Seeker of Truth

शास्त्र

एक नीतिशास्त्र होता है, एक धर्मशास्त्र होता है और एक मोक्षशास्त्र होता है । नीतिशास्त्रमें स्वार्थसिद्धि है, धर्मशास्त्रमें विधि-निषेध है और मोक्षशास्त्रमें सत् असत्का विवेक है। नीतिसे धर्म और धर्मसे मोक्षशास्त्र बलवान् होता है।

साधन-सुधा-सिन्धु ८५३··

जो साधन नहीं करता, केवल शास्त्र पढ़ता है, बातें सीखता है, उसको दूसरोंमें दोष दीखने लगता है । जैसे, गाड़ी खड़ी कर दें और उसकी रोशनी तेज कर दें तो जगह-जगह गड्ढे दीखने लगते हैं, पर स्थिति वही रहती है।

ज्ञानके दीप जले २३१··

शास्त्रोंके अध्ययनसे जिज्ञासुको लाभ होता है, नहीं तो अभिमान आ जाता है। अभिमान पतन करनेवाला होता है।

ज्ञानके दीप जले २३··

अनुभवी पुरुषोंसे सुननेपर सहजावस्था तत्काल प्राप्त हो जाती है। शास्त्र - चिन्तनसे देरी लगती है; क्योंकि उसमें केवल हमारी बुद्धि काम करती है।

ज्ञानके दीप जले २३··

अनेक शास्त्रोंका अध्ययन करनेसे, बहुत व्याख्यान सुननेसे, बहुत सी बातें जान लेनेसे ही जीवनमें दुःख, अशान्ति, अभाव, पराधीनता आदिका नाश नहीं हो सकता। उससे मनुष्यकी बुद्धि बलवती बन सकती है, पर सम ( स्थिर) नहीं हो सकती।

सत्यकी खोज १४··

शास्त्र पढ़नेसे मनुष्य बहुत बातें जान जायगा, पर स्वभाव नहीं सुधरेगा । स्वभाव सुधरेगा परमात्म- प्राप्तिका उद्देश्य होनेसे।

ज्ञानके दीप जले ६७··

शास्त्रोंकी पढ़ाई करनेसे चतुराई आ जाती है, बातें बनानी आ जाती हैं, व्याख्यान देना आ जाता है, पर परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश २६-२७··

एक सिद्धान्त है कि जो शास्त्रोंका, पुराणोंका, वेदोंका आदर करता है, उसका स्वयंका आदर होता है। इनका निरादर करनेसे स्वयंका ही निरादर होता है, जिसका परिणाम बहुत खराब होता है।

अनन्तकी ओर १५१··

शास्त्रोंको समझना हो तो अच्छे जानकार पुरुषोंसे समझें। हमारे भीतर राग-द्वेष होंगे तो शास्त्रोंमें भी हमें वैसा ही दीखेगा।

स्वातिकी बूँदें ६३··

अगर मनुष्य चाहे तो वह शास्त्रोंके अध्ययनके बिना भी यह अनुभव कर सकता है कि जो वस्तु मिली है और बिछुड़ जायगी, वह अपनी और अपने लिये नहीं है।

सत्यकी खोज १४··

जाल दो प्रकारका है-संसारी और शास्त्रीय संसारके मोहरूपी दलदलमें फँस जाना संसारी जालमें फँसना है और शास्त्रोंके, सम्प्रदायोंके द्वैत-अद्वैत आदि अनेक मत-मतान्तरोंमें उलझ जाना शास्त्रीय जालमें फँसना है । संसारी जाल तो उलझे हुए छटाँक सूतके समान है और शास्त्रीय जाल उलझे हुए सौ मन सूतके समान है।

साधक संजीवनी २।५३ टि०··

शरीर, स्त्री- पुत्र, धन-सम्पत्ति आदिमें राग होना 'सांसारिक मोह' है और द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत आदि दार्शनिक मतभेदोंमें उलझ जाना 'शास्त्रीय मोह' है। इन दोनोंका त्याग करनेपर मनुष्यका भोगोंसे वैराग्य हो जाता है और उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है।

साधक संजीवनी २।५३ परि०··

सम्पूर्ण शास्त्र, सम्प्रदाय आदिमें जीव, संसार और परमात्मा – इन तीनोंका ही अलग-अलग रूपोंसे वर्णन किया गया है। इसमें विचारपूर्वक देखा जाय तो जीवका स्वरूप चाहे जैसा हो, पर जीव मैं हूँ - इसमें सब एकमत हैं; और संसारका स्वरूप चाहे जैसा हो, पर संसारको छोड़ना है- इसमें सब एकमत हैं; और परमात्माका स्वरूप चाहे जैसा हो, पर उसको प्राप्त करना है - इसमें सब एकमत हैं।

साधक संजीवनी २।५३··

मनुष्यका केवल अपने कल्याणका उद्देश्य हो और धन-सम्पत्ति, कुटुम्ब परिवार आदिसे कोई स्वार्थका सम्बन्ध न हो तो वह 'सांसारिक मोह' से तर जाता है। पुस्तकोंकी पढ़ाई करनेका, शास्त्रोंकी बातें सीखनेका उद्देश्य न हो, प्रत्युत केवल तत्त्वका अनुभव करनेका उद्देश्य हो तो वह 'शास्त्रीय मोह' से तर जाता है।

साधक संजीवनी २। ५३ परि०··

शास्त्रोंको इदंबुद्धिसे न पढ़कर अनुभव करनेके लिये पढ़े। उन्हें बुद्धिका विषय न बनाये।

सत्संगके फूल १८२··

अगर आप असत्का ज्ञान करना चाहते हैं तो असत्से अलग हो जाइये। अगर आप सत्का ज्ञान करना चाहते हैं तो सत्से अभिन्न हो जाइये। आप तटस्थ होकर जो बात कहेंगे, वह तत्त्वकी बात नहीं होगी। शास्त्रोंकी, पढ़ाईकी जितनी बातें हैं, सब तटस्थ बातें हैं। शास्त्रोंमें पढ़नेसे जीव, ब्रह्म और जगत् – ये तीनों ही बुद्धिका विषय होंगे। इससे तत्त्वका ज्ञान नहीं होगा।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ११७··

एक शंका हो सकती है कि जो शास्त्र पढ़े हुए नहीं हैं, उनको कर्तव्यका ज्ञान कैसे होगा ? इसका समाधान है कि अगर उनका अपने कल्याणका उद्देश्य होगा तो अपने कर्तव्यका ज्ञान स्वतः होगा; क्योंकि आवश्यकता आविष्कारकी जननी है। अगर अपने कल्याणका उद्देश्य नहीं होगा तो शास्त्र पढ़नेपर भी कर्तव्यका ज्ञान नहीं होगा, उल्टे अज्ञान बढ़ेगा कि हम अधिक जानते हैं।

साधक संजीवनी १६ । २४ परि०··

अगर मन पवित्र हो तो शास्त्रसे विरुद्ध काम हो ही नहीं सकता, असम्भव बात है। अगर शास्त्रसे विरुद्ध बात पैदा होती है तो यह मनकी अपवित्रताका प्रमाण है । मन पवित्र होगा तो शास्त्र- विरुद्ध बात पैदा हो ही नहीं सकती, प्रत्युत बिना शास्त्र पढ़े मनमें शास्त्रके अनुकूल बात पैदा होगी।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ २१··

जिनकी महिमा शास्त्रोंने गायी है और जिनका बर्ताव शास्त्रीय सिद्धान्तके अनुसार होता है, ऐसे सन्त-महापुरुषोंके आचरणों और वचनोंके अनुसार चलना भी शास्त्रोंके अनुसार ही चलना है ....... वास्तवमें देखा जाय तो जो महापुरुष परमात्मतत्त्वको प्राप्त हुए हैं, उनके आचरणों, आदर्शों, भावों आदिसे ही शास्त्र बनते हैं।

साधक संजीवनी १६ / २४··

जिसमें अन्तःकरण और इन्द्रियाँ प्रमाण नहीं होतीं, उसमें शास्त्र और सन्त-महापुरुष ही प्रमाण होते हैं। शास्त्र और सन्त-महापुरुष उन्हींके लिये प्रमाण होते हैं, जो श्रद्धालु हैं।

साधक संजीवनी २।१८··

चतुर विद्यार्थी परीक्षामें पहले उन प्रश्नोंको हल करता है, जो विवादास्पद नहीं हैं, फिर अन्तमें विवादास्पद विषयोंपर विचार करता है। अगर वह आरम्भमें ही विवादास्पद प्रश्नोंको लकर बैठ जायगा तो समय निकल जायगा और वह फेल हो जायगा । ऐसे ही शास्त्रकी जो बातें विवादास्पद नहीं हैं, उनका तो पहले आचरण करो । पीछे विवादास्पद विषयोंपर विचार करो।

रहस्यमयी वार्ता २३२-२३३··