यह सिद्धान्त है कि जो वस्तु मिलती है और बिछुड़ जाती है, वह अपनी नहीं होती। अपनी वस्तु वही हो सकती है, जो सदा हमारे साथ रहे और हम सदा उसके साथ रहें।
||श्रीहरि:||
यह सिद्धान्त है कि जो वस्तु मिलती है और बिछुड़ जाती है, वह अपनी नहीं होती। अपनी वस्तु वही हो सकती है, जो सदा हमारे साथ रहे और हम सदा उसके साथ रहें।- मानवमात्रके कल्याणके लिये १५
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मानवमात्रके कल्याणके लिये १५··
संसारकी वस्तुको अपना मान लेना बेईमानी है और इसी बेईमानीका दण्ड है - जन्म - मृत्युरूप महान् दुःख।
||श्रीहरि:||
संसारकी वस्तुको अपना मान लेना बेईमानी है और इसी बेईमानीका दण्ड है - जन्म - मृत्युरूप महान् दुःख।- सत्यकी खोज ३१-३२
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सत्यकी खोज ३१-३२··
प्राप्त वस्तुका सदुपयोग है - वस्तुको अपनी न मानना और जहाँ आवश्यकता दीखे, वहाँ उस वस्तुको दूसरोंकी सेवामें लगाना।
||श्रीहरि:||
प्राप्त वस्तुका सदुपयोग है - वस्तुको अपनी न मानना और जहाँ आवश्यकता दीखे, वहाँ उस वस्तुको दूसरोंकी सेवामें लगाना।- प्रश्नोत्तरमणिमाला ४७०
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प्रश्नोत्तरमणिमाला ४७०··
सब वस्तुएँ शरीरतक पहुँचती हैं, आपतक नहीं पहुँचतीं।
||श्रीहरि:||
सब वस्तुएँ शरीरतक पहुँचती हैं, आपतक नहीं पहुँचतीं।- सत्संगके फूल १४७
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सत्संगके फूल १४७··
जहाँ वस्तुएँ अधिक होती हैं तथा अधिक वस्तुओंकी जरूरत होती है, वहीं दरिद्रता होती है।
||श्रीहरि:||
जहाँ वस्तुएँ अधिक होती हैं तथा अधिक वस्तुओंकी जरूरत होती है, वहीं दरिद्रता होती है।- सत्संगके फूल ११७
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सत्संगके फूल ११७··
जो अपने सुखके लिये अनेक वस्तुओंकी इच्छा करता है, उसको वस्तुओंके अभावका दुःख भोगना ही पड़ेगा। उसका अभाव कभी मिटेगा नहीं।
||श्रीहरि:||
जो अपने सुखके लिये अनेक वस्तुओंकी इच्छा करता है, उसको वस्तुओंके अभावका दुःख भोगना ही पड़ेगा। उसका अभाव कभी मिटेगा नहीं।- सत्संगके फूल १६०
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सत्संगके फूल १६०··
वस्तुओंका दुरुपयोग न करें, संग्रह न करें, उनमें ममता न करें तो वस्तुएँ आनेको लालायित रहती हैं। ममता करनेसे वस्तुएँ भयभीत होती हैं।
||श्रीहरि:||
वस्तुओंका दुरुपयोग न करें, संग्रह न करें, उनमें ममता न करें तो वस्तुएँ आनेको लालायित रहती हैं। ममता करनेसे वस्तुएँ भयभीत होती हैं।- सागरके मोती ५१
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सागरके मोती ५१··
जो वस्तुकी इच्छा करता है, वस्तुका दुरुपयोग करता है और वस्तुका संग्रह करता है, उसके पास आनेसे वस्तु डरती है।
||श्रीहरि:||
जो वस्तुकी इच्छा करता है, वस्तुका दुरुपयोग करता है और वस्तुका संग्रह करता है, उसके पास आनेसे वस्तु डरती है।- स्वातिकी बूँदें १३१
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स्वातिकी बूँदें १३१··
भीतरमें लोभ नहीं होगा तो आवश्यक वस्तु अपने-आप आयेगी । यदि लोभ होगा तो आवश्यक वस्तु भी नहीं मिलेगी।
||श्रीहरि:||
भीतरमें लोभ नहीं होगा तो आवश्यक वस्तु अपने-आप आयेगी । यदि लोभ होगा तो आवश्यक वस्तु भी नहीं मिलेगी।- सागरके मोती ८६
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सागरके मोती ८६··
निर्जीव वस्तुका भी निरादर, अपमान, तिरस्कार मत करो। निरादर करनेसे निर्जीव वस्तु भी नष्ट, खराब हो जाती है। किसीका भी अपमान करोगे तो भगवान् राजी नहीं होंगे; क्योंकि सब भगवान्का ही विराट्रूप है।
||श्रीहरि:||
निर्जीव वस्तुका भी निरादर, अपमान, तिरस्कार मत करो। निरादर करनेसे निर्जीव वस्तु भी नष्ट, खराब हो जाती है। किसीका भी अपमान करोगे तो भगवान् राजी नहीं होंगे; क्योंकि सब भगवान्का ही विराट्रूप है।- सागरके मोती ९२
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सागरके मोती ९२··
जब मनुष्य कामनारहित हो जाता है, तब उससे सभी वस्तुएँ प्रसन्न हो जाती हैं। वस्तुओंके प्रसन्न होनेकी पहचान यह है कि उस निष्काम महापुरुषके पास आवश्यक वस्तुएँ अपने-आप आने लगती हैं।
||श्रीहरि:||
जब मनुष्य कामनारहित हो जाता है, तब उससे सभी वस्तुएँ प्रसन्न हो जाती हैं। वस्तुओंके प्रसन्न होनेकी पहचान यह है कि उस निष्काम महापुरुषके पास आवश्यक वस्तुएँ अपने-आप आने लगती हैं।- साधक संजीवनी २ । ७० परि०
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साधक संजीवनी २ । ७० परि०··
जैसे माँका दूध उसके अपने लिये न होकर बच्चेके लिये ही है, ऐसे ही मनुष्यके पास जितनी भी सामग्री है, वह उसके अपने लिये न होकर दूसरोंके लिये ही है।
||श्रीहरि:||
जैसे माँका दूध उसके अपने लिये न होकर बच्चेके लिये ही है, ऐसे ही मनुष्यके पास जितनी भी सामग्री है, वह उसके अपने लिये न होकर दूसरोंके लिये ही है।- साधक संजीवनी ३ । १२ वि०
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साधक संजीवनी ३ । १२ वि०··
जो वस्तु निरन्तर नहीं रहती, अपितु बदलती रहती है, वह वास्तवमें नहीं होती और उसका सम्बन्ध भी निरन्तर नहीं रहता – यह सिद्धान्त है।
||श्रीहरि:||
जो वस्तु निरन्तर नहीं रहती, अपितु बदलती रहती है, वह वास्तवमें नहीं होती और उसका सम्बन्ध भी निरन्तर नहीं रहता – यह सिद्धान्त है।- साधक संजीवनी ३।१९
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साधक संजीवनी ३।१९··
भगवान्ने मनुष्यको ये वस्तुएँ इतनी उदारतापूर्वक और इस ढंगसे दी हैं कि मनुष्यको ये वस्तुएँ अपनी ही दीखने लगती हैं। इन वस्तुओंको अपनी मान लेना भगवान्की उदारताका दुरुपयोग करना है।
||श्रीहरि:||
भगवान्ने मनुष्यको ये वस्तुएँ इतनी उदारतापूर्वक और इस ढंगसे दी हैं कि मनुष्यको ये वस्तुएँ अपनी ही दीखने लगती हैं। इन वस्तुओंको अपनी मान लेना भगवान्की उदारताका दुरुपयोग करना है।- साधक संजीवनी ३ | ३१
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साधक संजीवनी ३ | ३१··
वास्तवमें महत्त्व वस्तुका नहीं, प्रत्युत उसके उपयोगका होता है।
||श्रीहरि:||
वास्तवमें महत्त्व वस्तुका नहीं, प्रत्युत उसके उपयोगका होता है।- साधक संजीवनी ३ | ३८
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साधक संजीवनी ३ | ३८··
जो जिस वस्तुकी निन्दा, तिरस्कार करता है, वह उस वस्तुसे लाभ नहीं उठा सकता।
||श्रीहरि:||
जो जिस वस्तुकी निन्दा, तिरस्कार करता है, वह उस वस्तुसे लाभ नहीं उठा सकता।- ईसवर अंस जीव अबिनासी १३४
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ईसवर अंस जीव अबिनासी १३४··
वस्तुओंमें जो अपनापन दीखता है, वह वास्तवमें केवल उनका सदुपयोग करनेके लिये है, उनपर अपना अधिकार जमानेके लिये नहीं।
||श्रीहरि:||
वस्तुओंमें जो अपनापन दीखता है, वह वास्तवमें केवल उनका सदुपयोग करनेके लिये है, उनपर अपना अधिकार जमानेके लिये नहीं।- साधक संजीवनी ४।१४
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साधक संजीवनी ४।१४··
संसारकी किसी भी वस्तु ( शरीरादि) से सम्बन्ध जुड़नेपर अर्थात् उसे अपनी माननेपर पूरे संसारसे अपने-आप सम्बन्ध जुड़ जाता है।
||श्रीहरि:||
संसारकी किसी भी वस्तु ( शरीरादि) से सम्बन्ध जुड़नेपर अर्थात् उसे अपनी माननेपर पूरे संसारसे अपने-आप सम्बन्ध जुड़ जाता है।- साधक संजीवनी ५।११
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साधक संजीवनी ५।११··
सम्पूर्ण सृष्टिके एकमात्र स्वामी भगवान् ही हैं, फिर कोई ईमानदार व्यक्ति सृष्टिकी किसी भी वस्तुको अपनी कैसे मान सकता है ?
||श्रीहरि:||
सम्पूर्ण सृष्टिके एकमात्र स्वामी भगवान् ही हैं, फिर कोई ईमानदार व्यक्ति सृष्टिकी किसी भी वस्तुको अपनी कैसे मान सकता है ?- साधक संजीवनी ५।२९
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साधक संजीवनी ५।२९··
अगर यह जीव प्रकृतिकी वस्तुओंमेंसे किसी भी वस्तुको अपनी मानता रहेगा तो उसको वहम तो यह होगा कि 'मैं इस वस्तुका मालिक हूँ, पर हो जायगा उस वस्तुके परवश, पराधीन।
||श्रीहरि:||
अगर यह जीव प्रकृतिकी वस्तुओंमेंसे किसी भी वस्तुको अपनी मानता रहेगा तो उसको वहम तो यह होगा कि 'मैं इस वस्तुका मालिक हूँ, पर हो जायगा उस वस्तुके परवश, पराधीन।- साधक संजीवनी ८ । १९
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साधक संजीवनी ८ । १९··
सृष्टिकी प्रत्येक वस्तु, व्यक्ति आदि प्रतिक्षण नाशकी ओर जा रहे हैं। हम जिस वस्तु, व्यक्ति आदिमें सुन्दरता, बलवत्ता आदि विशेषता देखते हैं, वे एक दिन नष्ट जाते हैं। अतः सृष्टिकी प्रत्येक वस्तु मानो यह क्रियात्मक उपदेश दे रही है कि मेरी तरफ मत देखो, मैं तो रहूँगी नहीं, मेरेको बनानेवालेकी तरफ देखो। मेरेमें जो सुन्दरता, सामर्थ्य, विलक्षणता आदि दीख रही है, यह मेरी नहीं है, प्रत्युत उसकी है।
||श्रीहरि:||
सृष्टिकी प्रत्येक वस्तु, व्यक्ति आदि प्रतिक्षण नाशकी ओर जा रहे हैं। हम जिस वस्तु, व्यक्ति आदिमें सुन्दरता, बलवत्ता आदि विशेषता देखते हैं, वे एक दिन नष्ट जाते हैं। अतः सृष्टिकी प्रत्येक वस्तु मानो यह क्रियात्मक उपदेश दे रही है कि मेरी तरफ मत देखो, मैं तो रहूँगी नहीं, मेरेको बनानेवालेकी तरफ देखो। मेरेमें जो सुन्दरता, सामर्थ्य, विलक्षणता आदि दीख रही है, यह मेरी नहीं है, प्रत्युत उसकी है।- साधक संजीवनी १०।४१ परि०
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साधक संजीवनी १०।४१ परि०··
यह बड़े आश्चर्यकी बात है कि परमात्माकी दी हुई चीज तो अच्छी लगती है, पर परमात्मा स्वयं अच्छे नहीं लगते।
||श्रीहरि:||
यह बड़े आश्चर्यकी बात है कि परमात्माकी दी हुई चीज तो अच्छी लगती है, पर परमात्मा स्वयं अच्छे नहीं लगते।- स्वातिकी बूँदें ५६
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स्वातिकी बूँदें ५६··
मनुष्यसे यह बहुत बड़ी भूल होती है कि वह मिली हुई वस्तुको तो अपनी मान लेता है, पर जहाँसे वह मिली है, उस देनेवालेकी तरफ उसकी दृष्टि जाती ही नहीं। वह मिली हुई वस्तुको तो देखता है, पर देनेवालेको देखता ही नहीं। कार्यको तो देखता है, पर जिसकी शक्तिसे कार्य हुआ, उस कारणको देखता ही नहीं। वास्तवमें वस्तु अपनी नहीं है, प्रत्युत देनेवाला अपना है।
||श्रीहरि:||
मनुष्यसे यह बहुत बड़ी भूल होती है कि वह मिली हुई वस्तुको तो अपनी मान लेता है, पर जहाँसे वह मिली है, उस देनेवालेकी तरफ उसकी दृष्टि जाती ही नहीं। वह मिली हुई वस्तुको तो देखता है, पर देनेवालेको देखता ही नहीं। कार्यको तो देखता है, पर जिसकी शक्तिसे कार्य हुआ, उस कारणको देखता ही नहीं। वास्तवमें वस्तु अपनी नहीं है, प्रत्युत देनेवाला अपना है।- साधक संजीवनी १० । ४१ परि०
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साधक संजीवनी १० । ४१ परि०··
अपनी वस्तु दूसरेके काम आ जाय तो आनन्द मनाओ। पर जहाँतक बने, आप दूसरेकी वस्तु अपने काममें मत लो।
||श्रीहरि:||
अपनी वस्तु दूसरेके काम आ जाय तो आनन्द मनाओ। पर जहाँतक बने, आप दूसरेकी वस्तु अपने काममें मत लो।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ८०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सीमाके भीतर असीम प्रकाश ८०··
दूसरेकी प्रसन्नतासे मिली हुई वस्तु दूधके समान है, माँगकर ली हुई वस्तु पानीके समान है और दूसरेका दिल दुखाकर ली हुई वस्तु रक्तके समान है।
||श्रीहरि:||
दूसरेकी प्रसन्नतासे मिली हुई वस्तु दूधके समान है, माँगकर ली हुई वस्तु पानीके समान है और दूसरेका दिल दुखाकर ली हुई वस्तु रक्तके समान है।- अमृत-बिन्दु ९७१
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
अमृत-बिन्दु ९७१··
लखपति - करोड़पति - अरबपतिको भी आवश्यक वस्तुओंकी कमी रहती है, पर भगवान्में लगे हुएको आवश्यकतासे पहले ही वस्तु प्राप्त हो जाती है।
||श्रीहरि:||
लखपति - करोड़पति - अरबपतिको भी आवश्यक वस्तुओंकी कमी रहती है, पर भगवान्में लगे हुएको आवश्यकतासे पहले ही वस्तु प्राप्त हो जाती है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ३६
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश ३६··
सच्चे हृदयसे परमात्मामें लग जाओ तो निर्वाहकी आवश्यक वस्तु जरूर मिलती है - इसमें विकल्प अथवा सन्देह नहीं है।
||श्रीहरि:||
सच्चे हृदयसे परमात्मामें लग जाओ तो निर्वाहकी आवश्यक वस्तु जरूर मिलती है - इसमें विकल्प अथवा सन्देह नहीं है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ३८
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश ३८··
चाहना करनेसे वस्तु मिलती है - यह नियम नहीं है, और चाहना न करनेसे वस्तु नहीं मिलती- यह भी नियम नहीं है। वस्तुके मिलने या न मिलनेमें चाहना कारण नहीं है, प्रत्युत पूर्वकृत कर्म कारण हैं।
||श्रीहरि:||
चाहना करनेसे वस्तु मिलती है - यह नियम नहीं है, और चाहना न करनेसे वस्तु नहीं मिलती- यह भी नियम नहीं है। वस्तुके मिलने या न मिलनेमें चाहना कारण नहीं है, प्रत्युत पूर्वकृत कर्म कारण हैं।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ १२३
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ १२३··
उत्पत्ति - विनाशशील वस्तुमात्र कर्मफल है।
||श्रीहरि:||
उत्पत्ति - विनाशशील वस्तुमात्र कर्मफल है।- साधक संजीवनी ४ । १४
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ४ । १४··
जबतक आपके भीतर यह बात रहेगी कि मिली हुई वस्तु अपनी और अपने लिये है, तबतक धोखा - ही धोखा, धोखा ही धोखा, धोखा- ही धोखा होगा - यह अकाट्य नियम है, जो कभी फेल नहीं होगा। आप इस एक बातपर खूब गहरा विचार करो । मिले हुएको अपना माननेसे सिवाय रोनेके कुछ नहीं मिलेगा। सदा रोते ही रहोगे।
||श्रीहरि:||
जबतक आपके भीतर यह बात रहेगी कि मिली हुई वस्तु अपनी और अपने लिये है, तबतक धोखा - ही धोखा, धोखा ही धोखा, धोखा- ही धोखा होगा - यह अकाट्य नियम है, जो कभी फेल नहीं होगा। आप इस एक बातपर खूब गहरा विचार करो । मिले हुएको अपना माननेसे सिवाय रोनेके कुछ नहीं मिलेगा। सदा रोते ही रहोगे।- अनन्तकी ओर ९
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अनन्तकी ओर ९··
अपनेको जो भी चीज मिली हैं, वह अपने कामकी नहीं है - यह मार्मिक बात है । अपनेको जो शरीर, इन्द्रियाँ, प्राण, मन, बुद्धि, पदार्थ, धन, जमीन, मकान, स्त्री-पुत्र, कुटुम्बी आदि मिले हुए हैं, वे सब बिछुड़नेवाले हैं। फिर मिले हुए व्यक्ति वस्तुओंसे कितने दिन काम चलाओगे ?
||श्रीहरि:||
अपनेको जो भी चीज मिली हैं, वह अपने कामकी नहीं है - यह मार्मिक बात है । अपनेको जो शरीर, इन्द्रियाँ, प्राण, मन, बुद्धि, पदार्थ, धन, जमीन, मकान, स्त्री-पुत्र, कुटुम्बी आदि मिले हुए हैं, वे सब बिछुड़नेवाले हैं। फिर मिले हुए व्यक्ति वस्तुओंसे कितने दिन काम चलाओगे ?- सीमाके भीतर असीम प्रकाश २०७
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सीमाके भीतर असीम प्रकाश २०७··
मनुष्यको वस्तु गुलाम नहीं बनाती, उसकी इच्छा गुलाम बनाती है।
||श्रीहरि:||
मनुष्यको वस्तु गुलाम नहीं बनाती, उसकी इच्छा गुलाम बनाती है।- अमृत-बिन्दु १०८
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
अमृत-बिन्दु १०८··
न तो किसी वस्तुको अपनी और अपने लिये मानना चाहिये तथा न किसी वस्तुकी कामना करनी चाहिये; क्योंकि वस्तुको अपनी माननेसे अशुद्धि आती है और कामना करनेसे अशान्ति आती है।
||श्रीहरि:||
न तो किसी वस्तुको अपनी और अपने लिये मानना चाहिये तथा न किसी वस्तुकी कामना करनी चाहिये; क्योंकि वस्तुको अपनी माननेसे अशुद्धि आती है और कामना करनेसे अशान्ति आती है।- अमृत-बिन्दु ५३९
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
अमृत-बिन्दु ५३९··
वस्तुको दूसरेके हितमें लगाना उसका सदुपयोग है और अपने भोगमें लगाना उसका दुरुपयोग है।
||श्रीहरि:||
वस्तुको दूसरेके हितमें लगाना उसका सदुपयोग है और अपने भोगमें लगाना उसका दुरुपयोग है।- अमृत-बिन्दु ७८५
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अमृत-बिन्दु ७८५··
बढ़िया - से- बढ़िया चीज वास्तवमें पारमार्थिक कार्यके लिये ही है।
||श्रीहरि:||
बढ़िया - से- बढ़िया चीज वास्तवमें पारमार्थिक कार्यके लिये ही है।- मैं नहीं, मेरा नहीं २०
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मैं नहीं, मेरा नहीं २०··
एक सन्त कहते थे कि जितनी बढ़िया चीजें हैं, वे भगवान् ने अपने प्यारे भक्तोंके लिये ही बनायी हैं, पर बीचमें धनी, भोगी लोग उनको लूट लेते हैं, इसीलिये दुःख पाते हैं।
||श्रीहरि:||
एक सन्त कहते थे कि जितनी बढ़िया चीजें हैं, वे भगवान् ने अपने प्यारे भक्तोंके लिये ही बनायी हैं, पर बीचमें धनी, भोगी लोग उनको लूट लेते हैं, इसीलिये दुःख पाते हैं।- ज्ञानके दीप जले ३४