही होगा।
||श्रीहरि:||
करना' चाहते हो तो सेवा करो, 'जानना चाहते हो तो अपने-आपको जानो और 'मानना' चाहते हो तो प्रभुको मानो । तीनोंका परिणाम एक ही होगा।- अमृत-बिन्दु ९११
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अमृत-बिन्दु ९११··
कर्मयोगसे शान्ति मिलती है; क्योंकि अशान्ति नाशवान् पदार्थोंके संगसे होती है। ज्ञानयोगसे स्वरूपमें स्थिति होती है। भक्तियोगमें शान्ति और स्वरूपमें स्थिति - दोनों रहते हैं, पर साथ ही भगवान्की ओर विशेष आकर्षण रहता है। भक्ति, विरक्ति तथा भगवत्प्रबोध- तीनों एक साथ चलते हैं।
||श्रीहरि:||
कर्मयोगसे शान्ति मिलती है; क्योंकि अशान्ति नाशवान् पदार्थोंके संगसे होती है। ज्ञानयोगसे स्वरूपमें स्थिति होती है। भक्तियोगमें शान्ति और स्वरूपमें स्थिति - दोनों रहते हैं, पर साथ ही भगवान्की ओर विशेष आकर्षण रहता है। भक्ति, विरक्ति तथा भगवत्प्रबोध- तीनों एक साथ चलते हैं।- सत्संगके फूल २८
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सत्संगके फूल २८··
कर्मयोगमें सेवावृत्ति रहती है। ज्ञानयोगमें उदासीन वृत्ति तथा कुछ कठोरता रहती है। भक्तियोगमें करुणा, दयालुता तथा कोमलता रहती है।
||श्रीहरि:||
कर्मयोगमें सेवावृत्ति रहती है। ज्ञानयोगमें उदासीन वृत्ति तथा कुछ कठोरता रहती है। भक्तियोगमें करुणा, दयालुता तथा कोमलता रहती है।- सागरके मोती ६०
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सागरके मोती ६०··
ज्ञानयोग तथा कर्मयोग - ये दोनों 'लौकिक साधन हैं और भक्तियोग 'अलौकिक साधन' है। लौकिक साधनसे मुक्ति होती है और अलौकिक साधनसे परमप्रेमकी प्राप्ति होती है।
||श्रीहरि:||
ज्ञानयोग तथा कर्मयोग - ये दोनों 'लौकिक साधन हैं और भक्तियोग 'अलौकिक साधन' है। लौकिक साधनसे मुक्ति होती है और अलौकिक साधनसे परमप्रेमकी प्राप्ति होती है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये ३२
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मानवमात्रके कल्याणके लिये ३२··
शरीरकी प्रधानतासे कर्मयोग है, अपने स्वरूपकी प्रधानतासे ज्ञानयोग है और ईश्वरकी प्रधानता से भक्तियोग है। एक दृष्टिसे देखा जाय तो कर्मयोग और भक्तियोग – ये दो ही हैं। ज्ञानयोग सहयोगी है । परन्तु यह बहुत गहरी बात है, हरेक नहीं समझता। भक्तियोग अन्तिम है। कुछ आचार्य ज्ञानयोगको अन्तिम मानते हैं। निष्पक्ष होकर गहरा विचार करें तो भक्तियोग सर्वश्रेष्ठ है। गीताकी दृष्टिसे भी भक्तियोग सर्वश्रेष्ठ है।
||श्रीहरि:||
शरीरकी प्रधानतासे कर्मयोग है, अपने स्वरूपकी प्रधानतासे ज्ञानयोग है और ईश्वरकी प्रधानता से भक्तियोग है। एक दृष्टिसे देखा जाय तो कर्मयोग और भक्तियोग – ये दो ही हैं। ज्ञानयोग सहयोगी है । परन्तु यह बहुत गहरी बात है, हरेक नहीं समझता। भक्तियोग अन्तिम है। कुछ आचार्य ज्ञानयोगको अन्तिम मानते हैं। निष्पक्ष होकर गहरा विचार करें तो भक्तियोग सर्वश्रेष्ठ है। गीताकी दृष्टिसे भी भक्तियोग सर्वश्रेष्ठ है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ २०७ - २०८
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ २०७ - २०८··
हमने ज्ञानयोगको मुख्य मान रखा था। पर ठीक विचार करनेसे मालूम हुआ कि खास चीज तो दो ही है - कर्मयोग और भक्तियोग । ज्ञानयोग तो बीचमें एक अड़ंगा है। एक शरीर है, एक आत्मा है | शरीरसे कर्मयोग और आत्मा ( भगवान् के अंश) से भक्तियोग हो गया । संसारसे अलग हो जाय, यह ज्ञानयोग है।
||श्रीहरि:||
हमने ज्ञानयोगको मुख्य मान रखा था। पर ठीक विचार करनेसे मालूम हुआ कि खास चीज तो दो ही है - कर्मयोग और भक्तियोग । ज्ञानयोग तो बीचमें एक अड़ंगा है। एक शरीर है, एक आत्मा है | शरीरसे कर्मयोग और आत्मा ( भगवान् के अंश) से भक्तियोग हो गया । संसारसे अलग हो जाय, यह ज्ञानयोग है।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ ८२
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ ८२··
ज्ञानमार्गमें असत्का निषेध करते हैं, जिससे असत्की सत्ता आती है; क्योंकि असत्की सत्ता स्वीकार की है, तभी तो निषेध करते हैं। इसलिये विवेकमार्ग (ज्ञान) में तो द्वैत है, पर विश्वासमार्ग (भक्ति) में अद्वैत है।
||श्रीहरि:||
ज्ञानमार्गमें असत्का निषेध करते हैं, जिससे असत्की सत्ता आती है; क्योंकि असत्की सत्ता स्वीकार की है, तभी तो निषेध करते हैं। इसलिये विवेकमार्ग (ज्ञान) में तो द्वैत है, पर विश्वासमार्ग (भक्ति) में अद्वैत है।- साधन-सुधा-सिन्धु ४४३
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधन-सुधा-सिन्धु ४४३··
वास्तवमें 'योग' की आवश्यकता कर्ममें ही है, ज्ञानमें भी योगकी आवश्यकता नहीं है और भक्तिमें तो योगकी बिलकुल आवश्यकता नहीं है। ज्ञान और भक्ति वास्तवमें 'योग' ही है।..... इसलिये गीतामें 'योग' शब्द विशेषकर 'कर्मयोग' का ही वाचक आता है।
||श्रीहरि:||
वास्तवमें 'योग' की आवश्यकता कर्ममें ही है, ज्ञानमें भी योगकी आवश्यकता नहीं है और भक्तिमें तो योगकी बिलकुल आवश्यकता नहीं है। ज्ञान और भक्ति वास्तवमें 'योग' ही है।..... इसलिये गीतामें 'योग' शब्द विशेषकर 'कर्मयोग' का ही वाचक आता है।- साधक संजीवनी न०नि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी न०नि०··
जो किसीको भी पराया मानता है, किसीका भी बुरा चाहता, देखता तथा करता है और संसारसे कुछ भी चाहता है, वह न तो कर्मयोगी हो सकता है, न ज्ञानयोगी हो सकता है और न भक्तियोगी ही हो सकता है।
||श्रीहरि:||
जो किसीको भी पराया मानता है, किसीका भी बुरा चाहता, देखता तथा करता है और संसारसे कुछ भी चाहता है, वह न तो कर्मयोगी हो सकता है, न ज्ञानयोगी हो सकता है और न भक्तियोगी ही हो सकता है।- साधक संजीवनी ७ ३० अ०सा०
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साधक संजीवनी ७ ३० अ०सा०··
ज्ञानमार्गमें संसारका त्याग होता है और भक्तिमार्गमें भगवान् से प्रेम होता है - यह खास बात है। 'ज्ञान' नाशवान् से सम्बन्ध-विच्छेद करता है और 'भक्ति' अविनाशीसे सम्बन्ध करती है। कर्मयोग व ज्ञानयोगसे त्याग होता है और भक्तियोगसे अनुराग होता है। यह उनका खास काम है।
||श्रीहरि:||
ज्ञानमार्गमें संसारका त्याग होता है और भक्तिमार्गमें भगवान् से प्रेम होता है - यह खास बात है। 'ज्ञान' नाशवान् से सम्बन्ध-विच्छेद करता है और 'भक्ति' अविनाशीसे सम्बन्ध करती है। कर्मयोग व ज्ञानयोगसे त्याग होता है और भक्तियोगसे अनुराग होता है। यह उनका खास काम है।- स्वातिकी बूँदें ५५
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
स्वातिकी बूँदें ५५··
कर्मयोगी तथा ज्ञानयोगी अकेले होते हैं और भक्त भगवान्के साथ होता है। शरीर पदार्थ, क्रिया आदि बदलनेवाली वस्तुओंके साथ अपना सम्बन्ध न मानना, उनसे असंग होना 'अकेला' होना है।
||श्रीहरि:||
कर्मयोगी तथा ज्ञानयोगी अकेले होते हैं और भक्त भगवान्के साथ होता है। शरीर पदार्थ, क्रिया आदि बदलनेवाली वस्तुओंके साथ अपना सम्बन्ध न मानना, उनसे असंग होना 'अकेला' होना है।- अमरताकी ओर ८६
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अमरताकी ओर ८६··
कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग - तीनों साधनोंसे नाशवान् रसकी निवृत्ति हो जाती है। ज्यों- ज्यों कर्मयोगमें सेवाका रस, ज्ञानयोगमें तत्त्वके अनुभवका रस और भक्तियोगमें प्रेमका रस मिलने लगता है, त्यों-त्यों नाशवान् रस स्वतः छूटता चला जाता है। जैसे बचपनमें खिलौनोंमें रस मिलता था, पर बड़े होनेपर जब रुपयोंमें रस मिलने लगता है, तब खिलौनोंका रस स्वतः छूट जाता है, ऐसे ही साधनका रस मिलनेपर भोगोंका रस स्वतः छूट जाता है।
||श्रीहरि:||
कर्मयोग, ज्ञानयोग तथा भक्तियोग - तीनों साधनोंसे नाशवान् रसकी निवृत्ति हो जाती है। ज्यों- ज्यों कर्मयोगमें सेवाका रस, ज्ञानयोगमें तत्त्वके अनुभवका रस और भक्तियोगमें प्रेमका रस मिलने लगता है, त्यों-त्यों नाशवान् रस स्वतः छूटता चला जाता है। जैसे बचपनमें खिलौनोंमें रस मिलता था, पर बड़े होनेपर जब रुपयोंमें रस मिलने लगता है, तब खिलौनोंका रस स्वतः छूट जाता है, ऐसे ही साधनका रस मिलनेपर भोगोंका रस स्वतः छूट जाता है।- साधक संजीवनी २।५९ परि०