भगवान् मनुष्यशरीरके साथ-साथ कल्याणकी सब सामग्री भी देते हैं। वे मनुष्यको 'विवेक'- रूपी गुरु देते हैं, जिससे वह सत् और असत् कर्तव्य और अकर्तव्य, ठीक और बेठीक आदिको जान सकता है। इस विवेकसे बढ़कर कोई गुरु नहीं है।
||श्रीहरि:||
भगवान् मनुष्यशरीरके साथ-साथ कल्याणकी सब सामग्री भी देते हैं। वे मनुष्यको 'विवेक'- रूपी गुरु देते हैं, जिससे वह सत् और असत् कर्तव्य और अकर्तव्य, ठीक और बेठीक आदिको जान सकता है। इस विवेकसे बढ़कर कोई गुरु नहीं है।- क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ? २५
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क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ? २५··
विवेक कर्मोंका फल नहीं है, प्रत्युत भगवत्प्रदत्त है। यह बुद्धिमें आता है, बुद्धिका गुण नहीं है। अतः बुद्धि तो कर्मानुसारिणी होती है, पर विवेक कर्मानुसारी नहीं होता। अगर विवेकको पुण्य कर्मोंका फल मानें तो यह शंका पैदा होगी कि बिना विवेकके पुण्यकर्म कैसे हुए? कारण कि ये पुण्यकर्म हैं और ये पापकर्म हैं- ऐसा विवेक पहले होनेपर ही मनुष्य पापोंका त्याग करके पुण्यकर्म करता है। अतः विवेक पुण्यकर्मों का फल नहीं है, प्रत्युत यह पुण्यकर्मोंका कारण और अनादि है।
||श्रीहरि:||
विवेक कर्मोंका फल नहीं है, प्रत्युत भगवत्प्रदत्त है। यह बुद्धिमें आता है, बुद्धिका गुण नहीं है। अतः बुद्धि तो कर्मानुसारिणी होती है, पर विवेक कर्मानुसारी नहीं होता। अगर विवेकको पुण्य कर्मोंका फल मानें तो यह शंका पैदा होगी कि बिना विवेकके पुण्यकर्म कैसे हुए? कारण कि ये पुण्यकर्म हैं और ये पापकर्म हैं- ऐसा विवेक पहले होनेपर ही मनुष्य पापोंका त्याग करके पुण्यकर्म करता है। अतः विवेक पुण्यकर्मों का फल नहीं है, प्रत्युत यह पुण्यकर्मोंका कारण और अनादि है।- साधन-सुधा-सिन्धु ८४०
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साधन-सुधा-सिन्धु ८४०··
जैसे प्रकृति और पुरुष अनादि हैं (गीता १३ । १९), ऐसे ही उनकी भिन्नताको प्रकट करनेवाला विवेक भी अनादि है । यही विवेक बुद्धिमें प्रकट होता है। यह भगवत्प्रदत्त विवेक मात्र प्राणियोंको नित्यप्राप्त है।
||श्रीहरि:||
जैसे प्रकृति और पुरुष अनादि हैं (गीता १३ । १९), ऐसे ही उनकी भिन्नताको प्रकट करनेवाला विवेक भी अनादि है । यही विवेक बुद्धिमें प्रकट होता है। यह भगवत्प्रदत्त विवेक मात्र प्राणियोंको नित्यप्राप्त है।- साधक संजीवनी ३। अव०
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साधक संजीवनी ३। अव०··
विवेक प्राणिमात्रमें है । पशु-पक्षी आदि मनुष्येतर योनियोंमें यह विवेक विकसित नहीं होता और केवल जीवन-निर्वाहतक सीमित रहता है । परन्तु मनुष्यमें यदि कामना न हो तो यह विवेक विकसित हो सकता है; क्योंकि कामनाके कारण ही मनुष्यका विवेक ढका रहता है।
||श्रीहरि:||
विवेक प्राणिमात्रमें है । पशु-पक्षी आदि मनुष्येतर योनियोंमें यह विवेक विकसित नहीं होता और केवल जीवन-निर्वाहतक सीमित रहता है । परन्तु मनुष्यमें यदि कामना न हो तो यह विवेक विकसित हो सकता है; क्योंकि कामनाके कारण ही मनुष्यका विवेक ढका रहता है।- साधक संजीवनी ३ । ३९
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साधक संजीवनी ३ । ३९··
विश्वास, सम्बन्ध और कर्म- ये तीनों ही विवेकविरोधी नहीं होने चाहिये। संसारपर विश्वास करना 'विवेकविरोधी विश्वास' है। संसारको अपना मानना 'विवेकविरोधी सम्बन्ध' है। शास्त्रनिषिद्ध तथा सकामभावसे कर्म करना 'विवेकविरोधी कर्म' है।
||श्रीहरि:||
विश्वास, सम्बन्ध और कर्म- ये तीनों ही विवेकविरोधी नहीं होने चाहिये। संसारपर विश्वास करना 'विवेकविरोधी विश्वास' है। संसारको अपना मानना 'विवेकविरोधी सम्बन्ध' है। शास्त्रनिषिद्ध तथा सकामभावसे कर्म करना 'विवेकविरोधी कर्म' है।- प्रश्नोत्तरमणिमाला १९८
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प्रश्नोत्तरमणिमाला १९८··
अगर मनुष्य विवेकका आदर करे अर्थात् विवेक- विरुद्ध कार्य न करे तो उसका विवेक गुरु आदिकी सहायता के बिना स्वतः बढ़ जाता है। अगर वह जान-बूझकर न करनेलायक काम करेगा तो विवेक नहीं बढ़ेगा। विवेक - विरुद्ध कार्य करनेसे विवेकका बढ़ना रुक जाता है।
||श्रीहरि:||
अगर मनुष्य विवेकका आदर करे अर्थात् विवेक- विरुद्ध कार्य न करे तो उसका विवेक गुरु आदिकी सहायता के बिना स्वतः बढ़ जाता है। अगर वह जान-बूझकर न करनेलायक काम करेगा तो विवेक नहीं बढ़ेगा। विवेक - विरुद्ध कार्य करनेसे विवेकका बढ़ना रुक जाता है।- प्रश्नोत्तरमणिमाला २९९
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प्रश्नोत्तरमणिमाला २९९··
जो अपने विवेकका आदर नहीं करेगा, वह गुरु, शास्त्र, वेद आदिका भी आदर नहीं करेगा। वह सीख तो लेगा, पर तत्त्वकी प्राप्ति नहीं कर सकेगा।
||श्रीहरि:||
जो अपने विवेकका आदर नहीं करेगा, वह गुरु, शास्त्र, वेद आदिका भी आदर नहीं करेगा। वह सीख तो लेगा, पर तत्त्वकी प्राप्ति नहीं कर सकेगा।- सत्संगके फूल ४९
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सत्संगके फूल ४९··
जिस विषयमें कुछ जानते हैं, वहाँ 'विवेक' लगता है। जिस विषयमें कुछ भी नहीं जानते, वहाँ 'श्रद्धा' लगती है।
||श्रीहरि:||
जिस विषयमें कुछ जानते हैं, वहाँ 'विवेक' लगता है। जिस विषयमें कुछ भी नहीं जानते, वहाँ 'श्रद्धा' लगती है।- सत्संगके फूल १४३
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सत्संगके फूल १४३··
भगवान् में श्रद्धा करो और संसारका त्याग करनेमें विवेक लगाओ।
||श्रीहरि:||
भगवान् में श्रद्धा करो और संसारका त्याग करनेमें विवेक लगाओ।- सत्संगके फूल १४४
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सत्संगके फूल १४४··
विवेकका आदर करनेसे सभी साधन सुगम हो जायँगे।
||श्रीहरि:||
विवेकका आदर करनेसे सभी साधन सुगम हो जायँगे।- सत्संगके फूल १४३
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सत्संगके फूल १४३··
अपने विवेकका अनादर करनेके समान कोई पाप नहीं है। जो अपने विवेकका आदर नहीं करता, वह शास्त्र, गुरु, सन्तकी वाणीका भी आदर नहीं कर सकता।
||श्रीहरि:||
अपने विवेकका अनादर करनेके समान कोई पाप नहीं है। जो अपने विवेकका आदर नहीं करता, वह शास्त्र, गुरु, सन्तकी वाणीका भी आदर नहीं कर सकता।- सागरके मोती ४७
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सागरके मोती ४७··
अगर मनुष्य अपने विवेकका अनादर करता है तो उसका विवेक लुप्त हो जाता है और वह अपने विवेकका आदर करता है तो उसका विवेक इतना बढ़ता है कि शास्त्र तथा गुरुके बिना भी उसको परमात्मातक पहुँचा देता है।
||श्रीहरि:||
अगर मनुष्य अपने विवेकका अनादर करता है तो उसका विवेक लुप्त हो जाता है और वह अपने विवेकका आदर करता है तो उसका विवेक इतना बढ़ता है कि शास्त्र तथा गुरुके बिना भी उसको परमात्मातक पहुँचा देता है।- अमृत-बिन्दु ९७९
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अमृत-बिन्दु ९७९··
जबतक असत्की सत्ता है, तबतक विवेक है। असत्की सत्ता मिटनेपर विवेक ही तत्त्वज्ञानमें परिणत हो जाता है।
||श्रीहरि:||
जबतक असत्की सत्ता है, तबतक विवेक है। असत्की सत्ता मिटनेपर विवेक ही तत्त्वज्ञानमें परिणत हो जाता है।- साधक संजीवनी २ । १६ परि०
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साधक संजीवनी २ । १६ परि०··
जबतक 'देही अलग है और देह अलग है' - यह विवेक नहीं होगा, तबतक कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि कोई सा भी योग अनुष्ठानमें नहीं आयेगा। इतना ही नहीं, स्वर्गादि लोकोंकी प्राप्ति के लिये भी देह-देहीके भेदको समझना आवश्यक है। कारण कि देहसे अलग देही न हो तो देहके मरनेपर स्वर्ग कौन जायगा ?
||श्रीहरि:||
जबतक 'देही अलग है और देह अलग है' - यह विवेक नहीं होगा, तबतक कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि कोई सा भी योग अनुष्ठानमें नहीं आयेगा। इतना ही नहीं, स्वर्गादि लोकोंकी प्राप्ति के लिये भी देह-देहीके भेदको समझना आवश्यक है। कारण कि देहसे अलग देही न हो तो देहके मरनेपर स्वर्ग कौन जायगा ?- साधक संजीवनी २। ३०
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साधक संजीवनी २। ३०··
सत् - असत्का विवेक मनुष्य अगर अपने शरीरपर करता है तो वह साधक होता है और संसारपर करता है तो विद्वान् होता है । अपनेको अलग रखते हुए संसारमें सत्-असत्का विवेक करनेवाला मनुष्य वाचक (सीखा हुआ) ज्ञानी तो बन जाता है, पर उसको अनुभव नहीं हो सकता। परन्तु अपनी देहमें सत्-असत्का विवेक करनेसे मनुष्य वास्तविक ( अनुभवी ) ज्ञानी हो सकता है।
||श्रीहरि:||
सत् - असत्का विवेक मनुष्य अगर अपने शरीरपर करता है तो वह साधक होता है और संसारपर करता है तो विद्वान् होता है । अपनेको अलग रखते हुए संसारमें सत्-असत्का विवेक करनेवाला मनुष्य वाचक (सीखा हुआ) ज्ञानी तो बन जाता है, पर उसको अनुभव नहीं हो सकता। परन्तु अपनी देहमें सत्-असत्का विवेक करनेसे मनुष्य वास्तविक ( अनुभवी ) ज्ञानी हो सकता है।- साधक संजीवनी २ । ३० परि०
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साधक संजीवनी २ । ३० परि०··
त्याग और सेवा – ये दोनों ही कर्मसाध्य नहीं हैं, प्रत्युत विवेकसाध्य हैं।
||श्रीहरि:||
त्याग और सेवा – ये दोनों ही कर्मसाध्य नहीं हैं, प्रत्युत विवेकसाध्य हैं।- साधक संजीवनी ४। १६ वि०
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साधक संजीवनी ४। १६ वि०··
रजोगुणकी वृद्धि होनेपर मरकर मनुष्य बननेवाले प्राणी कैसे ही आचरणोंवाले क्यों न हों, उन सबमें भगवत्प्रदत्त विवेक रहता ही है। अतः प्रत्येक मनुष्य इस विवेकको महत्त्व देकर सत्संग, स्वाध्याय आदिसे इस विवेकको स्वच्छ करके ऊँचे उठ सकते हैं, परमात्माको प्राप्त कर सकते हैं। इस भगवत्प्रदत्त विवेकके कारण सब-के-सब मनुष्य भगवत्प्राप्तिके अधिकारी हो जाते हैं।
||श्रीहरि:||
रजोगुणकी वृद्धि होनेपर मरकर मनुष्य बननेवाले प्राणी कैसे ही आचरणोंवाले क्यों न हों, उन सबमें भगवत्प्रदत्त विवेक रहता ही है। अतः प्रत्येक मनुष्य इस विवेकको महत्त्व देकर सत्संग, स्वाध्याय आदिसे इस विवेकको स्वच्छ करके ऊँचे उठ सकते हैं, परमात्माको प्राप्त कर सकते हैं। इस भगवत्प्रदत्त विवेकके कारण सब-के-सब मनुष्य भगवत्प्राप्तिके अधिकारी हो जाते हैं।- साधक संजीवनी १४ । १५
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साधक संजीवनी १४ । १५··
प्रवृत्ति और निवृत्तिको कैसे जाना जाय ? इसे गुरुके द्वारा, ग्रन्थके द्वारा, विवेकके द्वारा जाना जा सकता है। इसके अलावा उस मनुष्यपर कोई आफत आ जाय, वह मुसीबतमें फँस जाय, कोई विचित्र घटना घट जाय, तो विवेकशक्ति जाग्रत् हो जाती है। किसी महापुरुषके दर्शन हो जानेसे पूर्वसंस्कारवश मनुष्यकी वृत्ति बदल जाती है जिन स्थानोंपर बड़े-बड़े प्रभावशाली सन्त हुए हैं, उन स्थलोंमें, तीर्थोंमें जानेसे भी विवेकशक्ति जाग्रत् हो जाती है।
||श्रीहरि:||
प्रवृत्ति और निवृत्तिको कैसे जाना जाय ? इसे गुरुके द्वारा, ग्रन्थके द्वारा, विवेकके द्वारा जाना जा सकता है। इसके अलावा उस मनुष्यपर कोई आफत आ जाय, वह मुसीबतमें फँस जाय, कोई विचित्र घटना घट जाय, तो विवेकशक्ति जाग्रत् हो जाती है। किसी महापुरुषके दर्शन हो जानेसे पूर्वसंस्कारवश मनुष्यकी वृत्ति बदल जाती है जिन स्थानोंपर बड़े-बड़े प्रभावशाली सन्त हुए हैं, उन स्थलोंमें, तीर्थोंमें जानेसे भी विवेकशक्ति जाग्रत् हो जाती है।- साधक संजीवनी १६ । ७
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी १६ । ७··
बोधमें विवेक कारण है, बुद्धि नहीं। बुद्धि विवेकसे शुद्ध होती है। बुद्धिकी शुद्धिमें शुभ कर्म भी कुछ सहायक होते हैं, पर विवेक विचारसे बुद्धिकी जैसी शुद्धि होती है, वैसी शुभ कर्मोंसे नहीं होती।
||श्रीहरि:||
बोधमें विवेक कारण है, बुद्धि नहीं। बुद्धि विवेकसे शुद्ध होती है। बुद्धिकी शुद्धिमें शुभ कर्म भी कुछ सहायक होते हैं, पर विवेक विचारसे बुद्धिकी जैसी शुद्धि होती है, वैसी शुभ कर्मोंसे नहीं होती।- साधक संजीवनी १८ । १६ परि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी १८ । १६ परि०··
विवेकको महत्त्व न देना जितना दोषी है, उतने मल - विक्षेप - आवरण दोषी नहीं हैं। विवेक अनादि और नित्य है। इसलिये मल - विक्षेप - आवरणके रहते हुए भी विवेक जाग्रत् हो सकता है। पापसे विवेक नष्ट नहीं होता, प्रत्युत विवेक जाग्रत् नहीं होता । विवेकको महत्त्व न देनेमें कारण है- क्रिया और पदार्थका महत्त्व |
||श्रीहरि:||
विवेकको महत्त्व न देना जितना दोषी है, उतने मल - विक्षेप - आवरण दोषी नहीं हैं। विवेक अनादि और नित्य है। इसलिये मल - विक्षेप - आवरणके रहते हुए भी विवेक जाग्रत् हो सकता है। पापसे विवेक नष्ट नहीं होता, प्रत्युत विवेक जाग्रत् नहीं होता । विवेकको महत्त्व न देनेमें कारण है- क्रिया और पदार्थका महत्त्व |- साधक संजीवनी १८ । १६ परि०
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साधक संजीवनी १८ । १६ परि०··
विवेक सबमें समानरूपसे है । परन्तु भोग और संग्रहकी तरफ ज्यादा वृत्ति होनेसे वह विवेक जाग्रत् नहीं होता। विवेक जाग्रत् होता है भोग तथा संग्रहकी इच्छा मिटनेसे।
||श्रीहरि:||
विवेक सबमें समानरूपसे है । परन्तु भोग और संग्रहकी तरफ ज्यादा वृत्ति होनेसे वह विवेक जाग्रत् नहीं होता। विवेक जाग्रत् होता है भोग तथा संग्रहकी इच्छा मिटनेसे।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १३२
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सीमाके भीतर असीम प्रकाश १३२··
मनुष्यमें विवेककी प्रधानता है । अभ्यास तो पशुओंमें भी होता है। नाटक ( सर्कस ) - में बन्दर हाथी, सिंह आदि भी काम कर लेते हैं। मनुष्यको भगवान्ने जैसा विवेक दिया है, वैसा विवेक पशुओं में तो है ही नहीं, देवताओंमें भी नहीं है। वे सब भोगयोनियाँ हैं। विवेकसे आध्यात्मिक उन्नति जल्दी होती है।
||श्रीहरि:||
मनुष्यमें विवेककी प्रधानता है । अभ्यास तो पशुओंमें भी होता है। नाटक ( सर्कस ) - में बन्दर हाथी, सिंह आदि भी काम कर लेते हैं। मनुष्यको भगवान्ने जैसा विवेक दिया है, वैसा विवेक पशुओं में तो है ही नहीं, देवताओंमें भी नहीं है। वे सब भोगयोनियाँ हैं। विवेकसे आध्यात्मिक उन्नति जल्दी होती है।- अनन्तकी ओर १६८
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
अनन्तकी ओर १६८··
अभ्यासमें विवेक नहीं है, विवेकमें अभ्यास नहीं है। विवेकमें विचार काम करता है, अभ्यास काम नहीं करता। अभ्यासमें जड़ताका सहारा लेना पड़ता है, पर विवेकमें जड़ताका त्याग है। अभ्यासमें शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहम्की जरूरत है।
||श्रीहरि:||
अभ्यासमें विवेक नहीं है, विवेकमें अभ्यास नहीं है। विवेकमें विचार काम करता है, अभ्यास काम नहीं करता। अभ्यासमें जड़ताका सहारा लेना पड़ता है, पर विवेकमें जड़ताका त्याग है। अभ्यासमें शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहम्की जरूरत है।- स्वातिकी बूँदें ६०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
स्वातिकी बूँदें ६०··
विवाह होता है तो पत्नीसे सम्बन्ध जोड़नेके लिये आप अभ्यास नहीं करते, केवल मान्यता करते हैं। मान्यतासे चट सम्बन्ध जुड़ जाता है । परन्तु भगवत्सम्बन्धी बातोंमें आप मान्यता अथवा विवेक नहीं लगाते, प्रत्युत अभ्यास लगाते हैं। समय अभ्यासमें लगता है, विवेकमें नहीं। विवेककी प्रधानतासे तत्काल काम होता है।
||श्रीहरि:||
विवाह होता है तो पत्नीसे सम्बन्ध जोड़नेके लिये आप अभ्यास नहीं करते, केवल मान्यता करते हैं। मान्यतासे चट सम्बन्ध जुड़ जाता है । परन्तु भगवत्सम्बन्धी बातोंमें आप मान्यता अथवा विवेक नहीं लगाते, प्रत्युत अभ्यास लगाते हैं। समय अभ्यासमें लगता है, विवेकमें नहीं। विवेककी प्रधानतासे तत्काल काम होता है।- अनन्तकी ओर १६८ - १६९
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
अनन्तकी ओर १६८ - १६९··
अपनी विवेकशक्तिका आदर करना सत्संग है। आदर करनेसे वह विवेक ही तत्त्वज्ञानमें परिणत हो जायगा । इसलिये अपनी विवेकशक्तिको बढ़ाओ जैसे गायके शरीरमें रहनेवाला घी गायके काम नहीं आता, ऐसे ही जबतक आप विवेकका आदर नहीं करोगे, तबतक विवेक आपमें रहता हुआ भी आपके काम नहीं आयेगा।
||श्रीहरि:||
अपनी विवेकशक्तिका आदर करना सत्संग है। आदर करनेसे वह विवेक ही तत्त्वज्ञानमें परिणत हो जायगा । इसलिये अपनी विवेकशक्तिको बढ़ाओ जैसे गायके शरीरमें रहनेवाला घी गायके काम नहीं आता, ऐसे ही जबतक आप विवेकका आदर नहीं करोगे, तबतक विवेक आपमें रहता हुआ भी आपके काम नहीं आयेगा।- अनन्तकी ओर १९१
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
अनन्तकी ओर १९१··
विवेक होनेसे वैराग्य हो ही जाता है। वैराग्य न हो तो समझना चाहिये कि विवेक हुआ नहीं है, केवल सीखा है।
||श्रीहरि:||
विवेक होनेसे वैराग्य हो ही जाता है। वैराग्य न हो तो समझना चाहिये कि विवेक हुआ नहीं है, केवल सीखा है।- स्वातिकी बूँदें ११
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
स्वातिकी बूँदें ११··
जो विचार करते हैं, वह नकली है। जो विचार जाग्रत् होता है, वह असली है। विचारसे विवेक होता है। विवेक स्वत: सिद्ध है। विवेक बुद्धिका विषय नहीं है। यह अनादि है । सत्संगसे विवेक पैदा नहीं होता, प्रत्युत जाग्रत् होता है।
||श्रीहरि:||
जो विचार करते हैं, वह नकली है। जो विचार जाग्रत् होता है, वह असली है। विचारसे विवेक होता है। विवेक स्वत: सिद्ध है। विवेक बुद्धिका विषय नहीं है। यह अनादि है । सत्संगसे विवेक पैदा नहीं होता, प्रत्युत जाग्रत् होता है।- स्वातिकी बूँदें ६०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
स्वातिकी बूँदें ६०··
विवेकका सदुपयोग करनेसे ज्ञान, वैराग्य, भक्ति - तीनों प्राप्त होते हैं। विवेकका दुरुपयोग करनेसे नरक प्राप्त होते हैं।
||श्रीहरि:||
विवेकका सदुपयोग करनेसे ज्ञान, वैराग्य, भक्ति - तीनों प्राप्त होते हैं। विवेकका दुरुपयोग करनेसे नरक प्राप्त होते हैं।- सत्संगके फूल १५०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सत्संगके फूल १५०··
शरीर - संसारपर विश्वास करना महान् घातक है। शरीर संसारपर विश्वास करके ही जीव जन्म- मरणरूप बन्धनमें पड़ा है, अन्य कोई कारण नहीं है। इसी तरह भगवान्पर विवेक विचार करना भी महान् घातक है; क्योंकि ऐसा करनेसे मनुष्य भगवान्को बुद्धिका विषय बना लेगा और कोरी बातें सीख जायगा, हाथ कुछ लगेगा नहीं सीखा हुआ ज्ञान अभिमान पैदा करता है और भगवान्से विमुख करता है, जो मनुष्यके पतनका हेतु है।
||श्रीहरि:||
शरीर - संसारपर विश्वास करना महान् घातक है। शरीर संसारपर विश्वास करके ही जीव जन्म- मरणरूप बन्धनमें पड़ा है, अन्य कोई कारण नहीं है। इसी तरह भगवान्पर विवेक विचार करना भी महान् घातक है; क्योंकि ऐसा करनेसे मनुष्य भगवान्को बुद्धिका विषय बना लेगा और कोरी बातें सीख जायगा, हाथ कुछ लगेगा नहीं सीखा हुआ ज्ञान अभिमान पैदा करता है और भगवान्से विमुख करता है, जो मनुष्यके पतनका हेतु है।- सत्संग-मुक्ताहार ४५
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सत्संग-मुक्ताहार ४५··
जैसे लड़का किसी कुटुम्बका है, लड़की किसी कुटुम्बकी है, दोनों अलग-अलग हैं, पर सुखासक्तिके कारण दोनों एक हो जाते हैं। ऐसे ही सुखासक्तिके कारण हम शरीरसे एक हो जाते हैं। सुखभोगमें विवेक काम नहीं करता । जहाँ सुख लेते हैं, वहाँ अँधेरा आ जाता है, विवेक दब जाता है । अगर विवेककी जागृति होगी तो मनुष्य सुख नहीं भोग सकेगा। कारण कि शरीर प्रतिक्षण बदलता है, एक क्षण भी नहीं ठहरता, फिर सुख कैसे भोगेंगे ? शरीरको स्थायी मानकर ही सुख भोगते हैं।
||श्रीहरि:||
जैसे लड़का किसी कुटुम्बका है, लड़की किसी कुटुम्बकी है, दोनों अलग-अलग हैं, पर सुखासक्तिके कारण दोनों एक हो जाते हैं। ऐसे ही सुखासक्तिके कारण हम शरीरसे एक हो जाते हैं। सुखभोगमें विवेक काम नहीं करता । जहाँ सुख लेते हैं, वहाँ अँधेरा आ जाता है, विवेक दब जाता है । अगर विवेककी जागृति होगी तो मनुष्य सुख नहीं भोग सकेगा। कारण कि शरीर प्रतिक्षण बदलता है, एक क्षण भी नहीं ठहरता, फिर सुख कैसे भोगेंगे ? शरीरको स्थायी मानकर ही सुख भोगते हैं।- रहस्यमयी वार्ता २२८