Seeker of Truth

उद्देश्य

परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिमें उद्देश्यका महत्त्व पन्द्रह आना, भावका महत्त्व तीन पैसा और क्रियाका महत्त्व एक पैसा है।

साधन-सुधा-सिन्धु ७७८··

मनुष्य या तो स्वयं विचार करके अपना लक्ष्य पहचाने, या शास्त्र तथा सन्तोंके वचनोंपर विश्वास करके अपना लक्ष्य पहचाने। विचार करें कि हम चाहते क्या हैं?....... अपने लक्ष्यको पहचान लें तो फिर दूसरे लक्ष्यकी तरफ कभी ध्यान नहीं जायगा। यदि दूसरी तरफ ध्यान जाता है तो लक्ष्यको पहचाना ही नहीं।

रहस्यमयी वार्ता २१··

उद्देश्य मनुष्यकी प्रतिष्ठा है। जिसका कोई उद्देश्य नहीं है, वह वास्तवमें मनुष्य ही नहीं है।

साधन-सुधा-सिन्धु ७७८··

मनुष्य जीवनका उद्देश्य कर्म करना और उसका फल भोगना नहीं है।......वास्तवमें परमात्मप्राप्तिके अतिरिक्त मनुष्यजीवनका अन्य कोई प्रयोजन है ही नहीं। जरूरत केवल इस प्रयोजन या उद्देश्यको पहचानकर इसे पूरा करनेकी ही है।

साधक संजीवनी ३ । २० मा०··

साधकको कभी भी अपने उद्देश्यकी पूर्तिसे निराश नहीं होना चाहिये। वह कम-से-कम आयुमें तथा कम-से-कम सामर्थ्य में भी अपने उद्देश्यकी पूर्ति कर सकता है। कारण कि अपने उद्देश्यकी पूर्तिके लिये ही भगवान् ने अपनी अहैतुकी कृपासे उसको मानव शरीर दिया है।

मानवमात्रके कल्याणके लिये ३५··

जहाँ हमारा लक्ष्य होगा, वहीं हम जायँगे। लक्ष्य परमात्मा है तो युद्धरूपी क्रिया भी परमात्मप्राप्तिका कारण हो जायगी। इतना ही नहीं, लक्ष्य चेतन होनेसे जड़ भी चिन्मय हो जायगा । जैसे, 'मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई इस प्रकार भगवान्‌का होकर भगवान्‌का भजन करनेसे मीराबाईका जड़ शरीर भी चिन्मय होकर भगवान्‌के श्रीविग्रहमें लीन हो गया। अतः क्रिया भले ही जड़ हो, पर उद्देश्य जड़ ( भोग और संग्रह ) नहीं होना चाहिये।

सत्यकी खोज ७३-७४··

जब साधकका एकमात्र उद्देश्य परमात्मप्राप्तिका हो जाता है, तब उसके पास जो भी सामग्री (वस्तु, परिस्थिति आदि) होती है, वह सब साधनरूप (साधन सामग्री) हो जाती है। फिर उस सामग्रीमें बढ़िया और घटिया- ये दो विभाग नहीं होते।

साधक संजीवनी ३।३० वि०··

साधककी बुद्धि जितने अंशमें परमात्मप्राप्तिके उद्देश्यको धारण करती है, उतने ही अंशमें उसमें विवेककी जागृति तथा संसारसे वैराग्य हो जाता है।

साधक संजीवनी १३ । ११ वि०··

सबसे बड़ी शुद्धि (दोष-निवृत्ति) होती है- 'मैं तो केवल भगवान्‌का ही हूँ', इस प्रकार अहंता- परिवर्तनपूर्वक भगवत्प्राप्तिका उद्देश्य बनानेसे। इससे जितनी शुद्धि होती है, उतनी कर्मोंसे नहीं होती।

साधक संजीवनी १७ । २२ वि०··

लक्ष्यमें ढिलाई होनेसे ही वृत्तियाँ खराब होती हैं। भोगोंकी, मान-बड़ाईकी आसक्ति तभीतक तंग करती है, जबतक अपने मनमें ढिलाई है। उद्देश्यमें ढिलाई होनेके कारण ही तरह तरहके विघ्न आते हैं। भोगोंमें ताकत नहीं है कि हमें विचलित कर दें। हमारी ढिलाई हमें विचलित करती है। विन बाहरसे नहीं आते, अपने भीतरसे आते हैं।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १२९··

अपने भीतर दृढ़ता कम होती है, तब भोगोंमें मन जाता है। जब भी मन भोगोंकी तरफ जाय, तभी विचार करे कि ना-ना, हमें इस तरफ जाना ही नहीं है, यह हमारा ध्येय नहीं है। ध्येय जितना दृढ़ होगा, उतनी ही शान्ति मिलेगी।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १२९··

एक पक्का विचार हो जाय तो बड़ी शान्ति मिलती है। प्रतिकूल परिस्थितिमें भी आनन्द आता है। परमात्माकी प्राप्तिमें देरी हो तो भी घबराहट नहीं होती। आज जो चित्तमें दुःख होता है, सन्ताप होता है, विचलित होते हैं, भोगोंमें मन जाता है, साधन ठीक नहीं होता है, इसका कारण यही है कि भीतरमें ध्येय पक्का नहीं है।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १३०··

ध्येय परमात्माकी प्राप्तिका होनेपर ही जप, कीर्तन आदिसे लाभ होता है। ध्येय परमात्मा न हो तो लाभ नहीं होता। राग-रागिनीपर, ताल-स्वरपर ज्यादा मन लगेगा तो तत्त्वकी प्राप्ति नहीं होगी। क्रिया नहीं हो और चलते-फिरते, खाते-पीते, उठते-बैठते हरदम ध्येयकी तरफ विशेष ध्यान हो तो बहुत लाभ होगा।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १९९··

हम आध्यात्मिक उन्नति भले ही पूरी न कर सकें, पर कम-से-कम उद्देश्य तो परमात्मप्राप्तिका होना चाहिये। जैसे, आपका उद्देश्य धन कमानेका रहता है, फिर धन चाहे मिले या न मिले।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ९८··

जब एक उद्देश्य बन जायगा कि 'मैं भगवान्‌का हूँ और भगवान्‌की तरफ चलूँगा' तो यमराज आपसे डरेगा । बड़े-बड़े दोष आपसे डरेंगे। दोष स्वतः - स्वाभाविक दूर होंगे। आपपर कोई विजय नहीं कर सकेगा। भगवान् आपकी रक्षा करेंगे। जबतक एक उद्देश्य नहीं बनेगा, तबतक सब दोष आपको लूटेंगे, तंग करेंगे।

अनन्तकी ओर ८०··

परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य होनेसे बिना कहे बिना जाने बिना समझे, अपने-आप आपकी वृत्ति शुद्ध हो जायगी।

अनन्तकी ओर ८१··

जीवन तो जा रहा है और मौत भी आयेगी ही, इसलिये जीवनका लक्ष्य पहले ही बना लेना चाहिये कि हमें परमात्माको प्राप्त करना है। लक्ष्य बननेपर बहुत फायदा होता है। अगर लक्ष्य बन गया तो वह खाली नहीं जायगा, कमी रह जायगी तो योगभ्रष्ट हो जाओगे, पर परमात्माकी प्राप्ति जरूर होगी। लक्ष्य बननेपर फिर समय बर्बाद नहीं होता, सार्थक होता है । वृत्तियाँ स्वाभाविक ठीक हो जाती हैं। अवगुण स्वतः दूर होते हैं। संसारका खिंचाव कम होता है। आस्तिकभाव बढ़ता है। अगर यह फर्क नहीं पड़ा है तो लक्ष्य नहीं बना है, साधन हाथ नहीं लगा है, सत्संग नहीं मिला है।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १४१··