Seeker of Truth

योग

भोगका त्याग करनेसे ही योग होता है।

साधक संजीवनी १८ । ३६-३७ परि०··

जो कभी योगी, कभी भोगी बनता है, वह भोगी ही रहता है।

ज्ञानके दीप जले ११८··

भोगी योगी नहीं होता और योगी भोगी नहीं होता। जिनमें सकामभाव होता है, वे भोगी होते हैं और जिनमें निष्कामभाव होता है, वे योगी होते हैं। इसलिये सकामभाववाले तपस्वी, ज्ञानी और कर्मीसे भी निष्कामभाववाला योगी श्रेष्ठ है।

साधक संजीवनी ६ । ४६ परि०··

अपने सुखसे सुखी होनेवाला कोई भी मनुष्य योगी नहीं होता।

अमृत-बिन्दु ५५३··

अपनी सुख-सुविधाको देखनेवाला भोगी होता है, योगी नहीं होता।

अमृत-बिन्दु ५६५··

खेचरी मुद्रासे भोग होता है, योग नहीं होता। इससे कल्याण नहीं होता।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ९६··

कुण्डलिनी जाग्रत् होनेसे शक्ति आती है, पर इसका कल्याणके साथ सम्बन्ध नहीं है। आध्यात्मिक उन्नतिमें इसकी कोई जरूरत नहीं है। कुण्डलिनीका सम्बन्ध शरीरसे है। मुक्तिमें शरीरका सम्बन्ध नहीं है।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १५५ - १५६··

कुण्डलिनी जाग्रत् होनेसे परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती। सोयी हुयी सर्पिणीको जगा देनेसे क्या कल्याण हो जायगा ?

स्वातिकी बूँदें ८८··

असत् पदार्थोंके साथ सम्बन्ध रखते हुए वह कितना ही अभ्यास कर ले, समाधि लगा ले, गिरि - कन्दराओं में चला जाय, तो भी गीताके सिद्धान्तके अनुसार वह योगी नहीं कहा जा सकता।

साधक संजीवनी ६ । २··

योग साधनसे होनेवाली अणिमा, महिमा, गरिमा आदि जितनी सिद्धियाँ हैं, वे सभी वास्तवमें असिद्धियाँ ही हैं। कारण कि वे सभी जन्म-मरण देनेवाली, बन्धनमें डालनेवाली, परमात्मप्राप्तिमें बाधा डालनेवाली हैं।

साधक संजीवनी १४ । १··

योगदर्शनका विभूतिपाद भोग ही है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ९६··

जबतक मनुष्य उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंके आश्रयका त्याग नहीं करता और मनसे उनके साथ अपना सम्बन्ध जोड़े रखता है, तबतक वह कितना ही अक्रिय हो जाय, चित्तकी वृत्तियोंका सर्वथा निरोध कर ले, पर वह योगी नहीं हो सकता। हाँ, चित्तकी वृत्तियोंका सर्वथा निरोध होनेसे उसको तरह तरहकी सिद्धियाँ प्राप्त हो सकती हैं, पर कल्याण नहीं हो सकता।

साधक संजीवनी ६ । १··

संयोगका तो वियोग होता है, पर योगका कभी वियोग नहीं होता। योगकी प्राप्ति होनेपर मनुष्य राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि विकारोंसे सर्वथा मुक्त हो जाता है और उसको स्वाधीनता, निर्विकारता, असंगता, समताकी प्राप्ति हो जाती है।

साधक संजीवनी न०नि०··

वास्तवमें देखा जाय तो परमात्मासे वियोग कभी हुआ ही नहीं, होना सम्भव ही नहीं । केवल संसारसे माने हुए संयोगके कारण परमात्मासे वियोग प्रतीत हो रहा है । संसारसे माने हुए संयोगका त्याग करते ही परमात्मतत्त्वके अभिलाषी मनुष्यको तत्काल नित्ययोगका अनुभव हो जाता है और उसमें स्थायी स्थिति हो जाती है।

साधक संजीवनी प्रा०··

प्राप्ति उसीकी होती है, जो नित्यप्राप्त है और निवृत्ति उसीकी होती है, जो नित्यनिवृत्त है। नित्यप्राप्तकी प्राप्तिका नाम भी योग है और नित्यनिवृत्तकी निवृत्तिका नाम भी योग है।

साधक संजीवनी ६ । २३ परि०··

प्रकृतिसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर ही 'योग' (परमात्मासे नित्य-सम्बन्धका अनुभव) होता है, अन्यथा केवल 'ज्ञान' और 'कर्म' ही होता है।

साधक संजीवनी ३ । २८··

योग (परमात्माका नित्य-सम्बन्ध ) तो स्वतः सिद्ध और स्वाभाविक है। अतः योग अथवा परमात्मप्राप्ति कर्मजन्य नहीं है।

साधक संजीवनी ४। १२··

संकल्पका त्याग किये बिना मनुष्य कोई सा भी योगी अर्थात् कर्मयोगी, ज्ञानयोगी, भक्तियोगी, हठयोगी, लययोगी आदि नहीं होता। कारण कि उसका सम्बन्ध उत्पन्न और नष्ट होनेवाले जड़ पदार्थोंके साथ है; अतः वह योगी कैसे होगा ? वह तो भोगी ही होगा।

साधक संजीवनी ६ । २··

संयोग' उसके साथ होता है, जिसके साथ हम सदा नहीं रह सकते और जो हमारे साथ सदा नहीं रह सकता। 'योग' उसके साथ होता है, जिसके साथ हम सदा रह सकते हैं और जो हमारे साथ सदा रह सकता है। इसलिये संसारमें एक-दूसरेके साथ संयोग होता है और परमात्मा के साथ योग होता है।

साधक संजीवनी ६ । २३ परि०··

जो संसारसे विमुख होकर परमात्माके सम्मुख हो गया है, वही वास्तवमें योगी है। ऐसा योगी बड़े-बड़े तपस्वियों, शास्त्रज्ञ पण्डितों और कर्मकाण्डियोंसे भी ऊँचा है, श्रेष्ठ है। कारण कि तपस्वियों आदिका उद्देश्य संसार है तथा सकामभाव है और योगीका उद्देश्य परमात्मा है तथा निष्कामभाव है।

साधक संजीवनी ६ । ४६··

अभ्यासमें मन लगनेसे प्रसन्नता होती है और मन न लगनेसे खिन्नता होती है। यह अभ्यास तो है, पर अभ्यासयोग नहीं है । अभ्यासयोग तभी होगा, जब प्रसन्नता और खिन्नता- दोनों ही न हों। अगर चित्तमें प्रसन्नता और खिन्नता हो भी जायँ, तो भी उनको महत्त्व न दे, केवल अपने लक्ष्यको ही महत्त्व दे। अपने लक्ष्यपर दृढ़ रहना भी 'योग' है।

साधक संजीवनी ८।८··

अनुकूलता भोगीको अच्छी लगती है, योगीको नहीं। योगी अनुकूलता - प्रतिकूलतासे रहित होना चाहता है।

स्वातिकी बूँदें २८··

भोग दो वस्तुओं आदिके संयोगसे होता है और योग (परमात्मासे नित्य सम्बन्ध) अकेला, स्वतः सिद्ध होता है। जबतक भोग है, तबतक योगका अनुभव नहीं होता। भोगका सर्वथा त्याग होनेपर ही योगका अनुभव होता है और योगका अनुभव होनेपर भोगकी इच्छा सर्वथा मिट जाती है।

अमृत-बिन्दु ५५५··

एकान्तका सुख लेना, मन लगनेका सुख लेना भोग है, योग नहीं।

अमृत-बिन्दु ५५७··

जबतक अनुकूलता - प्रतिकूलताका असर पड़ता है, तबतक कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि कोई भी योग सिद्ध नहीं हुआ।

अमृत-बिन्दु ८२७··