तीर्थ-स्थान
जो लोग सर्वथा बहिर्मुख हैं, उनके लिये तीर्थयात्रा मुख्य है; क्योंकि वे रात-दिन संसारमें ही लगे हुए हैं। अतः तीर्थोमें मन्दिरोंका, सन्तोंका दर्शन करनेसे उनकी बुद्धि शुद्ध होगी। नामजप, कीर्तन, परोपकार, तीर्थयात्रा आदि सब उस स्थिति ( स्थिरता ) के लिये है। जिनमें स्थिरताकी, चुप होनेकी योग्यता नहीं है, उनको ये साधन करके योग्यता प्राप्त करनी चाहिये।
तीर्थोंमें बड़ी सावधानी से रहना चाहिये । यहाँ पुण्य भी बहुत होता है और पाप भी भयंकर होता है। इसलिये पहले लोग तीर्थमें दुकान नहीं करते थे। दुकानदारकी हर समय यह भावना रहती है कि अनाज महँगा हो जाय।
भगवान् के अवतारके जो लीला-स्थल हैं, उन स्थानोंमें आस्तिकभावसे, श्रद्धा- प्रेमपूर्वक निवास करने से एवं उनका दर्शन करनेसे भी मनुष्यका कल्याण हो जाता है।
अगर अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, काशी आदि किसी तीर्थस्थलमें उस ( मरणासन्न व्यक्ति ) - के प्राण छूट जायँ तो उस तीर्थके प्रभावसे उसको भगवान्की स्मृति हो जायगी।
वृन्दावनमें रहते हैं, पर मनमें रुपयोंकी, मान-बड़ाईकी इच्छा है तो वे भूत-प्रेत बनते हैं।.......जो वृन्दावनमें रहते हैं और हाय रुपया । हाय रुपया । करते हैं, उन्होंने वृन्दावनको समझा नहीं । वे भगवान्की लीला भूमिका तिरस्कार, अपमान करते हैं।
अन्तःकरणमें वस्तुओंका महत्त्व है, वस्तुओंकी कामना, ममता, वासना है, वे तीर्थस्थानमें, मन्दिरमें रहनेपर भी मरनेके बाद वासना आदिके कारण भूत-प्रेत हो जाते हैं। उन्होंने क्रियारूपसे भगवान्की पूजा, आरती आदि की है, इस कारण वे उस तीर्थ स्थानमें ही रहते हैं। इस प्रकार उनको भगवदपराधका फल ( भूत-प्रेतयोनि) भी मिल जाता है और भगवत्सम्बन्धी क्रियाओंका फल (तीर्थ स्थानमें निवास ) भी मिल जाता है।
माँ-बाप सबसे बड़े तीर्थ हैं।