Seeker of Truth

शरीर

शरीर संसारका बीज है। अतः जिसका शरीरके साथ सम्बन्ध है, उसका संसारमात्रके साथ सम्बन्ध है । शरीर से सम्बन्ध-विच्छेद होनेपर संसारमात्रसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है।

मानवमात्रके कल्याणके लिये १०१··

शरीरके साथ सम्बन्ध मानना ही मूल बन्धन है, मूल दोष है, जिससे सम्पूर्ण दोषोंकी उत्पत्ति होती है।

साधक संजीवनी २ । ३० परि०··

जबतक मनुष्यको शरीर अपना और अपने लिये प्रतीत होता रहेगा, तबतक वह कितना ही साधन कर ले, तपस्या कर ले, अभ्यास कर ले, श्रवण-मनन-निदिध्यासन कर ले, उसको परम शान्ति नहीं मिलेगी, उलटे उसमें अभिमान पैदा हो जायगा कि मैं इतना जानकार हूँ, मैं तपस्वी हूँ, मैं ऊँचा साधक हूँ, आदि।

सत्यकी खोज १४··

जैसे स्थूल, सूक्ष्म और कारण - ये तीनों शरीर अपने नहीं हैं, ऐसे ही स्थूलशरीरसे होनेवाली क्रिया, सूक्ष्मशरीरसे होनेवाला चिन्तन और कारणशरीरसे होनेवाली स्थिरता तथा समाधि भी अपनी नहीं है।

मानवमात्रके कल्याणके लिये १४··

विचार करें, जब चौरासी लाख योनियों में कोई भी शरीर हमारे साथ नहीं रहा तो फिर यह शरीर हमारे साथ कैसे रहेगा? जब चौरासी लाख शरीर मैं मेरे नहीं रहे तो फिर यह शरीर मैं- मेरा कैसे रहेगा ?

मानवमात्रके कल्याणके लिये १४-१५··

शरीरको ठीक रखनेके लिये आप घी-दूध आदिका सेवन करते हैं, फिर भी वह साथमें नहीं रहता । परन्तु भगवान्‌ के लिये क्या आपने घी-दूध आदिका सेवन किया? फिर भी वे सदा साथमें रहते हैं।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ ९७··

शास्त्रोंमें यह बात आयेगी कि शरीर परमात्मप्राप्तिके लिये मिला है । परन्तु यह गहरी बात नहीं है । शरीर अपने कल्याणके लिये नहीं है। शरीर आदि सामग्री केवल संसारकी सेवाके लिये ही है, अपने लिये बिलकुल नहीं है.... बिलकुल नहीं है...... बिलकुल नहीं है।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ १५९··

मुक्ति प्राप्त करनेमें भगवान्‌की तरफ चलनेमें स्थूल, सूक्ष्म या कारण, कोई भी शरीर काम नहीं आता । शरीर कुटुम्बके लिये, समाजके लिये और संसारके लिये काम आता है, हमारे लिये काम आता ही नहीं। इसलिये शरीरको कुटुम्ब, समाज और संसारकी सेवामें लगा दो।

मानवमात्रके कल्याणके लिये २३··

वास्तवमें शरीरसे संसारका ही काम होता है, अपना काम होता ही नहीं; क्योंकि शरीर हमारे लिये है ही नहीं । कुछ-न-कुछ काम करनेके लिये ही शरीरकी जरूरत होती है। अगर कुछ भी न करें तो शरीरकी क्या जरूरत ? इसलिये शरीरके द्वारा अपने लिये कुछ करना ही दोष है। मिली हुई वस्तुके द्वारा हम अपने लिये कुछ नहीं कर सकते, प्रत्युत उसके द्वारा संसारकी सेवा कर सकते हैं। शरीर संसारका अंश है; अतः इससे जो कुछ होगा, संसारके लिये ही होगा।

साधक संजीवनी ३ । १३ परि०··

आप चाहे अद्वैत मानो, चाहे द्वैत मानो, चाहे ज्ञान मानो, चाहे भक्ति मानो, कम-से-कम इतनी बात तो स्वीकार कर ही लो कि शरीर हमारे कामका नहीं है, इसके साथ हमारा सम्बन्ध नहीं है।

मानवमात्रके कल्याणके लिये २४··

मुक्तिको, तत्त्वज्ञानको प्रेमको प्राप्त करनेमें शरीर सहायक नहीं है, प्रत्युत शरीरका त्याग ( सम्बन्ध- विच्छेद) सहायक है। त्यागका अर्थ है- शरीरमें अहंता-ममताका त्याग।

सत्संग-मुक्ताहार ४९··

आप शरीरको अपना मत मानो तो शरीरको भोजन देनेका माहात्म्य हो जायगा । शरीरको संसारका मानो तो संसारकी सेवा हो जायगी, और भगवान्‌का मानो तो भगवान्‌की सेवा हो जायगी।

सागरके मोती ७··

हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, स्त्री, पुरुष आदि सब शरीर हैं । शरीरसे आगे हिन्दू, मुसलमान आदि कुछ नहीं है, प्रत्युत ईश्वरका अंश है।

सागरके मोती २७··

आप ज्यों-ज्यों शरीरकी चिन्ता छोड़ेंगे, त्यों-त्यों शरीरकी चिन्ता संसारको लग जायगी।

सागरके मोती ७३··

शरीर - निर्वाहका प्रबन्ध तो भगवान्ने पहले ही कर रखा है। भगवान्‌के यहाँसे निर्वाहका प्रबन्ध तो है, पर भोग भोगनेका, संग्रह करनेका, लखपति - करोड़पति बननेका प्रबन्ध नहीं है।

मानवमात्रके कल्याणके लिये १७२··

अपनेको शरीरमें बैठानेसे 'अहंता' पैदा होती है और शरीरको संसारको अपनेमें बैठानेसे 'ममता' पैदा होती है।

साधन-सुधा-सिन्धु ७४२··

देहान्तरकी प्राप्ति होनेपर स्थूलशरीर तो छूट जाता है, पर मुक्तिसे पहले सूक्ष्म और कारण - शरीर नहीं छूटते । जबतक मुक्ति न हो, तबतक सूक्ष्म और कारण - शरीरके साथ सम्बन्ध बना रहता है।

साधक संजीवनी २ । १३··

शरीर केवल कर्म करनेका साधन है और कर्म केवल संसारके लिये ही होता है। जैसे कोई लेखक जब लिखने बैठता है, तब वह लेखनीको ग्रहण करता है और जब लिखना बन्द करता है, तब लेखनीको यथास्थान रख देता है, ऐसे ही साधकको कर्म करते समय शरीरको स्वीकार करना चाहिये और कर्म समाप्त होते ही शरीरको ज्यों-का-त्यों रख देना चाहिये - उससे असंग हो जाना चाहिये। कारण कि अगर हम कुछ भी न करें तो शरीरकी क्या जरूरत है ?

साधक संजीवनी २। ३० परि०··

यह व्यष्टि शरीर किसी भी प्रकारसे समष्टि संसारसे अलग नहीं है और अलग हो सकता भी नहीं; क्योंकि समष्टिका अंश ही व्यष्टि कहलाता है। इसलिये व्यष्टि (शरीर) को अपना मानना और समष्टि (संसार) को अपना न मानना ही राग-द्वेष आदि द्वन्द्वोंका कारण है एवं यही अहंकार, व्यक्तित्व अथवा विषमता है।

साधक संजीवनी ३।१२··

संसारके छोटे-से-छोटे अंश शरीरको अपना और अपने लिये मानना महान् पाप है । परन्तु शरीरको अपना न मानकर इसको आवश्यकतानुसार अन्न, जल, वस्तु आदि देना और इसको आलसी, प्रमादी, भोगी नहीं होने देना इस शरीरकी सेवा है, जिससे शरीरमें ममता- आसक्ति नहीं रहती।

साधक संजीवनी ३ । १३··

हम शरीरको संसारसे और संसारको शरीरसे अलग नहीं कर सकते। इसलिये अगर हम शरीरकी परवाह करते हैं तो वैसे ही संसारकी भी परवाह करें और अगर संसारकी बेपरवाह करते हैं तो वैसे ही शरीरकी भी बेपरवाह करें। दोनों बातोंमें चाहे कोई मान लें, इसीमें ईमानदारी है।

साधक संजीवनी ६ । ३२ परि०··

शरीरको लेकर जो व्यवहार है, वह लौकिक मर्यादाके लिये बहुत आवश्यक है और उस मर्यादाके अनुसार चलना ही चाहिये । परन्तु भगवान्‌की तरफ चलनेमें स्वयंकी मुख्यता है, शरीरकी नहीं।

साधक संजीवनी ९ । ३२ मा०··

यह (शरीर) इतना जल्दी बदलता है कि इसको दुबारा कोई देख ही नहीं सकता अर्थात् दृष्टि पड़ते ही जिसको देखा, उसको फिर दुबारा नहीं देख सकते; क्योंकि वह तो बदल गया।

साधक संजीवनी १३ । १··

वास्तवमें नाशवान् शरीरके साथ तादात्म्य करना ही अपनी हत्या करना है, अपना पतन करना है, अपने-आपको जन्म मरणमें ले जाना है।

साधक संजीवनी १३ । २८··

जीव जबतक मुक्त नहीं होता, तबतक प्रकृतिके अंश कारणशरीरसे उसका सम्बन्ध बना रहता है और वह महाप्रलयमें कारणशरीर सहित ही प्रकृतिमें लीन होता है।

साधक संजीवनी १४ । ३··

यह शरीर हड्डी, मांस, मज्जा आदि घृणित (अपवित्र) चीजोंका बना हुआ है। इस हड्डी-मांसके थैलेमें तोलाभर भी कोई शुद्ध, पवित्र, निर्मल और सुगन्धयुक्त वस्तु नहीं है। यह केवल गन्दगीका पात्र है। इसमें कोरी मलिनता ही मलिनता भरी पड़ी है। यह केवल मल-मूत्र पैदा करनेकी एक फैक्टरी है, मशीन है।

साधक संजीवनी १७ । १४··

कर्म करते समय हरेक व्यक्तिके शरीरमें परिश्रम तो होता ही है, पर जिस व्यक्तिमें शरीर के सुख-आरामकी इच्छा मुख्य होती है, उसको कर्म करते समय शरीरमें ज्यादा परिश्रम मालूम देता है।

साधक संजीवनी १८ । २४··

जिसका शरीरमें मैं मेरापन ज्यादा है, उसको शारीरिक पीड़ा अधिक होती है।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १३९··

शरीरके साथ हमारा मिलन कभी हुआ ही नहीं, है ही नहीं, होगा ही नहीं, हो सकता ही नहीं और परमात्मासे अलग हम कभी हुए ही नहीं, हैं ही नहीं, होंगे ही नहीं, हो सकते ही नहीं। हमारेसे दूर से दूर कोई चीज है तो वह शरीर है और नजदीक से नजदीक कोई चीज है तो वह परमात्मा है । परन्तु कामना - ममता - तादात्म्यके कारण मनुष्यको उलटा दीखता है अर्थात् शरीर तो नजदीक दीखता है और परमात्मा दूर। शरीर तो प्राप्त दीखता है और परमात्मा अप्राप्त।

साधक संजीवनी १५७ परि०··

जब आपने माँसे जन्म लिया, तब छोटे-से थे। फिर अन्न-जल लेते हुए इतने बड़े हो गये। पर आप स्वयं न छोटे हुए, न बड़े हुए। शरीरको जाननेवालेमें क्या फर्क पड़ा ? शरीरका होनापना शरीरका नहीं है, प्रत्युत चेतनका है, जो शरीरमें दीख रहा है।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ९३··

शरीर संसारकी सम्पत्ति है और आप खुद परमात्माकी सम्पत्ति हैं । शरीरका काम संसारकी सेवा करना है और आपका काम भगवान्‌का भजन करना है। अपना शरीर भी संसारके अन्तर्गत है। अतः अपने स्थूल सूक्ष्म और कारण शरीरका पालन करना भी संसारकी सेवा है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश २३··

मनुष्यशरीरकी विशेषता और तरहकी है, पर हमने इसे और तरहकी विशेषता दे दी। 'मैं शरीर हूँ, शरीर मेरा है' – ऐसा माननेमें शरीरकी महिमा नहीं है। शरीरकी महिमा इस विवेकको लेकर है कि इस शरीरके साथ मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश २६··

मरनेपर शरीर अलग होगा- ऐसी बात नहीं है। शरीर पहलेसे ही अलग है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ४२··

शरीरसे परमात्माकी प्राप्ति नहीं होगी। शरीर संसारकी सेवाके लिये है। शरीरकी महिमा सेवासे है। शरीरसे संसारकी सेवा करो तो भगवान् राजी हो जायँगे।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ४५··

शरीरके आरामकी इच्छा तत्त्वप्राप्तिमें महान् बाधक है।

स्वातिकी बूँदें २८··

जैसे हाथ कट जाय तो वह कटा हुआ हाथ अपना नहीं दीखता, ऐसे ही यह शरीर अपना नहीं दीखना चाहिये। कटा हुआ हाथ कहीं फेंक दो, जला दो अथवा उसे कुत्ता ले जाय, क्या फर्क पड़ता है । जिस धातुका वह कटा हुआ हाथ है, उसी धातुका यह शरीर है। दोनों एक ही चीज है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १२१··

एक आदमी तिलक करता है, एक कौएने बीठ कर दी, दोनोंमें बड़ा फर्क है। तिलकको तो रखना चाहते हैं, पर बीठको कोई रखना नहीं चाहता । तिलक तो आपको सुहाता है, पर बीठ नहीं सुहाती । जैसे कौएकी बीठ नहीं सुहाती, ऐसे ही जड़ शरीर भी नहीं सुहाना चाहिये।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १६०··

जैसे एक कन्याके साथ सम्बन्ध (विवाह) होनेसे उसके पूरे कुटुम्ब ( ससुराल ) के साथ सम्बन्ध हो जाता है, ऐसे ही एक शरीरके साथ सम्बन्ध होनेसे संसारमात्रके साथ सम्बन्ध हो जाता है। शरीरसे सम्बन्ध छूटते ही संसारमात्रसे सम्बन्ध छूट जाता है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १९६··

शरीर संसारकी वस्तु है, व्यक्तिगत वस्तु नहीं है। शरीरको संसारसे अलग (व्यक्तिगत ) मानकर शरीरको सुख देना चाहते हैं - यह गलती है।

स्वातिकी बूँदें १५··

संसारका मालिक परमात्मा है और शरीरका मालिक मैं हूँ - ऐसा मानना गलती है। जो संसारका मालिक है, वही शरीरका भी मालिक है।

अमृत-बिन्दु ९२७··

भगवान्का देनेका जो तरीका है, वैसा किसीके पास नहीं है। वे जिसे जो वस्तु देते हैं, उसे वह वस्तु अपनी ही दीखती है कि शरीर मेरा ही है, इन्द्रियाँ मेरी ही हैं, मन-बुद्धि मेरे ही हैं । विचार करें, यदि आँखें आपकी हैं तो चश्मा क्यों लगाते हो? शरीर आपका है तो उसे बीमार क्यों होने देते हो? मरने क्यों देते हो?

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ७८-७९··

भगवान् कहते हैं—'सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्ट' (गीता १५।१५) 'मैं ही सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें स्थित हूँ' । अतः सब शरीर भगवान्‌के ही मन्दिर हैं। मन्दिर तरह- तरहके हैं, पर ठाकुरजी एक ही हैं। आपकी दृष्टि उस एक भगवान्‌की तरफ ही रहनी चाहिये। मन्दिरकी सजावटको मत देखो, उसमें विराजमान ठाकुरजीको देखो।

स्वातिकी बूँदें २९··