पराधीनताको मिटानेके लिये निष्काम होना बहुत आवश्यक है।
||श्रीहरि:||
पराधीनताको मिटानेके लिये निष्काम होना बहुत आवश्यक है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये ३७
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मानवमात्रके कल्याणके लिये ३७··
सर्वथा इच्छारहित होना ही असली स्वतन्त्रता है।
||श्रीहरि:||
सर्वथा इच्छारहित होना ही असली स्वतन्त्रता है।- सत्संगके फूल १४०
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सत्संगके फूल १४०··
जिसके भीतर इच्छा है, उसको किसी-न-किसीके पराधीन होना ही पड़ेगा।
||श्रीहरि:||
जिसके भीतर इच्छा है, उसको किसी-न-किसीके पराधीन होना ही पड़ेगा।- अमृत-बिन्दु १११
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अमृत-बिन्दु १११··
जबतक क्रिया और पदार्थसे सम्बन्ध है, तबतक पराधीनता है।
||श्रीहरि:||
जबतक क्रिया और पदार्थसे सम्बन्ध है, तबतक पराधीनता है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये ३९
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मानवमात्रके कल्याणके लिये ३९··
ऐसी कोई वस्तु, व्यक्ति और क्रिया है ही नहीं, जिससे मनुष्य स्वाधीन हो जाय । वस्तु, व्यक्ति और क्रिया तो मनुष्यको पराधीन बनानेवाली हैं। उनसे असंग होनेपर ही मनुष्य स्वाधीन हो सकता है।
||श्रीहरि:||
ऐसी कोई वस्तु, व्यक्ति और क्रिया है ही नहीं, जिससे मनुष्य स्वाधीन हो जाय । वस्तु, व्यक्ति और क्रिया तो मनुष्यको पराधीन बनानेवाली हैं। उनसे असंग होनेपर ही मनुष्य स्वाधीन हो सकता है।- अमरताकी ओर ४७
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अमरताकी ओर ४७··
पर' को अपना मानना पराधीनताका मूल है। जबतक हम शरीरको अपना मानते रहेंगे, तबतक पराधीनता कभी छूटेगी नहीं, छूट सकती ही नहीं । शरीरके छूटनेपर भी पराधीनता नहीं छूटेगी।
||श्रीहरि:||
पर' को अपना मानना पराधीनताका मूल है। जबतक हम शरीरको अपना मानते रहेंगे, तबतक पराधीनता कभी छूटेगी नहीं, छूट सकती ही नहीं । शरीरके छूटनेपर भी पराधीनता नहीं छूटेगी।- सत्संग-मुक्ताहार ४८
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सत्संग-मुक्ताहार ४८··
स्व' के दो अर्थ होते हैं - स्वयं और स्वकीय। अपने स्वरूपका नाम भी 'स्व' है और जो अपना है, उसका नाम भी 'स्व' है। परमात्मा अपने होनेसे स्वकीय हैं। स्वकीयकी अधीनतामें विशेष स्वाधीनता और निश्चिन्तता है।
||श्रीहरि:||
स्व' के दो अर्थ होते हैं - स्वयं और स्वकीय। अपने स्वरूपका नाम भी 'स्व' है और जो अपना है, उसका नाम भी 'स्व' है। परमात्मा अपने होनेसे स्वकीय हैं। स्वकीयकी अधीनतामें विशेष स्वाधीनता और निश्चिन्तता है।- अमरताकी ओर ८४
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अमरताकी ओर ८४··
जो अपना होता है, उसकी अधीनता पराधीनता नहीं होती। जैसे माँ अपनी होती है तो उसके अधीन होना गुण है, अवगुण नहीं है। लोग भी उसकी प्रशंसा करते हैं कि मातृभक्त अथवा पितृभक्त है। उसकी कोई निन्दा नहीं करता कि यह तो माँका गुलाम है। कारण कि शरीरकी दृष्टिसे माता-पिता हमसे बड़े हैं । भगवान् स्वरूपकी दृष्टिसे अपनेसे बड़े हैं, इसलिये भगवान्की अधीनता पराधीनता नहीं है, प्रत्युत स्वाधीनताका मूल है, स्वाधीन होनेका खास उपाय है।
||श्रीहरि:||
जो अपना होता है, उसकी अधीनता पराधीनता नहीं होती। जैसे माँ अपनी होती है तो उसके अधीन होना गुण है, अवगुण नहीं है। लोग भी उसकी प्रशंसा करते हैं कि मातृभक्त अथवा पितृभक्त है। उसकी कोई निन्दा नहीं करता कि यह तो माँका गुलाम है। कारण कि शरीरकी दृष्टिसे माता-पिता हमसे बड़े हैं । भगवान् स्वरूपकी दृष्टिसे अपनेसे बड़े हैं, इसलिये भगवान्की अधीनता पराधीनता नहीं है, प्रत्युत स्वाधीनताका मूल है, स्वाधीन होनेका खास उपाय है।- सत्संग-मुक्ताहार ४८
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सत्संग-मुक्ताहार ४८··
सुख चाहनेवाला कभी स्वाधीन नहीं हो सकता। कारण कि 'पर' (शरीर) के अधीन हुए बिना सुखका भोग हो सकता ही नहीं।
||श्रीहरि:||
सुख चाहनेवाला कभी स्वाधीन नहीं हो सकता। कारण कि 'पर' (शरीर) के अधीन हुए बिना सुखका भोग हो सकता ही नहीं।- सत्संग-मुक्ताहार ४८
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सत्संग-मुक्ताहार ४८··
जो सन्तोंके, सज्जनोंके परवश नहीं होता, उसे दुष्टोंके परवश होना ही पड़ेगा। अच्छे लोग सत्पुरुषोंकी परतन्त्रता चाहते हैं।
||श्रीहरि:||
जो सन्तोंके, सज्जनोंके परवश नहीं होता, उसे दुष्टोंके परवश होना ही पड़ेगा। अच्छे लोग सत्पुरुषोंकी परतन्त्रता चाहते हैं।- सागरके मोती ७६
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सागरके मोती ७६··
माता-पिता, गुरु आदिकी पराधीनतामें भी स्वाधीनता भरी पड़ी है। इनकी पराधीनता स्वाधीनताका मूल है।
||श्रीहरि:||
माता-पिता, गुरु आदिकी पराधीनतामें भी स्वाधीनता भरी पड़ी है। इनकी पराधीनता स्वाधीनताका मूल है।- स्वातिकी बूँदें ४२
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स्वातिकी बूँदें ४२··
आपको जो स्वतन्त्रता मिली है, वह कल्याण करनेके लिये मिली है।
||श्रीहरि:||
आपको जो स्वतन्त्रता मिली है, वह कल्याण करनेके लिये मिली है।- ज्ञानके दीप जले १८४
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ज्ञानके दीप जले १८४··
इच्छा होनेसे मनुष्य संसारका गुलाम होता है। जो संसारका गुलाम है, वह भगवान्का गुलाम कैसे होगा ?
||श्रीहरि:||
इच्छा होनेसे मनुष्य संसारका गुलाम होता है। जो संसारका गुलाम है, वह भगवान्का गुलाम कैसे होगा ?- ज्ञानके दीप जले १८५
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ज्ञानके दीप जले १८५··
हम असत्की सत्ता मान भी सकते हैं और नहीं भी मान सकते, छल, कपट, हिंसा आदि कर भी सकते हैं और नहीं भी कर सकते - यह मिली हुई स्वतन्त्रता है। जबसे हमने इस स्वतन्त्रताका दुरुपयोग किया, तभीसे जन्म-मरण आरम्भ हुआ। अब इसका दुरुपयोग न करनेसे ही जन्म- मरणसे छुटकारा होगा।
||श्रीहरि:||
हम असत्की सत्ता मान भी सकते हैं और नहीं भी मान सकते, छल, कपट, हिंसा आदि कर भी सकते हैं और नहीं भी कर सकते - यह मिली हुई स्वतन्त्रता है। जबसे हमने इस स्वतन्त्रताका दुरुपयोग किया, तभीसे जन्म-मरण आरम्भ हुआ। अब इसका दुरुपयोग न करनेसे ही जन्म- मरणसे छुटकारा होगा।- साधन-सुधा-सिन्धु ४७
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साधन-सुधा-सिन्धु ४७··
वस्तुसे, व्यक्तिसे, परिस्थितिसे, घटनासे, अवस्थासे जो सुख चाहता है, आराम चाहता है, लाभ चाहता है, उसको पराधीन होना ही पड़ेगा, बच नहीं सकता, चाहे ब्रह्मा हो, इन्द्र हो, कोई भी हो। मैं तो यहाँतक कहता हूँ कि भगवान् भी बच नहीं सकते। जो दूसरेसे कुछ भी चाहता है, वह पराधीन होगा ही।
||श्रीहरि:||
वस्तुसे, व्यक्तिसे, परिस्थितिसे, घटनासे, अवस्थासे जो सुख चाहता है, आराम चाहता है, लाभ चाहता है, उसको पराधीन होना ही पड़ेगा, बच नहीं सकता, चाहे ब्रह्मा हो, इन्द्र हो, कोई भी हो। मैं तो यहाँतक कहता हूँ कि भगवान् भी बच नहीं सकते। जो दूसरेसे कुछ भी चाहता है, वह पराधीन होगा ही।- साधन-सुधा-सिन्धु ७१३
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साधन-सुधा-सिन्धु ७१३··
शरीरकी आवश्यकता ही मनुष्यको पराधीन बनाती है। आवश्यकता तभी पैदा होती है, जब मनुष्य उस वस्तुको स्वीकार कर लेता है, जो अपनी नहीं है।
||श्रीहरि:||
शरीरकी आवश्यकता ही मनुष्यको पराधीन बनाती है। आवश्यकता तभी पैदा होती है, जब मनुष्य उस वस्तुको स्वीकार कर लेता है, जो अपनी नहीं है।- साधक संजीवनी २ । ७१ परि०
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साधक संजीवनी २ । ७१ परि०··
शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राणी, पदार्थ, घटना, परिस्थिति आदि सब 'पर' हैं और जो इनके अधीन रहता है, उसे 'पराधीन' कहते हैं। इन शरीरादि वस्तुओंमें महत्त्वबुद्धि होना तथा इनकी आवश्यकता अनुभव करना अर्थात् इनकी कामना करना ही इनके अधीन होना है।
||श्रीहरि:||
शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राणी, पदार्थ, घटना, परिस्थिति आदि सब 'पर' हैं और जो इनके अधीन रहता है, उसे 'पराधीन' कहते हैं। इन शरीरादि वस्तुओंमें महत्त्वबुद्धि होना तथा इनकी आवश्यकता अनुभव करना अर्थात् इनकी कामना करना ही इनके अधीन होना है।- साधक संजीवनी ५। १९
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ५। १९··
कामना उत्पन्न होते ही मनुष्य पराधीन हो जाता है। यह पराधीनता कामनाकी पूर्ति न होनेपर अथवा पूर्ति होनेपर - दोनों ही अवस्थाओंमें ज्यों-की-त्यों रहती है। कामनाकी पूर्ति न होनेपर मनुष्य वस्तुके अभावके कारण पराधीनताका अनुभव करता है और कामनाकी पूर्ति होनेपर अर्थात् वस्तुके मिलने पर वह उस वस्तुके पराधीन हो जाता है; क्योंकि उत्पत्ति - विनाशशील वस्तुमात्र 'पर' है।
||श्रीहरि:||
कामना उत्पन्न होते ही मनुष्य पराधीन हो जाता है। यह पराधीनता कामनाकी पूर्ति न होनेपर अथवा पूर्ति होनेपर - दोनों ही अवस्थाओंमें ज्यों-की-त्यों रहती है। कामनाकी पूर्ति न होनेपर मनुष्य वस्तुके अभावके कारण पराधीनताका अनुभव करता है और कामनाकी पूर्ति होनेपर अर्थात् वस्तुके मिलने पर वह उस वस्तुके पराधीन हो जाता है; क्योंकि उत्पत्ति - विनाशशील वस्तुमात्र 'पर' है।- साधक संजीवनी ५। १९
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ५। १९··
संसारका सम्बन्ध तो मनुष्यको पराधीन बनाता है, गुलाम बनाता है, पर भगवान्का सम्बन्ध मनुष्यको स्वाधीन बनाता है, चिन्मय बनाता है और बनाता है भगवान्का भी मालिक।
||श्रीहरि:||
संसारका सम्बन्ध तो मनुष्यको पराधीन बनाता है, गुलाम बनाता है, पर भगवान्का सम्बन्ध मनुष्यको स्वाधीन बनाता है, चिन्मय बनाता है और बनाता है भगवान्का भी मालिक।- साधक संजीवनी १८ । ६६ वि०
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साधक संजीवनी १८ । ६६ वि०··
भगवान् तो स्वाधीन से स्वाधीन हैं। जीव ही जड़ताके पराधीन हो जाता है। उस पराधीनताको मिटानेसे वह स्वाधीन हो जाता है । परन्तु भगवान् के शरण होनेसे वह स्वाधीनतापूर्वक स्वाधीन अर्थात् परम स्वाधीन हो जाता है। भगवान्की अधीनता परम स्वाधीनता है, जिसमें भगवान् भी भक्तके अधीन हो जाते हैं - ' अहं भक्तपराधीनः ' ( श्रीमद्भा० ९ ४ ६३) ।
||श्रीहरि:||
भगवान् तो स्वाधीन से स्वाधीन हैं। जीव ही जड़ताके पराधीन हो जाता है। उस पराधीनताको मिटानेसे वह स्वाधीन हो जाता है । परन्तु भगवान् के शरण होनेसे वह स्वाधीनतापूर्वक स्वाधीन अर्थात् परम स्वाधीन हो जाता है। भगवान्की अधीनता परम स्वाधीनता है, जिसमें भगवान् भी भक्तके अधीन हो जाते हैं - ' अहं भक्तपराधीनः ' ( श्रीमद्भा० ९ ४ ६३) ।- साधक संजीवनी ८ । १९ परि०
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साधक संजीवनी ८ । १९ परि०··
मनुष्यको यह वहम रहता है कि अमुक वस्तुकी प्राप्ति होनेपर, अमुक व्यक्तिके मिलनेपर तथा अमुक क्रियाको करनेपर मैं स्वाधीन (मुक्त) हो जाऊँगा । परन्तु ऐसी कोई वस्तु, व्यक्ति और क्रिया है ही नहीं, जिससे मनुष्य स्वाधीन हो जाय । प्रकृतिजन्य वस्तु व्यक्ति और क्रिया तो मनुष्यको पराधीन बनानेवाली हैं। उनसे सर्वथा असंग होनेपर ही मनुष्य स्वाधीन हो सकता है।
||श्रीहरि:||
मनुष्यको यह वहम रहता है कि अमुक वस्तुकी प्राप्ति होनेपर, अमुक व्यक्तिके मिलनेपर तथा अमुक क्रियाको करनेपर मैं स्वाधीन (मुक्त) हो जाऊँगा । परन्तु ऐसी कोई वस्तु, व्यक्ति और क्रिया है ही नहीं, जिससे मनुष्य स्वाधीन हो जाय । प्रकृतिजन्य वस्तु व्यक्ति और क्रिया तो मनुष्यको पराधीन बनानेवाली हैं। उनसे सर्वथा असंग होनेपर ही मनुष्य स्वाधीन हो सकता है।- साधक संजीवनी ८ । १९ परि०
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साधक संजीवनी ८ । १९ परि०··
यह एक बड़ी मार्मिक बात है कि मनुष्य जिन प्राकृत पदार्थोंको अपना मान लेते हैं, उन पदार्थोंके सदा ही परवश (पराधीन) हो जाते हैं। वे वहम तो यह रखते हैं कि हम इन पदार्थोंके मालिक हैं, पर हो जाते हैं उनके गुलाम ।..... भगवान्को अपना माननेसे मनुष्यकी परवशता सदाके लिये समाप्त हो जाती है। तात्पर्य यह हुआ कि मनुष्य पदार्थों और क्रियाओंको अपनी मानता है। तो सर्वथा परतन्त्र हो जाता है, और भगवान्को अपना मानता है तो सर्वथा स्वतन्त्र हो जाता है।
||श्रीहरि:||
यह एक बड़ी मार्मिक बात है कि मनुष्य जिन प्राकृत पदार्थोंको अपना मान लेते हैं, उन पदार्थोंके सदा ही परवश (पराधीन) हो जाते हैं। वे वहम तो यह रखते हैं कि हम इन पदार्थोंके मालिक हैं, पर हो जाते हैं उनके गुलाम ।..... भगवान्को अपना माननेसे मनुष्यकी परवशता सदाके लिये समाप्त हो जाती है। तात्पर्य यह हुआ कि मनुष्य पदार्थों और क्रियाओंको अपनी मानता है। तो सर्वथा परतन्त्र हो जाता है, और भगवान्को अपना मानता है तो सर्वथा स्वतन्त्र हो जाता है।- साधक संजीवनी १८ । ५९
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साधक संजीवनी १८ । ५९··
किसी बातको लेकर अपनेमें कुछ भी विशेषता दीखती है, यही वास्तवमें पराधीनता है। यदि मनुष्य विद्या, बुद्धि, धन-सम्पत्ति, त्याग, वैराग्य आदि किसी बातको लेकर अपनी विशेषता मानता है तो यह उस विद्या आदिकी पराधीनता, दासता ही है।
||श्रीहरि:||
किसी बातको लेकर अपनेमें कुछ भी विशेषता दीखती है, यही वास्तवमें पराधीनता है। यदि मनुष्य विद्या, बुद्धि, धन-सम्पत्ति, त्याग, वैराग्य आदि किसी बातको लेकर अपनी विशेषता मानता है तो यह उस विद्या आदिकी पराधीनता, दासता ही है।- साधक संजीवनी १८ । ६६ वि०
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साधक संजीवनी १८ । ६६ वि०··
प्रकृतिजन्य वस्तु, व्यक्ति और क्रिया तो मनुष्यको पराधीन बनानेवाली हैं। उनसे सर्वथा असंग होनेपर ही मनुष्य स्वाधीन हो सकता है।
||श्रीहरि:||
प्रकृतिजन्य वस्तु, व्यक्ति और क्रिया तो मनुष्यको पराधीन बनानेवाली हैं। उनसे सर्वथा असंग होनेपर ही मनुष्य स्वाधीन हो सकता है।- साधक संजीवनी ८।१९ परि०
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साधक संजीवनी ८।१९ परि०··
मनुष्य अपने लिये जितनी अधिक आवश्यकता पैदा करता है, उतना ही वह पराधीन हो जाता है।
||श्रीहरि:||
मनुष्य अपने लिये जितनी अधिक आवश्यकता पैदा करता है, उतना ही वह पराधीन हो जाता है।- अमृत-बिन्दु ९६३
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अमृत-बिन्दु ९६३··
पराजित व्यक्ति ही दूसरेको पराजित करना चाहता है, दूसरेको अपने अधीन बनाना चाहता है। वास्तवमें अपनेको पराजित किये बिना कोई दूसरेको पराजित कर ही नहीं सकता।
||श्रीहरि:||
पराजित व्यक्ति ही दूसरेको पराजित करना चाहता है, दूसरेको अपने अधीन बनाना चाहता है। वास्तवमें अपनेको पराजित किये बिना कोई दूसरेको पराजित कर ही नहीं सकता।- साधक संजीवनी ५/१९
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ५/१९··
किसीको अपने मातहत ( अधीन) बनाना दुष्ट आदमीका काम है, सज्जनका काम नहीं।
||श्रीहरि:||
किसीको अपने मातहत ( अधीन) बनाना दुष्ट आदमीका काम है, सज्जनका काम नहीं।- अनन्तकी ओर ४१
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
अनन्तकी ओर ४१··
मनुष्य धर्मका पालन करनेसे स्वतन्त्र होता है । बच्चा परतन्त्र होकर पढ़ता है तो जीवनभर स्वतन्त्र रहता है।
||श्रीहरि:||
मनुष्य धर्मका पालन करनेसे स्वतन्त्र होता है । बच्चा परतन्त्र होकर पढ़ता है तो जीवनभर स्वतन्त्र रहता है।- ज्ञानके दीप जले २१८
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
ज्ञानके दीप जले २१८··
संसारका आश्रय लेनेसे पराधीनता और भगवान्का आश्रय लेनेसे स्वाधीनता प्राप्त होती है।
||श्रीहरि:||
संसारका आश्रय लेनेसे पराधीनता और भगवान्का आश्रय लेनेसे स्वाधीनता प्राप्त होती है।- अमृत-बिन्दु ५९१
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
अमृत-बिन्दु ५९१··
पर' (प्रकृति) - की अधीनता पराधीनता है और 'परकीय' ( भोगों) की अधीनता परम पराधीनता है । 'स्व' (स्वरूप) की अधीनता स्वाधीनता और 'स्वकीय' (परमात्मा) की अधीनता परम स्वाधीनता है।
||श्रीहरि:||
पर' (प्रकृति) - की अधीनता पराधीनता है और 'परकीय' ( भोगों) की अधीनता परम पराधीनता है । 'स्व' (स्वरूप) की अधीनता स्वाधीनता और 'स्वकीय' (परमात्मा) की अधीनता परम स्वाधीनता है।- अमृत-बिन्दु ९९४