Seeker of Truth

विश्वास

विवेकसे उतनी उन्नति नहीं होती जितनी विश्वाससे होती है।

सत्संगके फूल १०५··

विश्वासमें विवेककी जरूरत नहीं है। यदि विवेक लगायेंगे तो शालग्राम पत्थर दीखेगा। विश्वासमें विवेककी सहायता नहीं है, प्रत्युत विवेकका विरोध नहीं है।

सत्संगके फूल १०६··

विश्वास विवेकसमर्थित भले ही न हो, पर विवेकविरोधी नहीं होना चाहिये।

सागरके मोती ५३··

मनुष्यको ईश्वरमें केवल विश्वास ही करना चाहिये। अगर वह संसारमें विश्वास और ईश्वरमें विवेक लगायेगा तो नास्तिक हो जायगा।

अमृत-बिन्दु ३९६··

ज्ञानसे तो अज्ञान मिटता है, पर मिलता कुछ नहीं; परन्तु विश्वास भगवान् से मिलाता है। अतः विश्वास ज्ञानसे बड़ा है।

सागरके मोती ५३··

केवल भगवान्पर विश्वासमात्रसे कल्याण होता है। कारण कि भगवान्पर विश्वास करनेवाला भगवान्‌का भजन ही करेगा, दुर्गुण-दुराचार करेगा नहीं, पाप करेगा नहीं, अन्याय करेगा नहीं, तो कल्याण नहीं होगा तो क्या होगा ? जरूर कल्याण होगा, इसमें सन्देह नहीं । कल्याण तो खास हमारी चीज है । उसपर हमारा पूरा हक है। भगवान्पर पूरा विश्वास होगा तो भजन- ध्यान अपने-आप होगा। उससे शास्त्र - निषिद्ध काम, पाप, अन्याय होगा ही नहीं।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ १६८··

भगवान्पर विश्वास करनेवालेके द्वारा कई आदमियोंका कल्याण होता है। कोई भी काम करनेवाला अकेला नहीं रहता। चोर कइयोंको चोर बना देता है । साधु कइयोंको साधु बना देता है। यह बिना परिश्रम किये, स्वतः - स्वाभाविक होता है।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ १६८··

अगर आप भगवान्पर विश्वास चाहते हैं तो नाशवान् चीजोंपर विश्वास कम करो । नाशवान् चीजोंसे प्रेम करोगे, उनको महत्त्व दोगे तो अविनाशीसे प्रेम कैसे होगा ? नाशवान्‌की सेवा करो, पर विश्वास मत करो।

अनन्तकी ओर १५३··

भगवान्का विश्वास भगवान् से भी बड़ा है; क्योंकि जो भगवान् सदा सब जगह रहते हुए भी नहीं मिलते, वे विश्वाससे मिल जाते हैं।

अमृत-बिन्दु ४६४··

भोग तथा संग्रहके त्यागमें 'विवेक' प्रधान है और परमात्माकी प्राप्तिमें 'विश्वास' प्रधान है। आप अपने माँ-बापको विश्वाससे मानते हैं, विवेकसे नहीं। माँ-बापको माननेमें विवेक काम नहीं करता।

परम प्रभु अपने ही महुँ पायो ४१··

विश्वास भगवान्पर ही करना चाहिये । उत्पत्ति विनाशशील वस्तुओंपर विश्वास करनेसे धोखा ही होगा, दुःख ही पाना पड़ेगा।

अमृत-बिन्दु ६४२··

जैसा दीखता है, वैसा न मानकर और तरहसे मानना 'अन्धविश्वास' कहलाता है; जैसे- संसार प्रत्यक्ष बदलते हुए और नष्ट होते हुए दीखता है, फिर भी उसपर विश्वास करना 'अन्धविश्वास' है | विवेक - विरुद्ध विश्वास ही अन्धविश्वास होता है।

सत्संग-मुक्ताहार ४६··