Seeker of Truth

वासुदेवः सर्वम् (सब कुछ भगवान् ही हैं)

किसी भी मार्गका साधक क्यों न हो, उसे अन्तमें 'वासुदेवः सर्वम्' तक पहुँचना है।

सन्त समागम ३५··

भगवान्‌के सिवाय कुछ नहीं है - यह ऊँची-से-ऊँची दार्शनिक दृष्टि है।

स्वातिकी बूँदें २१··

द्वैतवाद, अद्वैतवाद, अजातवाद आदि सब साधन हैं, सिद्धान्त नहीं हैं। सिद्धान्त है – 'वासुदेवः सर्वम्'। सिद्धान्तको न माननेसे ही आपसमें मतभेद होते हैं, खटपट होती है।

सन्त समागम १५··

वासुदेवः सर्वम्' अन्तिम चीज है। इसका अनुभव होनेपर कुछ बाकी नहीं रहता।

ज्ञानके दीप जले २३०··

साधकोंके मनमें प्रायः यह भाव रहता है कि कोई परमात्माकी सार बात, तात्त्विक बात बढ़िया बात बता दे तो हम जल्दी परमात्मप्राप्ति कर लें। वह सार बात, तात्त्विक बात बढ़िया बात, सबका खास निचोड़, निष्कर्ष यही है कि केवल परमात्मा ही परमात्मा हैं। 'मैं' भी परमात्मा हैं', 'तू' भी परमात्मा हैं' 'यह' भी परमात्मा हैं और 'वह' भी परमात्मा हैं अर्थात् परमात्माके सिवाय कुछ नहीं है।

सत्संग-मुक्ताहार ५··

सर्वकालमें सारा संसार केवल एक भगवान् ही हैं, और कुछ भी नहीं है - यह सर्वोत्तम साधन है। परन्तु यह बात कइयोंको पता नहीं है। कइयोंको पता होते हुए भी अनुभवमें नहीं है; क्योंकि यह पुरुषार्थसाध्य नहीं है, कृपासाध्य है। भगवत्कृपा तथा सन्तकृपासे यह सम्भव है।

साधनके दो प्रधान सूत्र १९··

वासुदेवः सर्वम्' के समान मुझे दूसरी कोई बात मिली ही नहीं। इसमें योगदर्शनका भी अन्त हो गया । जब दूसरी सत्ता ही नहीं, तो फिर मनका निरोध कैसे ? इसमें सभी दर्शनोंका, सभी शास्त्रोंका अन्त हो गया।

रहस्यमयी वार्ता २२६··

वास्तवमें 'वासुदेवः सर्वम्' का अनुभव करनेवाला, इसको जाननेवाला, कहनेवाला भी नहीं रहता, प्रत्युत एक वासुदेव ही रहता है, जो अनादिकालसे ज्यों-का-त्यों है।

मानवमात्रके कल्याणके लिये १५८ - १५९··

केवल वासुदेव - ही वासुदेव विद्यमान है। अन्य कुछ है ही नहीं, कभी हुआ ही नहीं, कभी होगा ही नहीं, कभी हो सकता ही नहीं। इससे सिद्ध हुआ कि एक परमात्माके सिवाय कोई चीज कभी पैदा हुई ही नहीं। इस स्थितिका वर्णन नहीं हो सकता; क्योंकि वर्णन करनेवाला कोई (व्यक्ति) रहता ही नहीं।

मानवमात्रके कल्याणके लिये २२१··

असत् (शरीर-इन्द्रियाँ - मन-बुद्धि- अहम् ) के साथ तादात्म्य करनेके कारण ही असत् दीखता है। अगर असत्से तादात्म्य न करें तो असत् है ही नहीं, प्रत्युत सत् - ही सत् है । इसलिये सत्- तत्त्व (आत्मा) ने आजतक कभी असत्‌को देखा ही नहीं।

अमरताकी ओर ४०··

अनन्त ब्रह्माण्डोंके भीतर तथा बाहर और अनन्त ब्रह्माण्डोंके रूपमें एक भगवान् के सिवाय किंचिन्मात्र भी कुछ नहीं है— 'वासुदेवः सर्वम्' (७।१९), 'सदसच्चाहमर्जुन' (९ । १९ ) । संसारके सभी दर्शन, मत-मतान्तर आचार्योंको लेकर हैं, पर 'वासुदेवः सर्वम्' किसी आचार्यका मत, दर्शन नहीं है, प्रत्युत साक्षात् भगवान्‌का अटल सिद्धान्त है, जिसके अन्तर्गत सभी दर्शन, मत-मतान्तर आ जाते हैं........साधकको अगर जगत् दीखता है, तो यह उसकी व्यक्तिगत दृष्टि है । व्यक्तिगत दृष्टि सिद्धान्त नहीं होता।

साधक संजीवनी ७ । ५ परि०··

जिन दार्शनिकोंने अपने दर्शन ( अनुभव ) - में, अपने मतमें पूर्ण सन्तोष कर लिया, वे तो वहीं रुक गये, पर जिन्होंने अपने दर्शनमें सन्तोष नहीं किया, उन्होंने 'वासुदेवः सर्वम्' का अनुभव कर लिया । 'वासुदेवः सर्वम्' का अनुभव होनेपर सम्पूर्ण दार्शनिकोंमें और उनके दर्शनोंमें परस्पर मतभेद सर्वथा मिट जाता है और वे सब एक हो जाते हैं।

सत्यकी खोज १६··

संसारके सभी दर्शन, मत-मतान्तर आचार्योंको लेकर हैं, पर 'वासुदेवः सर्वम्' किसी आचार्यका दर्शन, मत नहीं है, प्रत्युत साक्षात् भगवान्‌का अटल सिद्धान्त है, जिसके अन्तर्गत सभी दर्शन, मत-मतान्तर आ जाते हैं।

साधक संजीवनी ७।५ परि०··

गहने बनाते समय सुनारके भीतर 'यह सोना है' – यह बात बैठी रहती है। इसी तरह सब कार्य करते समय साधकके भीतर सब कुछ परमात्मा ही हैं - यह बात बैठी रहनी चाहिये।

प्रश्नोत्तरमणिमाला २४··

कण-कण में भगवान् हैं - यह मान्यता है और कण-कण भगवान् ही हैं - यह वास्तविकता है।

प्रश्नोत्तरमणिमाला २१३··

वासुदेवः सर्वम्' सीखनेकी चीज नहीं है, प्रत्युत अनुभव करनेकी चीज है।

सत्संगके फूल ३४··

जैसे समुद्रके ऊपर लहरें चलती दीखती हैं, पर भीतरमें एक सम, शान्त समुद्र है। समुद्रके भीतर कोई लहर नहीं है। ऐसे ही संसार भी उस परमात्माकी ही लहरें हैं। अतः परिवर्तन भी परमात्माका स्वरूप है और अपरिवर्तन भी।

प्रश्नोत्तरमणिमाला २८८··

कामनाके कारण ही संसार है। कामना न हो तो सब कुछ परमात्मा ही हैं, संसार है ही नहीं।

प्रश्नोत्तरमणिमाला १६९··

समग्र मिथ्या है - यह भी साधन है और समग्र ( सब कुछ) परमात्मा है - यह भी साधन है। परन्तु समग्र परमात्मा है - यह साधन सब साधनोंसे तेज है।

सन्त समागम १५··

भगवान्‌का सबसे बढ़िया रूप कौन-सा है ? सबसे बढ़िया रूप है - संसार।

सत्संगके फूल ५१··

सब कुछ परमात्मा ही हैं, पर वे भोग्य नहीं हैं। आप उन्हें भोग्य बनाकर सुख भोगना चाहोगे तो दुःख पाते रहोगे।

सागरके मोती ८··

जैसे सोनेसे बने गहने सोनारूप ही होते हैं, लोहेसे बने औजार लोहारूप ही होते हैं, मिट्टीसे बने बर्तन मिट्टीरूप ही होते हैं, रुईसे बने वस्त्र रुईरूप ही होते हैं, ऐसे ही भगवान् से होनेवाला संसार भी भगवद्रूप ही है।

साधक संजीवनी १० । ३९ परि०··

जैसे तत्त्वसे सोना होते हुए भी गहनोंका उपयोग यथास्थान ही होगा, ऐसे ही 'वासुदेवः सर्वम्' होते हुए भी व्यवहार यथायोग्य ( मर्यादाके अनुसार) होगा और बहुत बढ़िया होगा।

सागरके मोती ६०··

वासुदेवः सर्वम्' ज्ञानमें है, कर्तव्य अकर्तव्य, ग्राह्य - त्याज्यमें नहीं है।

रहस्यमयी वार्ता २११··

अगर कोई तामस उपासना करेगा तो उसको नरकरूपसे भगवान् मिलेंगे; क्योंकि नरक भी भगवान् ही हैं । इसलिये 'जानने' और 'मानने' में तो सब भगवान्‌का ही स्वरूप है, पर 'करने' में उपासना करनेयोग्य रूप और उपासना न करनेयोग्य रूप अलग-अलग हैं।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ १२८··

यद्यपि यह संसार साक्षात् परमात्माका स्वरूप है, तथापि जो इसको जिस रूपसे देखता है, भगवान् भी उसके लिये उसी रूपसे प्रकट हो जाते हैं। हम अपनेको शरीर मानकर अपने लिये वस्तुओंकी आवश्यकता मानते हैं और उनकी इच्छा करते हैं तो भगवान् भी उन वस्तुओंके रूपमें हमारे सामने आते हैं, हम असत् में स्थित होकर देखते हैं तो भगवान् भी असत् - रूपसे ही दीखते हैं। जैसे बालक खिलौना चाहता है तो पिता रुपये खर्च करके भी उसको खिलौना लाकर देता है, ऐसा ही हम जो चाहते हैं, परम दयालु भगवान् ( स्वयं सदा सत्स्वरूप रहते हुए भी) उसी रूपसे हमारे सामने आते हैं। अगर हम भोगोंको न चाहें तो भगवान्‌को भोगरूपसे क्यों आना पड़े? बनावटी रूप क्यों धारण करना पड़े?

साधक संजीवनी ४। ११ परि०··

हम संसारको चाहते हैं तो भगवान् संसाररूपमें हमारे सामने आ जाते हैं। हम शरीर बनते हैं तो भगवान् विश्व बन जाते हैं। शरीर बननेके बाद फिर विश्वसे भिन्न कुछ भी जाननेमें नहीं आता - यह नियम है।

मानवमात्रके कल्याणके लिये २१४··

तत्त्वसे सब कुछ वासुदेव ही हैं- 'वासुदेव सर्वम्' ( गीता ७ । १९), और कोई है ही नहीं- ऐसा जान लेगा तो जानना बाकी कैसे रहेगा ? क्योंकि इसके सिवाय दूसरा कुछ जाननेयोग्य है ही नहीं। यदि एक परमात्माको न जानकर संसारकी बहुत-सी विद्याओंको जान भी लिया तो वास्तवमें कुछ नहीं जाना है, कोरा परिश्रम ही किया है।

साधक संजीवनी ७ । २ टि०··

संसारकी रचना करनेमें भगवान् के पास अपने सिवाय कोई सामग्री नहीं थी, वे तो स्वयं संसार के रूपमें प्रकट हुए हैं।

साधक संजीवनी ७। १९··

जगत्, जीव और परमात्मा - इन तीनोंपर विचार करें तो स्वतन्त्र सत्ता एक परमात्माकी ही है। जगत् और जीवकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । जगत्‌को जीवने ही धारण किया है- 'ययेदं धार्यते जगत्' ( गीता ७।५ ) अर्थात् जगत्‌को सत्ता जीवने ही दी है, इसलिये जगत्की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। जीव परमात्माका ही अंश है- 'ममैवांशो जीवलोके' (गीता १५ । ७), इसलिये खुद जीवकी भी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। तात्पर्य है कि जगत्की सत्ता जीवके अधीन है और जीवकी सत्ता परमात्माके अधीन है, इसलिये एक परमात्माके सिवाय अन्य कुछ नहीं है- 'सदसच्चाहमर्जुन' (गीता ९। १९ ) । जगत् और जीव - दोनों परमात्मामें ही भासित हो रहे हैं।

साधक संजीवनी ७। ३० अ०सा०··

सृष्टिकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय आदि जो कुछ हो रहा है वह सब भगवान्‌ के द्वारा ही हो रहा है तथा भगवान्‌का ही स्वरूप है। उत्पन्न करनेवाला तथा उत्पन्न होनेवाला, पालन करनेवाला तथा पालित होनेवाला, नाश करनेवाला तथा नष्ट होनेवाला - ये सब एक ही समग्र भगवान्के अंग ( स्वरूप ) हैं।

साधक संजीवनी ९ । ९ परि०··

जड़-चेतन, स्थावर-जंगमरूपसे जो कुछ देखने, सुनने, सोचनेमें आ रहा है, वह सब अविनाशी भगवान् ही हैं। इसका अनुभव करनेके लिये साधकको दृढ़तासे यह मान लेना चाहिये कि मेरी समझमें आये या न आये, अनुभवमें आये या न आये, स्वीकार हो या न हो, पर बात यही सच्ची है........उसको वृक्ष, नदी, पहाड़, पत्थर, दीवार आदि जो कुछ भी दीखे, उसमें अपने इष्ट भगवान्‌को देखकर वह प्रार्थना करे कि 'हे नाथ। मुझे अपना प्रेम प्रदान करो, हे प्रभो । आपको मेरा नमस्कार हो ।' ऐसा करनेसे उसको सब जगह भगवान् दीखने लग जायँगे; क्योंकि वास्तवमें सब कुछ भगवान् ही हैं।

साधक संजीवनी ११ । ४० परि०··

भगवान् से प्रार्थना करके हम प्राप्त कर सकते हैं, वहीं कपड़ेके एक टुकड़ेसे प्रार्थना करके भी प्राप्त कर सकते हैं - यही 'वासुदेवः सर्वम्' का तात्पर्य है।

सत्संगके फूल १७३··

राग-द्वेष होनेके कारण ही संसार भगवत्स्वरूप नहीं दीखता, प्रत्युत जड़ और नाशवान् दीखता है। अगर राग-द्वेष न हों तो जड़ता है ही नहीं, प्रत्युत सब कुछ चिन्मय परमात्मा ही हैं- 'वासुदेवः सर्वम्' (गीता ७ । १९)।

साधक संजीवनी ३ । ३४ परि०··

भगवद्बुद्धिकी दृढ़ता होनेसे संसार लुप्त हो जायगा; जैसे- सोनेके गहनों में सोनाबुद्धि होनेसे गहने लुप्त हो जाते हैं, खाँडके खिलौनोंमें खाँडबुद्धि होनेसे खिलौने लुप्त हो जाते हैं । कारण कि वास्तवमें संसार है ही नहीं। केवल जीवने ही अपने राग-द्वेषसे संसारको धारण कर रखा है- 'ययेदं धार्यते जगत्' ( गीता ७।५)।

साधक संजीवनी १० । ४१ परि०··

साधकको ऐसा मानना चाहिये कि अपनी देहसहित सब कुछ भगवान् ही हैं अर्थात् शरीर भी भगवत्स्वरूप है, इन्द्रियाँ भी भगवत्स्वरूप हैं, मन भी भगवत्स्वरूप है, बुद्धि भी भगवत्स्वरूप है, प्राण भी भगवत्स्वरूप है और अहम् (मैं- पन) भी भगवत्स्वरूप है। सब कुछ भगवान् ही हैं - इसको माननेके लिये साधकको बुद्धिसे जोर नहीं लगाना चाहिये, प्रत्युत सहजरूपसे जैसा है, वैसा स्वीकार कर लेना चाहिये।

साधक संजीवनी ७।१९ परि०··

परमात्मा ही हैं- ऐसा सरलतासे मान लेना है, जोर नहीं लगाना है। जोर लगानेसे संसारकी सत्ता दृढ़ होगी। संसारको हटाना नहीं है। वह तो हटा हुआ (निवृत्त) ही है। मैं तू यह वह कुछ नहीं है, केवल वासुदेव ही है।

सत्संगके फूल ५६··

माँके पेटमें रहते हुए बच्चा लात मारता है, मल-मूत्र करता है तो माँ उसपर क्रोध नहीं करती; क्योंकि उसको छोड़कर बच्चा कहाँ जाय ? ऐसे ही हम भगवान्‌के पेटमें ही रहते हैं। हमारा जन्म हुआ ही नहीं। पेटसे बाहर जायँ तो जन्म हो । भगवान् से बाहर हम जा सकते हैं क्या ?

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १४२ - १४३··

साधकको पहले परमात्मा छोटे-से दीखते हैं। फिर परमात्मा बड़े होते-होते सब जगह दीखते हैं। उसके बाद दीखता है कि परमात्मा ही मुख्य हैं। इसके बाद दीखता है कि परमात्मा ही हैं। तात्पर्य है कि साधकके लिये जगत् लुप्त होता चला जाता है और भगवान् प्रकट होते चले जाते हैं। अन्तमें संसार सर्वथा लुप्त हो जाता है। संसार है ही नहीं हुआ ही नहीं, होगा ही नहीं, हो सकता ही नहीं । केवल परमात्मा ही परमात्मा हैं।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १५९··

सबमें परमात्माको देखते रहो, फिर सब विकार सूखी मिट्टीकी तरह झड़ जायँगे।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ६७··

केवल यह मान लें कि परमात्मा सब जगह हैं। यह मानना जितना जोरदार होगा, उतने ही काम-क्रोधादि दोष कम हो जायँगे और फिर नष्ट हो जायँगे। अन्तमें यह मानना नहीं रहेगा, परमात्मा दीखने लग जायेंगे।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १८२··

है तो संसार, पर हम भगवान्‌की भावना करते हैं- ऐसी बात नहीं है। वास्तवमें है तो भगवान्, पर हम संसारकी भावना करते हैं। संसार तो मिटेगा, भगवान् थोड़े ही मिटेंगे।

बन गये आप अकेले सब कुछ १५७··

सांसारिक भोगोंमें खिंचाव मिटानेके लिये, भोगासक्ति छुड़ानेके लिये उसे नाशवान्, क्षणभंगुर कहा जाता है। वास्तवमें सिद्धान्तसे वह भगवत्स्वरूप ही है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश २२६ - २२७··

जो 'वासुदेवः सर्वम्' है, वही सहजावस्था है। सहजावस्थाका नाम ही 'वासुदेवः सर्वम्' है । उसको प्राप्त करके मनुष्य कृतकृत्य, ज्ञातज्ञातव्य और प्राप्तप्राप्तव्य हो जाता है।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ ६५··

संसारको भगवान्‌का स्वरूप देखनेमें किसी प्रयासकी अथवा विवेककी जरूरत नहीं है। सीधे- सरलभावसे देखें।

सत्संगके फूल ३०··

विवेकमार्गमें साधक जड़-चेतनका विवेक करके 'चेतन - चेतन सब परमात्मा हैं' - ऐसा मानकर जड़का त्याग करता है । परन्तु भक्तिमार्गमें साधक जड़-चेतन दोनोंको परमात्मा ही मानता है। 'वासुदेवः सर्वम्' कहनेका तात्पर्य है कि जड़-चेतन, सात्त्विक- राजस- तामस सब कुछ परमात्मा- ही परमात्मा हैं।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ १४३··

सच्ची बात तो एक ही है भाई । एक परमात्मा ही हैं - 'वासुदेवः सर्वम्' ( गीता ७ । १९ ) । एक परमात्माके सिवाय दूसरा कोई था ही नहीं, कोई है ही नहीं, कोई होगा ही नहीं, कोई हो सकता ही नहीं। ये चार बातें मान लो तो सब ठीक हो जायगा। दूसरा दीखता है - यही बाधा है। दूसरी चीजकी सत्ता स्वीकार करना ही बाधा है। एकान्तमें बैठकर इसपर गहरा विचार करो । इसपर पूरा जोर लगाओ। फिर बेड़ा पार है।

अनन्तकी ओर ५८-५९··

वास्तवमें भगवान्‌के सिवाय दूसरा कोई दीखता ही नहीं। किसीमें दीखनेकी ताकत ही नहीं है। आप मानते नहीं तो हम क्या करें? भगवान्‌के सिवाय आपको कोई मिलता ही नहीं, भगवान् ही मिलते हैं।...... भूख लगती है तो अन्नरूपसे भगवान् आते हैं। प्यास लगती है तो जलरूपसे भगवान् आते हैं। थक जाते हो तो नींदरूपसे भगवान् आते हैं। इसे मान लो आज अभी निहाल हो जाओगे।

अनन्तकी ओर ९०-९१··

यह संसार भगवान्की ही मूर्ति है, श्रीविग्रह है। जैसे मूर्तिमें हम भगवान्का पूजन करते हैं, पुष्प चढ़ाते हैं, चंदन लगाते हैं तो हमारा भाव मूर्तिमें न होकर भगवान्‌में होता है अर्थात् हम मूर्तिकी पूजा न करके भगवान्‌की पूजा करते हैं, ऐसे ही हमें अपनी प्रत्येक क्रियासे संसाररूपमें भगवान्‌का पूजन करना है।

साधक संजीवनी १८ । ४६ परि०··

वास्तवमें भगवद्भावसे संसारका पूजन मूर्तिपूजासे भी विशेष मूल्यवान् है । कारण कि मूर्तिका पूजन करनेसे मूर्ति प्रसन्न होती हुई नही दीखती, पर प्राणियोंकी सेवा करनेसे वे प्रत्यक्ष प्रसन्न (सुखी) होते हुए दीखते हैं।

साधक संजीवनी १८ ।४६ परि०··

ये भगवान् ही हैं' – इसकी अपेक्षा 'ये भगवान्‌के हैं' - यह मानना सुगम है। सबमें भगवान् हैं, सब भगवान्में हैं, सब भगवान्‌के हैं और सब भगवान् हैं- इन चारोंमें कोई एक मान लो।

स्वातिकी बूँदें ४२··

बालककी तीन अंगुल ( जीभ) की दृष्टि होती है, इसलिये वह कड़वी दवा थूक देता है। बड़े आदमीकी तीन हाथ (शरीर) की दृष्टि होती है । परन्तु साधककी दृष्टि तीन जन्मोंकी होती है । इससे आगे दृष्टि जायगी तो 'वासुदेवः सर्वम्' (सब कुछ भगवान् ही हैं) दीखने लग जायगा । इस दृष्टिको पानेके लिये ही यह सत्संग है।

स्वातिकी बूँदें ८८··

दार्शनिक दृष्टिसे एक परमात्माके सिवाय कोई नहीं। भक्तिकी दृष्टिसे एक परमात्माके सिवाय कोई अपना नहीं। दोनोंका परिणाम एक है। जैसे- रामायणमें पतिव्रताके लिये आया है— 'सपनेहुँ आन पुरुष जग नाहीं' (मानस, अरण्य० ५/६ ) अर्थात् पतिके सिवाय दूसरा कोई पुरुष नहीं अथवा पतिके सिवाय कोई अपना नहीं कोई एक बात मान लो।

स्वातिकी बूँदें ६१··

कोई खराब काम करता है तो समझो कि अभी कलियुग है, इसलिये भगवान् कलियुगकी लीला कर रहे हैं। कलियुगकी लीला तो कलियुगकी तरह ही होगी । उसको नमस्कार करो और कहो कि 'कृपा करो कृपानाथ । यह कलियुगकी लीला मत करो। अपनी लीला बदल दो। हम इसके पात्र नहीं हैं।' रामायणमें अयोध्याकाण्ड भी आता है, लंकाकाण्ड भी आता है। दोनों ही भगवान्की लीलाएँ हैं।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १६४··

सब कुछ परमात्मा ही हैं- यह खुले नेत्रोंका ध्यान है। इसमें न आँख बन्द करने ( ध्यान ) - की जरूरत है, न कान बन्द करने ( नादानुसन्धान ) - की जरूरत है, न नाक बन्द करने (प्राणायाम) - की जरूरत है । इसमें न संयोगका असर पड़ता है, न वियोगका; न किसीके आनेका असर पड़ता है, न किसीके जानेका । जब सब कुछ परमात्मा ही है तो फिर दूसरा कहाँसे आये ? कैसे आये ?

साधक संजीवनी न०नि०··

अपरा (परिवर्तनशील ) और परा (अपरिवर्तनशील ) – दोनों ही भगवान्‌की प्रकृतियाँ अर्थात् शक्तियाँ हैं, स्वभाव हैं। भगवान्‌की शक्ति होनेसे दोनों भगवान् से अभिन्न हैं; क्योंकि शक्तिमान्के बिना शक्तिकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं होती। जैसे नख और केश निष्प्राण होनेपर भी हमारे प्राणयुक्त शरीरसे अलग नहीं हैं, ऐसे ही अपरा प्रकृति जड़ होनेपर भी चेतन भगवान् से अलग नहीं है।

साधक संजीवनी ७।५ परि०··

पत्थरमें सब जगह सब तरहकी मूर्तियाँ हैं, आवरण हटा दो तो मूर्ति प्रकट हो जायगी। ऐसे ही परमात्मा सब जगह हैं, संसारकी इच्छा मिटा दो तो परमात्मा प्रकट हो जायँगे।

परम प्रभु अपने ही महुँ पायो ५३··

परमात्मा सब जगह पूर्णरूपसे हैं। उनके चरण भी यहीं हैं, मस्तक भी यहीं है, मुख भी यहीं है, उदर भी यहीं है। अतः उनके चरणोंका पूजन भी यहीं कर लो, मस्तकपर फूल भी यहीं चढ़ा दो और भोग भी यहीं लगा दो। एक ही जगह सब कुछ है।

पायो परम बिश्रामु ११६··

मनचाही कल्पना मत करो कि भगवान् ऐसे होने चाहिये, इस रूपसे होने चाहिये। अपना कुछ भी आग्रह मत रखो। सब काम ठीक हो जायगा — इसमें सन्देह नहीं है। अपनी सब कल्पना छोड़कर यह सब भगवान् ही है' इसमें मस्त हो जाओ। अपने मनचाहे भगवान्‌के मिलनेमें देरी लगती है, पर सबको भगवान् माने तो देरी नहीं लगती।

ईसवर अंस जीव अबिनासी १२८··

जैसे ‘मैं हूँ' – इसका अनुभव होता है, इसमें कोई सन्देह नहीं होता, ऐसे ही 'वासुदेवः सर्वम्' का अनुभव होना चाहिये । अनुभवकी पहचान क्या है ? पहचान यह है कि राग-द्वेष सर्वथा मिट जायँ, सुखासक्ति सर्वथा मिट जाय। मैं तू यह वह नहीं रहें, केवल 'है' रहे।

रहस्यमयी वार्ता २१२··

‘सब कुछ परमात्मा ही हैं' – इसको समझनेमें जोर नहीं लगाना है, प्रत्युत यह तो स्वतः - स्वाभाविक है - ऐसे उदासीनतापूर्वक स्थिति करना है कि वास्तवमें है ही ऐसा। स्थूल सूक्ष्म - कारणशरीर भी 'वासुदेवः सर्वम्' में ही हैं। ऐसा करके 'चुप' हो जायँ । विचारको पकड़े न रखें, प्रत्युत विचार करके फिर उसे भी छोड़ दें और 'चुप' हो जायँ। इसमें दो बातें खास हुईं - एक तो शरीरको भी 'वासुदेवः सर्वम्' में देखें और एक 'चुप' हो जायँ। हमारी समझमें नहीं आया, पर है तो वासुदेव ही - ऐसे मान लें। जोर लगाकर समझनेकी अपेक्षा मानकर 'चुप' होना बढ़िया है। 'चुप' होनेसे 'है' में स्थिति हो जायगी और अहम् मिट जायगा।

रहस्यमयी वार्ता २१२-२१३··

वास्तवमें सच्ची बात यह है कि सब भगवान् हैं । अन्तमें इसी जगह पहुँचना पड़ेगा। आप साधनमें कितने ही वर्ष लगा दो, कितने ही जन्म लगा दो, पर अन्तमें यही बात होगी। अगर पहले ही मान लो तो क्या हर्ज है ?

बन गये आप अकेले सब कुछ ९··

एकतामें अनेकता और अनेकतामें एकता- यह सिद्धान्त है। एक परमात्माकी ही सत्ता है, उसके सिवाय कुछ है ही नहीं, और वह मेरा है - ऐसा जब हो जायगा, तब प्रेमकी प्राप्ति हो जायगी।

अनन्तकी ओर ५९··

केवल कहने-सुननेसे सबमें भगवद्बुद्धि नहीं होगी, प्रत्युत 'सब सुखी हो जायँ' – ऐसा भाव होनेसे सबमें भगवद्बुद्धि होगी।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश २२३··

मेरा कुछ नहीं है, सब कुछ भगवान्‌का ही है - इस सत्यकी स्वीकृति होते ही 'सब कुछ भगवान् ही हैं' - यह सत्य प्रकट हो जायगा।

मानवमात्रके कल्याणके लिये २२०··

शरीरको संसारका मानकर संसारकी सेवामें लगा दें और शरीर, मन, वाणीसे किसीका भी बुरा न चाहें तो 'वासुदेवः सर्वम्' का अनुभव हो जायगा।

अमरताकी ओर ७४··

साधकको दृढ़तासे मानना चाहिये कि जो दीख रहा है, वह भगवान्‌का स्वरूप है और जो हो रहा है, वह भगवान्‌की लीला है। ऐसा मानने ( स्वीकार करने) पर जगत् जगत् रूपसे नहीं रहेगा और 'भगवान्के सिवाय कुछ नहीं है' – इसका अनुभव हो जायगा।

सत्संग-मुक्ताहार ५८-५९··

सब जगह भगवान्‌को देखनेवालेसे भगवान् कभी छिप नहीं सकते - यह रहस्यकी बात है।....... सब जगह भगवान्‌को ही देखना उनको पकड़नेका उत्तम साधन है।

सत्संगके फूल १३४··

खेलमें छिपे हुए बालकको दूसरा बालक देख ले तो वह सामने आ जाता है कि अब तो इसने मुझे देख लिया, अब क्या छिपना । ऐसे ही भगवान् सब जगह छिपे हुए हैं। अगर साधक सब जगह भगवान्‌को देखे तो फिर भगवान् उससे छिपे नहीं रहेंगे, सामने आ जायँगे।

अमृत-बिन्दु ४१३··

वासुदेवः सर्वम्' का अनुभव होनेपर फिर भक्त और भगवान् — दोनोंमें परस्पर प्रेम-ही- प्रेम शेष रहता है। इसीको शास्त्रोंमें प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम, अनन्तरस आदि नामोंसे कहा गया है।

साधक संजीवनी ७। १७ परि०··