Seeker of Truth

स्वभाव

पूर्वजन्ममें जैसे कर्म और गुणोंकी वृत्तियाँ रही हैं, इस जन्ममें जैसे माता - पितासे पैदा हुए हैं अर्थात् माता-पिताके जैसे संस्कार रहे हैं, जन्मके बाद जैसा देखा-सुना है, जैसी शिक्षा प्राप्त हुई है और जैसे कर्म किये हैं- उन सबके मिलनेसे अपनी जो कर्म करनेकी एक आदत बनी है, उसका नाम 'स्वभाव' है।

साधक संजीवनी १८ /६०··

स्वार्थ और अभिमान- इन दो चीजोंसे स्वभाव बिगड़ता है। अतः साधकको स्वार्थ और अभिमानका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये।

अमृत-बिन्दु ८८१··

स्वभाव त्यागसे शुद्ध होता है, भोग भोगनेसे नहीं।

ज्ञानके दीप जले २२··

जितना सुख भोगेंगे, उतना ही स्वभाव बिगड़ेगा।

सत्संगके फूल ७५··

स्वभाव बिगड़ेगा तो कोई अपना नहीं होगा । स्वभाव सुधरेगा तो दुनिया अपनी हो जायगी।

सत्संगके फूल १५९··

हमारा स्वभाव तब सुधरेगा, जब हम अपने प्रति न्याय करेंगे, अपनेको दण्ड देंगे और दूसरेको क्षमा करेंगे।

सागरके मोती ६२··

जन्मकुण्डलीमें आता है कि यह ऐसा ऐसा काम करेगा तो वह पूर्वजन्मके संस्कारका फल है- 'दैवं चैवात्र पञ्चमम्' (गीता १८ । १४) । परन्तु मनुष्य उस स्वभावको बदल सकता है। मनुष्यपर अपने स्वभावका सुधार करनेका दायित्व है।

सागरके मोती १०९··

सत्संग, सच्छास्त्र और सद्विचार - इन तीनोंसे स्वभावमें सुधार होता है।

अमृत-बिन्दु ८८८··

जो हमारा कहना नहीं मानता, उसमें ममता, अपनापन छोड़ दो तो वह शुद्ध हो जायगा । अशुद्धि ममतासे आती है। ममता छोड़नेसे आपको शान्ति मिलेगी और उसका सुधार होगा।

सत्संगके फूल ३०··

एक मार्मिक बात है कि ढीली प्रकृतिवाला अर्थात् शिथिल स्वभाववाला मनुष्य असत्का जल्दी त्याग नहीं कर सकता। एक विचार किया और उसको छोड़ दिया। फिर दूसरा विचार किया और उसको छोड़ दिया - इस प्रकार बार-बार विचार करने और उसको छोड़ते रहने से आदत बिगड़ जाती है। इस बिगड़ी हुई आदतके कारण ही वह असत्के त्यागकी बातें तो सीख जाता है, पर असत्का त्याग नहीं कर पाता।

साधन-सुधा-सिन्धु १५१··

बार- बार विचार करके फिर छोड़ देनेसे स्वभाव बिगड़ जाता है, जिससे साधनमें दृढ़ता नहीं रहती। सांसारिक कार्यमें आपका जो स्वभाव बना हुआ है वही स्वभाव पारमार्थिक मार्गमें भी काम करेगा।

स्वातिकी बूँदें ५३··

स्वभाव दो प्रकारका होता है - राग-द्वेषरहित (शुद्ध) और राग-द्वेषयुक्त (अशुद्ध) । स्वभावको मिटा तो नहीं सकते, पर उसे शुद्ध अर्थात् राग-द्वेषरहित अवश्य बना सकते हैं।

साधक संजीवनी ३ | ३४··

जबतक स्वभावमें राग-द्वेष रहते हैं, तबतक स्वभाव शुद्ध नहीं होता। जबतक स्वभाव शुद्ध नहीं होता, तबतक जीव स्वभावके वशीभूत रहता है।

साधक संजीवनी ५।१४··

व्यक्तिगत स्वभाव सबमें मुख्य होता है - ' स्वभावो मूर्ध्नि वर्तते' । अतः व्यक्तिगत स्वभावको कोई छोड़ नहीं सकता - ' या यस्य प्रकृतिः स्वभावजनिता केनापि न त्यज्यते । परन्तु इस स्वभावमें जो दोष है, उनको तो मनुष्य छोड़ ही सकता है। अगर उन दोषोंको मनुष्य छोड़ नहीं सकता, तो फिर मनुष्यजन्मकी महिमा ही क्या हुई मनुष्य अपने स्वभावको निर्दोष, शुद्ध बनानेमें सर्वथा स्वतन्त्र है।

साधक संजीवनी ७।२०··

जिसका स्वभाव सुधरा हुआ है, उसकी दुर्गति नहीं हो सकती। जिसका स्वभाव दयालु है, उसे भगवान् सिंह, सर्प आदि कैसे बनायेंगे ?

ज्ञानके दीप जले २२··

जिसका स्वभाव अच्छा बन गया है, जिसके भीतर सद्भाव हैं, वह किसी नीच योनिमें साँप, बिच्छू आदि नहीं बन सकता। कारण कि उसका स्वभाव साँप, बिच्छू आदि योनियोंके अनुरूप नहीं है और वह उन योनियोंके अनुरूप काम भी नहीं कर सकता।

साधक संजीवनी ६ । ४० टि०··

मनुष्यजन्ममें जिनका स्वभाव सेवा करनेका, जप- ध्यान करनेका रहा है और विचार अपना उद्धार करनेका रहा है, वे किसी कारणवश अन्तसमयमें योगभ्रष्ट हो जायँ तथा इस लोकमें पशु-पक्षी भी बन जायें, तो भी उनका वह अच्छा स्वभाव और सत्संस्कार नष्ट नहीं होते।

साधक संजीवनी ६/४०··

कई पशु-पक्षी, भूत-पिशाच कीट-पतंग आदि सौम्य - प्रकृति - प्रधान होते हैं और कई क्रूर - प्रकृति- प्रधान होते हैं। इस तरह उनकी प्रकृति (स्वभाव) - में भेद उनकी अपनी बनाई हुई शुद्ध या अशुद्ध अहंताके कारण ही होते हैं। अतः उन योनियोंमें अपने-अपने कर्मोंका फलभोग होनेपर भी प्रकृतिके भेद वैसे ही बने रहते हैं। इतना ही नहीं, सम्पूर्ण योनियोंको और नरकोंको भोगने के बाद किसी क्रमसे अथवा भगवत्कृपासे उनको मनुष्यशरीर प्राप्त हो भी जाता है, तो भी उनकी अहंतामें बैठे हुए काम-क्रोधादि दुर्भाव पहले जैसे ही रहते हैं। इसी प्रकार जो स्वर्गप्राप्तिकी कामनासे यहाँ शुभ कर्म करते हैं और मरनेके बाद उन कर्मोंके अनुसार स्वर्गमें जाते हैं, वहाँ उनके कर्मोंका फलभोग तो हो जाता है, पर उनके स्वभावका परिवर्तन नहीं होता अर्थात् उनकी अहंतामें परिवर्तन नहीं होता। स्वभावको बदलनेका, शुद्ध बनानेका मौका तो मनुष्यशरीरमें ही है।

साधक संजीवनी १६ । २०··

अपने स्वभावका सुधार करके अपना उद्धार करनेमें प्रत्येक मनुष्य स्वतन्त्र है, सबल है, योग्य है, समर्थ है। स्वभावका सुधार करना असम्भव तो है ही नहीं, कठिन भी नहीं है। मनुष्यको मुक्तिका द्वार कहा गया है- 'साधन धाम मोच्छ कर द्वारा' (मानस ७ । ४३ । ४) । यदि स्वभावका सुधार करना असम्भव होता तो इसे मुक्तिका द्वार कैसे कहा जा सकता? अगर मनुष्य अपने स्वभावका सुधार न कर सके, तो फिर मनुष्यजीवनकी सार्थकता क्या हुई ?

साधक संजीवनी १८ । ४७ वि०··

स्वभाव कारणशरीरमें रहता है। वही स्वभाव सूक्ष्म और स्थूलशरीरमें प्रकट होता है।

साधक संजीवनी १८ | ६१ टि०··

अपने अभिमान और स्वार्थका त्याग करके दूसरेका हित करो तो व्यवहार भी सुधर जायगा, स्वभाव भी सुधर जायगा।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १००··

मरनेपर स्वभाव साथ जायगा, धन साथ नहीं जायगा । परन्तु मनुष्य स्वभावको तो बिगाड़ रहा है और धनको इकट्ठा कर रहा है। बुद्धिकी बलिहारी है।

अमृत-बिन्दु २३६··

अपने स्वभावका सुधार मनुष्य खुद ही कर सकता है। दूसरा केवल उसको उपाय बता सकता है, उसकी सहायता कर सकता है।

अमृत-बिन्दु ८८६··