Seeker of Truth

स्वरूप (स्वयं)

चेतन और अविनाशी स्वरूप ( आत्मा ) को ही 'स्वयं', 'अहम्' का आधार, वास्तविक 'मैं', 'मैं' का प्रकाशक, आधार आदि नामोंसे कहा जाता है।

साधक संजीवनी १२१८ टि०··

चेतनका जड़से तादात्म्य होनेके कारण ही उसे 'जीवात्मा' कहते हैं।

साधक संजीवनी ४ । २५··

एक ही चिन्मय तत्त्व ( समझनेकी दृष्टिसे) क्षेत्रके सम्बन्धसे क्षेत्रज्ञ, क्षरके सम्बन्धसे अक्षर शरीरके सम्बन्धसे शरीरी, दृश्यके सम्बन्धसे द्रष्टा, साक्ष्यके सम्बन्धसे साक्षी और करण के सम्बन्धसे कर्ता कहा जाता है। वास्तवमें उस तत्त्वका कोई नाम नहीं है। वह केवल अनुभवरूप है।

साधक संजीवनी १३ । १ परि०··

हमारा स्वरूप सत्तामात्र है। उस सत्तामें निर्दोषता, निष्कामता और असंगता स्वतः सिद्ध है और वह सत्ता भगवान्‌का अंश है।

मानवमात्रके कल्याणके लिये ७०··

हमारी सत्ता (होनापन) शरीरके अधीन नहीं है। शरीरके बढ़ने- घटने, कमजोर - बलवान् होनेपर, बालक - बूढ़ा होनेपर अथवा रहने न रहनेपर हमारी सत्तामें कोई फर्क नहीं पड़ता।

मानवमात्रके कल्याणके लिये ७··

हमारा स्वरूप सत्तामात्र है । उस सत्तामें कुछ भी मिलाना अज्ञान है, बन्धन है।

अमृत-बिन्दु ९००··

हमारा जीवन इस शरीर के अधीन नहीं है। हमारी आयु बहुत लम्बी- अनादि और अनन्त है । महाप्रलय हो जाय तो भी हम जन्मते मरते नहीं, प्रत्युत ज्यों-के-त्यों रहते हैं।

मानवमात्रके कल्याणके लिये ९··

हम निराकाररूपसे हैं, पर शरीररूपसे अपनेको साकार मानते हैं। यह मूल भूल है।

मानवमात्रके कल्याणके लिये १०४··

हमारा होनापन शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहंकारके अधीन नहीं है। स्थूल सूक्ष्म और कारण सब शरीरोंका अभाव होता है, पर हमारा अभाव नहीं होता।

मानवमात्रके कल्याणके लिये १०··

जैसे आपका हाथ कट जाय तो उस कटे हुए हाथमें आप नहीं हैं, ऐसे ही इस पूरे शरीरमें भी आप नहीं हैं।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १९६··

आप शरीरके बिना भी रहते हो, पर शरीर आपके बिना नहीं रहता । आपका शरीर छूट जाय तो शरीर नष्ट हो जायगा, पर आपका कुछ बिगड़ेगा नहीं।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ १११··

शरीरके न रहनेपर हमारा कुछ भी बिगड़ता नहीं। अबतक हम असंख्य शरीर धारण करके छोड़ चुके हैं, पर उससे हमारी सत्तामें क्या फर्क पड़ा ? हमारा क्या नुकसान हुआ ? हम तो ज्यों- के-त्यों ही रहे........ऐसे ही यह शरीर छूटनेपर भी हम स्वयं ज्यों-के-त्यों ही रहेंगे।

साधक संजीवनी २।२० परि०··

जैसे कपड़े शरीरकी रक्षाके लिये हैं, ऐसे शरीर आपकी रक्षाके लिये नहीं है। शरीरके बिना भी आप शान्तिसे, आनन्दसे रह सकते हैं।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश २४··

जीवात्माकी स्थिति किसी एक शरीरमें नहीं है। वह किसी शरीरसे चिपका हुआ नहीं है । परन्तु इस असंगताका अनुभव न होनेसे ही जन्म-मरण हो रहा है।

साधक संजीवनी २।१७ परि०··

जैसे कोई चलती हुई मोटरको पकड़ ले तो वह उसके साथ ही घसीटता चला जाता है, ऐसे ही शरीरके साथ एकता माननेसे आप जन्म-मरणमें घसीटते रहते हैं, मुफ्तमें ही दुःख पाते रहते हैं।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश २५··

जीव एक रहता है, तभी तो वह अनेक योनियोंमें, अनेक लोकोंमें जाता है। जो अनेक योनियों में जाता है, वह स्वयं किसीके साथ लिप्त नहीं होता, कहीं नहीं फँसता । अगर वह लिप्त हो जाय, फँस जाय तो फिर चौरासी लाख योनियोंको कौन भोगेगा ? स्वर्ग और नरकमें कौन जायगा ? मुक्त कौन होगा ?

साधक संजीवनी २।१३ परि०··

आँख इतनी बड़ी है कि उससे कितना ही देख लें, वह कभी भरती नहीं । आँखसे भी मन बड़ा है, मनसे बुद्धि बड़ी है, बुद्धिसे अहम् बड़ा है और अहम्से भी आप स्वयं बड़े हैं। आपके एक अंशमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड हैं। आप अहम्के आश्रय, आधार, प्रकाशक और अधिष्ठान हैं।

सागरके मोती १३२··

हम यहाँके, जन्म-मृत्युवाले संसारके नहीं हैं। यह हमारा देश नहीं है। हम इस देशके नहीं हैं। यहाँकी वस्तुएँ हमारी नहीं हैं। हम इन वस्तुओंके नहीं हैं। हमारे ये कुटुम्बी नहीं हैं। हम इन कुटुम्बियोंके नहीं हैं। हम तो केवल भगवान्‌के हैं और भगवान् ही हमारे हैं।

साधक संजीवनी ९ । ३··

जैसे 'करने' से शरीरको परिश्रम होता है, ऐसे ही 'न करने' से अर्थात् सुषुप्तिसे शरीरको ही विश्राम मिलता है, स्वयंको नहीं। स्वयंको विश्राम तो स्थूल सूक्ष्म और कारण - तीनों शरीरोंके सम्बन्ध-विच्छेदसे ही मिलेगा।

मानवमात्रके कल्याणके लिये ५४··

हमारा होनापन निरन्तर रहता है। हमारे साथ न तो पदार्थ एवं क्रिया रहती है, न चिन्तन रहता है और न स्थिरता रहती है। हम अकेले ही रहते हैं। इसलिये हमें अकेले ( पदार्थ, क्रिया, चिन्तन और स्थिरतासे रहित) रहनेका स्वभाव बनाना चाहिये।

मानवमात्रके कल्याणके लिये १४२··

बद्धावस्थामें भी स्वरूप वास्तवमें मुक्त ही है। बद्धपना माना हुआ है और मुक्तपना हमारा स्वतः सिद्ध स्वरूप है।

मानवमात्रके कल्याणके लिये ११··

स्वरूपमें जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति, मूर्च्छा और समाधि - ये पाँचों ही अवस्थाएँ नहीं हैं।........अवस्थाएँ अलग-अलग (पाँच) हैं, पर उनको जाननेवाले हम स्वयं एक ही हैं। इन पाँचों अवस्थाओंके परिवर्तन, अभाव तथा आदि - अन्तका अनुभव तो हमें होता है, पर अपने ( स्वरूपके) परिवर्तन, अभाव तथा आदि-अन्तका अनुभव हमें नहीं होता; क्योंकि स्वरूपमें ये हैं ही नहीं।

मानवमात्रके कल्याणके लिये १५०-१५१··

हम संसारमें हैं और परमात्माको प्राप्त करना है - ऐसा मानना ही गलती है; क्योंकि वास्तवमें हम परमात्मामें ही हैं। संसारकी तो सत्ता ही नहीं है-'नासतो विद्यते भाव:'

अमरताकी ओर ३९··

चुप वहाँ होते हैं, जहाँ हल्ला हो । स्वरूपमें हल्ला है ही नहीं, फिर चुप क्या हों ? चुप स्वतः सिद्ध है । मन-बुद्धिका हल्ला हो रहा है, इसलिये स्वरूपका पता नहीं चलता।

ज्ञानके दीप जले ३५··

संसारका निषेध होनेपर शून्य रह जाता है तो वह शून्य आपका स्वरूप नहीं है, प्रत्युत शून्यका ज्ञाता आपका स्वरूप है।

ज्ञानके दीप जले ४४··

जैसे ब्राह्मण हर समय अपने ब्राह्मणपनेमें स्थित रहता है ( अपने ब्राह्मणपनेको न याद करता है, न भूलता है) तो इसके लिये उसको कोई परिश्रम या अभ्यास नहीं करना पड़ता । ऐसे ही साधकको हर समय अपने होनेपन (स्वरूप) में स्थित रहना है। इसके लिये उसको कोई अभ्यास नहीं करना है । ब्राह्मणपना तो बनावटी (माना हुआ) है, पर अपना होनापन पहलेसे ही स्वत: सिद्ध है। ब्राह्मणपनेमें तो 'मैं ब्राह्मण हूँ' - ऐसा अहंकार है, पर अपने होनेपनमें कोई अहंकार नहीं है।

साधन-सुधा-सिन्धु १०४··

जबतक सांसारिक भोग और संग्रहकी तरफ दृष्टि है, तबतक मनुष्यमें यह ताकत नहीं है कि वह अपने स्वरूपकी तरफ दृष्टि डाल सके। अगर किसी कारणसे, किसी खास विवेचनसे उधर दृष्टि चली भी जाय, तो उसका स्थायी रहना बड़ा कठिन है।

साधक संजीवनी प्रा०··

अपनी (स्वयंकी) सत्ता स्वतन्त्र है, किसी पदार्थ, व्यक्ति, क्रियाके अधीन नहीं है; क्योंकि सुषुप्ति - अवस्थामें जब हम संसारको भूल जाते हैं, तब भी अपनी सत्ता बनी रहती है; जाग्रत् और स्वप्न अवस्थामें भी हम प्राणी, पदार्थके बिना रह सकते हैं।

साधक संजीवनी ५। ३··

मैं हूँ' इस प्रकार अपनी सत्ताका ज्ञान तो सबको रहता है । जैसे, सुषुप्ति (गाढ़ निद्रा ) - में अपना कुछ भी ज्ञान नहीं रहता, पर जगनेपर मनुष्य कहता है कि ऐसी गाढ़ नींद आयी कि मेरेको कुछ पता नहीं रहा, तो कुछ पता नहीं रहा' - इसका ज्ञान तो है ही। सोनेसे पहले मैं जो था, वही मैं जगनेके बाद हूँ, तो सुषुप्तिके समय भी मैं वही था - इस प्रकार अपनी सत्ताका ज्ञान अखण्डरूपसे निरन्तर रहता है। अपनी सत्ताके अभावका ज्ञान कभी किसीको नहीं होता।

साधक संजीवनी २।१३··

स्वयंमें न दीखनेवाला है, न देखनेवाला है; न जाननेमें आनेवाला है, न जाननेवाला है। ये दीखनेवाला- देखनेवाला आदि सब दशाके अन्तर्गत हैं। दीखनेवाला - देखनेवाला तो नहीं रहेंगे, पर स्वयं रहेगा; क्योंकि दशा तो मिट जायगी, पर स्वयं रह जायगा।

साधक संजीवनी २।१४ परि०··

विचार करनेपर सिद्ध होता है कि आत्मा पहले है, शरीर पीछे है; भाव पहले है, आकृति पीछे है। इसलिये साधककी दृष्टि पहले भावरूप आत्मा या स्वयंकी तरफ जानी चाहिये, शरीरकी तरफ नहीं।

साधक संजीवनी २।१८ परि०··

शरीरमें छः विकार होते हैं- उत्पन्न होना, सत्तावाला दीखना, बदलना, बढ़ना, घटना और नष्ट होना। यह शरीरी इन छहों विकारोंसे रहित है।

साधक संजीवनी २।२०··

कर्मेन्द्रियोंसे होनेवाली साधारण क्रियाओंसे लेकर चिन्तन तथा समाधितक की समस्त क्रियाओंका हमारे स्वरूपके साथ कुछ भी सम्बन्ध नहीं है (गीता ५ । ११) । परन्तु स्वरूपसे अनासक्त होते हुए भी यह जीवात्मा स्वयं आसक्ति करके संसारसे अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है।

साधक संजीवनी ३।७··

आजतक देवता, मनुष्य, पशु, पक्षी, यक्ष, राक्षस आदि अनेक शरीरों (योनियों) में जो भी कर्म किये गये हैं, उनमेंसे कोई भी 'कर्म' स्वरूपतक नहीं पहुँचा तथा कोई भी 'शरीर' स्वरूपतक नहीं पहुँचा; क्योंकि कर्म और पदार्थ (शरीर ) - का विभाग ही अलग है और स्वरूपका विभाग ही अलग है।

साधक संजीवनी ३ । २७ परि०··

पुरुष ( चेतन) में विजातीय प्रकृति (जड़) का जो आकर्षण प्रतीत होता है, उसमें भी वास्तवमें प्रकृतिका अंश ही प्रकृतिकी ओर आकर्षित होता है। करने और भोगनेकी क्रिया प्रकृतिमें ही है, पुरुषमें नहीं।

साधक संजीवनी ३ । २८ मा०··

शरीरीमें कर्तापन नहीं है। जैसे कोई भी कारीगर कैसा ही चतुर क्यों न हो, पर किसी औजार के बिना वह कार्य नहीं कर सकता, ऐसे ही यह शरीरी शरीरके बिना स्वयं कुछ भी नहीं कर सकता।........ पर यह शरीरके साथ तादात्म्य करके, सम्बन्ध जोड़कर शरीरसे होनेवाली क्रियाओंमें अपनेको कर्ता मान लेता है। अगर यह शरीरके साथ अपना सम्बन्ध न जोड़े, तो यह किसी भी क्रियाका कर्ता नहीं है।

साधक संजीवनी २।१९··

स्वरूपमें कर्तापन न तो वर्तमानमें है, न भूतमें था और न भविष्यमें ही होगा ।..... क्रियाशील प्रकृतिके कार्यरूप स्थूल, सूक्ष्म और कारण - किसी भी शरीरके साथ जब स्वयं अपना सम्बन्ध जोड़ लेता है, तब स्वयं कर्म न करते हुए भी उन शरीरोंसे होनेवाली क्रियाओंका कर्ता हुए बिना रह नहीं सकता।

साधक संजीवनी ५।९··

स्वयंका शरीरके साथ तादात्म्य होनेपर भी, शरीरके साथ कितना ही घुलमिल जानेपर भी और अपनेको 'मैं कर्ता हूँ' ऐसे मान लेनेपर भी स्वयंमें कभी कर्तृत्व आता ही नहीं और न कभी आ ही सकता है। किन्तु प्रकृतिके साथ तादात्म्य करके यह स्वयं अपनेमें कर्तृत्व मान लेता है; क्योंकि इसमें मानने और न माननेकी सामर्थ्य है, स्वतन्त्रता है।

साधक संजीवनी ५।९··

स्वयं (चेतन स्वरूप ) - में कर्तापन तथा भोक्कापन बनता नहीं है, प्रत्युत वह अविवेकपूर्वक अपनेको कर्ता-भोक्ता मान लेता है । सुखलोलुपता अथवा फलेच्छाके कारण वह अपनेको कर्ता मानता है और अपनेको कर्ता माननेके कारण उसको कर्मफलका भोक्ता बनना पड़ता है। कारण कि अपनेको कर्ता मान लेनेसे वह प्रकृतिकी जिस क्रियाके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ता है, वह क्रिया उसके लिये फलजनक 'कर्म' बन जाती है।

मानवमात्रके कल्याणके लिये ९१-९२··

स्वरूपमें लेशमात्र भी कर्तृत्व- भोक्तृत्व नहीं हैं - यह स्वतः बात सिद्ध है। इसमें कोई पुरुषार्थ नहीं है अर्थात् इसके लिये कुछ करना नहीं है। तात्पर्य है कि कर्तृत्व- भोक्तृत्वको मिटाना नहीं है, प्रत्युत इनको अपनेमें स्वीकार नहीं करना है, इनके अभावका अनुभव करना है; क्योंकि वास्तवमें ये अपनेमें हैं ही नहीं।

साधक संजीवनी १३ | ३१ परि०··

सुखी - दुःखी होना अपनेमें माननेपर भी अर्थात् सुखके समय सुखी और दुःखके समय दु:खी- ऐसी मान्यता अपनेमें करनेपर भी पुरुष स्वयं अपने स्वरूपसे निर्लिप्त और सुख-दुःखका प्रकाशकमात्र ही रहता है।

साधक संजीवनी ५।९··

सत्तामात्रमें भूत, भविष्य और वर्तमान- तीनोंका ही सर्वथा अभाव है। सत्ता कालसे अतीत है। अतः वह किसी भी कालमें कर्ता नहीं है। उस कालातीत और अवस्थातीत सत्तामें किसी कालविशेष और अवस्थाविशेषको लेकर कर्तृत्व तथा भोक्तृत्वका आरोप करना अज्ञान है।

साधक संजीवनी ५।८-९ परि०··

वास्तवमें चिन्मय सत्तामात्रमें न करना है, न होना है । स्थूल, सूक्ष्म और कारणशरीरमें होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाएँ प्रकृतिमें ही होती हैं, स्वयंमें नहीं । अतः स्वयंका किसी भी क्रियासे किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है।

साधक संजीवनी ५१८-९ परि०··

तीनों लोकों और चौदह भुवनोंमें जितने भी स्थावर जंगम प्राणी हैं, उन सबका स्वरूप शुद्ध है, निर्मल है, प्रकृतिसे असम्बद्ध है। अनन्त जन्मोंतक अनन्त क्रियाओं और शरीरोंके साथ एकता करनेपर भी उनकी कभी एकता हो ही नहीं सकती और अनन्त जन्मोंतक अपने स्वरूपका बोध न होनेपर भी वे अपने स्वरूपसे कभी अलग नहीं हो सकते।

साधक संजीवनी ७।२९··

हम सभी परमात्माके अंश हैं, परमात्माकी जातिके हैं, परमात्माके साथी हैं और परमात्मा के धामके वासी हैं। हम सभी इस संसारमें आये हैं; हम संसारके नहीं हैं।........ हम चाहे स्वर्गमें जायें, चाहे नरकोंमें जायँ, चाहे चौरासी लाख योनियोंमें जायँ, चाहे मनुष्ययोनिमें जायँ, तो भी हमारा परमात्मासे वियोग नहीं होता, परमात्माका साथ नहीं छूटता । परमात्मा सभी योनियोंमें हमारे साथ रहते हैं।

साधक संजीवनी ९ ३ वि०··

भूत, भविष्य और वर्तमानके सभी जीव नित्य निरन्तर भगवान्‌में ही रहते हैं, भगवान्से कभी अलग हो ही नहीं सकते। भगवान्में भी यह ताकत नहीं है कि वे जीवोंसे अलग हो जायँ । अतः प्राणी कहीं भी रहें, वे कभी भी भगवान्‌की दृष्टिसे ओझल नहीं हो सकते।

साधक संजीवनी ७।२६··

परमात्माका अंश होनेसे स्वयं अविनाशी है, चेतन है, निर्विकार है। परन्तु प्रकृतिजन्य पदार्थोंके साथ मेँ मेरापनका सम्बन्ध जोड़कर, उनके परवश होकर इसको जन्मना - मरना पड़ता है अर्थात् नये-नये शरीर धारण करने और छोड़ने पड़ते हैं।

साधक संजीवनी ९ । १०··

यह जीव जब पापात्मा नहीं बना था, तब भी पवित्र था और जब पापात्मा बन गया, तब भी वैसा ही पवित्र था। कारण कि परमात्माका अंश होनेसे जीव सदा ही पवित्र है। केवल संसारके सम्बन्धसे वह पापात्मा बना था । संसारका सम्बन्ध छूटते ही वह ज्यों-का-त्यों पवित्र रह गया।

साधक संजीवनी ९ । ३१··

भगवान्‌के अंश इस जीवमें कालापन अर्थात् अपवित्रता भगवान् से विमुख होनेसे ही आती है। अगर यह भगवान्‌के सम्मुख हो जाय, तो इसकी वह अपवित्रता सर्वथा मिट जाती है और यह महान् पवित्र हो जाता है तथा दुनियामें चमक उठता है। इसमें इतनी पवित्रता आ जाती है कि भगवान् भी इसे अपना मुकुटमणि बना लेते हैं।

साधक संजीवनी ९ । ३२··

जैसे नेत्रोंकी दृष्टि आपसमें नहीं टकराती अथवा व्यापक होनेपर भी शब्द परस्पर नहीं टकराते, ऐसे ही (द्वैतमतके अनुसार) सम्पूर्ण जगत् में समानरूपसे व्याप्त होनेपर भी निरवयव होने से परमात्मा और जीवात्माकी सर्वव्यापकता आपसमें नहीं टकराती।

साधक संजीवनी १२ । ३-४ वि०··

परमात्माका स्वरूप अथवा उसका ही अंश होनेके ही कारण जीवात्मा स्वयं निर्दोष है- 'चेतन अमल सहज सुखरासी' (मानस ७ । ११७ । १) । यही कारण है कि जीवात्माको दुःख और दोष अच्छे नहीं लगते; क्योंकि वे इसके सजातीय नहीं हैं। जीव अपने द्वारा ही पैदा किये दोषोंके कारण सदा दुःख पाता रहता है।

साधक संजीवनी १३।८··

पुरुषमें प्रकृतिकी परिवर्तनरूप क्रिया या विकार नहीं है; परन्तु उसमें सम्बन्ध मानने अथवा न माननेकी योग्यता तो है ही।

साधक संजीवनी ३ । २८ मा०··

परमात्माका अंश होनेके कारण क्षेत्रज्ञमें यह शक्ति है कि वह विजातीय वस्तुको भी पकड़ सकता है, उसके साथ अपना सम्बन्ध मान सकता है । उसको यह स्वतन्त्रता भगवान्ने ही दी है । परन्तु उसने इस स्वतन्त्रताका दुरुपयोग किया अर्थात् भगवान्‌ के साथ सम्बन्ध न मानकर संसारके साथ सम्बन्ध मान लिया और जन्म-मरणके चक्रमें पड़ गया (गीता १३ । २१ ) |

साधक संजीवनी १३ | २६ परि०··

शरीर तो प्रकृतिका कार्य होनेसे सदा प्रकृतिमें ही स्थित रहता है और स्वयं परमात्माका अंश होनेसे सदा परमात्मामें ही स्थित रहता है। स्वयं परमात्मासे कभी अलग हो सकता ही नहीं । शरीरके साथ एकात्मता माननेपर भी, शरीरके साथ कितना ही घुल-मिल जानेपर भी, शरीरको ही अपना स्वरूप माननेपर भी उसकी निर्लिप्तता कभी नष्ट नहीं होती, वह स्वरूपसे सदा ही निर्लिप्त रहता है।

साधक संजीवनी १३ | ३१··

चिन्मय सत्ता एक ही है, पर अहंताके कारण वह अलग-अलग दीखती है।....... चिन्मय सत्ता न शरीरस्थ है और न प्रकृतिस्थ है, प्रत्युत आकाशकी तरह सर्वत्र स्थित है अर्थात् वह सम्पूर्ण शरीरोंके, सृष्टिमात्रके बाहर भीतर सर्वत्र परिपूर्ण है। वह सर्वव्यापी सत्ता ही हमारा स्वरूप है और वही परमात्मतत्त्व है।

साधक संजीवनी १३ । ३२ परि०··

करनेकी जिम्मेवारी उसीपर होती है, जो कुछ कर सकता है । जैसे, कितना ही चतुर चित्रकार हो, बिना सामग्री (रंग, ब्रश आदि) के वह चित्र नहीं बना सकता, ऐसे ही पुरुष (चेतन) बिना प्रकृतिकी सहायताके कुछ नहीं कर सकता । अतः पुरुषपर कुछ करनेकी जिम्मेवारी हो ही नहीं सकती।

साधक संजीवनी १३ । ३३ परि०··

शरीर और उसके द्वारा होनेवाली क्रियाएँ संसारके ही काम आती हैं। हमारा स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है; अतः उसके लिये शरीर और उसकी क्रियाएँ कुछ काम नहीं आतीं।

साधक संजीवनी १३ । ३३ परि०··

तीनों गुणोंकी वृत्तियाँ दृश्य हैं और पुरुष इनको देखनेवाला होनेसे द्रष्टा है । द्रष्टा दृश्यसे सर्वथा भिन्न होता है - यह नियम है । दृश्यकी तरफ दृष्टि होनेसे ही द्रष्टा संज्ञा होती है । दृश्यपर दृष्टि न रहनेपर द्रष्टा संज्ञारहित रहता है। भूल यह होती है कि दृश्यको अपनेमें आरोपित करके वह 'मैं कामी हूँ', 'मैं क्रोधी हूँ' आदि मान लेता है।

साधक संजीवनी १४ । १३ टि०··

नाशवान् चीजको अपनी माननेसे ही यह जीव संसारका गुलाम, अपने स्वरूपसे च्युत और भगवान्से विमुख हुआ है। यदि वह नाशवान् चीजको अपनी न माने (जो कि अपनी नहीं है), तो संसारकी गुलामी छूट जायगी, अपने स्वरूपका बोध हो जायगा और भगवान्‌को अपना माननेसे भगवत्प्रेमकी प्राप्ति हो जायगी।

साधक संजीवनी १५ । २··

जीव ब्रह्म (निर्गुण) - का अंश नहीं है, प्रत्युत ईश्वर ( सगुण ) - का अंश है – 'ईस्वर अंस जीव अबिनासी' (मानस ७ । ११७ । १) । कारण कि ब्रह्म चिन्मय सत्तामात्र है; अतः उसमें अंश अंशीभाव हो सकता ही नहीं। जीवकी ब्रह्मसे एकता ( साधर्म्य) है अर्थात् अनेक रूपसे जो जीव हैं, वही एक रूपसे ब्रह्म है। शरीरके साथ सम्बन्ध होनेसे वह जीव है और शरीरके साथ सम्बन्ध न होनेसे वह ब्रह्म है।

साधक संजीवनी १५७ परि०··

चेतन-तत्त्व एक होते हुए भी ईश्वर अलग है, जीव अलग है। ईश्वर सबका मालिक है, जीव सबका मालिक नहीं है । संसारकी उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करनेका काम ईश्वरका है, जीवका नहीं—'जगद्व्यापारवर्जम्' (ब्रह्मसूत्र ४ । ४ । १७)।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ २२··

शरीरसे होनेवाले पुरुषार्थमें तो 'क्रिया' मुख्य है, जो केवल संसारके लिये ही होती है; क्योंकि शरीर संसारका अंश है। परन्तु स्वयंसे होनेवाले पुरुषार्थमें 'भाव' मुख्य है। इसलिये बुराईरहित होना, असंग होना, भगवान्‌को अपना मानना - ये स्वयंके पुरुषार्थ हैं।....... मैं बुराईरहित हो जाऊँ, मैं असंग हो जाऊँ, मैं भगवत्प्रेमी हो जाऊँ– ऐसी आवश्यकताका अनुभव करना भी पुरुषार्थ है।

साधक संजीवनी १५७ परि०··

ममता, कामना और तादात्म्यके कारण हमने अपनेको शरीरके भीतर मान लिया कि मेरे चारों तरफ शरीर है, बीचमें मैं हूँ। वास्तवमें ऐसा नहीं है। स्वयं सदा ही शरीरसे अलग है। स्वयं सर्वव्यापी है, शरीर सर्वव्यापी नहीं है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १६··

अगर हम कोई काम न करें तो शरीरकी क्या जरूरत है ? वास्तवमें शरीरके द्वारा होनेवाले सब काम जगत्के हैं, आपके नहीं। खाना-पीना, सोना- जगना, शौच स्नान करना आदि अपने काम दीखते हैं, पर वास्तवमें ये सब शरीरके काम हैं। आपका अपना कोई काम है ही नहीं । परन्तु शरीरमें अहंता - ममता करके आप शरीरसे होनेवाले कर्मोंके कर्ता- भोक्ता बन जाते हैं।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश २४··

शरीर तो माँके पेटमें बना है, पर आप बने नहीं हो, आप आये हो। शरीर नष्ट होगा, आप नहीं। आप परमात्माके अंश हैं। जब परमात्मा कभी बूढ़े नहीं होते, कभी मरते नहीं, तो फिर उनका अंश बूढ़ा कैसे होगा? कैसे मरेगा ? शरीर ही बूढ़ा होता है और मरता है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ७७··

होनापन' मेरा स्वरूप है - इस बातको जोरसे पकड़ लो। इस होनेपनके साथ शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि कुछ भी मिलाओ मत।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १४५··

भोगोंकी 'कामना', तत्त्वकी 'जिज्ञासा' और प्रेमकी 'लालसा'- ये तीनों जिसमें रहते हैं, वह 'मैं' अर्थात् जीव है। भोगोंकी कामनाका त्याग करनेपर 'साधक' होता है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १६०··

अकेले आपका जो मूल्य है, वह सम्पूर्ण संसारका भी नहीं है। सब का सब संसार मिलकर भी आपकी पूर्ति नहीं कर सकता, पर आप अकेले संसारकी पूर्ति कर सकते हो।....... एक व्यक्तिके बराबर भी संसारका मूल्य नहीं है। संसार सब का सब जड़ है, पर आप चेतन हो।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १६१··

आप अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) नहीं हो। आप अहंकारहित हो— 'निर्ममो निरहङ्कारः ' (गीता २ । ७१; १२ । १३) । नींदमें भी अहंकार नहीं रहता, पर आप रहते हो । अतः जिसमें अहंकार नहीं रहता - वह मैं हूँ। यह मार्मिक बात है। यह आपका अनुभव है। इसे स्वीकार कर लो तो आपका सब काम हो गया।

अनन्तकी ओर १८७··

पहले यही अनुभव होगा कि 'यह मैं नहीं हूँ'। 'यह मैं हूँ' – यह बादमें होगा।

स्वातिकी बूँदें १९··

आप शरीरके साथ न रहकर परमात्माके साथ रहें । शरीरमें स्थिति आपने मानी है, है नहीं । आप शरीरमें नहीं रहते हैं, प्रत्युत परमात्मामें ही रहते हैं।

स्वातिकी बूँदें २३··

मैं भगवान्‌का हूँ – यह स्वयंमें होता है । साधन करनेका विचार भी स्वयंमें होता है। भक्ति आदिके संस्कार भी स्वयंमें रहते हैं। सुख-दुःखका भोक्ता भी स्वयं है। जैसे लड़ती है फौज पर जय- पराजय राजाकी होती है, ऐसे ही काम करता है अन्त:करण पर परिणाममें सुख-दुःख स्वयंको होता है।

स्वातिकी बूँदें १८८··

आपका स्वरूप सब जगह व्याप्त है, केवल एक शरीरमें (एकदेशीय) नहीं है। संस्कार तो शरीरमें हैं, पर आपका स्वरूप शरीरमें नहीं है। आप शरीरसे अलग होकर देखो तो आपमें संस्कार हैं ही नहीं। संस्कार अपनेमें हैं ही नहीं तो फिर क्यों घबरायें। असत्का संस्कार भी असत् है । अतः मनमें कोई बात आये तो अपने-आपको सब जगह अनुभव करें। इससे वह संस्कार बहुत सरलतासे दूर हो जायगा।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ ५०··

परा प्रकृति' अपरासे सम्बन्ध जोड़ ले तो 'जीव' है, अपरासे सम्बन्ध तोड़ ले तो 'ब्रह्म' है, और परमात्मासे सम्बन्ध जोड़ ले तो 'प्रेम' है, प्रेमी नहीं।

स्वातिकी बूँदें १२३··

आत्मा शुद्ध-बुद्ध-मुक्त है - यह साधकोंके लिये बड़ी भयंकर, खतरनाक बात है, क्योंकि सीखा हुआ ज्ञान बड़ा भयंकर होता है। आत्मा शुद्ध - बुद्ध-मुक्त है तो फिर दुःखी कौन होता है ? क्या करण (मन-बुद्धि) दु:खी होता है? कर्त्ता सुखी - दुःखी होता है, 'करण' नहीं।

स्वातिकी बूँदें १८२··

जबतक अपनेपर जड़ (संसार) का असर पड़े, तबतक अपनी स्थिति जड़में ही समझनी चाहिये, चिन्मय तत्त्वमें नहीं।

अमृत-बिन्दु ६६६··

साधकको चाहिये कि वह बदलनेवाली अवस्थाओंको न देखे, प्रत्युत कभी न बदलनेवाले स्वरूप (स्वयं) को देखे।

अमृत-बिन्दु ८९१··

हमारा स्वरूप खुदका है, पराया नहीं है; अगर उसे जानना कठिन है तो फिर सुगम क्या होगा ?

अमृत-बिन्दु ८९८··

जहाँ आप 'मैं हूँ' कहते हो, वहाँ आप नहीं हो, परमात्मा हैं । परमात्मा पहले हैं, 'मैं हूँ' बादमें है। तात्पर्य है कि मेरी जगह परमात्मा ही हैं, मैं नहीं हूँ।

परम प्रभु अपने ही महुँ पायो ११६··

भगवान्‌के अंशको केवल भगवान्‌की ही आवश्यकता है।

स्वातिकी बूँदें १९१··

जीवपना मिथ्या है, जीव नहीं जीव तो भगवान्‌का अंश है- 'ममैवांशो जीवलोके' (गीता १५ । ७) ।

सन्त समागम १५··

स्त्री, पुरुष, साधु, गृहस्थ आदि सब बनावटी ( बने हुए) हैं, पर परमात्माका अंश बनावटी नहीं है।

स्वातिकी बूँदें १०४··

हम भगवान्‌के अंश हैं— 'ममैवांशो जीवलोके' (गीता १५ । ७ ) । इसलिये भगवान्‌का जो धाम है, वही हमारा धाम है।........ यह सम्पूर्ण संसार ( मात्र ब्रह्माण्ड ) परदेश है, स्वदेश नहीं। यह पराया घर है, अपना घर नहीं । विभिन्न योनियोंमें और लोकोंमें हमारा घूमना, भटकना तभी बंद होगा, जब हम अपने असली घर पहुँच जायेंगे।

साधक संजीवनी १५ । ६ परि०··

जीवन्मुक्त महात्मा जैसे परमात्माका अंश हैं, ऐसे ही हम भी परमात्माके अंश हैं। हम जीवन्मुक्तके ही भाई हैं, उससे अलग नहीं है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १४९··

भगवान् कहते हैं कि जीवमात्र मेरा अंश है- 'ममैवांशो जीवलोके' (गीता १५ । ७) । आप भले ही कुछ नहीं हों, सन्त महात्मा नहीं हों, भजनानन्दी नहीं हों, शुद्ध नहीं हों, पर जीव तो हो ही । कपूत क्या पूत नहीं होता? मल-मूत्रसे भरा बच्चा क्या माँका बेटा नहीं होता ?

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ८६··

जैसे कपड़ेका अंश कपड़ा ही होता है, ऐसे ही ईश्वरका अंश ईश्वर ही है। जो ईश्वरके लक्षण हैं, वही हमारे लक्षण हैं- 'ईस्वर अंस जीव अबिनासी'। चेतन अमल सहज सुख रासी ॥' (मानस, उत्तर० ११७ । १) जिस जातिके परमात्मा हैं, उसी जातिके हम हैं। परमात्मा भी सच्चिदानन्द हैं, हम भी सच्चिदानन्द हैं। यह बात अगर आप मान लो तो आपको परमात्माकी प्राप्ति बहुत सुगम हो जाय।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १६७··