सत्' सब जगह प्रकट है, 'चित्' जीवोंमें प्रकट है और 'आनन्द' तत्त्वज्ञानीमें प्रकट है।
||श्रीहरि:||
सत्' सब जगह प्रकट है, 'चित्' जीवोंमें प्रकट है और 'आनन्द' तत्त्वज्ञानीमें प्रकट है।- प्रश्नोत्तरमणिमाला १८
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प्रश्नोत्तरमणिमाला १८··
भगवान् और उनके भक्तोंका चरित्र पढ़नेसे अन्तःकरण जितना शुद्ध होता है, उतना विवेकसे नहीं होता । कारण कि विवेकमें असत्की सत्ता रहती है, पर भगवान्के चरित्रमें केवल सत् रहता है।
||श्रीहरि:||
भगवान् और उनके भक्तोंका चरित्र पढ़नेसे अन्तःकरण जितना शुद्ध होता है, उतना विवेकसे नहीं होता । कारण कि विवेकमें असत्की सत्ता रहती है, पर भगवान्के चरित्रमें केवल सत् रहता है।- ज्ञानके दीप जले ८५
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ज्ञानके दीप जले ८५··
आशा न रखनेका तात्पर्य है - संसारकी आशा मत रखो और आशावादी बननेका तात्पर्य है- अपनी उन्नतिसे अथवा भगवत्प्राप्तिसे निराश मत होओ। सत्यकी आशा रखो, असत्की आशा मत रखी।
||श्रीहरि:||
आशा न रखनेका तात्पर्य है - संसारकी आशा मत रखो और आशावादी बननेका तात्पर्य है- अपनी उन्नतिसे अथवा भगवत्प्राप्तिसे निराश मत होओ। सत्यकी आशा रखो, असत्की आशा मत रखी।- प्रश्नोत्तरमणिमाला ४१९
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प्रश्नोत्तरमणिमाला ४१९··
जो वेदोंको, स्मृतियोंको, पुराणोंको, शास्त्रोंको मानते हैं कि जो वे कहेंगे, वही ठीक है, वे 'स्मार्त' कहलाते हैं। परन्तु जो केवल भगवान्को ही मानते हैं, वे 'वैष्णव' कहलाते हैं। स्मार्तमें कर्मकाण्डकी मुख्यता रहती है और वैष्णवमें भगवान्की मुख्यता रहती है।
||श्रीहरि:||
जो वेदोंको, स्मृतियोंको, पुराणोंको, शास्त्रोंको मानते हैं कि जो वे कहेंगे, वही ठीक है, वे 'स्मार्त' कहलाते हैं। परन्तु जो केवल भगवान्को ही मानते हैं, वे 'वैष्णव' कहलाते हैं। स्मार्तमें कर्मकाण्डकी मुख्यता रहती है और वैष्णवमें भगवान्की मुख्यता रहती है।- प्रश्नोत्तरमणिमाला ४२४
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प्रश्नोत्तरमणिमाला ४२४··
जैसे आप हरेक बातमें यह सोचते हैं कि अधिक लाभ कैसे लें, ऐसे ही मानवशरीर, सत्संग, गीता, सन्त-महात्मा आदि जो मिले, उससे अधिक लाभ कैसे लें- ऐसा विचार करें।
||श्रीहरि:||
जैसे आप हरेक बातमें यह सोचते हैं कि अधिक लाभ कैसे लें, ऐसे ही मानवशरीर, सत्संग, गीता, सन्त-महात्मा आदि जो मिले, उससे अधिक लाभ कैसे लें- ऐसा विचार करें।- ज्ञानके दीप जले १९
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ज्ञानके दीप जले १९··
अन्याय होता नहीं है, प्रत्युत अन्याय करते हैं । जो होता है, वह न्याय ही होता है।
||श्रीहरि:||
अन्याय होता नहीं है, प्रत्युत अन्याय करते हैं । जो होता है, वह न्याय ही होता है।- ज्ञानके दीप जले १०६
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ज्ञानके दीप जले १०६··
जो परमात्माको प्राप्त हो गये हैं, वे जागते हैं। जो साधनमें लगे हैं, वे सोते हैं। जो भगवान्में नहीं लगे हैं, वे मुर्दा हैं। जो सोता है, वह तो जाग सकता है, पर मुर्दा कैसे जागेगा ?
||श्रीहरि:||
जो परमात्माको प्राप्त हो गये हैं, वे जागते हैं। जो साधनमें लगे हैं, वे सोते हैं। जो भगवान्में नहीं लगे हैं, वे मुर्दा हैं। जो सोता है, वह तो जाग सकता है, पर मुर्दा कैसे जागेगा ?- ज्ञानके दीप जले १५१
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ज्ञानके दीप जले १५१··
भगवान्की ओरसे सबको सुख पहुँचानेका अधिकार दिया हुआ है, पर मारनेका अधिकार किसीको नहीं दिया है।
||श्रीहरि:||
भगवान्की ओरसे सबको सुख पहुँचानेका अधिकार दिया हुआ है, पर मारनेका अधिकार किसीको नहीं दिया है।- सत्संगके फूल ११२
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सत्संगके फूल ११२··
वृक्ष लगाना धर्मशाला बनवानेसे भी उत्तम है। वृक्षसे पक्षियोंको रहनेकी जगह भी मिलती है और खानेकी सामग्री भी । धर्मशालासे तो बहुत जगह रुकती है, पर वृक्षसे ज्यादा जगह भी नहीं रुकती।
||श्रीहरि:||
वृक्ष लगाना धर्मशाला बनवानेसे भी उत्तम है। वृक्षसे पक्षियोंको रहनेकी जगह भी मिलती है और खानेकी सामग्री भी । धर्मशालासे तो बहुत जगह रुकती है, पर वृक्षसे ज्यादा जगह भी नहीं रुकती।- सत्संगके फूल १२२
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सत्संगके फूल १२२··
नहीं सोचो तो शामकी भी मत सोचो, और सोचो तो जन्मके बादकी भी सोचो।
||श्रीहरि:||
नहीं सोचो तो शामकी भी मत सोचो, और सोचो तो जन्मके बादकी भी सोचो।- सत्संगके फूल १२९
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सत्संगके फूल १२९··
अपने विरोधीकी बात सुननेसे बड़ा लाभ होता है। विरोधीकी बात चाहे मानें या न मानें, पर कम-से-कम उसे सुनना तो अवश्य चाहिये। जो मेरा विचार है, वही ठीक है - ऐसा मानते हुए दूसरेकी बात न सुनें तो यह अपनी मूर्खताको सुरक्षित रखनेका उपाय है।
||श्रीहरि:||
अपने विरोधीकी बात सुननेसे बड़ा लाभ होता है। विरोधीकी बात चाहे मानें या न मानें, पर कम-से-कम उसे सुनना तो अवश्य चाहिये। जो मेरा विचार है, वही ठीक है - ऐसा मानते हुए दूसरेकी बात न सुनें तो यह अपनी मूर्खताको सुरक्षित रखनेका उपाय है।- सत्संगके फूल १६९
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सत्संगके फूल १६९··
वस्तुओंको अपना न माननेसे और सबको अपना माननेसे उदारता आती है। वस्तु अपनी माननेसे और सबको अपना न माननेसे उदारता नहीं आती।
||श्रीहरि:||
वस्तुओंको अपना न माननेसे और सबको अपना माननेसे उदारता आती है। वस्तु अपनी माननेसे और सबको अपना न माननेसे उदारता नहीं आती।- सत्संगके फूल १७७
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सत्संगके फूल १७७··
देखनेमें, सुननेमें, इतिहासमें आता है कि जो परमात्माको जानते हैं, वे ही 'ब्राह्मण' हैं । अतः जो परमात्माको प्राप्त कर चुके हैं, वे सब 'ब्राह्मण' हैं।
||श्रीहरि:||
देखनेमें, सुननेमें, इतिहासमें आता है कि जो परमात्माको जानते हैं, वे ही 'ब्राह्मण' हैं । अतः जो परमात्माको प्राप्त कर चुके हैं, वे सब 'ब्राह्मण' हैं।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १८८ - १८९
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १८८ - १८९··
जबतक ब्रह्मज्ञान न हो, तबतक ब्राह्मणको अपनेको ब्राह्मण नहीं मानना चाहिये।
||श्रीहरि:||
जबतक ब्रह्मज्ञान न हो, तबतक ब्राह्मणको अपनेको ब्राह्मण नहीं मानना चाहिये।- सागरके मोती ३८
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सागरके मोती ३८··
सत्यको स्वीकार करना हो तो दूसरेको सामने मत रखो, अपनेको सामने रखो। दूसरेको सामने रखोगे तो सत्य नहीं मिलेगा।
||श्रीहरि:||
सत्यको स्वीकार करना हो तो दूसरेको सामने मत रखो, अपनेको सामने रखो। दूसरेको सामने रखोगे तो सत्य नहीं मिलेगा।- सागरके मोती ६२
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सागरके मोती ६२··
भोजन वह बढ़िया होता है, जिसमें खानेवालेकी अपेक्षा खिलानेवालेको ज्यादा आनन्द आता है। ज्यादा आनन्द उसको वस्तु देनेमें आता है, जो लेना नहीं चाहता। चोर डाकूको वस्तु देनेमें आनन्द आता है क्या ?
||श्रीहरि:||
भोजन वह बढ़िया होता है, जिसमें खानेवालेकी अपेक्षा खिलानेवालेको ज्यादा आनन्द आता है। ज्यादा आनन्द उसको वस्तु देनेमें आता है, जो लेना नहीं चाहता। चोर डाकूको वस्तु देनेमें आनन्द आता है क्या ?- सागरके मोती ७०
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सागरके मोती ७०··
मनुष्य अपने मनमें निरन्तर कुछ-न-कुछ सोचता रहता है, जिसे संकल्प-विकल्प, मनोरथ या मनोराज्य कहते हैं। निद्राके समय यही 'स्वप्न' होकर दीखने लगता है। मनपर बुद्धिका परदा (प्रभाव) रहनेके कारण हम मनमें आयी हुई प्रत्येक बातको प्रकट नहीं करते। परन्तु बुद्धिका परदा हटनेपर मनमें आयी हुई प्रत्येक बातको कहना या उसके अनुसार आचरण करना 'पागलपन' कहलाता है। इस प्रकार मनोराज्य, स्वप्न तथा पागलपन – ये तीनों एक ही हैं।
||श्रीहरि:||
मनुष्य अपने मनमें निरन्तर कुछ-न-कुछ सोचता रहता है, जिसे संकल्प-विकल्प, मनोरथ या मनोराज्य कहते हैं। निद्राके समय यही 'स्वप्न' होकर दीखने लगता है। मनपर बुद्धिका परदा (प्रभाव) रहनेके कारण हम मनमें आयी हुई प्रत्येक बातको प्रकट नहीं करते। परन्तु बुद्धिका परदा हटनेपर मनमें आयी हुई प्रत्येक बातको कहना या उसके अनुसार आचरण करना 'पागलपन' कहलाता है। इस प्रकार मनोराज्य, स्वप्न तथा पागलपन – ये तीनों एक ही हैं।- साधक संजीवनी १५ । ९
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साधक संजीवनी १५ । ९··
संसारमें प्रायः तीन बातोंको लेकर लड़ाई होती है- भूमि, धन और स्त्री।
||श्रीहरि:||
संसारमें प्रायः तीन बातोंको लेकर लड़ाई होती है- भूमि, धन और स्त्री।- साधक संजीवनी १।१
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साधक संजीवनी १।१··
जो मनुष्य अपने सद्विचारोंका निरादर करता है, वह शास्त्रोंकी, गुरुजनोंकी और सिद्धान्तोंकी अच्छी-अच्छी बातोंको सुनकर भी उन्हें धारण नहीं कर सकता। अपने सद्विचारोंका बार-बार निरादर, तिरस्कार करनेसे सद्विचारोंकी सृष्टि बन्द हो जाती है।
||श्रीहरि:||
जो मनुष्य अपने सद्विचारोंका निरादर करता है, वह शास्त्रोंकी, गुरुजनोंकी और सिद्धान्तोंकी अच्छी-अच्छी बातोंको सुनकर भी उन्हें धारण नहीं कर सकता। अपने सद्विचारोंका बार-बार निरादर, तिरस्कार करनेसे सद्विचारोंकी सृष्टि बन्द हो जाती है।- साधक संजीवनी १ । ४५
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साधक संजीवनी १ । ४५··
जहाँसे जो बात कही जाती है, वहाँसे वह परम्परासे जितनी दूर चली जाती है, उतना ही उसमें स्वतः अन्तर पड़ता चला जाता है - यह नियम है।
||श्रीहरि:||
जहाँसे जो बात कही जाती है, वहाँसे वह परम्परासे जितनी दूर चली जाती है, उतना ही उसमें स्वतः अन्तर पड़ता चला जाता है - यह नियम है।- साधक संजीवनी ४।२
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साधक संजीवनी ४।२··
वास्तविक दृष्टिसे देखा जाय तो शत्रुके द्वारा हमारा भला ही होता है। वह हमारा बुरा कर ही नहीं सकता। कारण कि वह वस्तुओंतक ही पहुँचता है, स्वयंतक पहुँचता ही नहीं । अतः नाशवान्के नाशके सिवाय और वह कर ही क्या सकता है ? नाशवान्के नाशसे हमारा भला ही होगा। वास्तवमें हमारा नुकसान हमारा भाव बिगड़नेसे ही होता है।
||श्रीहरि:||
वास्तविक दृष्टिसे देखा जाय तो शत्रुके द्वारा हमारा भला ही होता है। वह हमारा बुरा कर ही नहीं सकता। कारण कि वह वस्तुओंतक ही पहुँचता है, स्वयंतक पहुँचता ही नहीं । अतः नाशवान्के नाशके सिवाय और वह कर ही क्या सकता है ? नाशवान्के नाशसे हमारा भला ही होगा। वास्तवमें हमारा नुकसान हमारा भाव बिगड़नेसे ही होता है।- साधक संजीवनी ६ । ६ परि०
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साधक संजीवनी ६ । ६ परि०··
संसारमें आचरणोंकी ही मुख्यता है, आचरणोंका ही असर पड़ता है, आचरणोंसे ही मनुष्यकी परीक्षा होती है, आचरणोंसे ही श्रद्धा अश्रद्धा होती है, स्वाभाविक दृष्टि आचरणोंपर ही पड़ती है और आचरणोंसे ही सद्भाव-दुर्भाव पैदा होते हैं।
||श्रीहरि:||
संसारमें आचरणोंकी ही मुख्यता है, आचरणोंका ही असर पड़ता है, आचरणोंसे ही मनुष्यकी परीक्षा होती है, आचरणोंसे ही श्रद्धा अश्रद्धा होती है, स्वाभाविक दृष्टि आचरणोंपर ही पड़ती है और आचरणोंसे ही सद्भाव-दुर्भाव पैदा होते हैं।- साधक संजीवनी ६।९
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साधक संजीवनी ६।९··
मनुष्य जिस किसीका भी पूजन करे, वह तत्त्वसे भगवान्का ही पूजन होता है । परन्तु पूजकको लाभ तो अपनी-अपनी भावनाके अनुसार ही होता है।
||श्रीहरि:||
मनुष्य जिस किसीका भी पूजन करे, वह तत्त्वसे भगवान्का ही पूजन होता है । परन्तु पूजकको लाभ तो अपनी-अपनी भावनाके अनुसार ही होता है।- साधक संजीवनी ९।२३
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साधक संजीवनी ९।२३··
यह नियम है कि जो वस्तु उत्पत्ति - विनाशशील होती है, उसके आरम्भ और अन्तमें जो तत्त्व रहता है, वही तत्त्व उसके मध्यमें भी रहता है ( चाहे दीखे या न दीखे ) अर्थात् जो वस्तु जिस तत्त्वसे उत्पन्न होती है और जिसमें लीन होती है, उस वस्तुके आदि, मध्य और अन्तमें ( सब समयमें) वही तत्त्व रहता है।
||श्रीहरि:||
यह नियम है कि जो वस्तु उत्पत्ति - विनाशशील होती है, उसके आरम्भ और अन्तमें जो तत्त्व रहता है, वही तत्त्व उसके मध्यमें भी रहता है ( चाहे दीखे या न दीखे ) अर्थात् जो वस्तु जिस तत्त्वसे उत्पन्न होती है और जिसमें लीन होती है, उस वस्तुके आदि, मध्य और अन्तमें ( सब समयमें) वही तत्त्व रहता है।- साधक संजीवनी १०।२०
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साधक संजीवनी १०।२०··
यद्यपि जिस किसीमें जो भी विशेषता है, वह परमात्माकी है तथापि जिनसे हमें लाभ हुआ है अथवा हो रहा है, उनके हम जरूर कृतज्ञ बनें, उनकी सेवा करें। परन्तु उनकी व्यक्तिगत विशेषता मानकर वहाँ फँस न जायँ- यह सावधानी रखें।
||श्रीहरि:||
यद्यपि जिस किसीमें जो भी विशेषता है, वह परमात्माकी है तथापि जिनसे हमें लाभ हुआ है अथवा हो रहा है, उनके हम जरूर कृतज्ञ बनें, उनकी सेवा करें। परन्तु उनकी व्यक्तिगत विशेषता मानकर वहाँ फँस न जायँ- यह सावधानी रखें।- साधक संजीवनी १० । ४१
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साधक संजीवनी १० । ४१··
सांसारिक दक्षता (चतुराई) वास्तवमें दक्षता नहीं है। एक दृष्टिसे तो व्यवहारमें अधिक दक्षता होना कलंक ही है; क्योंकि इससे अन्तःकरणमें जड़ पदार्थोंका आदर बढ़ता है, जो मनुष्यके पतनका कारण होता है।
||श्रीहरि:||
सांसारिक दक्षता (चतुराई) वास्तवमें दक्षता नहीं है। एक दृष्टिसे तो व्यवहारमें अधिक दक्षता होना कलंक ही है; क्योंकि इससे अन्तःकरणमें जड़ पदार्थोंका आदर बढ़ता है, जो मनुष्यके पतनका कारण होता है।- साधक संजीवनी १२ । १६
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साधक संजीवनी १२ । १६··
दृश्य पदार्थ (शरीर), देखनेकी शक्ति (नेत्र, मन, बुद्धि) और देखनेवाला ( जीवात्मा ) - इन तीनों में गुणोंकी भिन्नता होनेपर भी तात्त्विक एकता है। कारण कि तात्त्विक एकताके बिना देखनेका आकर्षण, देखनेकी सामर्थ्य और देखनेकी प्रवृत्ति सिद्ध ही नहीं होती।
||श्रीहरि:||
दृश्य पदार्थ (शरीर), देखनेकी शक्ति (नेत्र, मन, बुद्धि) और देखनेवाला ( जीवात्मा ) - इन तीनों में गुणोंकी भिन्नता होनेपर भी तात्त्विक एकता है। कारण कि तात्त्विक एकताके बिना देखनेका आकर्षण, देखनेकी सामर्थ्य और देखनेकी प्रवृत्ति सिद्ध ही नहीं होती।- साधक संजीवनी १३ । १
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साधक संजीवनी १३ । १··
आकर्षण, प्रवृत्ति और प्रवृत्तिकी सिद्धि सजातीयतामें ही होती है। विजातीय वस्तुओंमें न तो आकर्षण होता है, न प्रवृत्ति होती है और न प्रवृत्तिकी सिद्धि ही होती है।
||श्रीहरि:||
आकर्षण, प्रवृत्ति और प्रवृत्तिकी सिद्धि सजातीयतामें ही होती है। विजातीय वस्तुओंमें न तो आकर्षण होता है, न प्रवृत्ति होती है और न प्रवृत्तिकी सिद्धि ही होती है।- साधक संजीवनी ३ । २८ मा.
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ३ । २८ मा.··
प्रकृति, जीवात्मा और परमात्मा - न तो स्त्री हैं, न पुरुष हैं और न नपुंसक ही हैं।
||श्रीहरि:||
प्रकृति, जीवात्मा और परमात्मा - न तो स्त्री हैं, न पुरुष हैं और न नपुंसक ही हैं।- साधक संजीवनी १५ | १६
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी १५ | १६··
संग, शास्त्र और विचार - इन तीनोंसे अच्छे या बुरे संस्कारोंको बल मिलता है, जिससे नये कर्म बनते हैं।
||श्रीहरि:||
संग, शास्त्र और विचार - इन तीनोंसे अच्छे या बुरे संस्कारोंको बल मिलता है, जिससे नये कर्म बनते हैं।- साधक संजीवनी १८ । १४ परि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी १८ । १४ परि०··
कोई झूठी निन्दा करे तो चुप रहो, सफाई मत दो। सत्यकी सफाई देना सत्यका निरादर है।.......कोई पूछे तो सत्य बात कह दे । बिना पूछे लोगोंमें कहनेकी जरूरत नहीं। बिना पूछे सफाई देना सत्यका निरादर है।
||श्रीहरि:||
कोई झूठी निन्दा करे तो चुप रहो, सफाई मत दो। सत्यकी सफाई देना सत्यका निरादर है।.......कोई पूछे तो सत्य बात कह दे । बिना पूछे लोगोंमें कहनेकी जरूरत नहीं। बिना पूछे सफाई देना सत्यका निरादर है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १५-१६
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १५-१६··
निकम्मा, आलसी आदमी पापीसे भी नीचा होता है।
||श्रीहरि:||
निकम्मा, आलसी आदमी पापीसे भी नीचा होता है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ३१
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ३१··
आपके द्वारा किसीका अहित नहीं होना चाहिये। दूसरेके अहितकी बात सोचना पारमार्थिक मार्गमें बड़ी भारी बाधा है। यह दूसरेका नुकसान नहीं है, प्रत्युत अपना नुकसान है। दूसरेका नुकसान तो उतना ही होगा, जितना उसके प्रारब्धमें है, पर अपना नुकसान नया होगा। दूसरेके नुकसानमें उसके पाप नष्ट होंगे, जिससे उसका हित होगा; परन्तु हमारा नया कर्म (पाप) बनेगा, जिससे हमारा अहित होगा। इसलिये वास्तवमें अहित उसीका होता है, जो दूसरेका अहित करता है।
||श्रीहरि:||
आपके द्वारा किसीका अहित नहीं होना चाहिये। दूसरेके अहितकी बात सोचना पारमार्थिक मार्गमें बड़ी भारी बाधा है। यह दूसरेका नुकसान नहीं है, प्रत्युत अपना नुकसान है। दूसरेका नुकसान तो उतना ही होगा, जितना उसके प्रारब्धमें है, पर अपना नुकसान नया होगा। दूसरेके नुकसानमें उसके पाप नष्ट होंगे, जिससे उसका हित होगा; परन्तु हमारा नया कर्म (पाप) बनेगा, जिससे हमारा अहित होगा। इसलिये वास्तवमें अहित उसीका होता है, जो दूसरेका अहित करता है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ३८-३९
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ३८-३९··
दुनियाके लिये रोनेमें और भगवान्के लिये रोनेमें बड़ा फर्क है। दुनियाके लिये रोते हैं तो आँसू गर्म होते हैं और भगवान्के लिये रोते हैं तो आँसू ठण्डे होते हैं । संसारके लिये रोनेवालेके हृदयमें जलन होती है और भगवान्के लिये रोनेवालेके हृदयमें ठण्डक होती है। भगवान्के लिये रोना भी बड़ा मीठा होता है । संसारकी तरफ चलनेमें ही दुःख है। भगवान्की तरफ चलनेमें सुख ही सुख है। भगवान् मिलें तो भी सुख, न मिलें तो भी सुख।
||श्रीहरि:||
दुनियाके लिये रोनेमें और भगवान्के लिये रोनेमें बड़ा फर्क है। दुनियाके लिये रोते हैं तो आँसू गर्म होते हैं और भगवान्के लिये रोते हैं तो आँसू ठण्डे होते हैं । संसारके लिये रोनेवालेके हृदयमें जलन होती है और भगवान्के लिये रोनेवालेके हृदयमें ठण्डक होती है। भगवान्के लिये रोना भी बड़ा मीठा होता है । संसारकी तरफ चलनेमें ही दुःख है। भगवान्की तरफ चलनेमें सुख ही सुख है। भगवान् मिलें तो भी सुख, न मिलें तो भी सुख।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ५८
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ५८··
जो व्यक्ति खुद तो जानता नहीं और दूसरा बताये तो उसकी बात मानता नहीं, उसकी बड़ी दुर्दशा होती है।
||श्रीहरि:||
जो व्यक्ति खुद तो जानता नहीं और दूसरा बताये तो उसकी बात मानता नहीं, उसकी बड़ी दुर्दशा होती है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ९४
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ९४··
आप ऐसा मत समझो कि हम पापी हैं, हमारे कर्म खराब हैं। वह खराबी ऊपर-ऊपर ही रहती है, आपतक नहीं पहुँचती । आपकी सच्चाई सदा आपके साथ रहती है, कभी आपको छोड़ती नहीं।
||श्रीहरि:||
आप ऐसा मत समझो कि हम पापी हैं, हमारे कर्म खराब हैं। वह खराबी ऊपर-ऊपर ही रहती है, आपतक नहीं पहुँचती । आपकी सच्चाई सदा आपके साथ रहती है, कभी आपको छोड़ती नहीं।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ११८
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ११८··
यदि आप समय सार्थक बनाओगे तो जितनी उम्र है, उससे अधिक जीओगे।
||श्रीहरि:||
यदि आप समय सार्थक बनाओगे तो जितनी उम्र है, उससे अधिक जीओगे।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १५१
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १५१··
जो मायाको मानते हैं, वे भगवान्को नहीं मानते, और जो भगवान्को मानते हैं, वे मायाको नहीं मानते। दोनों साथमें नहीं रह सकते । सूर्य और अमावस्याकी रात साथमें कैसे रहेंगे ? माया दीखती है तो ईश्वर नहीं दीखता, और ईश्वर दीखता है तो माया नहीं दीखती।
||श्रीहरि:||
जो मायाको मानते हैं, वे भगवान्को नहीं मानते, और जो भगवान्को मानते हैं, वे मायाको नहीं मानते। दोनों साथमें नहीं रह सकते । सूर्य और अमावस्याकी रात साथमें कैसे रहेंगे ? माया दीखती है तो ईश्वर नहीं दीखता, और ईश्वर दीखता है तो माया नहीं दीखती।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १५७
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १५७··
माया भगवान्की बनायी हुई नहीं है। भूलका नाम माया है। भूल अपनी होती है, भगवान्की नहीं होती। ठीक जाननेसे भूल मिट जाती है । भगवान्में भूल नहीं है।
||श्रीहरि:||
माया भगवान्की बनायी हुई नहीं है। भूलका नाम माया है। भूल अपनी होती है, भगवान्की नहीं होती। ठीक जाननेसे भूल मिट जाती है । भगवान्में भूल नहीं है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १५७
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १५७··
आजकल मनुष्योंमें पारमार्थिक बातोंको जाननेकी जो विशेष व्याकुलता नहीं दिखायी देती, उसका कारण है कि वे धन, कुटुम्ब, मान, बड़ाई, वर्ण, आश्रम, विद्या, बुद्धि, भोग, ऐश्वर्य आदि क्षणिक सुखोंको लेकर सन्तोष करते रहते हैं। इससे उनकी ( वास्तविकताको जाननेकी) व्याकुलता दब जाती है।
||श्रीहरि:||
आजकल मनुष्योंमें पारमार्थिक बातोंको जाननेकी जो विशेष व्याकुलता नहीं दिखायी देती, उसका कारण है कि वे धन, कुटुम्ब, मान, बड़ाई, वर्ण, आश्रम, विद्या, बुद्धि, भोग, ऐश्वर्य आदि क्षणिक सुखोंको लेकर सन्तोष करते रहते हैं। इससे उनकी ( वास्तविकताको जाननेकी) व्याकुलता दब जाती है।- साधक संजीवनी १८ । ७६
पारमार्थिक बातोंमें ज्यों-ज्यों गहरा उतरोगे, त्यों-त्यों वे समझमें आयेंगी। सांसारिक बातोंको ज्यों-ज्यों छोड़ोगे, त्यों-त्यों वे समझमें आयेंगी। भलाई करनेसे समझमें आयेगी, बुराई छोड़नेसे समझमें आयेगी।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ६५
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश ६५··
पारमार्थिक बातोंको समझनेमें दो बड़ी बाधाएँ हैं- पहली, संसारका विषय (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध) और दूसरी, अहंकार । विषयासक्ति और अहंकारके कारण पारमार्थिक बातें ठीक तरहसे समझनेपर भी अँधेरा आ जाता है। विषयासक्तिमें भी पुरुषकी स्त्रीके प्रति और स्त्रीकी पुरुषके प्रति आसक्ति बहुत बाधक है।
||श्रीहरि:||
पारमार्थिक बातोंको समझनेमें दो बड़ी बाधाएँ हैं- पहली, संसारका विषय (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध) और दूसरी, अहंकार । विषयासक्ति और अहंकारके कारण पारमार्थिक बातें ठीक तरहसे समझनेपर भी अँधेरा आ जाता है। विषयासक्तिमें भी पुरुषकी स्त्रीके प्रति और स्त्रीकी पुरुषके प्रति आसक्ति बहुत बाधक है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १९१
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १९१··
जिसके मुखमें नमककी डली रखी हुई है, वह मिश्रीको नहीं समझ सकता। भीतरमें संसारकी सत्ता, महत्ता और अपनापन पकड़ा हुआ है, इसलिये पारमार्थिक बात समझमें नहीं आती।
||श्रीहरि:||
जिसके मुखमें नमककी डली रखी हुई है, वह मिश्रीको नहीं समझ सकता। भीतरमें संसारकी सत्ता, महत्ता और अपनापन पकड़ा हुआ है, इसलिये पारमार्थिक बात समझमें नहीं आती।- स्वातिकी बूँदें २२-२३
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स्वातिकी बूँदें २२-२३··
जैसे आजकल तरह- तरहके वैज्ञानिक आविष्कार हो रहे हैं, ऐसे ही पारमार्थिक विषयमें भी आविष्कार हुए हैं, पर उनको जाननेवाले बहुत कम हैं। जाननेकी इच्छा ही नहीं है।
||श्रीहरि:||
जैसे आजकल तरह- तरहके वैज्ञानिक आविष्कार हो रहे हैं, ऐसे ही पारमार्थिक विषयमें भी आविष्कार हुए हैं, पर उनको जाननेवाले बहुत कम हैं। जाननेकी इच्छा ही नहीं है।- अनन्तकी ओर ९०
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अनन्तकी ओर ९०··
स्वाद और शौकीनीमें लगोगे तो भगवान्में रस पैदा नहीं होगा। जिस चीजका सेवन करो, निर्वाहबुद्धिसे करो। जितनी सादगी रखोगे, उतना बढ़िया है। जितनी शौकीनी करोगे, उतना पतन है। जितनी सादगी रखोगे, उतना खर्चा कम होगा, उतनी वृत्तियाँ ठीक रहेंगी, उतनी शान्ति रहेगी।
||श्रीहरि:||
स्वाद और शौकीनीमें लगोगे तो भगवान्में रस पैदा नहीं होगा। जिस चीजका सेवन करो, निर्वाहबुद्धिसे करो। जितनी सादगी रखोगे, उतना बढ़िया है। जितनी शौकीनी करोगे, उतना पतन है। जितनी सादगी रखोगे, उतना खर्चा कम होगा, उतनी वृत्तियाँ ठीक रहेंगी, उतनी शान्ति रहेगी।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ २१२-२१३
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ २१२-२१३··
सच्चा सन्त मिल जाय तो जल्दी अपना कल्याण कर लो, दूसरी बातोंपर विचार मत करो। ऐसे ही अच्छा ब्राह्मण मिल जाय तो कोई भी जगह हो, कोई भी समय ( तिथि - वार) हो, श्राद्ध- तर्पण कर दो।
||श्रीहरि:||
सच्चा सन्त मिल जाय तो जल्दी अपना कल्याण कर लो, दूसरी बातोंपर विचार मत करो। ऐसे ही अच्छा ब्राह्मण मिल जाय तो कोई भी जगह हो, कोई भी समय ( तिथि - वार) हो, श्राद्ध- तर्पण कर दो।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश २१
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश २१··
व्यापारमें अगर आप केवल दूसरोंका हित ही सोचो तो आपकी दूकान बढ़िया चलेगी। यह मेरी देखी हुई बात है। पूरी ईमानदारीसे काम करनेपर शुरूमें एक-दो बार घाटा लग सकता है, पर पीछे व्यापार बढ़िया चलेगा।
||श्रीहरि:||
व्यापारमें अगर आप केवल दूसरोंका हित ही सोचो तो आपकी दूकान बढ़िया चलेगी। यह मेरी देखी हुई बात है। पूरी ईमानदारीसे काम करनेपर शुरूमें एक-दो बार घाटा लग सकता है, पर पीछे व्यापार बढ़िया चलेगा।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ६४
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश ६४··
अनुचित कर्म करनेसे प्रकृति कुपित होती है। प्रकृति बहुत बलवान् है । वह कुपित हो जाय तो मनुष्य उसका सामना नहीं कर सकता।
||श्रीहरि:||
अनुचित कर्म करनेसे प्रकृति कुपित होती है। प्रकृति बहुत बलवान् है । वह कुपित हो जाय तो मनुष्य उसका सामना नहीं कर सकता।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ९४
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश ९४··
सिनेमासे काम, क्रोध और लोभ - तीनों दोषोंका प्रचार होता है।
||श्रीहरि:||
सिनेमासे काम, क्रोध और लोभ - तीनों दोषोंका प्रचार होता है।- स्वातिकी बूँदें ८३
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स्वातिकी बूँदें ८३··
सिनेमा या टी० वी० देखनेसे चार हानियाँ होती हैं - १. चरित्रकी हानि २. समयकी हानि ३. नेत्र - ज्योतिकी हानि और ४. धनकी हानि।
||श्रीहरि:||
सिनेमा या टी० वी० देखनेसे चार हानियाँ होती हैं - १. चरित्रकी हानि २. समयकी हानि ३. नेत्र - ज्योतिकी हानि और ४. धनकी हानि।- अमृत-बिन्दु ९९५
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अमृत-बिन्दु ९९५··
हम जैसा संग करते हैं, वैसा असर पड़ता है, ऐसे ही हम जिस उपास्यदेवकी उपासना करते हैं, उस उपास्यदेवके गुण हमारेमें स्वतः आ जाते हैं। जैसे, नींबू अथवा मिरचीके अचारका चिन्तन करनेसे मुँह में पानी आ जाता है।
||श्रीहरि:||
हम जैसा संग करते हैं, वैसा असर पड़ता है, ऐसे ही हम जिस उपास्यदेवकी उपासना करते हैं, उस उपास्यदेवके गुण हमारेमें स्वतः आ जाते हैं। जैसे, नींबू अथवा मिरचीके अचारका चिन्तन करनेसे मुँह में पानी आ जाता है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १०१
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १०१··
आप 'दवा' के नामपर चाहे जो खिला दो और 'व्यापार' के नामपर चाहे जो करा लो - यह अच्छी बात नहीं है। इससे बड़ी दुर्दशा होगी।
||श्रीहरि:||
आप 'दवा' के नामपर चाहे जो खिला दो और 'व्यापार' के नामपर चाहे जो करा लो - यह अच्छी बात नहीं है। इससे बड़ी दुर्दशा होगी।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १०४
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १०४··
घरमें काम-धंधा स्वयं करो और सुख-आराम दूसरोंको दो परिवारमें 'मैं करूँ, मैं करूँ' – ऐसा भाव होनेसे आदमी ज्यादा हो जायँगे, काम कम हो जायगा । परन्तु 'तू कर, तू कर' - ऐसा भाव होनेसे आदमी कम हो जायँगे, काम ज्यादा हो जायगा।
||श्रीहरि:||
घरमें काम-धंधा स्वयं करो और सुख-आराम दूसरोंको दो परिवारमें 'मैं करूँ, मैं करूँ' – ऐसा भाव होनेसे आदमी ज्यादा हो जायँगे, काम कम हो जायगा । परन्तु 'तू कर, तू कर' - ऐसा भाव होनेसे आदमी कम हो जायँगे, काम ज्यादा हो जायगा।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १०७
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १०७··
अपने ज्ञानको दूसरेपर मत थोपो खुद उसपर विचार करो। दूसरा माने तो अच्छी बात, न माने तो अच्छी बात। आप अपने ही गुरु, नेता और शासक बन जाओ - 'उद्धरेदात्मनात्मानम्' (गीता ६ । ५) 'अपने द्वारा अपना उद्धार करो।' आप अपना सुधार कर लो तो दुनियामात्रकी सेवाका, उपकारका पुण्य आपको हो जायगा।
||श्रीहरि:||
अपने ज्ञानको दूसरेपर मत थोपो खुद उसपर विचार करो। दूसरा माने तो अच्छी बात, न माने तो अच्छी बात। आप अपने ही गुरु, नेता और शासक बन जाओ - 'उद्धरेदात्मनात्मानम्' (गीता ६ । ५) 'अपने द्वारा अपना उद्धार करो।' आप अपना सुधार कर लो तो दुनियामात्रकी सेवाका, उपकारका पुण्य आपको हो जायगा।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ११६
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश ११६··
उदार व्यक्तिके द्वारा दुनियाका बड़ा हित होता है और कृपण, कंजूस व्यक्तिके द्वारा दुनियाका बड़ा अहित होता है।
||श्रीहरि:||
उदार व्यक्तिके द्वारा दुनियाका बड़ा हित होता है और कृपण, कंजूस व्यक्तिके द्वारा दुनियाका बड़ा अहित होता है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १२२
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १२२··
सब बातोंका पूरा पालन कोई कर सकता ही नहीं कमी सबमें रहती है। कोई आदमी यह नहीं कह सकता कि मेरेमें कोई कमी नहीं है। इसलिये अपनी नीयत ठीक होनी चाहिये। नीयतमें कमी न रखें।
||श्रीहरि:||
सब बातोंका पूरा पालन कोई कर सकता ही नहीं कमी सबमें रहती है। कोई आदमी यह नहीं कह सकता कि मेरेमें कोई कमी नहीं है। इसलिये अपनी नीयत ठीक होनी चाहिये। नीयतमें कमी न रखें।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १३८
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १३८··
पुस्तकोंमें मार्मिक बातें बहुत कम मिलती हैं। कारण कि पुस्तकें प्रायः पण्डितोंकी बनायी हुई मिलती हैं और उन्हींका अध्ययन करते हैं। अनुभवी पुरुषोंकी पुस्तकें बहुत कम हैं और वे पण्डिताईकी पुस्तकोंके आगे छिप गयीं।
||श्रीहरि:||
पुस्तकोंमें मार्मिक बातें बहुत कम मिलती हैं। कारण कि पुस्तकें प्रायः पण्डितोंकी बनायी हुई मिलती हैं और उन्हींका अध्ययन करते हैं। अनुभवी पुरुषोंकी पुस्तकें बहुत कम हैं और वे पण्डिताईकी पुस्तकोंके आगे छिप गयीं।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ २०
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ २०··
आप अपनी मरजीसे कर्म करोगे तो फल आपकी मरजीसे नहीं मिलेगा, प्रत्युत कर्मके अनुसार मिलेगा। इसलिये 'करनेमें सावधान रहो और होनेमें प्रसन्न रहो'- ये दो बातें याद कर लो।
||श्रीहरि:||
आप अपनी मरजीसे कर्म करोगे तो फल आपकी मरजीसे नहीं मिलेगा, प्रत्युत कर्मके अनुसार मिलेगा। इसलिये 'करनेमें सावधान रहो और होनेमें प्रसन्न रहो'- ये दो बातें याद कर लो।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ १५२
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ १५२··
मनुष्योंको पैदा न होने देना और पशुओंको मार देना - यह देशको नष्ट करनेका तरीका है।
||श्रीहरि:||
मनुष्योंको पैदा न होने देना और पशुओंको मार देना - यह देशको नष्ट करनेका तरीका है।- सत्संगके फूल ८५
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सत्संगके फूल ८५··
पशुओंके बिना मनुष्योंका जीना मुश्किल है। पशुओंसे ही मनुष्य जीते हैं। मनुष्योंकी जीवनी - शक्ति पशुओंसे ही आती है।
||श्रीहरि:||
पशुओंके बिना मनुष्योंका जीना मुश्किल है। पशुओंसे ही मनुष्य जीते हैं। मनुष्योंकी जीवनी - शक्ति पशुओंसे ही आती है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश २२५
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश २२५··
आप भगवान्से तो कृपा चाहते हो, पर पशुओंपर कृपा करते नहीं, तो आप कृपा पानेके अधिकारी नहीं हो। जो पशुओंको मारता है, मांस खाता है, वह कृपाका पात्र नहीं होता। आप अपनेसे कमजोरको मार देते हो और खा जाते हो, तो आपको भी कोई मार दे तो आप रोनेके पश्चात्ताप करनेके, शिकायत करनेके भी पात्र नहीं हो।
||श्रीहरि:||
आप भगवान्से तो कृपा चाहते हो, पर पशुओंपर कृपा करते नहीं, तो आप कृपा पानेके अधिकारी नहीं हो। जो पशुओंको मारता है, मांस खाता है, वह कृपाका पात्र नहीं होता। आप अपनेसे कमजोरको मार देते हो और खा जाते हो, तो आपको भी कोई मार दे तो आप रोनेके पश्चात्ताप करनेके, शिकायत करनेके भी पात्र नहीं हो।- अनन्तकी ओर ६२
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अनन्तकी ओर ६२··
जो दूसरोंकी रक्षा नहीं करता, पर अपनी रक्षा चाहता है, वह बेईमान है। आप अपनेसे छोटोंकी रक्षा तो करते नहीं, और बड़ोंसे अपनी रक्षा चाहते हो – यह अन्याय है। भगवान् से अपनी रक्षा चाहते हो तो भगवान् रक्षा करेंगे नहीं। आप छोटोंकी रक्षा करोगे तो बड़े भी आपकी रक्षा करेंगे। आप छोटोंकी रक्षा नहीं करोगे तो आपकी रक्षा कौन करेगा और क्यों करेगा?
||श्रीहरि:||
जो दूसरोंकी रक्षा नहीं करता, पर अपनी रक्षा चाहता है, वह बेईमान है। आप अपनेसे छोटोंकी रक्षा तो करते नहीं, और बड़ोंसे अपनी रक्षा चाहते हो – यह अन्याय है। भगवान् से अपनी रक्षा चाहते हो तो भगवान् रक्षा करेंगे नहीं। आप छोटोंकी रक्षा करोगे तो बड़े भी आपकी रक्षा करेंगे। आप छोटोंकी रक्षा नहीं करोगे तो आपकी रक्षा कौन करेगा और क्यों करेगा?- अनन्तकी ओर ६३
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अनन्तकी ओर ६३··
मायाके पास दो ही चीजें हैं- भोग और मोक्ष। अगर भोग लेते हो तो लेते ही रहो..... लेते ही रहो...... युगों-युगों तक लेते रहो। अगर मोक्ष ले लो तो माया निहाल हो जायगी कि मेरा पिण्ड छूट गया । जो मायाको छोड़ देते हैं, माया उनकी सेवा करती है।
||श्रीहरि:||
मायाके पास दो ही चीजें हैं- भोग और मोक्ष। अगर भोग लेते हो तो लेते ही रहो..... लेते ही रहो...... युगों-युगों तक लेते रहो। अगर मोक्ष ले लो तो माया निहाल हो जायगी कि मेरा पिण्ड छूट गया । जो मायाको छोड़ देते हैं, माया उनकी सेवा करती है।- अनन्तकी ओर ६४
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अनन्तकी ओर ६४··
आजकल आध्यात्मिक पत्रिकाओंमें विद्वत्ताकी तरफ तो ध्यान है, पर साधनकी तरफ ध्यान नहीं है । पारमार्थिक उन्नति साधकोंके लेखों द्वारा होती है, विद्वानोंके लेखों द्वारा नहीं होती। विद्वानोंमें विद्याका एक अभिमान होता है। वे सुन्दर लिखते हैं, सुन्दर बात कहते हैं, पर साधन नहीं होनेसे वे बातें ठोस नहीं होतीं।
||श्रीहरि:||
आजकल आध्यात्मिक पत्रिकाओंमें विद्वत्ताकी तरफ तो ध्यान है, पर साधनकी तरफ ध्यान नहीं है । पारमार्थिक उन्नति साधकोंके लेखों द्वारा होती है, विद्वानोंके लेखों द्वारा नहीं होती। विद्वानोंमें विद्याका एक अभिमान होता है। वे सुन्दर लिखते हैं, सुन्दर बात कहते हैं, पर साधन नहीं होनेसे वे बातें ठोस नहीं होतीं।- अनन्तकी ओर १७४
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अनन्तकी ओर १७४··
प्रेमपूर्वक दी हुई वस्तु खानेसे नुकसान नहीं करती। प्रेमपूर्वक बनाया हुआ भोजन तीन-चार दिनतक खराब नहीं होता। ऐसे ही भिक्षाका अन्न भी खराबी नहीं करता।
||श्रीहरि:||
प्रेमपूर्वक दी हुई वस्तु खानेसे नुकसान नहीं करती। प्रेमपूर्वक बनाया हुआ भोजन तीन-चार दिनतक खराब नहीं होता। ऐसे ही भिक्षाका अन्न भी खराबी नहीं करता।- स्वातिकी बूँदें ११
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स्वातिकी बूँदें ११··
प्रेमपूर्वक दी हुई जड़ चीजमें भी चेतनता, विलक्षणता आ जाती है।
||श्रीहरि:||
प्रेमपूर्वक दी हुई जड़ चीजमें भी चेतनता, विलक्षणता आ जाती है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ११
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश ११··
शासनसे दुनियाका सुधार नहीं होता। प्रेमसे सुधार होता है। प्रेमसे जो काम होता है, वह शासनसे नहीं होता। शासन करोगे तो परिणाममें वह आपपर शासन करेगा । शासनमें रहे हुए आदमीका सुधार नहीं होता। शिष्यपर गुरुका अथवा बालकपर माँका शासन नहीं है, प्रत्युत स्नेह है। वह स्नेह काम करता है।
||श्रीहरि:||
शासनसे दुनियाका सुधार नहीं होता। प्रेमसे सुधार होता है। प्रेमसे जो काम होता है, वह शासनसे नहीं होता। शासन करोगे तो परिणाममें वह आपपर शासन करेगा । शासनमें रहे हुए आदमीका सुधार नहीं होता। शिष्यपर गुरुका अथवा बालकपर माँका शासन नहीं है, प्रत्युत स्नेह है। वह स्नेह काम करता है।- बन गये आप अकेले सब कुछ १६१
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बन गये आप अकेले सब कुछ १६१··
अपना व्यक्तिगत सुधार करो। दुनियाकी चिन्ता मत करो। आप अपना सुधार करो तो दूसरोंका भी सुधार होगा, पर दूसरोंका सुधार करोगे तो अपना सुधार नहीं होगा।
||श्रीहरि:||
अपना व्यक्तिगत सुधार करो। दुनियाकी चिन्ता मत करो। आप अपना सुधार करो तो दूसरोंका भी सुधार होगा, पर दूसरोंका सुधार करोगे तो अपना सुधार नहीं होगा।- अनन्तकी ओर १८३
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
अनन्तकी ओर १८३··
पढ़ानेसे जितना ज्ञान होता है, उतना पढ़नेसे नहीं होता।
||श्रीहरि:||
पढ़ानेसे जितना ज्ञान होता है, उतना पढ़नेसे नहीं होता।- स्वातिकी बूँदें १३
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
स्वातिकी बूँदें १३··
हम सत्य बोलेंगे' – इसकी अपेक्षा 'हम झूठ नहीं बोलेंगे' – यह नियम लेना बढ़िया है। कारण कि 'हम सत्य बोलेंगे' - ऐसा नियम लेनेसे व्यवहारमें बहुत कठिनाई होगी।
||श्रीहरि:||
हम सत्य बोलेंगे' – इसकी अपेक्षा 'हम झूठ नहीं बोलेंगे' – यह नियम लेना बढ़िया है। कारण कि 'हम सत्य बोलेंगे' - ऐसा नियम लेनेसे व्यवहारमें बहुत कठिनाई होगी।- स्वातिकी बूँदें १९
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
स्वातिकी बूँदें १९··
वास्तवमें प्रचार हमारे अनुभवका होता है। तात्पर्य है कि जो बात हमारे जीवनमें आ जाती है, उसका प्रचार होता है। नकली बातका प्रचार नहीं होता।
||श्रीहरि:||
वास्तवमें प्रचार हमारे अनुभवका होता है। तात्पर्य है कि जो बात हमारे जीवनमें आ जाती है, उसका प्रचार होता है। नकली बातका प्रचार नहीं होता।- स्वातिकी बूँदें ८७
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स्वातिकी बूँदें ८७··
भूल मिटनेपर फिर पुनः भूल नहीं होती। यदि होती है तो भूल मिटी नहीं है, आवृत हुई है।
||श्रीहरि:||
भूल मिटनेपर फिर पुनः भूल नहीं होती। यदि होती है तो भूल मिटी नहीं है, आवृत हुई है।- स्वातिकी बूँदें ११५
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
स्वातिकी बूँदें ११५··
या तो सबको बुरा मानो, या सबको भला मानो द्वन्द्व नहीं होना चाहिये। सबको बुरा मानोगे तो सबसे उपरति हो जायगी और परमात्मामें स्थिति हो जायगी।
||श्रीहरि:||
या तो सबको बुरा मानो, या सबको भला मानो द्वन्द्व नहीं होना चाहिये। सबको बुरा मानोगे तो सबसे उपरति हो जायगी और परमात्मामें स्थिति हो जायगी।- स्वातिकी बूँदें १२१
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स्वातिकी बूँदें १२१··
लोग हमें जितना अच्छा समझते हैं, उतने अच्छे हम नहीं होते और लोग हमें जितना बुरा समझते हैं, उससे हम अधिक बुरे होते हैं - इस वास्तविकताको समझकर 'लोग हमें अच्छा समझें'- इस इच्छाका त्याग कर देना चाहिये और अपनी दृष्टिमें अच्छे से अच्छा बननेकी चेष्टा करनी चाहिये।
||श्रीहरि:||
लोग हमें जितना अच्छा समझते हैं, उतने अच्छे हम नहीं होते और लोग हमें जितना बुरा समझते हैं, उससे हम अधिक बुरे होते हैं - इस वास्तविकताको समझकर 'लोग हमें अच्छा समझें'- इस इच्छाका त्याग कर देना चाहिये और अपनी दृष्टिमें अच्छे से अच्छा बननेकी चेष्टा करनी चाहिये।- अमृत-बिन्दु ९१३
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अमृत-बिन्दु ९१३··
संयोगजन्य सुखकी लालसा जितनी घातक है, उतना सुख घातक नहीं है। शरीर बना रहे- यह भाव जितना घातक है, उतना शरीर घातक नहीं है । कुटुम्बका मोह जितना घातक है, उतना कुटुम्ब घातक नहीं है। रुपयोंका लोभ जितना घातक है, उतने रुपये घातक नहीं हैं।
||श्रीहरि:||
संयोगजन्य सुखकी लालसा जितनी घातक है, उतना सुख घातक नहीं है। शरीर बना रहे- यह भाव जितना घातक है, उतना शरीर घातक नहीं है । कुटुम्बका मोह जितना घातक है, उतना कुटुम्ब घातक नहीं है। रुपयोंका लोभ जितना घातक है, उतने रुपये घातक नहीं हैं।- अमृत-बिन्दु ९१४
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अमृत-बिन्दु ९१४··
जो दीखता है, उस संसारको अपना नहीं मानना है, प्रत्युत उसकी सेवा करनी है और जो नहीं दीखता, उस भगवान्को अपना मानना है तथा उसको याद करना है।
||श्रीहरि:||
जो दीखता है, उस संसारको अपना नहीं मानना है, प्रत्युत उसकी सेवा करनी है और जो नहीं दीखता, उस भगवान्को अपना मानना है तथा उसको याद करना है।- अमृत-बिन्दु ९१५
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अमृत-बिन्दु ९१५··
जिसको पीछे सुलटा न कर सकें, ऐसा उलटा काम कभी नहीं करना चाहिये।
||श्रीहरि:||
जिसको पीछे सुलटा न कर सकें, ऐसा उलटा काम कभी नहीं करना चाहिये।- अमृत-बिन्दु ९३५
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अमृत-बिन्दु ९३५··
बिगाड़ करना ही हो तो कम-से-कम उतना बिगाड़ करो, जिसका पीछे सुधार कर सको।
||श्रीहरि:||
बिगाड़ करना ही हो तो कम-से-कम उतना बिगाड़ करो, जिसका पीछे सुधार कर सको।- सत्संगके फूल ९१
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सत्संगके फूल ९१··
विष्णु, शंकर, गणेश, सूर्य और देवी - ये पाँचों एक ही हैं। विष्णुकी बुद्धि 'गणेश' हैं, अहम् 'शंकर' हैं, नेत्र 'सूर्य' हैं और शक्ति 'देवी' है।
||श्रीहरि:||
विष्णु, शंकर, गणेश, सूर्य और देवी - ये पाँचों एक ही हैं। विष्णुकी बुद्धि 'गणेश' हैं, अहम् 'शंकर' हैं, नेत्र 'सूर्य' हैं और शक्ति 'देवी' है।- स्वातिकी बूँदें १४२
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स्वातिकी बूँदें १४२··
शिष्य दुर्लभ है, गुरु नहीं। सेवक दुर्लभ है, सेव्य नहीं । जिज्ञासु दुर्लभ है, ज्ञान नहीं । भक्त दुर्लभ है, भगवान् नहीं।
||श्रीहरि:||
शिष्य दुर्लभ है, गुरु नहीं। सेवक दुर्लभ है, सेव्य नहीं । जिज्ञासु दुर्लभ है, ज्ञान नहीं । भक्त दुर्लभ है, भगवान् नहीं।- अमृत-बिन्दु १४९
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अमृत-बिन्दु १४९··
विवेकशक्ति केवल देहाभिमान मिटानेके लिये है, विश्वासशक्ति केवल भगवान्को माननेके लिये है और क्रियाशक्ति केवल राग मिटानेके लिये है।
||श्रीहरि:||
विवेकशक्ति केवल देहाभिमान मिटानेके लिये है, विश्वासशक्ति केवल भगवान्को माननेके लिये है और क्रियाशक्ति केवल राग मिटानेके लिये है।- स्वातिकी बूँदें ९७
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स्वातिकी बूँदें ९७··
द्वैत और अद्वैत केवल मान्यता है । तत्त्वमें न द्वैत है, न अद्वैत।
||श्रीहरि:||
द्वैत और अद्वैत केवल मान्यता है । तत्त्वमें न द्वैत है, न अद्वैत।- अमृत-बिन्दु ९३७
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अमृत-बिन्दु ९३७··
ठीक - बेठीक हमारी दृष्टिमें होता है। भगवान्की दृष्टिमें सब ठीक ही ठीक होता है, बेठीक होता ही नहीं।
||श्रीहरि:||
ठीक - बेठीक हमारी दृष्टिमें होता है। भगवान्की दृष्टिमें सब ठीक ही ठीक होता है, बेठीक होता ही नहीं।- अमृत-बिन्दु ९४०
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अमृत-बिन्दु ९४०··
अगर अपनी सन्तानसे सुख चाहते हो तो अपने माता- पिताको सुख पहुँचाओ, उनकी सेवा करो।
||श्रीहरि:||
अगर अपनी सन्तानसे सुख चाहते हो तो अपने माता- पिताको सुख पहुँचाओ, उनकी सेवा करो।- अमृत-बिन्दु ९५२
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अमृत-बिन्दु ९५२··
जब हम सबकी बात नहीं मानते तो फिर दूसरा कोई हमारी बात न माने तो हमें नाराज नहीं होना चाहिये।
||श्रीहरि:||
जब हम सबकी बात नहीं मानते तो फिर दूसरा कोई हमारी बात न माने तो हमें नाराज नहीं होना चाहिये।- अमृत-बिन्दु ९८०
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अमृत-बिन्दु ९८०··
यह नियम ले लें कि कोई हमारे मनकी बात पूरी न करे तो हम नाराज नहीं होंगे।
||श्रीहरि:||
यह नियम ले लें कि कोई हमारे मनकी बात पूरी न करे तो हम नाराज नहीं होंगे।- अमृत-बिन्दु ९२६
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अमृत-बिन्दु ९२६··
आशीर्वाद दीजिये - ऐसा न कहकर आशीर्वाद पानेका पात्र बनना चाहिये।
||श्रीहरि:||
आशीर्वाद दीजिये - ऐसा न कहकर आशीर्वाद पानेका पात्र बनना चाहिये।- अमृत-बिन्दु ९८६
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अमृत-बिन्दु ९८६··
जो भगवान्की तरफ चलनेमें रोकते हैं, वे बहुत बड़ा अपराध करते हैं। ब्रह्माजीने ग्वालबालोंको भगवान्से अलग किया तो भगवान् ब्रह्माजीसे बोले ही नहीं । ऊँचे-से-ऊँचे पदपर स्थित ब्रह्माजीसे भी भगवान् नाराज हो गये। जब ब्रह्माजीका भी अपराध भगवान् सह नहीं सके, फिर आप- हम क्या चीज हैं ?
||श्रीहरि:||
जो भगवान्की तरफ चलनेमें रोकते हैं, वे बहुत बड़ा अपराध करते हैं। ब्रह्माजीने ग्वालबालोंको भगवान्से अलग किया तो भगवान् ब्रह्माजीसे बोले ही नहीं । ऊँचे-से-ऊँचे पदपर स्थित ब्रह्माजीसे भी भगवान् नाराज हो गये। जब ब्रह्माजीका भी अपराध भगवान् सह नहीं सके, फिर आप- हम क्या चीज हैं ?- स्वातिकी बूँदें ७५
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स्वातिकी बूँदें ७५··
भगवान् बड़े निष्ठुर हैं - यह भक्त कहता है, संसार नहीं । निष्ठुर कहना भगवान्की स्तुति है।
||श्रीहरि:||
भगवान् बड़े निष्ठुर हैं - यह भक्त कहता है, संसार नहीं । निष्ठुर कहना भगवान्की स्तुति है।- स्वातिकी बूँदें ३२
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स्वातिकी बूँदें ३२··
जब भगवान्की तरफ रुचि हो जाय, वही पवित्र दिन है, वही निर्मल समय है और वही सम्पत्ति है। जब भगवान्की तरफ रुचि नहीं होती, वही काला दिन है, वही विपत्ति है।
||श्रीहरि:||
जब भगवान्की तरफ रुचि हो जाय, वही पवित्र दिन है, वही निर्मल समय है और वही सम्पत्ति है। जब भगवान्की तरफ रुचि नहीं होती, वही काला दिन है, वही विपत्ति है।- साधक संजीवनी ७।१६
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साधक संजीवनी ७।१६··
अपने एक निश्चयसे जो शुद्धि होती है, पवित्रता आती है, वह यज्ञ, दान, तप आदि क्रियाओंसे नहीं आती । कारण कि 'हमें तो एक भगवान्की तरफ ही चलना है, यह निश्चय स्वयंमें होता है और यज्ञ, दान आदि क्रियाएँ बाहरसे होती हैं।
||श्रीहरि:||
अपने एक निश्चयसे जो शुद्धि होती है, पवित्रता आती है, वह यज्ञ, दान, तप आदि क्रियाओंसे नहीं आती । कारण कि 'हमें तो एक भगवान्की तरफ ही चलना है, यह निश्चय स्वयंमें होता है और यज्ञ, दान आदि क्रियाएँ बाहरसे होती हैं।- साधक संजीवनी ७।२८
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साधक संजीवनी ७।२८··
परमात्माकी तरफ चलना है, संसारको छोड़ना है और हमें चलना है अर्थात् 'हमें संसारसे विमुख होकर परमात्मा के सम्मुख होना है - यही सम्पूर्ण दर्शनोंका सार है।
||श्रीहरि:||
परमात्माकी तरफ चलना है, संसारको छोड़ना है और हमें चलना है अर्थात् 'हमें संसारसे विमुख होकर परमात्मा के सम्मुख होना है - यही सम्पूर्ण दर्शनोंका सार है।- साधक संजीवनी ७।२८
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साधक संजीवनी ७।२८··
संसारकी चीजें माँगनेकी नहीं होतीं, वे तो प्रारब्धके अनुसार स्वतः मिलती है। माँगनेकी चीज है- भगवान्का विश्वास, भक्ति, प्रेम।
||श्रीहरि:||
संसारकी चीजें माँगनेकी नहीं होतीं, वे तो प्रारब्धके अनुसार स्वतः मिलती है। माँगनेकी चीज है- भगवान्का विश्वास, भक्ति, प्रेम।- स्वातिकी बूँदें ९५
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स्वातिकी बूँदें ९५··
संसार (शरीर) किसीके भी साथ कभी रह नहीं सकता तथा कोई भी संसारके साथ कभी रह नहीं सकता, और परमात्मा किसीसे भी कभी अलग हो नहीं सकते और कोई भी परमात्मासे कभी अलग हो नहीं सकता - यह वास्तविकता है।
||श्रीहरि:||
संसार (शरीर) किसीके भी साथ कभी रह नहीं सकता तथा कोई भी संसारके साथ कभी रह नहीं सकता, और परमात्मा किसीसे भी कभी अलग हो नहीं सकते और कोई भी परमात्मासे कभी अलग हो नहीं सकता - यह वास्तविकता है।- साधक संजीवनी १० । ३
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साधक संजीवनी १० । ३··
प्राप्ति उसीकी होती है, जो नित्यप्राप्त है और निवृत्ति उसीकी होती है, जो नित्यनिवृत्त है।
||श्रीहरि:||
प्राप्ति उसीकी होती है, जो नित्यप्राप्त है और निवृत्ति उसीकी होती है, जो नित्यनिवृत्त है।- साधक संजीवनी ६ । २३ परि०
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साधक संजीवनी ६ । २३ परि०··
जो कभी अलग होगा, वह (शरीर ) अभी अलग है और जो कभी मिलेगा, वह (परमात्मा) अभी मिला हुआ है।
||श्रीहरि:||
जो कभी अलग होगा, वह (शरीर ) अभी अलग है और जो कभी मिलेगा, वह (परमात्मा) अभी मिला हुआ है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ११७
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ११७··
आप इस एक बातको मान लें कि हम शरीरके साथ रहनेवाले नहीं हैं तो आप जीवन्मुक्त हो जायँगे । और इस बातको मान लें कि हम परमात्माके साथ रहनेवाले हैं तो आप भक्त हो जायँगे।
||श्रीहरि:||
आप इस एक बातको मान लें कि हम शरीरके साथ रहनेवाले नहीं हैं तो आप जीवन्मुक्त हो जायँगे । और इस बातको मान लें कि हम परमात्माके साथ रहनेवाले हैं तो आप भक्त हो जायँगे।- ईसवर अंस जीव अबिनासी ६२
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ईसवर अंस जीव अबिनासी ६२··
हम मुसाफिरीमें हैं ही नहीं, हम तो अपने घरमें बैठे हैं ।.......मुसाफिरी तो तब हो, जब भगवान्से अलग हों। हम भगवान् से अलग होते नहीं, हो सकते ही नहीं। हम भगवान्से दूर गये ही नहीं । भगवान्की गोदीमें ही बैठे हैं।
||श्रीहरि:||
हम मुसाफिरीमें हैं ही नहीं, हम तो अपने घरमें बैठे हैं ।.......मुसाफिरी तो तब हो, जब भगवान्से अलग हों। हम भगवान् से अलग होते नहीं, हो सकते ही नहीं। हम भगवान्से दूर गये ही नहीं । भगवान्की गोदीमें ही बैठे हैं।- मैं नहीं, मेरा नहीं ६३-६४
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मैं नहीं, मेरा नहीं ६३-६४··
मेरे मनमें तो एक ही बात आयी है कि बाप-बेटा एक हो जाओ। आप सब भगवान्के बेटे हैं और भगवान् सबके पिता हैं। आप बाप-बेटे एक तरफ हो जाओ और शरीर-संसार एक तरफ हो जायँ।
||श्रीहरि:||
मेरे मनमें तो एक ही बात आयी है कि बाप-बेटा एक हो जाओ। आप सब भगवान्के बेटे हैं और भगवान् सबके पिता हैं। आप बाप-बेटे एक तरफ हो जाओ और शरीर-संसार एक तरफ हो जायँ।- ईसवर अंस जीव अबिनासी ६९