मनुष्यशरीर केवल त्याग करनेके लिये ही मिला है। त्याग करनेसे अपने घरका कुछ भी खर्च नहीं होगा और कल्याण मुफ्तमें हो जायगा । अतः मिली हुई वस्तुका हृदयसे त्याग कर दें कि यह हमारी नहीं है और हमारे लिये भी नहीं है तो कल्याण हो जायगा यह पक्का सिद्धान्त है।
||श्रीहरि:||
मनुष्यशरीर केवल त्याग करनेके लिये ही मिला है। त्याग करनेसे अपने घरका कुछ भी खर्च नहीं होगा और कल्याण मुफ्तमें हो जायगा । अतः मिली हुई वस्तुका हृदयसे त्याग कर दें कि यह हमारी नहीं है और हमारे लिये भी नहीं है तो कल्याण हो जायगा यह पक्का सिद्धान्त है।- सत्यकी खोज ५३-५४
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सत्यकी खोज ५३-५४··
जो वस्तु अपनी है, उस ( स्वरूप या परमात्मा ) - का त्याग कभी हो ही नहीं सकता और जो वस्तु अपनी नहीं है, उस ( शरीर या संसार) का त्याग स्वतः सिद्ध है । अतः त्याग उसीका होता है जो अपना नहीं है, पर जिसे भूलसे अपना मान लिया है अर्थात् अपनेपनकी मान्यताका ही त्याग होता है। इस प्रकार जो वस्तु अपनी है ही नहीं, उसे अपना न मानना त्याग कैसे ? यह तो विवेक है।
||श्रीहरि:||
जो वस्तु अपनी है, उस ( स्वरूप या परमात्मा ) - का त्याग कभी हो ही नहीं सकता और जो वस्तु अपनी नहीं है, उस ( शरीर या संसार) का त्याग स्वतः सिद्ध है । अतः त्याग उसीका होता है जो अपना नहीं है, पर जिसे भूलसे अपना मान लिया है अर्थात् अपनेपनकी मान्यताका ही त्याग होता है। इस प्रकार जो वस्तु अपनी है ही नहीं, उसे अपना न मानना त्याग कैसे ? यह तो विवेक है।- साधक संजीवनी ४। १६
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ४। १६··
बाहरसे वस्तुका त्याग करनेसे कल्याण नहीं होता । कल्याण भीतरके भावसे होता है अर्थात् भीतरसे वस्तुओंका त्याग करनेसे, उनके साथ अपना सम्बन्ध न माननेसे कल्याण होता है।
||श्रीहरि:||
बाहरसे वस्तुका त्याग करनेसे कल्याण नहीं होता । कल्याण भीतरके भावसे होता है अर्थात् भीतरसे वस्तुओंका त्याग करनेसे, उनके साथ अपना सम्बन्ध न माननेसे कल्याण होता है।- सत्यकी खोज ५२-५३
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सत्यकी खोज ५२-५३··
शरीर बिछुड़ जायगा तो मौत हो जायगी, पर उसके सम्बन्धका त्याग कर दें तो मौज हो जायगी । छूटनेवालेको हम अपनी मरजीसे छोड़ दें तो आनन्द हो जायगा, पर वह जबर्दस्ती छूटेगा तो रोना पड़ेगा।
||श्रीहरि:||
शरीर बिछुड़ जायगा तो मौत हो जायगी, पर उसके सम्बन्धका त्याग कर दें तो मौज हो जायगी । छूटनेवालेको हम अपनी मरजीसे छोड़ दें तो आनन्द हो जायगा, पर वह जबर्दस्ती छूटेगा तो रोना पड़ेगा।- सत्यकी खोज ५४
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सत्यकी खोज ५४··
त्याग यही करना है कि वस्तु, व्यक्ति और क्रियाके साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है। यह सम्बन्ध चाहे सेवा करके छोड़ दें, चाहे विचारपूर्वक छोड़ दें, चाहे भगवान् के शरण होकर छोड़ दें।
||श्रीहरि:||
त्याग यही करना है कि वस्तु, व्यक्ति और क्रियाके साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है। यह सम्बन्ध चाहे सेवा करके छोड़ दें, चाहे विचारपूर्वक छोड़ दें, चाहे भगवान् के शरण होकर छोड़ दें।- सत्यकी खोज ५५
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सत्यकी खोज ५५··
हमें केवल त्यागका भाव बनाना है, त्यागी नहीं बनना है। त्यागी बननेसे त्याज्य वस्तुके साथ सम्बन्ध हो जायगा।
||श्रीहरि:||
हमें केवल त्यागका भाव बनाना है, त्यागी नहीं बनना है। त्यागी बननेसे त्याज्य वस्तुके साथ सम्बन्ध हो जायगा।- सत्यकी खोज ५८
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सत्यकी खोज ५८··
जबतक त्यागी है, तबतक त्याग नहीं हुआ । त्याग होनेपर त्यागी नहीं रहता।
||श्रीहरि:||
जबतक त्यागी है, तबतक त्याग नहीं हुआ । त्याग होनेपर त्यागी नहीं रहता।- सत्संगके फूल १३८
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सत्संगके फूल १३८··
हमने रुपयोंका त्याग कर दिया है - यह भाव भी रुपयोंका महत्त्व है । त्याज्य वस्तुका महत्त्व होनेसे ही त्यागका अभिमान आता है।
||श्रीहरि:||
हमने रुपयोंका त्याग कर दिया है - यह भाव भी रुपयोंका महत्त्व है । त्याज्य वस्तुका महत्त्व होनेसे ही त्यागका अभिमान आता है।- सत्संगके फूल १२८
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सत्संगके फूल १२८··
संन्यासीके लिये धन और स्त्रीका त्याग मुख्य है। गृहस्थके लिये परधन और परस्त्रीका त्याग मुख्य है।
||श्रीहरि:||
संन्यासीके लिये धन और स्त्रीका त्याग मुख्य है। गृहस्थके लिये परधन और परस्त्रीका त्याग मुख्य है।- ज्ञानके दीप जले ११९
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
ज्ञानके दीप जले ११९··
ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासी - इन सबके लिये तो स्वरूपसे ही परिग्रह (संग्रह) का त्याग है। अगर गृहस्थमें भी कोई सुख भोगबुद्धिसे संग्रह न करे, केवल दूसरोंकी सेवा, हितके लिये ही संग्रह करे तो वह भी परिग्रह नहीं है।
||श्रीहरि:||
ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासी - इन सबके लिये तो स्वरूपसे ही परिग्रह (संग्रह) का त्याग है। अगर गृहस्थमें भी कोई सुख भोगबुद्धिसे संग्रह न करे, केवल दूसरोंकी सेवा, हितके लिये ही संग्रह करे तो वह भी परिग्रह नहीं है।- साधक संजीवनी १८ । ५१-५३
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी १८ । ५१-५३··
त्याग करनेसे आपकी उन्नति होती है और वस्तु शुद्ध हो जाती है। ग्रहण करनेसे आपका पतन होता है और वस्तु अशुद्ध हो जाती है।
||श्रीहरि:||
त्याग करनेसे आपकी उन्नति होती है और वस्तु शुद्ध हो जाती है। ग्रहण करनेसे आपका पतन होता है और वस्तु अशुद्ध हो जाती है।- सागरके मोती ३७
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सागरके मोती ३७··
जिसका प्रतिक्षण वियोग हो रहा है, उसका त्याग कठिन नहीं है, प्रत्युत उसका राग कठिन है। त्यागमें परिश्रम नहीं है । परन्तु संयोगजन्य सुखकी लोलुपता त्याग नहीं करने देती।
||श्रीहरि:||
जिसका प्रतिक्षण वियोग हो रहा है, उसका त्याग कठिन नहीं है, प्रत्युत उसका राग कठिन है। त्यागमें परिश्रम नहीं है । परन्तु संयोगजन्य सुखकी लोलुपता त्याग नहीं करने देती।- सागरके मोती ४६
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सागरके मोती ४६··
त्यागके बिना पारमार्थिक सिद्धि नहीं होती; न प्रेम होता है, न ज्ञान होता है।
||श्रीहरि:||
त्यागके बिना पारमार्थिक सिद्धि नहीं होती; न प्रेम होता है, न ज्ञान होता है।- सागरके मोती ७१
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सागरके मोती ७१··
ग्रहण' करनेका सर्वोपरि एक ही नियम है- भगवान्को याद रखना। 'त्याग' करनेका सर्वोपरि एक ही नियम है- कामनाका त्याग करना।
||श्रीहरि:||
ग्रहण' करनेका सर्वोपरि एक ही नियम है- भगवान्को याद रखना। 'त्याग' करनेका सर्वोपरि एक ही नियम है- कामनाका त्याग करना।- सागरके मोती ११२
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सागरके मोती ११२··
विहित ग्रहण करनेकी अपेक्षा निषिद्धके त्यागकी महिमा ज्यादा है।
||श्रीहरि:||
विहित ग्रहण करनेकी अपेक्षा निषिद्धके त्यागकी महिमा ज्यादा है।- सागरके मोती १३५
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सागरके मोती १३५··
जाने हुए असत्का त्याग करनेके लिये यह आवश्यक है कि साधक विवेकविरोधी सम्बन्धका त्याग करे। जिसके साथ हमारा न तो नित्य सम्बन्ध है और न स्वरूपगत एकता ही है, उसको अपना और अपने लिये मानना विवेकविरोधी सम्बन्ध है ।...... अगर हम शरीरसे माने हुए विवेकविरोधी सम्बन्धका त्याग न करें तो भी शरीर हमारा त्याग कर ही देगा। जो हमारा त्याग अवश्य करेगा, उसका त्याग करनेमें क्या कठिनाई है ?
||श्रीहरि:||
जाने हुए असत्का त्याग करनेके लिये यह आवश्यक है कि साधक विवेकविरोधी सम्बन्धका त्याग करे। जिसके साथ हमारा न तो नित्य सम्बन्ध है और न स्वरूपगत एकता ही है, उसको अपना और अपने लिये मानना विवेकविरोधी सम्बन्ध है ।...... अगर हम शरीरसे माने हुए विवेकविरोधी सम्बन्धका त्याग न करें तो भी शरीर हमारा त्याग कर ही देगा। जो हमारा त्याग अवश्य करेगा, उसका त्याग करनेमें क्या कठिनाई है ?- साधक संजीवनी २ । ३० परि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी २ । ३० परि०··
कामनाके कारण ही 'त्यागमें सुख है' – यह ज्ञान काम नहीं करता। मनुष्यको प्रतीत तो ऐसा होता है कि अनुकूल भोग - पदार्थके मिलनेसे सुख होता है, पर वास्तवमें सुख उसके त्यागसे होता है।
||श्रीहरि:||
कामनाके कारण ही 'त्यागमें सुख है' – यह ज्ञान काम नहीं करता। मनुष्यको प्रतीत तो ऐसा होता है कि अनुकूल भोग - पदार्थके मिलनेसे सुख होता है, पर वास्तवमें सुख उसके त्यागसे होता है।- साधक संजीवनी ३ । ३९
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ३ । ३९··
वास्तवमें त्याग कर्मफलका नहीं, प्रत्युत कर्मफलकी इच्छाका होता है। कर्मफलकी इच्छाका त्याग करनेका अर्थ है - किसी भी कर्म और कर्मफलसे अपने लिये कभी किंचिन्मात्र भी किसी प्रकारका सुख लेनेकी इच्छा न रखना।
||श्रीहरि:||
वास्तवमें त्याग कर्मफलका नहीं, प्रत्युत कर्मफलकी इच्छाका होता है। कर्मफलकी इच्छाका त्याग करनेका अर्थ है - किसी भी कर्म और कर्मफलसे अपने लिये कभी किंचिन्मात्र भी किसी प्रकारका सुख लेनेकी इच्छा न रखना।- साधक संजीवनी ५ १२
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ५ १२··
अगर स्वरूपसे छोड़नेपर ही मुक्ति होती तो मरनेवाले (शरीर छोड़नेवाले) सभी मुक्त हो जाते। पदार्थ तो अपने-आप ही स्वरूपसे छूटते चले जा रहे हैं। अतः वास्तवमें उन पदार्थोंमें जो कामना, ममता और आसक्ति है, उसीको छोड़ना है; क्योंकि पदार्थोंसे कामना - ममता - आसक्तिपूर्वक माना हुआ सम्बन्ध ही जन्म-मरणरूप बन्धनका कारण है।
||श्रीहरि:||
अगर स्वरूपसे छोड़नेपर ही मुक्ति होती तो मरनेवाले (शरीर छोड़नेवाले) सभी मुक्त हो जाते। पदार्थ तो अपने-आप ही स्वरूपसे छूटते चले जा रहे हैं। अतः वास्तवमें उन पदार्थोंमें जो कामना, ममता और आसक्ति है, उसीको छोड़ना है; क्योंकि पदार्थोंसे कामना - ममता - आसक्तिपूर्वक माना हुआ सम्बन्ध ही जन्म-मरणरूप बन्धनका कारण है।- साधक संजीवनी ५। १२
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ५। १२··
ढीली प्रकृतिवाला अर्थात् शिथिल स्वभाववाला मनुष्य असत्का जल्दी त्याग नहीं कर सकता। एक विचार किया और उसको छोड़ दिया, फिर दूसरा विचार किया और उसको छोड़ दिया इस प्रकार बार-बार विचार करने और उसको छोड़ते रहनेसे आदत बिगड़ जाती है। इस बिगड़ी हुई आदतके कारण ही वह असत्के त्यागकी बातें तो सीख जाता है, पर असत्का त्याग नहीं कर पाता। अगर वह असत्का त्याग कर भी देता है तो स्वभावकी ढिलाईके कारण फिर उसको सत्ता दे देता है।
||श्रीहरि:||
ढीली प्रकृतिवाला अर्थात् शिथिल स्वभाववाला मनुष्य असत्का जल्दी त्याग नहीं कर सकता। एक विचार किया और उसको छोड़ दिया, फिर दूसरा विचार किया और उसको छोड़ दिया इस प्रकार बार-बार विचार करने और उसको छोड़ते रहनेसे आदत बिगड़ जाती है। इस बिगड़ी हुई आदतके कारण ही वह असत्के त्यागकी बातें तो सीख जाता है, पर असत्का त्याग नहीं कर पाता। अगर वह असत्का त्याग कर भी देता है तो स्वभावकी ढिलाईके कारण फिर उसको सत्ता दे देता है।- साधक संजीवनी ७ २८ परि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ७ २८ परि०··
त्याग करनेमें निकृष्ट वस्तु तो सुगमतासे छूटती है, पर अच्छी वस्तुको छोड़ना कठिन होता है। अतः अच्छी वस्तुका त्याग करनेकी अपेक्षा उसको दूसरेकी सेवामें लगाना सुगम पड़ता है। निष्कामभावपूर्वक दूसरोंकी सेवामें लगानेसे असत्का त्याग सुगमतासे और जल्दी हो जाता है।
||श्रीहरि:||
त्याग करनेमें निकृष्ट वस्तु तो सुगमतासे छूटती है, पर अच्छी वस्तुको छोड़ना कठिन होता है। अतः अच्छी वस्तुका त्याग करनेकी अपेक्षा उसको दूसरेकी सेवामें लगाना सुगम पड़ता है। निष्कामभावपूर्वक दूसरोंकी सेवामें लगानेसे असत्का त्याग सुगमतासे और जल्दी हो जाता है।- साधक संजीवनी १२ । २ परि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी १२ । २ परि०··
त्यागके अन्तर्गत जप, भजन, ध्यान, समाधि आदिके फलका त्याग भी समझना चाहिये । कारण कि जबतक जप, भजन, ध्यान, समाधि अपने लिये की जाती है, तबतक व्यक्तित्व बना रहनेसे बन्धन बना रहता है। अतः अपने लिये किया हुआ ध्यान, समाधि आदि भी बन्धन ही है। इसलिये किसी भी क्रियाके साथ अपने लिये कुछ भी चाह न रखना ही 'त्याग' है। वास्तविक त्यागमें त्याग - वृत्तिसे भी सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है।
||श्रीहरि:||
त्यागके अन्तर्गत जप, भजन, ध्यान, समाधि आदिके फलका त्याग भी समझना चाहिये । कारण कि जबतक जप, भजन, ध्यान, समाधि अपने लिये की जाती है, तबतक व्यक्तित्व बना रहनेसे बन्धन बना रहता है। अतः अपने लिये किया हुआ ध्यान, समाधि आदि भी बन्धन ही है। इसलिये किसी भी क्रियाके साथ अपने लिये कुछ भी चाह न रखना ही 'त्याग' है। वास्तविक त्यागमें त्याग - वृत्तिसे भी सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है।- साधक संजीवनी १२ । १२
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी १२ । १२··
बाहरसे पाप, अन्याय, अत्याचार, दुराचार आदिका और बाहरी सुख - आराम आदिका त्याग भी करना चाहिये, और भीतरसे सांसारिक नाशवान् वस्तुओंकी कामनाका त्याग भी करना चाहिये । इसमें भी बाहरके त्यागकी अपेक्षा भीतरकी कामनाका त्याग श्रेष्ठ है।
||श्रीहरि:||
बाहरसे पाप, अन्याय, अत्याचार, दुराचार आदिका और बाहरी सुख - आराम आदिका त्याग भी करना चाहिये, और भीतरसे सांसारिक नाशवान् वस्तुओंकी कामनाका त्याग भी करना चाहिये । इसमें भी बाहरके त्यागकी अपेक्षा भीतरकी कामनाका त्याग श्रेष्ठ है।- साधक संजीवनी १६ । २
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी १६ । २··
जो मनुष्य धनका त्याग कर देता है, जिसके मनमें धनका महत्त्व नहीं है और अपनेको धनके अधीन नहीं मानता, उसके लिये धनका एक नया प्रारब्ध बन जाता है। कारण कि त्याग भी एक बड़ा भारी पुण्य है, जिससे तत्काल एक नया प्रारब्ध बनता है।
||श्रीहरि:||
जो मनुष्य धनका त्याग कर देता है, जिसके मनमें धनका महत्त्व नहीं है और अपनेको धनके अधीन नहीं मानता, उसके लिये धनका एक नया प्रारब्ध बन जाता है। कारण कि त्याग भी एक बड़ा भारी पुण्य है, जिससे तत्काल एक नया प्रारब्ध बनता है।- साधक संजीवनी १८ । १२ टि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी १८ । १२ टि०··
त्याग करनेवालेको किसी वस्तुकी कमी नहीं आती। उसके पास वस्तुएँ अपने-आप आती हैं। परन्तु धनी-से-धनी आदमीको भी आवश्यक वस्तु समयपर नहीं मिलती।
||श्रीहरि:||
त्याग करनेवालेको किसी वस्तुकी कमी नहीं आती। उसके पास वस्तुएँ अपने-आप आती हैं। परन्तु धनी-से-धनी आदमीको भी आवश्यक वस्तु समयपर नहीं मिलती।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश २९
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सीमाके भीतर असीम प्रकाश २९··
मनमें दूसरोंकी सेवा करनेकी, दूसरोंको सुख पहुँचानेकी धुन लग जाय तो अपने सुख - आरामका त्याग करनेकी शक्ति आ जाती है। दूसरोंको सुख पहुँचानेका भाव जितना तेज होगा, उतना ही अपने सुखकी इच्छाका त्याग होगा।
||श्रीहरि:||
मनमें दूसरोंकी सेवा करनेकी, दूसरोंको सुख पहुँचानेकी धुन लग जाय तो अपने सुख - आरामका त्याग करनेकी शक्ति आ जाती है। दूसरोंको सुख पहुँचानेका भाव जितना तेज होगा, उतना ही अपने सुखकी इच्छाका त्याग होगा।- साधक संजीवनी २।५२
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी २।५२··
चिन्मयताकी प्राप्तिमें जड़ताका अर्थात् क्रिया और पदार्थका सर्वथा त्याग होना चाहिये। जैसे सब संसार त्याज्य है, ऐसे ही क्रिया और पदार्थ भी त्याज्य हैं।
||श्रीहरि:||
चिन्मयताकी प्राप्तिमें जड़ताका अर्थात् क्रिया और पदार्थका सर्वथा त्याग होना चाहिये। जैसे सब संसार त्याज्य है, ऐसे ही क्रिया और पदार्थ भी त्याज्य हैं।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ९३
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ९३··
एक आदमी शौच जाकर आया और एक आदमीने रुपयोंका त्याग किया— दोनोंमें विष्ठाका त्याग बढ़िया है। अगर हमारा वजन एक मन तीस सेर है, और विष्ठाका त्याग करनेपर हमारा वजन एक मन साढ़े उन्तीस सेर रह गया, तो हमारा वजन जो कम हुआ है, वह 'मैं' मेंसे कम हुआ है। परन्तु रुपयोंका त्याग करते हैं तो वे 'मेरे' मेंसे कम हुए हैं। अतः विष्ठाका त्याग 'मैं' का त्याग है और धनका त्याग 'मेरा' का त्याग है । इस दृष्टिसे विष्ठाका त्याग बढ़िया हुआ; क्योंकि उसमें 'मैं' का त्याग है । परन्तु धनको बढ़िया माननेके कारण हमारी महत्त्वबुद्धि धनके त्यागमें रहती है, विष्ठाके त्यागमें नहीं। इसलिये धनका त्याग करनेवाला श्रेष्ठ मालूम देता है, उसकी बड़ी महिमा होती है, जबकि विष्ठाका त्याग करनेवालेकी महिमा नहीं होती। विष्ठाको हम मैल समझते हैं, पर वास्तवमें धनका मैल विष्ठासे भी बहुत अधिक है।
||श्रीहरि:||
एक आदमी शौच जाकर आया और एक आदमीने रुपयोंका त्याग किया— दोनोंमें विष्ठाका त्याग बढ़िया है। अगर हमारा वजन एक मन तीस सेर है, और विष्ठाका त्याग करनेपर हमारा वजन एक मन साढ़े उन्तीस सेर रह गया, तो हमारा वजन जो कम हुआ है, वह 'मैं' मेंसे कम हुआ है। परन्तु रुपयोंका त्याग करते हैं तो वे 'मेरे' मेंसे कम हुए हैं। अतः विष्ठाका त्याग 'मैं' का त्याग है और धनका त्याग 'मेरा' का त्याग है । इस दृष्टिसे विष्ठाका त्याग बढ़िया हुआ; क्योंकि उसमें 'मैं' का त्याग है । परन्तु धनको बढ़िया माननेके कारण हमारी महत्त्वबुद्धि धनके त्यागमें रहती है, विष्ठाके त्यागमें नहीं। इसलिये धनका त्याग करनेवाला श्रेष्ठ मालूम देता है, उसकी बड़ी महिमा होती है, जबकि विष्ठाका त्याग करनेवालेकी महिमा नहीं होती। विष्ठाको हम मैल समझते हैं, पर वास्तवमें धनका मैल विष्ठासे भी बहुत अधिक है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १७३
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १७३··
मुक्ति त्यागसे होती है। हमें कोई वस्तु नहीं मिली, पर मनमें उसकी इच्छा रही तो सम्बन्ध- विच्छेद नहीं होगा। किसीको रोटी नहीं मिली, भूखों मर गया तो रोटीका त्याग नहीं हुआ, प्रत्युत रोटी मिली नहीं। इसलिये जड़ताका सम्बन्ध-विच्छेद त्यागसे होता है, अभावसे नहीं। नींदमें संसारको भूल जाते हैं तो शान्ति मिलती है, अगर त्याग कर दें तो कितनी शान्ति मिले।
||श्रीहरि:||
मुक्ति त्यागसे होती है। हमें कोई वस्तु नहीं मिली, पर मनमें उसकी इच्छा रही तो सम्बन्ध- विच्छेद नहीं होगा। किसीको रोटी नहीं मिली, भूखों मर गया तो रोटीका त्याग नहीं हुआ, प्रत्युत रोटी मिली नहीं। इसलिये जड़ताका सम्बन्ध-विच्छेद त्यागसे होता है, अभावसे नहीं। नींदमें संसारको भूल जाते हैं तो शान्ति मिलती है, अगर त्याग कर दें तो कितनी शान्ति मिले।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १९८
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १९८··
लाखों-करोड़ों रुपयोंका दान कर दें तो भी वह सीमित ही होगा, पर 'हमें कुछ लेना ही नहीं है' – यह त्याग असीम होता है। इसलिये निषेधात्मक साधनको बड़ा ऊँचा माना गया है। जड़ताका सम्बन्ध विहितसे उतना नहीं छूटता, जितना निषेध (त्याग) से छूटता है।
||श्रीहरि:||
लाखों-करोड़ों रुपयोंका दान कर दें तो भी वह सीमित ही होगा, पर 'हमें कुछ लेना ही नहीं है' – यह त्याग असीम होता है। इसलिये निषेधात्मक साधनको बड़ा ऊँचा माना गया है। जड़ताका सम्बन्ध विहितसे उतना नहीं छूटता, जितना निषेध (त्याग) से छूटता है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ९०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सीमाके भीतर असीम प्रकाश ९०··
त्याग करनेसे जो शान्ति मिलती है, वह विहित कर्मोंसे नहीं मिलती।
||श्रीहरि:||
त्याग करनेसे जो शान्ति मिलती है, वह विहित कर्मोंसे नहीं मिलती।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ९०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सीमाके भीतर असीम प्रकाश ९०··
हमारा कुछ है ही नहीं - यह त्याग है।
||श्रीहरि:||
हमारा कुछ है ही नहीं - यह त्याग है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १६०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सीमाके भीतर असीम प्रकाश १६०··
त्यागकी जो महिमा है, वह महिमा उपकार करनेमें नहीं है। त्यागीके द्वारा स्वतः - स्वाभाविक उपकार होता है।
||श्रीहरि:||
त्यागकी जो महिमा है, वह महिमा उपकार करनेमें नहीं है। त्यागीके द्वारा स्वतः - स्वाभाविक उपकार होता है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश २३१
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सीमाके भीतर असीम प्रकाश २३१··
सांसारिक सुखका त्याग करनेमें दीखता तो सुखका त्याग है, पर होगा दुःखका त्याग।
||श्रीहरि:||
सांसारिक सुखका त्याग करनेमें दीखता तो सुखका त्याग है, पर होगा दुःखका त्याग।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ ४१
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
नये रास्ते, नयी दिशाएँ ४१··
मेरा कुछ नहीं है और मुझे कुछ नहीं चाहिये - यह भाव जिसका होगा, वह सन्त महात्मा हो जायगा । वस्तुएँ भी खूब आयेंगी । यह एक कायदा है कि आपके भीतर ज्यों-ज्यों त्याग होगा, त्यों-त्यों वस्तुएँ अपने-आप आयेंगी। घाटा सब मिट जायगा और आनन्द हो जायगा।
||श्रीहरि:||
मेरा कुछ नहीं है और मुझे कुछ नहीं चाहिये - यह भाव जिसका होगा, वह सन्त महात्मा हो जायगा । वस्तुएँ भी खूब आयेंगी । यह एक कायदा है कि आपके भीतर ज्यों-ज्यों त्याग होगा, त्यों-त्यों वस्तुएँ अपने-आप आयेंगी। घाटा सब मिट जायगा और आनन्द हो जायगा।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ १००
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
नये रास्ते, नयी दिशाएँ १००··
त्याग करोगे तो कुछ दिन दुःख पाना पड़ेगा, थोड़ा प्रायश्चित्त करना पड़ेगा, पर बादमें कोई कमी नहीं रहेगी। परन्तु लोभके रहते हुए त्याग समझमें आता नहीं।
||श्रीहरि:||
त्याग करोगे तो कुछ दिन दुःख पाना पड़ेगा, थोड़ा प्रायश्चित्त करना पड़ेगा, पर बादमें कोई कमी नहीं रहेगी। परन्तु लोभके रहते हुए त्याग समझमें आता नहीं।- अनन्तकी ओर ५६
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
अनन्तकी ओर ५६··
अपनेमें त्यागकी जो महत्ता दीखती है कि मैं किसीसे पैसा नहीं लेता हूँ- यह ऊँचा त्याग नहीं है। जबतक त्याज्य वस्तुमें महत्त्वबुद्धि न हो, तबतक त्यागकी महिमा क्या हुई । महिमा भावकी है, त्याज्य वस्तुकी नहीं। जबतक भीतरमें राग है, तबतक वह वास्तविक त्याग नहीं हुआ। भीतर में पैसोंका लोभ, महत्त्व नहीं होना चाहिये।
||श्रीहरि:||
अपनेमें त्यागकी जो महत्ता दीखती है कि मैं किसीसे पैसा नहीं लेता हूँ- यह ऊँचा त्याग नहीं है। जबतक त्याज्य वस्तुमें महत्त्वबुद्धि न हो, तबतक त्यागकी महिमा क्या हुई । महिमा भावकी है, त्याज्य वस्तुकी नहीं। जबतक भीतरमें राग है, तबतक वह वास्तविक त्याग नहीं हुआ। भीतर में पैसोंका लोभ, महत्त्व नहीं होना चाहिये।- अनन्तकी ओर ८६
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
अनन्तकी ओर ८६··
साधु हो जाना, गृहस्थ छोड़कर चले जाना त्याग नहीं है। इस त्यागसे कल्याण नहीं होता, अन्यथा मरनेवाले सबका कल्याण हो जाता। 'मैं' और 'मेरे' का त्याग ही वास्तवमें त्याग है।
||श्रीहरि:||
साधु हो जाना, गृहस्थ छोड़कर चले जाना त्याग नहीं है। इस त्यागसे कल्याण नहीं होता, अन्यथा मरनेवाले सबका कल्याण हो जाता। 'मैं' और 'मेरे' का त्याग ही वास्तवमें त्याग है।- स्वातिकी बूँदें १८
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
स्वातिकी बूँदें १८··
त्यागके समान कोई अनुष्ठान नहीं है। त्याग कामनाका करना है। घर छोड़ना दूर रहा, शरीर भी छोड़ दो तो यह त्याग नहीं है।
||श्रीहरि:||
त्यागके समान कोई अनुष्ठान नहीं है। त्याग कामनाका करना है। घर छोड़ना दूर रहा, शरीर भी छोड़ दो तो यह त्याग नहीं है।- स्वातिकी बूँदें ४८
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
स्वातिकी बूँदें ४८··
ऐसा भाव रखो कि सब चीजें छोड़नेके लिये ही हैं, रखनेके लिये कुछ नहीं है। जो छूटनेवाले हैं, उनको पहले ही छोड़ दो, उनको हृदयसे भगवान्को अर्पण कर दो, बाहरसे कुछ करने या कहनेकी जरूरत नहीं। जो चीज अवश्य छूटनेवाली है, उसको मनसे छोड़नेमें क्या हर्ज है ? धर्मशाला में क्या नींद नहीं आती? क्या कमरेका सुख नहीं मिलता ?
||श्रीहरि:||
ऐसा भाव रखो कि सब चीजें छोड़नेके लिये ही हैं, रखनेके लिये कुछ नहीं है। जो छूटनेवाले हैं, उनको पहले ही छोड़ दो, उनको हृदयसे भगवान्को अर्पण कर दो, बाहरसे कुछ करने या कहनेकी जरूरत नहीं। जो चीज अवश्य छूटनेवाली है, उसको मनसे छोड़नेमें क्या हर्ज है ? धर्मशाला में क्या नींद नहीं आती? क्या कमरेका सुख नहीं मिलता ?- स्वातिकी बूँदें १७५ - १७६
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
स्वातिकी बूँदें १७५ - १७६··
कोई परमात्माको प्राप्त करना चाहता हो तो उसको सबसे पहले संसारका त्याग करना होगा। त्याग करनेका यह अर्थ नहीं कि साधु होकर चले जायँ । मनमें रुपयोंका और भोगोंका महत्त्व न रहे। रुपयों और भोगोंकी आसक्ति जितनी मिटेगी, उतनी परमात्माकी तरफ उन्नति होगी।
||श्रीहरि:||
कोई परमात्माको प्राप्त करना चाहता हो तो उसको सबसे पहले संसारका त्याग करना होगा। त्याग करनेका यह अर्थ नहीं कि साधु होकर चले जायँ । मनमें रुपयोंका और भोगोंका महत्त्व न रहे। रुपयों और भोगोंकी आसक्ति जितनी मिटेगी, उतनी परमात्माकी तरफ उन्नति होगी।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ११९
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ११९··
संसारमें रत्तीभर चीज भी हमारी नहीं है। न मन हमारा है, न इन्द्रियाँ हमारी हैं, न बुद्धि हमारी है, न प्राण हमारे हैं। यह सर्वस्व दान है। बड़ा भारी त्याग है। नुकसान कोई है नहीं, लाभ बड़ा भारी है।
||श्रीहरि:||
संसारमें रत्तीभर चीज भी हमारी नहीं है। न मन हमारा है, न इन्द्रियाँ हमारी हैं, न बुद्धि हमारी है, न प्राण हमारे हैं। यह सर्वस्व दान है। बड़ा भारी त्याग है। नुकसान कोई है नहीं, लाभ बड़ा भारी है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १३५
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सीमाके भीतर असीम प्रकाश १३५··
मनुष्य खुद तो भोगी बनता है, पर दूसरोंको त्यागी देखना चाहता है—यह अन्याय है। यदि उसे त्यागी अच्छा लगता है तो वह खुद त्यागी क्यों नहीं बनता ?
||श्रीहरि:||
मनुष्य खुद तो भोगी बनता है, पर दूसरोंको त्यागी देखना चाहता है—यह अन्याय है। यदि उसे त्यागी अच्छा लगता है तो वह खुद त्यागी क्यों नहीं बनता ?- अमृत-बिन्दु २०५
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
अमृत-बिन्दु २०५··
वास्तविक त्याग वह है, जिसमें त्याग वृत्तिका भी त्याग हो जाय।
||श्रीहरि:||
वास्तविक त्याग वह है, जिसमें त्याग वृत्तिका भी त्याग हो जाय।- अमृत-बिन्दु २०६
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
अमृत-बिन्दु २०६··
त्याग रागरहित भी होता है और रागसहित भी । त्यागमात्रसे कल्याण नहीं होता। मुक्ति वैराग्यसे होती है, केवल त्यागसे नहीं । त्याग बाहरका और वैराग्य हृदयका होता है। वैराग्यमें संसारका भीतरसे सम्बन्ध विच्छेद होता है।
||श्रीहरि:||
त्याग रागरहित भी होता है और रागसहित भी । त्यागमात्रसे कल्याण नहीं होता। मुक्ति वैराग्यसे होती है, केवल त्यागसे नहीं । त्याग बाहरका और वैराग्य हृदयका होता है। वैराग्यमें संसारका भीतरसे सम्बन्ध विच्छेद होता है।- रहस्यमयी वार्ता १०४
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
रहस्यमयी वार्ता १०४··
धन रखनेसे नरकोंकी प्राप्ति नहीं होती, फिर भी धनका त्याग श्रेष्ठ है, ऐसे ही विहित हो या निषिद्ध, सब जगह त्यागकी ही महिमा है। शास्त्रमें सब तरहकी बातें मिलती हैं, पर शान्ति त्यागसे ही मिलती है।
||श्रीहरि:||
धन रखनेसे नरकोंकी प्राप्ति नहीं होती, फिर भी धनका त्याग श्रेष्ठ है, ऐसे ही विहित हो या निषिद्ध, सब जगह त्यागकी ही महिमा है। शास्त्रमें सब तरहकी बातें मिलती हैं, पर शान्ति त्यागसे ही मिलती है।- रहस्यमयी वार्ता २३२