Seeker of Truth

सुख-दुःख

जिसके भीतर कोई चाहना नहीं है, उसको दुःख देनेकी ताकत किसीमें भी नहीं है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ९७··

मनचाही पूरी होने से आप सुखी हो जाओगे - यह बात नहीं है।

अनन्तकी ओर १२०··

जो चाहते हैं, वह न हो और जो नहीं चाहते, वह हो जाय - इसीको दुःख कहते हैं। यदि 'चाहते' और 'नहीं चाहते' को छोड़ दें, तो फिर दुःख है ही कहाँ।

साधक संजीवनी ३।३७··

जैसे मनुष्यको जलकी प्यास दुःख देती है, जल दुःख नहीं देता, ऐसे ही संसारकी सुखासक्ति ही दुःख देनेवाली है, संसार दुःख नहीं देता।

सत्संग-मुक्ताहार ७··

यदि मनुष्य दुःखसे बचना चाहे तो वह सुखकी इच्छाको मिटा दे। यदि रोगसे बचना चाहे तो भोगकी इच्छाको मिटा दे । यदि अपमानसे बचना चाहे तो सम्मानकी इच्छाको मिटा दे । यदि शोकसे बचना चाहे तो हर्षकी इच्छाको मिटा दे । तात्पर्य है कि दुःखका निर्माण स्वयं हमने किया है। हमारी इच्छाके बिना कोई हमें दुःखी, पराधीन नहीं कर सकता।

सन्त समागम ४६··

सुख (अनुकूलता) - की कामनाको मिटानेके लिये ही भगवान् समय- समयपर दुःख (प्रतिकूलता) भेजते हैं कि सुखकी कामना मत करो; कामना करोगे तो दुःख पाना ही पड़ेगा। सांसारिक पदार्थोंकी कामनावाला मनुष्य दुःखसे कभी बच ही नहीं सकता - यह नियम है।

साधक संजीवनी ३ । ४३··

अगर भीतरमें लोभरूपी दोष न हो तो वस्तुओंके संयोगसे सुख हो ही नहीं सकता। ऐसे ही मोहरूपी दोष न हो तो कुटुम्बियोंसे सुख हो ही नहीं सकता। लालचरूपी दोष न हो तो संग्रहका सुख हो ही नहीं सकता। तात्पर्य है कि संसारका सुख किसी-न-किसी दोषसे ही होता है।

साधक संजीवनी १।३८-३९··

सुनना चाहते हैं, इसीलिये न सुननेका दुःख होता है। देखना चाहते हैं, इसीलिये न दीखनेका दुःख होता है। बल चाहते हैं, इसीलिये निर्बलताका दुःख होता है। जवानी चाहते हैं, इसीलिये वृद्धावस्थाका दुःख होता है। तात्पर्य है कि वस्तुके अभावसे दुःख नहीं होता, प्रत्युत उसकी चाहनासे, उसके अभावका अनुभव करनेसे दुःख होता है।

अमृत-बिन्दु ८१३··

दुःखका कारण सुखकी इच्छा, आशा ही है। प्रतिकूल परिस्थिति दुःखदायी तभी होती है, जब भीतर सुखकी इच्छा रहती है। अगर हम सावधानीके साथ अनुकूलताकी इच्छाका, सुखकी आशाका त्याग कर दें, तो फिर हमें प्रतिकूल परिस्थितिमें दुःख नहीं हो सकता अर्थात् हमें प्रतिकूल परिस्थिति दुःखी नहीं कर सकती।

साधक संजीवनी २।१५··

संसारमें जितने आदमी दुःख पा रहे हैं, उनकी कोई न कोई कामना है। जितने आदमी नरक में पड़े हैं, सब कामनाके कारण पड़े हैं। जितने आदमी रो रहे हैं, वे सब कामनाके कारण रो रहे हैं। कहीं भी कोई आदमी दुःखी है तो उसके भीतर कोई-न-कोई कामना है । कामना न हो तो दुःख हो ही नहीं सकता।

मैं नहीं, मेरा नहीं १३०··

शरीरोंके मरनेका जो दुःख होता है, वह मरनेसे नहीं होता, प्रत्युत जीनेकी इच्छासे होता है। 'मैं जीता रहूँ' - ऐसी जीनेकी इच्छा भीतरमें रहती है और मरना पड़ता है, तब दुःख होता है।

साधक संजीवनी २।२२··

सुखकी इच्छा छोड़नेपर दुःख आता ही नहीं - इसको सब भाई-बहन याद कर लें । सुख चाहनेवालेको दुःख भोगना ही पड़ता है। इसलिये दुःख आनेपर सुखकी चाहना मिटाओ तो दुःख टिकेगा ही नहीं। ये बातें सत्संग करनेसे ही समझमें आती हैं। सुख आनेसे दुःख दबता है, मिटता नहीं। दबा हुआ दुःख जोरसे प्रकट होता है।

अनन्तकी ओर ५७··

मनुष्य संयोगका जितना सुख लेता है, उसके वियोगका उतना दुःख उसे भोगना ही पड़ता है। संयोगमें इतना सुख नहीं होता, जितना वियोगमें दुःख होता है।

साधक संजीवनी १।३८-३९··

संसारका कोई भी सुख रहता नहीं - यह सबका अनुभव है। इसका कारण यह है कि वह सुख हमारा है ही नहीं। अगर हमारा सुख होता तो वह सदा रहता। हमारा सुख तो निजानन्द है। 'पर' से होनेवाला सुख परानन्द है और 'स्व' से होनेवाला सुख निजानन्द है।

सत्यकी खोज ५६-५७··

सुख दे दो तो वह अक्षय हो जायगा और सुख ले लो तो वह नष्ट हो जायगा।

ज्ञानके दीप जले १५२··

जहाँ लौकिक सुख मिलता हुआ दीखे, वहाँ समझ लो कि कोई खतरा है।

अमृत-बिन्दु ७८०··

किसीके मरनेका दुःख होता है तो वास्तवमें ऋणका ही दुःख होता है। जिससे जितना सुख लिया है, उतना सुख दिया नहीं और जिससे सुखकी आशा है, उसके मरनेसे ही दुःख होता है।

सत्संगके फूल १५४··

दूसरेके सुखसे सुखी होनेसे कामवृत्ति, आसक्ति, लोभ, भोगेच्छा मिट जायगी। दूसरेके दुःखसे दुःखी होनेसे संग्रहकी आसक्ति मिट जायगी।

सागरके मोती ६०··

गृहस्थमें अगर यह भाव रहे कि मुझे सुख कैसे मिले तो सब दुःखी हो जायँगे और यह भाव रहे कि दूसरेको सुख कैसे मिले तो सब सुखी हो जायँगे।

सागरके मोती ७०··

संसारका दुःख और सुख- दोनों ही दुःख हैं- 'दुःखमेव सर्वं विवेकिनः ' ( योगदर्शन २ । १५) । दोनों ही दादकी बीमारीकी तरह हैं। दादमें खुजली करनेसे जो सुख मिलता है, वह भी रोग ही है।

सागरके मोती ११३··

दुःख मूर्खतासे होता है। मूर्खता मिटी तो दुःख मिटा। यह मूर्खता सत्संग और स्वाध्यायसे मिटती है।

ज्ञानके दीप जले १९०··

परिस्थितिसे सुखी या दुःखी होना कर्मोंका फल नहीं है, प्रत्युत मूर्खताका फल है। कारण कि परिस्थिति तो बाहरसे बनती है और सुखी दुःखी होता है यह स्वयं । उस परिस्थितिके साथ तादात्म्य करके ही यह सुख - दुःखका भोक्ता बनता है।

साधक संजीवनी २।४७··

प्रतिकूलता आनेपर डरो मत। जान-बूझकर प्रतिकूलता नहीं लानी है, पर प्रतिकूलता आ जाय तो खुशी मनानी चाहिये कि अब हमारी उन्नति होगी। दुःख, कष्ट सहना अच्छे साधकोंका कर्तव्य होता है। कष्ट सहकर वे अच्छे सन्त बनते हैं। आराम कामका नहीं होता। आरामसे स्वभाव बिगड़ता है, आदत बिगड़ती है।

मैं नहीं, मेरा नहीं १५७··

दुःखदायी परिस्थिति जीवन्मुक्तके सामने भी आती है, अवतारकालमें भगवान्‌के सामने भी आती है, पर वे भीतरसे दुःखी नहीं होते। वे शरीरसे अलग होते हैं।

परम प्रभु अपने ही महुँ पायो ६६··

पदार्थोंको अपरिवर्तनशील, स्थिर माननेसे ही मनुष्य उनसे सुख लेता है । परन्तु वास्तवमें उन पदार्थोंमें सुख नहीं है। सुख पदार्थोंके सम्बन्ध विच्छेदसे ही होता है। इसीलिये सुषुप्तिमें जब पदार्थोंके सम्बन्धकी विस्मृति हो जाती है, तब सुखका अनुभव होता है।

साधक संजीवनी ५। २१··

दुःखको मिटानेके लिये सुखकी इच्छा करना दुःखकी जड़ है।

साधक संजीवनी ५।२२ परि०··

सांसारिक सुखसे कभी सांसारिक दुःख नहीं मिट सकता - यह नियम है।

अमृत-बिन्दु ८२९··

दुःखसे बचनेका उपाय सुख नहीं है, प्रत्युत त्याग है।

प्रश्नोत्तरमणिमाला ३७५··

सुखासक्तिके सिवाय दुःखका और कोई कारण है नहीं, था नहीं होगा नहीं और हो सकता ही नहीं।

साधक संजीवनी ५ । २२ परि०··

जितने भी दोष, पाप, दुःख पैदा होते हैं, वे सभी संसारके रागसे ही पैदा होते हैं और जितना सुख, शान्ति मिलती है, वह सब रागरहित होनेसे ही मिलती है।

साधक संजीवनी ६ । ३५··

सुखकी आशा, कामना और भोग- महान् दुःखोंके कारण हैं। सुख भोगनेवाला दुःखसे कभी बच सकता ही नहीं - यह अकाट्य नियम है।

साधक संजीवनी ८ । १५ परि०··

अनन्त ब्रह्माण्डोंका सुख मिलकर भी जीवको सुखी नहीं कर सकता, उसकी आफत, जन्म- मरण नहीं मिटा सकता। अतः संसारसे सुखकी आशा करनेवाला केवल धोखेमें रहता है।

साधक संजीवनी ८।१६ परि०··

सुख लेनेके लिये शरीर भी अपना नहीं है, फिर अन्यकी तो बात ही क्या है।

साधक संजीवनी १५ । १०··

व्याख्यान देनेवाला व्यक्ति श्रोताओंको अपना मानने लग जाता है। किसीका भाई- बहन न हो, तो वह धर्मका भाई-बहन बना लेता है। किसीका पुत्र न हो, तो वह दूसरेका बालक गोद ले लेता है। इस तरह नये-नये सम्बन्ध जोड़कर मनुष्य चाहता तो सुख है, पर पाता दुःख ही है।

साधक संजीवनी १५/१०··

परमात्मा, जीवात्मा और संसार – इन तीनोंके विषयमें शास्त्रों और दार्शनिकोंके अनेक मतभेद हैं; परन्तु जीवात्मा संसारके सम्बन्धसे महान् दुःख पाता है और परमात्माके सम्बन्धसे महान् सुख पाता है— इसमें सभी शास्त्र और दार्शनिक एकमत हैं।

साधक संजीवनी १५ | १०··

कर्म बाहरसे किये जाते हैं, इसलिये उन कर्मोंका फल भी बाहरकी परिस्थितिके रूपमें ही प्राप्त होता है। परन्तु उन परिस्थितियोंसे जो सुख - दुःख होते हैं, वे भीतर होते हैं। इसलिये उन परिस्थितियों में सुखी तथा दुःखी होना शुभाशुभ कर्मोंका अर्थात् प्रारब्धका फल नहीं है, प्रत्युत अपनी मूर्खताका फल है।

साधक संजीवनी १८ । १२ वि०··

संसारमें जितने प्राणी कैदमें पड़े हैं, जितने चौरासी लाख योनियों और नरकोंमें पड़े हैं, उसका कारण देखा जाय तो उन्होंने विषयोंका भोग किया है, उनसे सुख लिया है, इसीसे वे कैद, नरक आदि दुःख पा रहे हैं।

साधक संजीवनी १८ । ३८··

सुख अच्छा लगता है, पर सुखसे जितना पतन होता है, उतना दुःखसे पतन होता ही नहीं। सुखलोलुपता जितनी बाधक है, उतनी बाधक संसारमें कोई चीज नहीं है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश २२३··

संसारसे विवेकपूर्वक विमुख होनेपर सात्त्विक सुख, भीतरसे वस्तुओंके निकलनेपर राजस सुख और मूढ़तासे निद्रा - आलस्यमें संसारको भूलनेपर तामस सुख होता है; परन्तु वास्तविक सुख तो प्रकृतिजन्य पदार्थोंसे सर्वथा सम्बन्ध विच्छेदसे ही होता है।

साधक संजीवनी १८ । ३९ वि०··

स्वयं सुखी - दुःखी नहीं होता - यह बात तो सुनी हुई और सीखी हुई है, पर हम स्वयं सुखी- दुःखी होते हैं—यह हमारा अनुभव है। दुःख मैं - मेरेपनसे होता है। जबतक मैं-मेरेकी मान्यता है, तबतक कितना ही सीख लो, दुःख नहीं मिटेगा।

ज्ञानके दीप जले १८··

सुख-दुःखरूप जो विकार होता है, वह जड़-अंशमें ही होता है, पर जड़से तादात्म्य होनेके कारण उसका परिणाम ज्ञाता चेतनपर होता है अर्थात् जड़के सम्बन्धसे सुख-दुःखरूप विकारको चेतन अपनेमें मान लेता है कि 'मैं सुखी हूँ', 'मैं दुःखी हूँ' ।...... विकृतिमात्र जड़में ही होती है, चेतनमें नहीं। अतः वास्तवमें सुखी दुःखी 'होना' चेतनका धर्म नहीं है, प्रत्युत जड़के संग से अपनेको सुखी - दुःखी 'मानना' ज्ञाता चेतनका स्वभाव है।

साधक संजीवनी १३ । २०··

वास्तवमें स्वयं सुखी - दुःखी नहीं होता, प्रत्युत शरीरके साथ मिलकर अपनेको सुखी-दुःखी मान लेता है। तात्पर्य है कि सुख-दुःख केवल अविवेकपूर्वक की गयी मान्यतापर टिके हुए हैं।

साधक संजीवनी १३ । २१ परि०··

संसारके प्रत्येक सुखसे पहले भी दुःख होता है और अन्तमें भी दुःख होता है। जैसे, भूखका दुःख न हो तो भोजनका सुख हो ही नहीं सकता । प्यासका दुःख न हो तो जल पीनेका सुख हो ही नहीं सकता । संसारका सुख लेनेसे पहले दुःख आवश्यक है । सुखके अन्तमें दुःख होता ही है - यह नियम है। जिसके दोनों तरफ दुःख भरा हो, वह सुख क्या कामका ?

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ११४··

नाशवान्के साथ आप सम्बन्ध रखना चाहो और सुखी होना चाहो तो यह कभी होगा नहीं । जड़के साथ सम्बन्ध रखते हुए आप करोड़ों-अरबों वर्षोंतक मेहनत करो तो भी आप सुखी नहीं होंगे..... नहीं होंगे......नहीं होंगे ।। जड़का साथ छोड़ दो तो दुःख रहेगा ही नहीं, आपके पास फटकेगा ही नहीं।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १६८ - १६९··

आपको सुख देनेवाले अच्छे लगते हैं, पर वास्तवमें जो सुख देनेवाले हैं, वे ही दुःख देते हैं।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ८३··

आपको वहम है कि वस्तुएँ लेनेसे हम सुखी होंगे, पर वास्तवमें सुखी होंगे वस्तुओंको अपनी न माननेसे। विचार करें, आपने जिन वस्तुओं तथा व्यक्तियोंको अपना नहीं माना, उनको लेकर क्या आपको दुःख होता है ?

नये रास्ते, नयी दिशाएँ ७३··

जो अनुकूलतामें ज्यादा सुख भोगते हैं, उनको प्रतिकूलतामें दुःख ज्यादा होता है।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ १३१··

अनुकूल अवस्थामें आप सुख मत भोगो, उससे तटस्थ रहो तो प्रतिकूल अवस्थामें दुःखसे तटस्थ रहनेकी विद्या आपको आ जायगी। आप अनुकूलतामें तल्लीन होकर सुख नहीं भोगोगे तो दुःख भोगनेकी शक्ति भी आपमें कायम हो जायगी। वह कायम होनेसे आपको दुःख नहीं होगा।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ १३२··

एक 'दुःखका भोग' होता है, एक 'दुःखका प्रभाव' होता है। दुःख आनेपर दुःखी हो जाना 'दुःखका भोग' है और दुःख आनेपर उसके कारणकी खोज करके उसको (सुखकी इच्छा ) - को मिटाना ‘दुःखका प्रभाव' है। सुखकी इच्छा छोड़ दो तो दुःख आयेगा ही नहीं। इसलिये दुःखका भोग बढ़िया नहीं है, दुःखका प्रभाव बढ़िया है।

अनन्तकी ओर ११४··

दुःख सहनेमें कठिन होता है, पर उससे नुकसान नहीं होता।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश २१३··

दुःखसे नुकसान नहीं होता, प्रत्युत कुसंगसे नुकसान होता है। कुसंगसे बचना चाहिये। दुःखसे तो पाप कटते हैं, फिर हर्ज क्या है ? हर्ज तो तब हो, जब पाप बढ़ें।

अनन्तकी ओर ११४··

संसारमें दुःख अधिक होनेका कारण यह है कि कोई इसमें फँसे नहीं।

स्वातिकी बूँदें १०··

घरमें दूसरा व्यक्ति दुःख दे तो साधकको यह समझना चाहिये कि मेरे पाप कट रहे हैं। लोग तो पापोंको काटने तीर्थोंमें जाते हैं, मेरे तो घरमें ही तीर्थ आ गया । घरमें ही गंगा आ गयी।

स्वातिकी बूँदें ४०··

जैसे भोजनको पचानेकी शक्ति भूखमें है, ऐसे ही अच्छी बातोंको आचरणमें लानेकी शक्ति दुःखमें है। जिसके न होनेका दुःख हो, वह हो जायगा।

स्वातिकी बूँदें १०२··

करनेमें सावधान और होनेमें प्रसन्न - ये दो बातें आप याद रखो; आपको आनन्द ही आनन्द होगा । शास्त्रकी मर्यादाके अनुसार ठीक तरहसे अपना कर्तव्य करो और जो हो जाय, उसमें प्रसन्न रहो । इससे बड़ा भारी लाभ होगा; आध्यात्मिक उन्नति होगी। भगवान् जो करें, वह ठीक है - ऐसा मान लें तो फिर दुःख कहाँसे आयेगा ? किस गलीसे आयेगा ?

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १०५ - १०६··

जहाँ भी संसारका सुख दीखे, वहाँ विवेक विचारपूर्वक देखें तो वहीं दुःख दीखने लग जायगा; क्योंकि संसार दुःखरूप ही है- 'दुःखालयम् ' ( गीता ८। १५) ।

अमृत-बिन्दु ८१२··

सांसारिक सुखसे आपकी शक्ति क्षीण होती है, और पारमार्थिक सुखसे आपकी शक्ति बढ़ती है - यह नियम है।

मैं नहीं, मेरा नहीं ४८··

दूसरोंको दुःख देनेपर उनका (जिनको दुःख दिया गया है) तो वही नुकसान होता है, जो प्रारब्धसे होनेवाला है; परन्तु जो दुःख देते हैं, वे नया पाप करते हैं, जिसका फल नरक उन्हें भोगना ही पड़ता है।

साधक संजीवनी १६ । २० वि०··

दुःख भोगनेवाला तो आगे सुखी हो सकता है, पर दुःख देनेवाला कभी सुखी नहीं हो सकता।

अमृत-बिन्दु ८३१··

दुःख पानेवालेकी अपेक्षा दुःख देनेवालेपर (उपेक्षाका भाव न होकर) दया होनी चाहिये; क्योंकि दुःख पानेवाला तो (पुराने पापोंका फल भोगकर) पापोंसे छूट रहा है, पर दुःख देनेवाला नया पाप कर रहा है। अतः दुःख देनेवाला दयाका विशेष पात्र है।

साधक संजीवनी १२/१३··

दूसरोंको दुःख पहुँचाना अपने दुःखको तैयार करना है, और दुसरोंको सुख पहुँचाना अपने आनन्दको तैयार करना है। दूसरोंको तो एक दिन दुःख पहुँचाया, पर अपना सदाके लिये दुःख तैयार हो गया । आपमें सबको सुख पहुँचानेका भाव हो जाय तो आप मुफ्तमें सुखी हो जायँगे।

बन गये आप अकेले सब कुछ ११९··

भोगी व्यक्ति स्वयं भी दुःख पाता है और दूसरोंको भी दुःख देता है; क्योंकि दुःखी व्यक्ति ही दूसरोंको दुःख देता है यह सिद्धान्त है।

मानवमात्रके कल्याणके लिये ३०··

सुख पाना चाहते हो तो दूसरोंको सुख दो। जैसा बीज बोओगे, वैसी ही खेती होगी।

अमृत-बिन्दु ८१५··

दूसरोंको सुख पहुँचानेसे अपना दुःख मिटता है । यह दुःख मिटानेकी दवा है।

स्वातिकी बूँदें १६१··

दूसरेको दुःख देनेवाला सुखी नहीं हो सकता। आपका भाव शुद्ध होगा तो आपको शान्तिसे नींद आयेगी, आपका शरीर भी नीरोग होगा । वृत्तियाँ खराब होनेसे स्वास्थ्य भी खराब होता है । मनमें प्रसन्नता रहे तो रोगी आदमी भी नीरोग हो जाता है।

अनन्तकी ओर १२९··

भगवान्‌की मरजीसे जो होता है, ठीक ही होता है - इस प्रकार भगवान्पर विश्वास करनेपर दुःख नहीं हो सकता। अगर दुःख होता है तो भगवान्पर पूरा विश्वास नहीं किया।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १०६··

अगर हम यह मान लें कि जो होता है, वह भगवान्‌के मंगलमय विधानसे, भगवान्‌की कृपासे ही होता है तो हरदम आनन्द, प्रसन्नता रहे। जो होता है, वह ठीक ही होता है, बेठीक नहीं होता।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ८७··

ठाकुरजीके प्रसादमें मीठा भी होता है और करेला भी होता है। दोनों ही प्रसाद हैं। ऐसे ही कड़वा - मीठा ( सुख-दुःख) जो आये, सब भगवान्का प्रसाद है।

ज्ञानके दीप जले १७··

जिसमें भगवान्‌का भजन बने, वह सुख भी अच्छा है, दुःख भी अच्छा है। जिसमें भगवान्‌का भजन न बने, वह सुख भी बुरा है, दुःख भी बुरा है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश २२३··

जिन लोगोंने भजन - स्मरण किया है, आध्यात्मिक विचार किया है, उनको शान्ति मिली है। उनमें भी दुःख आता है तो दुःख दूर करनेके लिये दुःख आता है। उसका परिणाम अच्छा होगा, उनको शान्ति मिलेगी।

अनन्तकी ओर ५०··

जो भगवान्का भजन करना चाहे, उसको दुःख मिले तो अच्छा है। उसके पाप नष्ट होते हैं। एक तो भजनसे लाभ होता है, एक दुःखसे लाभ होता है; डबल लाभ होता है । सुख मिलना चाहिये भोगी आदमीको । जो सुखका दास होता है, वह भगवान्का भजन कैसे करेगा ? सुखका दास भगवान्‌का भजन नहीं कर सकता।

अनन्तकी ओर ११३··

जो सांसारिक पदार्थोंके लिये दुःखी होता है, वह कितना ही रोये, रोते-रोते मर जाय, पर भगवान् उसकी बात सुनते ही नहीं । कारण कि वह वास्तवमें दुःखके लिये ही रो रहा है । परन्तु जो संसारका त्याग करनेके लिये रोता है, भगवान्‌को पानेके लिये रोता है, उसका दुःख भगवान् सह नहीं सकते।

सत्यकी खोज ५८-५९··

अगर भगवान्‌का आश्रय ले लो तो दुःख आनेपर भी सुखका अनुभव होगा। पासमें खानेके लिये रोटी न हो, पीनेके लिये जल न हो और पहननेके लिये कपड़ा भी पूरा न हो, फिर भी अगर भगवान्‌का आश्रय है तो आप सुखी हो जायँगे। जितना भगवान्‌में लगे हैं, उतना ही सुख है और जितनी संसारकी चाहना है, उतना ही दुःख है।

अनन्तकी ओर १२०··

किसीको भी दुःख देना उस भगवान्‌को दुःख देना है, जिस भगवान्की आप उपासना करते हो; क्योंकि सब कुछ भगवान् ही हैं- 'वासुदेवः सर्वम्' ( गीता ७ । १९) ।

पायो परम बिश्रामु १५७··

जीवन्मुक्तिका भी सुख त्यागनेसे असली प्रेमकी प्राप्ति होगी। भक्तिमें भी अपना सुख लोगे तो ऊँचे नहीं बढ़ोगे। सबसे बढ़िया बात यह है कि भगवान्‌को भी सुख देना है, सुख लेना नहीं है। भगवान्‌को सुख देनेका यह अर्थ नहीं है कि भगवान् दुःखी हैं। आप सुख भोगनेसे दुःखी हो जाओगे, इसलिये यह सुखके त्यागका एक तरीका है। भगवान्‌को सुख देनेसे वे बहुत राजी होते हैं; क्योंकि उनको सुख देनेसे आपके सुखका बन्धन छूटेगा।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ ३०··

पृथ्वीमण्डलसे लेकर ब्रह्मलोकतकका सुख सीमित, परिवर्तनशील और विनाशी है । परन्तु भगवत्प्राप्तिका सुख अनन्त है, अपार है, अगाध है। यह सुख कभी नष्ट नहीं होता । अनन्त ब्रह्मा और अनन्त ब्रह्माण्ड समाप्त हो जायँ, तो भी यह परमात्मप्राप्तिका सुख कभी नष्ट नहीं होता, सदा बना रहता है।

साधक संजीवनी ८ ।१६··