वक्ताके अनुभवमें और श्रोताके अनुभवमें बड़ा फर्क है । वक्ताका जो अनुभव है, वह उसकी बुद्धिमें पूरा नहीं आता। जितना बुद्धिमें आता है, उतना मनमें नहीं आता। जितना मनमें आता है, उतना वाणीमें नहीं आता। वाणीसे निकली हुई बातको श्रोता जितना सुनता है, उतना मनसे मनन नहीं करता। जितना मनन करता है, उतना बुद्धिसे निश्चय नहीं करता। जितना निश्चय करता है, उतना अनुभव नहीं करता।
||श्रीहरि:||
वक्ताके अनुभवमें और श्रोताके अनुभवमें बड़ा फर्क है । वक्ताका जो अनुभव है, वह उसकी बुद्धिमें पूरा नहीं आता। जितना बुद्धिमें आता है, उतना मनमें नहीं आता। जितना मनमें आता है, उतना वाणीमें नहीं आता। वाणीसे निकली हुई बातको श्रोता जितना सुनता है, उतना मनसे मनन नहीं करता। जितना मनन करता है, उतना बुद्धिसे निश्चय नहीं करता। जितना निश्चय करता है, उतना अनुभव नहीं करता।- ज्ञानके दीप जले ८६
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ज्ञानके दीप जले ८६··
एक तो शब्दकी शक्ति है और एक अनुभवकी शक्ति है। अनुभवरहित शब्द तो केवल बारूदसे भरी बन्दूकके समान है, जो केवल आवाज करके शान्त हो जाती है, पर अनुभवयुक्त शब्द गोलीसे भरी बन्दूकके समान है, जो आवाजके साथ-साथ चोट भी करती है। इसलिये अनुभवी सन्तकी वाणीका श्रोतापर जैसा असर पड़ता है, वैसा असर अनुभव न किये हुए पुरुषकी वाणीका नहीं पड़ता।
||श्रीहरि:||
एक तो शब्दकी शक्ति है और एक अनुभवकी शक्ति है। अनुभवरहित शब्द तो केवल बारूदसे भरी बन्दूकके समान है, जो केवल आवाज करके शान्त हो जाती है, पर अनुभवयुक्त शब्द गोलीसे भरी बन्दूकके समान है, जो आवाजके साथ-साथ चोट भी करती है। इसलिये अनुभवी सन्तकी वाणीका श्रोतापर जैसा असर पड़ता है, वैसा असर अनुभव न किये हुए पुरुषकी वाणीका नहीं पड़ता।- साधन-सुधा-सिन्धु १६५
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साधन-सुधा-सिन्धु १६५··
जिसके अन्तःकरणमें कामना, ममता, आसक्ति, स्वार्थ, पक्षपात आदि दोष नहीं हैं और नाशवान् पदार्थोंका महत्त्व या कुछ भी लेनेका भाव नहीं है, ऐसे मनुष्यके द्वारा कहे हुए वचनोंका प्रभाव दूसरोंपर स्वतः पड़ता है और वे उसके वचनानुसार स्वयं आचरण करने भी लग जाते हैं।
||श्रीहरि:||
जिसके अन्तःकरणमें कामना, ममता, आसक्ति, स्वार्थ, पक्षपात आदि दोष नहीं हैं और नाशवान् पदार्थोंका महत्त्व या कुछ भी लेनेका भाव नहीं है, ऐसे मनुष्यके द्वारा कहे हुए वचनोंका प्रभाव दूसरोंपर स्वतः पड़ता है और वे उसके वचनानुसार स्वयं आचरण करने भी लग जाते हैं।- साधक संजीवनी ३ । २१ वि०
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साधक संजीवनी ३ । २१ वि०··
नामजप करनेवाले, कीर्तन करनेवाले, भगवान्में मन लगानेवालेकी वाणीमें एक विलक्षण शक्ति होती है, जिसका दूसरेपर असर पड़ता है। जिनको तत्त्वज्ञान प्राप्त हो गया है, उनकी बातों में एक विलक्षण शक्ति रहती है। वह शक्ति केवल विद्वत्तासे नहीं आती।
||श्रीहरि:||
नामजप करनेवाले, कीर्तन करनेवाले, भगवान्में मन लगानेवालेकी वाणीमें एक विलक्षण शक्ति होती है, जिसका दूसरेपर असर पड़ता है। जिनको तत्त्वज्ञान प्राप्त हो गया है, उनकी बातों में एक विलक्षण शक्ति रहती है। वह शक्ति केवल विद्वत्तासे नहीं आती।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ १०६
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ १०६··
वर्तमानमें पारमार्थिक ( भगवत्सम्बन्धी) भावोंका प्रचार करनेवाले बहुत से पुरुषोंके होनेपर भी लोगों पर उन भावोंका प्रभाव बहुत कम दिखायी देता है। इसका कारण यही है कि प्रायः वक्ता जैसा कहता है, वैसा स्वयं पूरा आचरण नहीं करता।
||श्रीहरि:||
वर्तमानमें पारमार्थिक ( भगवत्सम्बन्धी) भावोंका प्रचार करनेवाले बहुत से पुरुषोंके होनेपर भी लोगों पर उन भावोंका प्रभाव बहुत कम दिखायी देता है। इसका कारण यही है कि प्रायः वक्ता जैसा कहता है, वैसा स्वयं पूरा आचरण नहीं करता।- साधक संजीवनी ३ । २१
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साधक संजीवनी ३ । २१··
भगवान्की कथा तो किसीसे भी सुनें, सुननेसे लाभ होता है। अगर कथा कहनेवाला प्रेमी भक्त हो तो बहुत विलक्षणता आती है । परन्तु तात्त्विक विवेचन जीवन्मुक्त, तत्त्वज्ञ महापुरुषसे सुननेपर ही लाभ होता है।
||श्रीहरि:||
भगवान्की कथा तो किसीसे भी सुनें, सुननेसे लाभ होता है। अगर कथा कहनेवाला प्रेमी भक्त हो तो बहुत विलक्षणता आती है । परन्तु तात्त्विक विवेचन जीवन्मुक्त, तत्त्वज्ञ महापुरुषसे सुननेपर ही लाभ होता है।- मेरे तो गिरधर गोपाल ३२
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मेरे तो गिरधर गोपाल ३२··
जो भगवान्की कथा सुनाते हैं, भगवान्की लीलाका वर्णन करते हैं, भगवान्की चर्चा करते हैं, वे अनुभवी न हों तो भी लाभ होता है। परन्तु उनको तात्त्विक, उपदेशकी बातें कहनेका अधिकार नहीं है। इसका अधिकार उनको है, जिन्होंने अनुभव करके देखा है।
||श्रीहरि:||
जो भगवान्की कथा सुनाते हैं, भगवान्की लीलाका वर्णन करते हैं, भगवान्की चर्चा करते हैं, वे अनुभवी न हों तो भी लाभ होता है। परन्तु उनको तात्त्विक, उपदेशकी बातें कहनेका अधिकार नहीं है। इसका अधिकार उनको है, जिन्होंने अनुभव करके देखा है।- अनन्तकी ओर ५८
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अनन्तकी ओर ५८··
सुननेवाला जिज्ञासु हो और सुनानेवाला अनुभवी हो, तब विशेष लाभ होता है।
||श्रीहरि:||
सुननेवाला जिज्ञासु हो और सुनानेवाला अनुभवी हो, तब विशेष लाभ होता है।- ज्ञानके दीप जले १०८
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ज्ञानके दीप जले १०८··
बोलना श्रोताओंकी दृष्टिसे ही होता है। श्रोता जिस श्रेणीका हो, उसी श्रेणीमें सन्त महात्मा बोलते हैं।
||श्रीहरि:||
बोलना श्रोताओंकी दृष्टिसे ही होता है। श्रोता जिस श्रेणीका हो, उसी श्रेणीमें सन्त महात्मा बोलते हैं।- सागरके मोती १२२
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सागरके मोती १२२··
जिनके भीतर राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि भरे हैं, उन वक्ताओंके द्वारा अच्छा प्रचार नहीं होता, प्रत्युत उनके द्वारा समाजमें गन्दगी फैलती है । जैसे, विष्ठासे भरा झाड़ू कूड़ा तो साफ कर देता है, पर और गन्दगी भी फैला देता है।
||श्रीहरि:||
जिनके भीतर राग-द्वेष, काम-क्रोध आदि भरे हैं, उन वक्ताओंके द्वारा अच्छा प्रचार नहीं होता, प्रत्युत उनके द्वारा समाजमें गन्दगी फैलती है । जैसे, विष्ठासे भरा झाड़ू कूड़ा तो साफ कर देता है, पर और गन्दगी भी फैला देता है।- सागरके मोती १५४
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सागरके मोती १५४··
गीता पढ़नेवालेका व्यवहार अच्छा होनेसे गीताका प्रचार होता है। सत्संग करनेवालेका व्यवहार अच्छा होनेसे सत्संगका प्रचार होता है । व्याख्यानके अपेक्षा आचरणका विशेष असर पड़ता है। रावणकी विद्या तो तेज थी, पर आचरण ठीक नहीं था।
||श्रीहरि:||
गीता पढ़नेवालेका व्यवहार अच्छा होनेसे गीताका प्रचार होता है। सत्संग करनेवालेका व्यवहार अच्छा होनेसे सत्संगका प्रचार होता है । व्याख्यानके अपेक्षा आचरणका विशेष असर पड़ता है। रावणकी विद्या तो तेज थी, पर आचरण ठीक नहीं था।- स्वातिकी बूँदें १९२
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स्वातिकी बूँदें १९२··
अपने - अपने स्थान या क्षेत्रमें जो पुरुष मुख्य कहलाते हैं, उन अध्यापक, व्याख्यानदाता, आचार्य, गुरु, नेता, शासक, महन्त, कथावाचक, पुजारी आदि सभीको अपने आचरणोंमें विशेष सावधानी रखनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है, जिससे दूसरोंपर उनका अच्छा प्रभाव पड़े।
||श्रीहरि:||
अपने - अपने स्थान या क्षेत्रमें जो पुरुष मुख्य कहलाते हैं, उन अध्यापक, व्याख्यानदाता, आचार्य, गुरु, नेता, शासक, महन्त, कथावाचक, पुजारी आदि सभीको अपने आचरणोंमें विशेष सावधानी रखनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है, जिससे दूसरोंपर उनका अच्छा प्रभाव पड़े।- साधक संजीवनी ३ । २१ वि०
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साधक संजीवनी ३ । २१ वि०··
वक्ता स्वतन्त्र नहीं होता, प्रत्युत श्रोताके अधीन होता है। श्रोताओंके कारण ही वक्ताके भीतर बातें पैदा होती हैं। वक्ताको श्रोतासे अधिक लाभ होता है।
||श्रीहरि:||
वक्ता स्वतन्त्र नहीं होता, प्रत्युत श्रोताके अधीन होता है। श्रोताओंके कारण ही वक्ताके भीतर बातें पैदा होती हैं। वक्ताको श्रोतासे अधिक लाभ होता है।- सत्संगके फूल ११६
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सत्संगके फूल ११६··
कोई पुरुष व्याख्यान देते समय तो वक्ता ( व्याख्यानदाता) होता है, पर जब दूसरे समय में भी वह अपनेको वक्ता मानता रहता है, तब उसका कर्तृत्वाभिमान नहीं मिटता । अपनेको निरन्तर व्याख्यानदाता माननेसे ही उसके मनमें यह भाव आता है कि ' श्रोता मेरी सेवा करें, मेरा आदर करें, मेरी आवश्यकताओंकी पूर्ति करें'; और 'मैं इन साधारण आदमियोंके पास कैसे बैठ सकता हूँ, मैं यह साधारण काम कैसे कर सकता हूँ' आदि।
||श्रीहरि:||
कोई पुरुष व्याख्यान देते समय तो वक्ता ( व्याख्यानदाता) होता है, पर जब दूसरे समय में भी वह अपनेको वक्ता मानता रहता है, तब उसका कर्तृत्वाभिमान नहीं मिटता । अपनेको निरन्तर व्याख्यानदाता माननेसे ही उसके मनमें यह भाव आता है कि ' श्रोता मेरी सेवा करें, मेरा आदर करें, मेरी आवश्यकताओंकी पूर्ति करें'; और 'मैं इन साधारण आदमियोंके पास कैसे बैठ सकता हूँ, मैं यह साधारण काम कैसे कर सकता हूँ' आदि।- साधक संजीवनी ३।१९
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साधक संजीवनी ३।१९··
सुननेवाला वक्तामें श्रद्धा और प्रेम रखनेवाला हो और वक्ताके भीतर सुननेवालेके प्रति कृपापूर्वक हित - भावना हो तो वक्ताके वचन, उसके द्वारा कहा हुआ विषय श्रोताके भीतर अटलरूपसे जम जाता है।
||श्रीहरि:||
सुननेवाला वक्तामें श्रद्धा और प्रेम रखनेवाला हो और वक्ताके भीतर सुननेवालेके प्रति कृपापूर्वक हित - भावना हो तो वक्ताके वचन, उसके द्वारा कहा हुआ विषय श्रोताके भीतर अटलरूपसे जम जाता है।- साधक संजीवनी १० | १
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साधक संजीवनी १० | १··
भगवान्के प्रेमी भक्तोंको कोई सुननेवाला मिल जाता है तो वे उसको भगवान्की कथा, गुण, प्रभाव, रहस्य आदि सुनाते हैं; और कोई सुनानेवाला मिल जाता है तो स्वयं सुनने लग जाते हैं। परन्तु उनमें सुनाते समय 'वक्ता' बननेका अभिमान नहीं होता और सुनते समय 'श्रोता' बननेकी लज्जा नहीं होती।
||श्रीहरि:||
भगवान्के प्रेमी भक्तोंको कोई सुननेवाला मिल जाता है तो वे उसको भगवान्की कथा, गुण, प्रभाव, रहस्य आदि सुनाते हैं; और कोई सुनानेवाला मिल जाता है तो स्वयं सुनने लग जाते हैं। परन्तु उनमें सुनाते समय 'वक्ता' बननेका अभिमान नहीं होता और सुनते समय 'श्रोता' बननेकी लज्जा नहीं होती।- साधक संजीवनी १०।९
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साधक संजीवनी १०।९··
किसी ग्रन्थके किसी अंशपर शंका हो, तो उस ग्रन्थका आदिसे अन्ततक अध्ययन करके उसमें वक्ताके उद्देश्यको लक्ष्यको और आशयको समझनेसे उस शंकाका समाधान हो जाता है।
||श्रीहरि:||
किसी ग्रन्थके किसी अंशपर शंका हो, तो उस ग्रन्थका आदिसे अन्ततक अध्ययन करके उसमें वक्ताके उद्देश्यको लक्ष्यको और आशयको समझनेसे उस शंकाका समाधान हो जाता है।- साधक संजीवनी १० । ३६ टि०
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साधक संजीवनी १० । ३६ टि०··
स्वयंका प्रश्न न होनेसे सुनी हुई बात भी प्रायः लक्ष्यमें नहीं आती।.....इसी प्रकार अपने मनमें किसी विषयको जाननेकी पूर्ण अभिलाषा और उत्कण्ठाके अभावमें तथा अपना प्रश्न न होनेके कारण सत्संगमें सुनी हुई और शास्त्रोंमें पढ़ी हुई साधन सम्बन्धी मार्मिक और महत्त्वपूर्ण बातें प्रायः साधकोंके लक्ष्यमें नहीं आतीं । अतः साधकोंको चाहिये कि वे जो पढ़ें और सुनें, उसको अपने लिये ही मानकर जीवनमें उतारनेकी चेष्टा करें।
||श्रीहरि:||
स्वयंका प्रश्न न होनेसे सुनी हुई बात भी प्रायः लक्ष्यमें नहीं आती।.....इसी प्रकार अपने मनमें किसी विषयको जाननेकी पूर्ण अभिलाषा और उत्कण्ठाके अभावमें तथा अपना प्रश्न न होनेके कारण सत्संगमें सुनी हुई और शास्त्रोंमें पढ़ी हुई साधन सम्बन्धी मार्मिक और महत्त्वपूर्ण बातें प्रायः साधकोंके लक्ष्यमें नहीं आतीं । अतः साधकोंको चाहिये कि वे जो पढ़ें और सुनें, उसको अपने लिये ही मानकर जीवनमें उतारनेकी चेष्टा करें।- साधक संजीवनी १२ । २
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साधक संजीवनी १२ । २··
भगवत्सम्बन्धी बातें दूसरोंको सुनाते समय साधक वक्ताको यह सावधानी रखनी चाहिये कि वह दूसरोंकी अपेक्षा अपनेमें विशेषता न माने, प्रत्युत इसमें भगवान्की कृपा माने कि भगवान् ही श्रोताओंके रूपमें आकर मेरा समय सार्थक कर रहे हैं।
||श्रीहरि:||
भगवत्सम्बन्धी बातें दूसरोंको सुनाते समय साधक वक्ताको यह सावधानी रखनी चाहिये कि वह दूसरोंकी अपेक्षा अपनेमें विशेषता न माने, प्रत्युत इसमें भगवान्की कृपा माने कि भगवान् ही श्रोताओंके रूपमें आकर मेरा समय सार्थक कर रहे हैं।- साधक संजीवनी १६ । १
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साधक संजीवनी १६ । १··
सुननेवाले प्रेमसे, आदरसे सुनते हैं तो बड़ी अच्छी-अच्छी बातें पैदा होती हैं। वे अच्छी बातें भगवान् की कृपासे पैदा होती हैं। परन्तु उनको भगवान्का दिया हुआ न मानकर यह माने कि मैं बढ़िया बातें सुनाता हूँ तो यह अभिमान है।
||श्रीहरि:||
सुननेवाले प्रेमसे, आदरसे सुनते हैं तो बड़ी अच्छी-अच्छी बातें पैदा होती हैं। वे अच्छी बातें भगवान् की कृपासे पैदा होती हैं। परन्तु उनको भगवान्का दिया हुआ न मानकर यह माने कि मैं बढ़िया बातें सुनाता हूँ तो यह अभिमान है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ८५
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ८५··
सुननेवालेकी जिज्ञासाके कारण सुनानेवालेके भीतर अच्छी बात पैदा होती है, जिससे उन्हें खुदको आश्चर्य आता है कि ऐसी बात हमारे भीतर नहीं थी, फिर ऐसी बात हमारे भीतर कहाँसे आयी । परन्तु जहाँ सुननेवालोंका भाव न हो, वहाँ अच्छी बातें कहनेकी मनमें आनेपर भी कह नहीं सकते।
||श्रीहरि:||
सुननेवालेकी जिज्ञासाके कारण सुनानेवालेके भीतर अच्छी बात पैदा होती है, जिससे उन्हें खुदको आश्चर्य आता है कि ऐसी बात हमारे भीतर नहीं थी, फिर ऐसी बात हमारे भीतर कहाँसे आयी । परन्तु जहाँ सुननेवालोंका भाव न हो, वहाँ अच्छी बातें कहनेकी मनमें आनेपर भी कह नहीं सकते।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १७
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १७··
जो अच्छे वक्ता होते हैं, वे अच्छे श्रोता भी होते हैं। वे सुनाते हुए स्वयं भी सुनते हैं कि मुझे भी इन बातोंके अनुसार अपना जीवन बनाना है । परन्तु जिनका उद्देश्य केवल सुनानेका रहता है, वे रीते रह जाते हैं, उनका कल्याण नहीं होता।
||श्रीहरि:||
जो अच्छे वक्ता होते हैं, वे अच्छे श्रोता भी होते हैं। वे सुनाते हुए स्वयं भी सुनते हैं कि मुझे भी इन बातोंके अनुसार अपना जीवन बनाना है । परन्तु जिनका उद्देश्य केवल सुनानेका रहता है, वे रीते रह जाते हैं, उनका कल्याण नहीं होता।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १४३
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १४३··
लोग वक्ताको तो अपना मान लेते हैं, पर वक्ता जिसको श्रेष्ठ मानता है, उस भगवान्को अपना नहीं मानते। वक्ता श्रेष्ठ नहीं है, प्रत्युत वह जिनको श्रेष्ठ मानता है, वे भगवान् श्रेष्ठ हैं।
||श्रीहरि:||
लोग वक्ताको तो अपना मान लेते हैं, पर वक्ता जिसको श्रेष्ठ मानता है, उस भगवान्को अपना नहीं मानते। वक्ता श्रेष्ठ नहीं है, प्रत्युत वह जिनको श्रेष्ठ मानता है, वे भगवान् श्रेष्ठ हैं।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १८७
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १८७··
वास्तवमें श्रोता पढ़ाता है और वक्ता पढ़ता है। वक्ताको ज्यादा लाभ होता है और श्रोताको ज्यादा लाभ उठाना चाहिये।
||श्रीहरि:||
वास्तवमें श्रोता पढ़ाता है और वक्ता पढ़ता है। वक्ताको ज्यादा लाभ होता है और श्रोताको ज्यादा लाभ उठाना चाहिये।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश २१९
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश २१९··
श्रोताका यह भाव होना चाहिये कि वक्ता मेरे लिये ही कह रहा है। ऐसा भाव होनेसे ही श्रोता वक्तासे लाभ उठा सकता है।
||श्रीहरि:||
श्रोताका यह भाव होना चाहिये कि वक्ता मेरे लिये ही कह रहा है। ऐसा भाव होनेसे ही श्रोता वक्तासे लाभ उठा सकता है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश २१९
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश २१९··
नि:संदिग्ध व्यक्तिके वचनोंमें बल होता है। अतः जिस विषयका विवेचन करें, उस विषयमें खुद निःसंदिग्ध होना चाहिये । प्रमाद न हो, कुछ लेनेकी इच्छा न हो, कहने की युक्ति आती हो - ये गुण वक्तामें होने चाहिये।
||श्रीहरि:||
नि:संदिग्ध व्यक्तिके वचनोंमें बल होता है। अतः जिस विषयका विवेचन करें, उस विषयमें खुद निःसंदिग्ध होना चाहिये । प्रमाद न हो, कुछ लेनेकी इच्छा न हो, कहने की युक्ति आती हो - ये गुण वक्तामें होने चाहिये।- स्वातिकी बूँदें ६८-६९
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स्वातिकी बूँदें ६८-६९··
यह नियम है कि श्रोताकी प्रबल जिज्ञासा होनेपर वक्ता अपनेको छिपाकर नहीं रख सकता।
||श्रीहरि:||
यह नियम है कि श्रोताकी प्रबल जिज्ञासा होनेपर वक्ता अपनेको छिपाकर नहीं रख सकता।- साधक संजीवनी ४।५
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साधक संजीवनी ४।५··
कोई भी साधक श्रद्धापूर्वक पूछनेपर ही अपने प्रश्नका सही उत्तर प्राप्त कर सकता है। आक्षेपपूर्वक शंका करनेसे सही उत्तर प्राप्त कर पाना सम्भव नहीं।
||श्रीहरि:||
कोई भी साधक श्रद्धापूर्वक पूछनेपर ही अपने प्रश्नका सही उत्तर प्राप्त कर सकता है। आक्षेपपूर्वक शंका करनेसे सही उत्तर प्राप्त कर पाना सम्भव नहीं।- साधक संजीवनी ३।१
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ३।१··
सुननेवालोंकी श्रद्धा-भक्तिसे कहनेवालेको शक्ति मिलती है।
||श्रीहरि:||
सुननेवालोंकी श्रद्धा-भक्तिसे कहनेवालेको शक्ति मिलती है।- सागरके मोती ९७
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सागरके मोती ९७··
यह नियम है कि अपना आग्रह रखनेसे श्रोता वक्ताकी बातोंका आशय अच्छी तरहसे नहीं समझ सकता।
||श्रीहरि:||
यह नियम है कि अपना आग्रह रखनेसे श्रोता वक्ताकी बातोंका आशय अच्छी तरहसे नहीं समझ सकता।- साधक संजीवनी ३ अव०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ३ अव०··
मनुष्यके अन्तःकरणमें एक कमजोरी रहती है कि वह प्रश्न करके उत्तरके रूपमें भी वक्तासे अपनी बात अथवा सिद्धान्तका ही समर्थन चाहता है। इसे कमजोरी इसलिये कहा गया है कि वक्ता निर्देशका चाहे वह मनोऽनुकूल हो या सर्वथा प्रतिकूल, पालन करनेका निश्चय ही शूरवीरता है, शेष सब कमजोरी या कायरता ही कही जायगी।
||श्रीहरि:||
मनुष्यके अन्तःकरणमें एक कमजोरी रहती है कि वह प्रश्न करके उत्तरके रूपमें भी वक्तासे अपनी बात अथवा सिद्धान्तका ही समर्थन चाहता है। इसे कमजोरी इसलिये कहा गया है कि वक्ता निर्देशका चाहे वह मनोऽनुकूल हो या सर्वथा प्रतिकूल, पालन करनेका निश्चय ही शूरवीरता है, शेष सब कमजोरी या कायरता ही कही जायगी।- साधक संजीवनी ३।१
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ३।१··
दूसरोंको उपदेश देना, दूसरोंको समझाना अपनी मूर्खताको स्वीकार करना है, अपने अभिमानको स्वीकार करना है, दूसरोंको बेसमझ मानना है। दूसरोंको बेसमझ मानना और अपनेको समझदार मानना गुण नहीं है, दोष है, पतनकी चीज है।
||श्रीहरि:||
दूसरोंको उपदेश देना, दूसरोंको समझाना अपनी मूर्खताको स्वीकार करना है, अपने अभिमानको स्वीकार करना है, दूसरोंको बेसमझ मानना है। दूसरोंको बेसमझ मानना और अपनेको समझदार मानना गुण नहीं है, दोष है, पतनकी चीज है।- साधन-सुधा-सिन्धु ४०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधन-सुधा-सिन्धु ४०··
व्याख्यान देनेकी आदत बड़ी खराब आदत है। मैंने सन्तोंसे सुना है कि ऊँचा बैठकर दूसरोंको शिक्षा देनेके समान नीचा काम कोई नहीं है। सबसे महान् नीच काम यही है। दूसरोंको मूर्ख समझे और अपनेको समझदार समझे-इससे नीचा काम और क्या हो सकता है।
||श्रीहरि:||
व्याख्यान देनेकी आदत बड़ी खराब आदत है। मैंने सन्तोंसे सुना है कि ऊँचा बैठकर दूसरोंको शिक्षा देनेके समान नीचा काम कोई नहीं है। सबसे महान् नीच काम यही है। दूसरोंको मूर्ख समझे और अपनेको समझदार समझे-इससे नीचा काम और क्या हो सकता है।- प्रवचन -संग्रह, साइक्लोस्टाइलमें, पृष्ठ १३३
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
प्रवचन -संग्रह, साइक्लोस्टाइलमें, पृष्ठ १३३··
यह जो व्याख्यान देना है, यह बहुत बाधक है। इसमें नुकसान है, फायदा नहीं। अब आप कह सकते हो कि तुम क्यों व्याख्यान देते हो? यह मैं सेठजी ( श्रीजयदयालजी गोयन्दका ) - के कहनेसे देता हूँ । इसलिये इसमें नुकसान नहीं होता। अपनी मरजीसे व्याख्यान देनेसे बहुत नुकसान होता है। इसमें अभिमान आता है, जो बहुत बाधक है। मान बड़ाई बहुत बाधा देती है। लोग कहेंगे कि व्याख्यान बहुत अच्छा दिया, और उसमें राजी हो गये तो परमात्मप्राप्ति नहीं होगी। पदार्थोंकी, भोगोंकी, संग्रहकी, मानकी, बड़ाईकी इच्छा भीतर है तो यह परमात्मप्राप्ति होने ही नहीं देगी।
||श्रीहरि:||
यह जो व्याख्यान देना है, यह बहुत बाधक है। इसमें नुकसान है, फायदा नहीं। अब आप कह सकते हो कि तुम क्यों व्याख्यान देते हो? यह मैं सेठजी ( श्रीजयदयालजी गोयन्दका ) - के कहनेसे देता हूँ । इसलिये इसमें नुकसान नहीं होता। अपनी मरजीसे व्याख्यान देनेसे बहुत नुकसान होता है। इसमें अभिमान आता है, जो बहुत बाधक है। मान बड़ाई बहुत बाधा देती है। लोग कहेंगे कि व्याख्यान बहुत अच्छा दिया, और उसमें राजी हो गये तो परमात्मप्राप्ति नहीं होगी। पदार्थोंकी, भोगोंकी, संग्रहकी, मानकी, बड़ाईकी इच्छा भीतर है तो यह परमात्मप्राप्ति होने ही नहीं देगी।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १९१ - १९२
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १९१ - १९२··
असली तत्त्वमें शब्द नहीं है, प्रश्न और उत्तर भी नहीं है, प्रत्युत मौन है।
||श्रीहरि:||
असली तत्त्वमें शब्द नहीं है, प्रश्न और उत्तर भी नहीं है, प्रत्युत मौन है।- सन्त समागम १५