सम्पूर्ण शास्त्रोंमें वेद श्रेष्ठ हैं। वेदोंका सार है— उपनिषद्, उपनिषदोंका सार है— गीता और गीताका सार है- भगवान्की शरणागति।
||श्रीहरि:||
सम्पूर्ण शास्त्रोंमें वेद श्रेष्ठ हैं। वेदोंका सार है— उपनिषद्, उपनिषदोंका सार है— गीता और गीताका सार है- भगवान्की शरणागति।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश २१४
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश २१४··
प्राणिमात्रका हित केवल इसी बातमें है कि वह किसी दूसरेका सहारा न लेकर केवल भगवान्की ही शरण ले । भगवान्की शरण होनेके सिवाय जीवका कहीं भी, किंचिन्मात्र भी हित नहीं है । कारण यह है कि जीव साक्षात् परमात्माका अंश है। इसलिये परमात्माको छोड़कर किसीका भी सहारा लेगा तो वह सहारा टिकेगा नहीं।
||श्रीहरि:||
प्राणिमात्रका हित केवल इसी बातमें है कि वह किसी दूसरेका सहारा न लेकर केवल भगवान्की ही शरण ले । भगवान्की शरण होनेके सिवाय जीवका कहीं भी, किंचिन्मात्र भी हित नहीं है । कारण यह है कि जीव साक्षात् परमात्माका अंश है। इसलिये परमात्माको छोड़कर किसीका भी सहारा लेगा तो वह सहारा टिकेगा नहीं।- साधक संजीवनी १८ । ६४
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साधक संजीवनी १८ । ६४··
जीव भगवान्का अंश है और जब वह सर्वथा भगवान् के समर्पित हो जाता है, तब कोई भी सिद्धि बाकी नहीं रहती।
||श्रीहरि:||
जीव भगवान्का अंश है और जब वह सर्वथा भगवान् के समर्पित हो जाता है, तब कोई भी सिद्धि बाकी नहीं रहती।- साधक संजीवनी ८। १५ टि०
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साधक संजीवनी ८। १५ टि०··
इस मृत्यु-संसार-सागरके सभी आश्रय मगरमच्छके आश्रयकी तरह ही हैं। अतः मनुष्यको विनाशी संसारका आश्रय न लेकर अविनाशी परमात्मतत्त्वका ही आश्रय लेना चाहिये।
||श्रीहरि:||
इस मृत्यु-संसार-सागरके सभी आश्रय मगरमच्छके आश्रयकी तरह ही हैं। अतः मनुष्यको विनाशी संसारका आश्रय न लेकर अविनाशी परमात्मतत्त्वका ही आश्रय लेना चाहिये।- साधक संजीवनी १५ । ४
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साधक संजीवनी १५ । ४··
प्रभुके शरणागत होनेपर परतन्त्रता लेशमात्र भी नहीं रहती - यह शरणागतिकी महिमा है।
||श्रीहरि:||
प्रभुके शरणागत होनेपर परतन्त्रता लेशमात्र भी नहीं रहती - यह शरणागतिकी महिमा है।- साधक संजीवनी १८ । ५९
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साधक संजीवनी १८ । ५९··
जिस क्षण साधक भगवान्को अपना मानकर उनके शरणागत हो जाता है, उसी क्षण भगवान् उसको अपना लेते हैं। कारण कि भगवान् साधकका भूतकाल न देखकर उसके वर्तमानको देखते हैं, उसके आचरणोंको न देखकर उसके भावोंको देखते हैं।
||श्रीहरि:||
जिस क्षण साधक भगवान्को अपना मानकर उनके शरणागत हो जाता है, उसी क्षण भगवान् उसको अपना लेते हैं। कारण कि भगवान् साधकका भूतकाल न देखकर उसके वर्तमानको देखते हैं, उसके आचरणोंको न देखकर उसके भावोंको देखते हैं।- मानवमात्रके कल्याणके लिये ५०
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मानवमात्रके कल्याणके लिये ५०··
अन्यका आश्रय, अन्यका विश्वास और अन्यका सम्बन्ध रहनेसे भगवान्का आश्रय दृढ़ नहीं होता । जिस मनुष्यको एक भगवान्के सिवाय और कोई अपना नहीं दीखता तथा जिसको अपनेमें कोई विशेषता नहीं दीखती, वह सुगमतापूर्वक भगवान् के आश्रित हो जाता है।
||श्रीहरि:||
अन्यका आश्रय, अन्यका विश्वास और अन्यका सम्बन्ध रहनेसे भगवान्का आश्रय दृढ़ नहीं होता । जिस मनुष्यको एक भगवान्के सिवाय और कोई अपना नहीं दीखता तथा जिसको अपनेमें कोई विशेषता नहीं दीखती, वह सुगमतापूर्वक भगवान् के आश्रित हो जाता है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये ५१
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मानवमात्रके कल्याणके लिये ५१··
शरणागतिमें न तो सांसारिक दीनता है और न पराधीनता ही है। कारण कि भगवान् 'पर' नहीं हैं, प्रत्युत 'स्वकीय' हैं।
||श्रीहरि:||
शरणागतिमें न तो सांसारिक दीनता है और न पराधीनता ही है। कारण कि भगवान् 'पर' नहीं हैं, प्रत्युत 'स्वकीय' हैं।- मानवमात्रके कल्याणके लिये ५७
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मानवमात्रके कल्याणके लिये ५७··
शरण लेनेपर शरण्यकी सब शक्ति शरणागतमें आ जाती है। कितनी शक्ति आती है, इसका कोई पार नहीं।
||श्रीहरि:||
शरण लेनेपर शरण्यकी सब शक्ति शरणागतमें आ जाती है। कितनी शक्ति आती है, इसका कोई पार नहीं।- ज्ञानके दीप जले २३४
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ज्ञानके दीप जले २३४··
शरणागति करणनिरपेक्ष है। यह स्वयंकी स्वीकृति है, बुद्धिका निश्चय नहीं है।
||श्रीहरि:||
शरणागति करणनिरपेक्ष है। यह स्वयंकी स्वीकृति है, बुद्धिका निश्चय नहीं है।- सत्संगके फूल ४७
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सत्संगके फूल ४७··
भगवान्के शरणागतको अपने मनके अनुकूलकी इच्छा करनी ही नहीं चाहिये। भगवान्के शरण हो गये तो वे जो चाहें सो करें। उनसे हमारा बुरा नहीं हो सकता। संसारसे भी हमारा बुरा नहीं हो सकता।
||श्रीहरि:||
भगवान्के शरणागतको अपने मनके अनुकूलकी इच्छा करनी ही नहीं चाहिये। भगवान्के शरण हो गये तो वे जो चाहें सो करें। उनसे हमारा बुरा नहीं हो सकता। संसारसे भी हमारा बुरा नहीं हो सकता।- ज्ञानके दीप जले १२५
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ज्ञानके दीप जले १२५··
भक्त सुखभोगके लिये भगवान्के शरण नहीं होता। यदि सुख चाहता है तो वह शरीरके शरण है, भगवान्के नहीं।
||श्रीहरि:||
भक्त सुखभोगके लिये भगवान्के शरण नहीं होता। यदि सुख चाहता है तो वह शरीरके शरण है, भगवान्के नहीं।- ज्ञानके दीप जले १२५
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ज्ञानके दीप जले १२५··
यदि प्रतिकूलता, बुखार, निन्दा, अपमान आदिमें आनन्द आये, तब समझना चाहिये कि हम भगवान् के शरण हुए हैं।
||श्रीहरि:||
यदि प्रतिकूलता, बुखार, निन्दा, अपमान आदिमें आनन्द आये, तब समझना चाहिये कि हम भगवान् के शरण हुए हैं।- ज्ञानके दीप जले १२५
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ज्ञानके दीप जले १२५··
संसारका सहारा लेनेसे कइयोंका सहारा लेना पड़ता है, तो भी काम बनता नहीं। परन्तु एक भगवान्का सहारा लेनेसे फिर किसीका सहारा नहीं लेना पड़ता।
||श्रीहरि:||
संसारका सहारा लेनेसे कइयोंका सहारा लेना पड़ता है, तो भी काम बनता नहीं। परन्तु एक भगवान्का सहारा लेनेसे फिर किसीका सहारा नहीं लेना पड़ता।- ज्ञानके दीप जले १९०
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ज्ञानके दीप जले १९०··
हे नाथ। मैं आपका हूँ' – ऐसे भगवान्के शरण हो जाओ। शरणागति नींदकी तरह सुगम है। जैसे नींद के लिये कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता, ऐसे ही शरणागत होनेके लिये कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता ।
||श्रीहरि:||
हे नाथ। मैं आपका हूँ' – ऐसे भगवान्के शरण हो जाओ। शरणागति नींदकी तरह सुगम है। जैसे नींद के लिये कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता, ऐसे ही शरणागत होनेके लिये कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता ।- ज्ञानके दीप जले १९५
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ज्ञानके दीप जले १९५··
वचनमात्रसे भगवान् के शरण होनेपर भगवान् पीछे पड़ जाते हैं और सर्वथा शरण कराकर ही छोड़ते हैं।
||श्रीहरि:||
वचनमात्रसे भगवान् के शरण होनेपर भगवान् पीछे पड़ जाते हैं और सर्वथा शरण कराकर ही छोड़ते हैं।- सत्संगके फूल ६०
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सत्संगके फूल ६०··
मैं भगवान्का हूँ और मेरी कहलानेवाली मात्र वस्तुएँ भगवान्की हैं, इस प्रकार सब कुछ भगवान्के अर्पण कर देना चाहिये अर्थात् अपनी ममता उठा देनी चाहिये। ऐसा करनेके बाद फिर साधकको संसार या भगवान्से कुछ भी चाहना नहीं पड़ता; क्योंकि जो उसे चाहिये, उसकी व्यवस्था भगवान् स्वतः करते हैं।
||श्रीहरि:||
मैं भगवान्का हूँ और मेरी कहलानेवाली मात्र वस्तुएँ भगवान्की हैं, इस प्रकार सब कुछ भगवान्के अर्पण कर देना चाहिये अर्थात् अपनी ममता उठा देनी चाहिये। ऐसा करनेके बाद फिर साधकको संसार या भगवान्से कुछ भी चाहना नहीं पड़ता; क्योंकि जो उसे चाहिये, उसकी व्यवस्था भगवान् स्वतः करते हैं।- साधक संजीवनी ३ ३० वि०
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साधक संजीवनी ३ ३० वि०··
भगवान्की वस्तुको भगवान्की ही मानना वास्तविक अर्पण है। जो मनुष्य वस्तुओंको अपनी मानते हुए भगवान् के अर्पण करता है, उसके बदलेमें भगवान् बहुत वस्तुएँ देते हैं; जैसे- पृथ्वीमें जितने बीज बोये जायँ, उससे कई गुणा अधिक अन्न पृथ्वी देती है; पर कई गुणा मिलनेपर भी वह सीमित ही मिलता है । परन्तु जो वस्तुको अपनी न मानकर (भगवान्की ही मानते हुए) भगवान्के अर्पण करता है, भगवान् उसे अपने-आपको देते हैं और ऋणी भी हो जाते हैं।
||श्रीहरि:||
भगवान्की वस्तुको भगवान्की ही मानना वास्तविक अर्पण है। जो मनुष्य वस्तुओंको अपनी मानते हुए भगवान् के अर्पण करता है, उसके बदलेमें भगवान् बहुत वस्तुएँ देते हैं; जैसे- पृथ्वीमें जितने बीज बोये जायँ, उससे कई गुणा अधिक अन्न पृथ्वी देती है; पर कई गुणा मिलनेपर भी वह सीमित ही मिलता है । परन्तु जो वस्तुको अपनी न मानकर (भगवान्की ही मानते हुए) भगवान्के अर्पण करता है, भगवान् उसे अपने-आपको देते हैं और ऋणी भी हो जाते हैं।- साधक संजीवनी ३ । ३० वि०
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साधक संजीवनी ३ । ३० वि०··
दास्य, सख्य, वात्सल्य, माधुर्य आदि भावोंमें सबसे श्रेष्ठ शरणागतिका भाव है।
||श्रीहरि:||
दास्य, सख्य, वात्सल्य, माधुर्य आदि भावोंमें सबसे श्रेष्ठ शरणागतिका भाव है।- साधक संजीवनी ४। ११
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साधक संजीवनी ४। ११··
जब मनुष्य संसारसे विमुख होकर भगवान्की शरणागति स्वीकार कर लेता है, तब वह माया (अपरा प्रकृतिके कार्य)-को तर जाता है अर्थात् उसके अहम्का सर्वथा नाश हो जाता है। भगवान्की शरणागति स्वीकार करनेका तात्पर्य है - भगवान्की सत्तामें ही अपनी सत्ता मिला दे अर्थात् केवल भगवान्की ही सत्ताको स्वीकार कर ले। न अपनी स्वतन्त्र सत्ता माने, न मायाकी स्वतन्त्र सत्ता माने । न अहम्का आश्रय ले न माया ( गुणों) का आश्रय ले । इसमें कोई परिश्रम, उद्योग नहीं है।
||श्रीहरि:||
जब मनुष्य संसारसे विमुख होकर भगवान्की शरणागति स्वीकार कर लेता है, तब वह माया (अपरा प्रकृतिके कार्य)-को तर जाता है अर्थात् उसके अहम्का सर्वथा नाश हो जाता है। भगवान्की शरणागति स्वीकार करनेका तात्पर्य है - भगवान्की सत्तामें ही अपनी सत्ता मिला दे अर्थात् केवल भगवान्की ही सत्ताको स्वीकार कर ले। न अपनी स्वतन्त्र सत्ता माने, न मायाकी स्वतन्त्र सत्ता माने । न अहम्का आश्रय ले न माया ( गुणों) का आश्रय ले । इसमें कोई परिश्रम, उद्योग नहीं है।- साधक संजीवनी ७ । १४ परि०
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साधक संजीवनी ७ । १४ परि०··
जिनमें विवेककी प्रधानता है, ऐसे भक्त अहम्का आश्रय छोड़कर अर्थात् संसारका त्याग करके भगवान्के आश्रित होते हैं। परन्तु जिनमें विवेककी प्रधानता नहीं है, प्रत्युत भगवान् में श्रद्धा- विश्वासकी प्रधानता है, ऐसे सीधे - सरल भक्त अहम्के साथ (जैसे हैं, वैसे ही ) भगवान्के आश्रित हो जाते हैं। ऐसे भक्तोंके अहम्का नाश भगवान् स्वयं करते हैं (गीता १० । ११)।
||श्रीहरि:||
जिनमें विवेककी प्रधानता है, ऐसे भक्त अहम्का आश्रय छोड़कर अर्थात् संसारका त्याग करके भगवान्के आश्रित होते हैं। परन्तु जिनमें विवेककी प्रधानता नहीं है, प्रत्युत भगवान् में श्रद्धा- विश्वासकी प्रधानता है, ऐसे सीधे - सरल भक्त अहम्के साथ (जैसे हैं, वैसे ही ) भगवान्के आश्रित हो जाते हैं। ऐसे भक्तोंके अहम्का नाश भगवान् स्वयं करते हैं (गीता १० । ११)।- साधक संजीवनी ७। १४ परि०
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साधक संजीवनी ७। १४ परि०··
जैसे किसी वस्तुका बीमा होनेपर वस्तुके बिगड़ने, टूटने-फूटनेकी चिन्ता नहीं रहती, ऐसे ही शरीर - इन्द्रियाँ -मन-बुद्धिसहित अपने-आपको भगवान् के समर्पित कर देनेपर साधकको अपनी गतिके विषयमें कभी किंचिन्मात्र भी चिन्ता नहीं होती।
||श्रीहरि:||
जैसे किसी वस्तुका बीमा होनेपर वस्तुके बिगड़ने, टूटने-फूटनेकी चिन्ता नहीं रहती, ऐसे ही शरीर - इन्द्रियाँ -मन-बुद्धिसहित अपने-आपको भगवान् के समर्पित कर देनेपर साधकको अपनी गतिके विषयमें कभी किंचिन्मात्र भी चिन्ता नहीं होती।- साधक संजीवनी ८। १४
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साधक संजीवनी ८। १४··
चीजोंको अपनी मानकर भगवान्को देनेसे भगवान् उनको अनन्त गुणा करके देते हैं और उनको भगवान् की ही मानकर भगवान्के अर्पण करनेसे भगवान् अपने-आपको ही दे देते हैं।
||श्रीहरि:||
चीजोंको अपनी मानकर भगवान्को देनेसे भगवान् उनको अनन्त गुणा करके देते हैं और उनको भगवान् की ही मानकर भगवान्के अर्पण करनेसे भगवान् अपने-आपको ही दे देते हैं।- साधक संजीवनी ९। २
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साधक संजीवनी ९। २··
भगवान् के लिये किसी वस्तु और क्रियाविशेषको अर्पण करनेकी जरूरत नहीं है, प्रत्युत खुदको ही अर्पित करनेकी जरूरत है। खुद अर्पित होनेसे सब क्रियाएँ स्वाभाविक भगवान्के अर्पण हो जायँगी, भगवान्की प्रसन्नताका हेतु हो जायँगी।
||श्रीहरि:||
भगवान् के लिये किसी वस्तु और क्रियाविशेषको अर्पण करनेकी जरूरत नहीं है, प्रत्युत खुदको ही अर्पित करनेकी जरूरत है। खुद अर्पित होनेसे सब क्रियाएँ स्वाभाविक भगवान्के अर्पण हो जायँगी, भगवान्की प्रसन्नताका हेतु हो जायँगी।- साधक संजीवनी ९ । २७ वि०
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साधक संजीवनी ९ । २७ वि०··
जो स्वयं भगवान्का हो जाता है, उसके न मन-बुद्धि अपने रहते हैं, न पदार्थ और क्रिया अपने रहते हैं और न शरीर अपना रहता है।....... स्वयंके अर्पित हो जानेसे मात्र प्राकृत चीजें भगवान्की हो जाती हैं।
||श्रीहरि:||
जो स्वयं भगवान्का हो जाता है, उसके न मन-बुद्धि अपने रहते हैं, न पदार्थ और क्रिया अपने रहते हैं और न शरीर अपना रहता है।....... स्वयंके अर्पित हो जानेसे मात्र प्राकृत चीजें भगवान्की हो जाती हैं।- साधक संजीवनी ९ । ३४ वि०
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साधक संजीवनी ९ । ३४ वि०··
जो मनुष्य हानि और परलोकके भयसे मेरे [ भगवान्के] चरणोंमें पड़ते हैं, मेरे शरण होते हैं, वे वास्तवमें अपने सुख और सुविधाके ही शरण होते हैं, मेरे शरण नहीं। मेरे शरण होनेपर किसीसे कुछ भी सुख-सुविधा पानेकी इच्छा होती है तो वह सर्वथा मेरे शरणागत कहाँ हुआ ? कारण कि वह जबतक कुछ-न-कुछ सुख-सुविधा चाहता है, तबतक वह अपना कुछ स्वतन्त्र अस्तित्व मानता है।
||श्रीहरि:||
जो मनुष्य हानि और परलोकके भयसे मेरे [ भगवान्के] चरणोंमें पड़ते हैं, मेरे शरण होते हैं, वे वास्तवमें अपने सुख और सुविधाके ही शरण होते हैं, मेरे शरण नहीं। मेरे शरण होनेपर किसीसे कुछ भी सुख-सुविधा पानेकी इच्छा होती है तो वह सर्वथा मेरे शरणागत कहाँ हुआ ? कारण कि वह जबतक कुछ-न-कुछ सुख-सुविधा चाहता है, तबतक वह अपना कुछ स्वतन्त्र अस्तित्व मानता है।- साधक संजीवनी ९ । ३४
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साधक संजीवनी ९ । ३४··
कुछ भी करनेकी जिम्मेवारी मनुष्यपर तभीतक रहती है, जबतक अपनेमें करनेका बल अर्थात् अभिमान रहता है। जब अपनेमें कुछ भी करनेकी सामर्थ्य नहीं रहती, तब करने की जिम्मेवारी बिलकुल नहीं रहती। अब वह केवल नमस्कार ही करता है अर्थात् अपने आपको सर्वथा भगवान्के समर्पित कर देता है। फिर करने करानेका सब काम शरण्य (भगवान्) - का ही रहता है, शरणागतका नहीं।
||श्रीहरि:||
कुछ भी करनेकी जिम्मेवारी मनुष्यपर तभीतक रहती है, जबतक अपनेमें करनेका बल अर्थात् अभिमान रहता है। जब अपनेमें कुछ भी करनेकी सामर्थ्य नहीं रहती, तब करने की जिम्मेवारी बिलकुल नहीं रहती। अब वह केवल नमस्कार ही करता है अर्थात् अपने आपको सर्वथा भगवान्के समर्पित कर देता है। फिर करने करानेका सब काम शरण्य (भगवान्) - का ही रहता है, शरणागतका नहीं।- साधक संजीवनी ११ । ३९
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साधक संजीवनी ११ । ३९··
शरणागत भक्त ‘मैं भगवान्का हूँ और भगवान् मेरे हैं' इस भावको दृढ़तासे पकड़ लेता है, स्वीकार कर लेता है तो उसके भय, शोक, चिन्ता, शंका आदि दोषोंकी जड़ कट जाती है अर्थात् दोषोंका आधार मिट जाता है। कारण कि भक्तिकी दृष्टिसे सभी दोष भगवान्की विमुखतापर ही ि रहते हैं।
||श्रीहरि:||
शरणागत भक्त ‘मैं भगवान्का हूँ और भगवान् मेरे हैं' इस भावको दृढ़तासे पकड़ लेता है, स्वीकार कर लेता है तो उसके भय, शोक, चिन्ता, शंका आदि दोषोंकी जड़ कट जाती है अर्थात् दोषोंका आधार मिट जाता है। कारण कि भक्तिकी दृष्टिसे सभी दोष भगवान्की विमुखतापर ही ि रहते हैं।- साधक संजीवनी १८ । ६६ वि०
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साधक संजीवनी १८ । ६६ वि०··
शरणागत भक्त अपनी कुछ भी मरजी, मनकी बात नहीं रखता। वह जितना अधिक निश्चिन्त और निर्भय होता है, भगवत्कृपा उसको अपने आप उतना ही अधिक अपने अनुकूल बना लेती है और जितनी वह चिन्ता करता है, अपना बल मानता है, उतना ही वह आती हुई भगवत्कृपामें बाधा लगाता है अर्थात् शरणागत होनेपर भगवान्की ओरसे जो विलक्षण, विचित्र, अखण्ड, अटूट कृपा आती है, अपनी चिन्ता करनेसे उस कृपामें बाधा लग जाती है।
||श्रीहरि:||
शरणागत भक्त अपनी कुछ भी मरजी, मनकी बात नहीं रखता। वह जितना अधिक निश्चिन्त और निर्भय होता है, भगवत्कृपा उसको अपने आप उतना ही अधिक अपने अनुकूल बना लेती है और जितनी वह चिन्ता करता है, अपना बल मानता है, उतना ही वह आती हुई भगवत्कृपामें बाधा लगाता है अर्थात् शरणागत होनेपर भगवान्की ओरसे जो विलक्षण, विचित्र, अखण्ड, अटूट कृपा आती है, अपनी चिन्ता करनेसे उस कृपामें बाधा लग जाती है।- साधक संजीवनी १८ । ६६ वि०
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साधक संजीवनी १८ । ६६ वि०··
स्थूल, सूक्ष्म और कारण - शरीरको लेकर सांसारिक जितने भी जाति, विद्या आदि भेद हो सकते हैं, वे सब उनपर लागू नहीं होते जो सर्वथा भगवान्के अर्पित हो गये हैं। कारण कि वे अच्युत भगवान्के ही हैं— 'यतस्दीयाः' (नारदभक्तिसूत्र ७३ ), संसारके नहीं।
||श्रीहरि:||
स्थूल, सूक्ष्म और कारण - शरीरको लेकर सांसारिक जितने भी जाति, विद्या आदि भेद हो सकते हैं, वे सब उनपर लागू नहीं होते जो सर्वथा भगवान्के अर्पित हो गये हैं। कारण कि वे अच्युत भगवान्के ही हैं— 'यतस्दीयाः' (नारदभक्तिसूत्र ७३ ), संसारके नहीं।- साधक संजीवनी १८ । ६६ वि०
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साधक संजीवनी १८ । ६६ वि०··
अगर वह गुण, प्रभाव आदिकी तरफ देखकर भगवान्की शरण लेता है, तो वास्तवमें वह गुण, प्रभाव आदिके ही शरण हुआ, भगवान्के शरण नहीं हुआ।
||श्रीहरि:||
अगर वह गुण, प्रभाव आदिकी तरफ देखकर भगवान्की शरण लेता है, तो वास्तवमें वह गुण, प्रभाव आदिके ही शरण हुआ, भगवान्के शरण नहीं हुआ।- साधक संजीवनी १८ । ६६ वि०
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साधक संजीवनी १८ । ६६ वि०··
अगर अपनेमें भक्तोंके गुण दिखायी देंगे तो उनका अभिमान हो जायगा और अगर नहीं दिखायी देंगे तो निराशा हो जायगी । इसलिये यही अच्छा है कि भगवान्के शरण होनेके बाद इन गुणोंकी तरफ भूलकर भी नहीं देखें।...... भगवान् के शरण होनेवाले भक्तमें ये सब-के-सब गुण अपने-आप ही आयेंगे, पर इनके आने या न आनेसे उसको कोई मतलब नहीं रखना चाहिये।
||श्रीहरि:||
अगर अपनेमें भक्तोंके गुण दिखायी देंगे तो उनका अभिमान हो जायगा और अगर नहीं दिखायी देंगे तो निराशा हो जायगी । इसलिये यही अच्छा है कि भगवान्के शरण होनेके बाद इन गुणोंकी तरफ भूलकर भी नहीं देखें।...... भगवान् के शरण होनेवाले भक्तमें ये सब-के-सब गुण अपने-आप ही आयेंगे, पर इनके आने या न आनेसे उसको कोई मतलब नहीं रखना चाहिये।- साधक संजीवनी १८ | ६६ वि०
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साधक संजीवनी १८ | ६६ वि०··
शरणागत भक्तको भजन भी करना नहीं पड़ता। उसके द्वारा स्वतः- स्वाभाविक भजन होता है ....... शरणागत भक्त भजनके बिना रह ही नहीं सकता ...... ऐसे भक्तसे अगर कोई कहे कि आधे क्षणके लिये भगवान्के भूल जानेसे त्रिलोकीका राज्य मिलेगा, तो वह इसे भी ठुकरा देगा।
||श्रीहरि:||
शरणागत भक्तको भजन भी करना नहीं पड़ता। उसके द्वारा स्वतः- स्वाभाविक भजन होता है ....... शरणागत भक्त भजनके बिना रह ही नहीं सकता ...... ऐसे भक्तसे अगर कोई कहे कि आधे क्षणके लिये भगवान्के भूल जानेसे त्रिलोकीका राज्य मिलेगा, तो वह इसे भी ठुकरा देगा।- साधक संजीवनी १८ । ६६ वि०
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साधक संजीवनी १८ । ६६ वि०··
आप थक जाते हो तो नींद लेते हो। नींद लेनेपर थकावट मिट जाती है। चलते-चलते थक जाते हो तो थोड़ी देर ठहरकर विश्राम लेते हो । विश्राम लेते ही शक्ति आ जाती है। तात्पर्य है कि काम करनेसे शक्ति खर्च होती है और विश्राम ( कुछ न करने) से थकावट मिटती है तथा शक्ति प्राप्त होती है। इसी तरह भगवान् के शरण होनेसे परम विश्राम मिलता है।
||श्रीहरि:||
आप थक जाते हो तो नींद लेते हो। नींद लेनेपर थकावट मिट जाती है। चलते-चलते थक जाते हो तो थोड़ी देर ठहरकर विश्राम लेते हो । विश्राम लेते ही शक्ति आ जाती है। तात्पर्य है कि काम करनेसे शक्ति खर्च होती है और विश्राम ( कुछ न करने) से थकावट मिटती है तथा शक्ति प्राप्त होती है। इसी तरह भगवान् के शरण होनेसे परम विश्राम मिलता है।- साधक संजीवनी ९१
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साधक संजीवनी ९१··
जो सर्वथा भगवान् के शरण हो जाता है, उसका सब कुछ बदल जाता है। वह संसारी आदमी नहीं रहता। वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र नहीं रहता । वह संसारसे ऊँचा उठ जाता है। उसकी वाणी विलक्षण हो जाती है। उसका जीवन विलक्षण हो जाता है। एक भगवान्के शरण होते ही उसका और भगवान्का एक रूप हो जाता है।
||श्रीहरि:||
जो सर्वथा भगवान् के शरण हो जाता है, उसका सब कुछ बदल जाता है। वह संसारी आदमी नहीं रहता। वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र नहीं रहता । वह संसारसे ऊँचा उठ जाता है। उसकी वाणी विलक्षण हो जाती है। उसका जीवन विलक्षण हो जाता है। एक भगवान्के शरण होते ही उसका और भगवान्का एक रूप हो जाता है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ २४
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ २४··
जबतक मनमें इच्छा है कि 'ऐसा होना चाहिये, ऐसा नहीं होना चाहिये, तबतक असली शरणागति नहीं है। न लेनेकी इच्छा हो, न देनेकी; न मरनेकी इच्छा हो, न जीनेकी; न मुक्तिकी इच्छा हो, न बन्धनकी; न ज्ञानकी इच्छा हो, न प्रेमकी; किसी तरहकी कोई इच्छा न हो।
||श्रीहरि:||
जबतक मनमें इच्छा है कि 'ऐसा होना चाहिये, ऐसा नहीं होना चाहिये, तबतक असली शरणागति नहीं है। न लेनेकी इच्छा हो, न देनेकी; न मरनेकी इच्छा हो, न जीनेकी; न मुक्तिकी इच्छा हो, न बन्धनकी; न ज्ञानकी इच्छा हो, न प्रेमकी; किसी तरहकी कोई इच्छा न हो।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १४९
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १४९··
भगवान् सदा साथ रहते हैं। केवल भगवान्का सहारा लो, फिर सब ठीक हो जायगा । सब संसार भगवान्का स्वरूप है। अतः भगवान्का सहारा लोगे तो संसारका सहारा भी मिलेगा। परन्तु संसारका सहारा लोगे तो भगवान्का सहारा तो आपने छोड़ दिया, और संसार आपको छोड़ देगा।
||श्रीहरि:||
भगवान् सदा साथ रहते हैं। केवल भगवान्का सहारा लो, फिर सब ठीक हो जायगा । सब संसार भगवान्का स्वरूप है। अतः भगवान्का सहारा लोगे तो संसारका सहारा भी मिलेगा। परन्तु संसारका सहारा लोगे तो भगवान्का सहारा तो आपने छोड़ दिया, और संसार आपको छोड़ देगा।- बन गये आप अकेले सब कुछ ३४
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बन गये आप अकेले सब कुछ ३४··
जैसे बालकका सब काम माँ करती है, ऐसे ही शरणागतका सब काम भगवान् करते हैं। शरणागत भक्त बालककी तरह हरदम मौजमें रहता है। अपनेपर कोई जिम्मेवारी ही नहीं, सब जिम्मेवारी भगवान्पर। भगवान्के शरण होकर आप निश्चिन्त, निर्भय, निःशोक तथा निःशंक हो जाओ । फिर भगवान्का स्मरण, भजन, नामजप, कीर्तन स्वाभाविक होगा, करना नहीं पड़ेगा। अगर करना पड़ता है तो भगवान्के शरण हुए नहीं।
||श्रीहरि:||
जैसे बालकका सब काम माँ करती है, ऐसे ही शरणागतका सब काम भगवान् करते हैं। शरणागत भक्त बालककी तरह हरदम मौजमें रहता है। अपनेपर कोई जिम्मेवारी ही नहीं, सब जिम्मेवारी भगवान्पर। भगवान्के शरण होकर आप निश्चिन्त, निर्भय, निःशोक तथा निःशंक हो जाओ । फिर भगवान्का स्मरण, भजन, नामजप, कीर्तन स्वाभाविक होगा, करना नहीं पड़ेगा। अगर करना पड़ता है तो भगवान्के शरण हुए नहीं।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १७९
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १७९··
असली शरणागतके भीतर यह भाव नहीं होता कि मैं शरणागत हूँ । उसको साफ दीखता है कि दुनियामात्र भगवान्की है। मात्र संसार भगवान्की इच्छासे ही चेष्टा कर रहा है। उसके लिये प्रतिकूलता रहती ही नहीं । वह मृत्युमें भी प्रतिकूलता नहीं देखता । वह सबमें भगवान्की मरजी देखकर हरदम मस्त रहता है।
||श्रीहरि:||
असली शरणागतके भीतर यह भाव नहीं होता कि मैं शरणागत हूँ । उसको साफ दीखता है कि दुनियामात्र भगवान्की है। मात्र संसार भगवान्की इच्छासे ही चेष्टा कर रहा है। उसके लिये प्रतिकूलता रहती ही नहीं । वह मृत्युमें भी प्रतिकूलता नहीं देखता । वह सबमें भगवान्की मरजी देखकर हरदम मस्त रहता है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १८०
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १८०··
वास्तवमें भगवान्की मरजीसे 'होता' है, भगवान् 'करते' नहीं हैं। हाँ, शरणागत भक्त भगवान्की मरजीसे करते हैं तो वह करना सबके लिये आदर्श (अनुकरणीय) होता है। उनके द्वारा पाप- पुण्य कभी होते ही नहीं।
||श्रीहरि:||
वास्तवमें भगवान्की मरजीसे 'होता' है, भगवान् 'करते' नहीं हैं। हाँ, शरणागत भक्त भगवान्की मरजीसे करते हैं तो वह करना सबके लिये आदर्श (अनुकरणीय) होता है। उनके द्वारा पाप- पुण्य कभी होते ही नहीं।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १२
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १२··
आप 'हे नाथ। हे प्रभो । मैं आपके शरण हूँ' – इस प्रकार सच्चे हृदयसे भगवान्के शरण हो जाओ तो भगवान् जाने-अनजाने किये हुए सब पाप माफ कर देंगे।
||श्रीहरि:||
आप 'हे नाथ। हे प्रभो । मैं आपके शरण हूँ' – इस प्रकार सच्चे हृदयसे भगवान्के शरण हो जाओ तो भगवान् जाने-अनजाने किये हुए सब पाप माफ कर देंगे।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १७२
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १७२··
मनुष्य भगवान्के शरण हो जाय तो बड़ी सुगमतासे कल्याण हो जाय; क्योंकि शरण होनेके बाद भगवान्की शक्ति काम करती है।
||श्रीहरि:||
मनुष्य भगवान्के शरण हो जाय तो बड़ी सुगमतासे कल्याण हो जाय; क्योंकि शरण होनेके बाद भगवान्की शक्ति काम करती है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १७५
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १७५··
भगवान्के शरण होनेमें बाधक है- अहंकार। मैं कुछ कर सकता हूँ- ऐसा अभिमान शरण होनेमें बाधक होता है। इस अभिमानको छोड़कर 'हे नाथ। हे मेरे नाथ। मैं आपके शरण हूँ' कहकर शरण हो जाओ । शरणागत होनेपर भगवद् - रहस्यकी बातें मनमें स्वतः - स्वाभाविक पैदा होती हैं।
||श्रीहरि:||
भगवान्के शरण होनेमें बाधक है- अहंकार। मैं कुछ कर सकता हूँ- ऐसा अभिमान शरण होनेमें बाधक होता है। इस अभिमानको छोड़कर 'हे नाथ। हे मेरे नाथ। मैं आपके शरण हूँ' कहकर शरण हो जाओ । शरणागत होनेपर भगवद् - रहस्यकी बातें मनमें स्वतः - स्वाभाविक पैदा होती हैं।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ १०७
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ १०७··
भगवान्के चरणोंके शरण होनेसे उनकी कृपासे जो बात आती है, वह अपने उद्योगसे नहीं आती।
||श्रीहरि:||
भगवान्के चरणोंके शरण होनेसे उनकी कृपासे जो बात आती है, वह अपने उद्योगसे नहीं आती।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ १०७
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ १०७··
जितने अच्छे-अच्छे सन्त महात्मा हुए हैं, वे सभी भगवान् के शरण होनेसे हुए हैं, अपनी सामर्थ्यसे नहीं हुए हैं।
||श्रीहरि:||
जितने अच्छे-अच्छे सन्त महात्मा हुए हैं, वे सभी भगवान् के शरण होनेसे हुए हैं, अपनी सामर्थ्यसे नहीं हुए हैं।- परम प्रभु अपने ही महुँ पायो ९३
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परम प्रभु अपने ही महुँ पायो ९३··
जैसे माँ बालकका सब काम राजी होकर करती है, ऐसे ही जो भगवान्के शरण हो जाता है, उसका सब काम भगवान् करते हैं और करके राजी होते हैं।
||श्रीहरि:||
जैसे माँ बालकका सब काम राजी होकर करती है, ऐसे ही जो भगवान्के शरण हो जाता है, उसका सब काम भगवान् करते हैं और करके राजी होते हैं।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ १०७
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ १०७··
परमात्मप्राप्ति स्वयंसे होती है, जो परमात्माका अंश है। वह स्वयं परमात्माके शरण हो जाय, पर साथमें मन-बुद्धि नहीं रहें । मन-बुद्धि साथमें रहेंगे तो परमात्मा दूर दीखेंगे; क्योंकि मन- बुद्धि प्रकृतिके कार्य हैं।
||श्रीहरि:||
परमात्मप्राप्ति स्वयंसे होती है, जो परमात्माका अंश है। वह स्वयं परमात्माके शरण हो जाय, पर साथमें मन-बुद्धि नहीं रहें । मन-बुद्धि साथमें रहेंगे तो परमात्मा दूर दीखेंगे; क्योंकि मन- बुद्धि प्रकृतिके कार्य हैं।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ १७२
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ १७२··
जो भगवान्के चरणोंकी शरण ले लेता है, वह कहीं भी नहीं अटकता । वह सर्वथा निर्भय, निःशंक, निःशोक और निश्चिन्त हो जाता है। कल्याणका सबसे बढ़िया रास्ता शरणागति है । शरणागतिमें सब कुछ आ जाता है।
||श्रीहरि:||
जो भगवान्के चरणोंकी शरण ले लेता है, वह कहीं भी नहीं अटकता । वह सर्वथा निर्भय, निःशंक, निःशोक और निश्चिन्त हो जाता है। कल्याणका सबसे बढ़िया रास्ता शरणागति है । शरणागतिमें सब कुछ आ जाता है।- अनन्तकी ओर ८४
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अनन्तकी ओर ८४··
शरणागत होनेसे परमात्माकी प्राप्ति बड़ी सरलतासे होती है। वह शरणागति चाहे आरम्भसे ही कर लो, चाहे कर्मयोग अथवा ज्ञानयोग करके शरणागति कर लो। यह साधककी मरजी है।
||श्रीहरि:||
शरणागत होनेसे परमात्माकी प्राप्ति बड़ी सरलतासे होती है। वह शरणागति चाहे आरम्भसे ही कर लो, चाहे कर्मयोग अथवा ज्ञानयोग करके शरणागति कर लो। यह साधककी मरजी है।- अनन्तकी ओर ८४
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अनन्तकी ओर ८४··
आप भगवान्के शरण हो जाओ तो आपके द्वारा बड़ा भारी उपकार होगा, संसारमात्रकी सेवा करने का फल होगा। उतना उपकार कोई अरबों-खरबों रुपये खर्च करके भी नहीं कर सकता । भगवान्के शरणागत हुए सन्त महात्माओंके द्वारा संसारका जो हित होता है, वैसा हित संसारमें घुला - मिला व्यक्ति कभी कर सकता ही नहीं।
||श्रीहरि:||
आप भगवान्के शरण हो जाओ तो आपके द्वारा बड़ा भारी उपकार होगा, संसारमात्रकी सेवा करने का फल होगा। उतना उपकार कोई अरबों-खरबों रुपये खर्च करके भी नहीं कर सकता । भगवान्के शरणागत हुए सन्त महात्माओंके द्वारा संसारका जो हित होता है, वैसा हित संसारमें घुला - मिला व्यक्ति कभी कर सकता ही नहीं।- अनन्तकी ओर १०६
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अनन्तकी ओर १०६··
शरणागतिका तात्पर्य है - अपना मैं- पन मिटा दे, परमात्मामें लीन कर दे। न मेरा कुछ है, न मेरेको कुछ चाहिये और न मैं कुछ हूँ।
||श्रीहरि:||
शरणागतिका तात्पर्य है - अपना मैं- पन मिटा दे, परमात्मामें लीन कर दे। न मेरा कुछ है, न मेरेको कुछ चाहिये और न मैं कुछ हूँ।- अनन्तकी ओर १७९
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अनन्तकी ओर १७९··
शरणागत भक्तको भगवान् कर्मयोग भी दे देते हैं और ज्ञानयोग भी। मुक्ति तो भगवान्ने पूतनाको भी दे दी थी। शरणागत भक्तको तो भगवान् अपने-आपको दे देते हैं।
||श्रीहरि:||
शरणागत भक्तको भगवान् कर्मयोग भी दे देते हैं और ज्ञानयोग भी। मुक्ति तो भगवान्ने पूतनाको भी दे दी थी। शरणागत भक्तको तो भगवान् अपने-आपको दे देते हैं।- स्वातिकी बूँदें १७
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स्वातिकी बूँदें १७··
शरणागत होनेपर फिर कुछ करना बाकी नहीं रहता। उसका काम शरण्यको करना पड़ता है; जैसे- बच्चा बीमार होता है तो दवा माँको खानी पड़ती है।
||श्रीहरि:||
शरणागत होनेपर फिर कुछ करना बाकी नहीं रहता। उसका काम शरण्यको करना पड़ता है; जैसे- बच्चा बीमार होता है तो दवा माँको खानी पड़ती है।- स्वातिकी बूँदें १०८
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स्वातिकी बूँदें १०८··
भगवान्की शरणागति स्वीकार कर लेनेपर फिर भक्तको किसी प्रकार सन्देह, परीक्षा, विपरीत भावना और कसौटी नहीं लगानी चाहिये।
||श्रीहरि:||
भगवान्की शरणागति स्वीकार कर लेनेपर फिर भक्तको किसी प्रकार सन्देह, परीक्षा, विपरीत भावना और कसौटी नहीं लगानी चाहिये।- अमृत-बिन्दु ५९६
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अमृत-बिन्दु ५९६··
शरणागति और प्रारब्ध - इन दोनोंका तात्पर्य चिन्ताको छोड़नेमें है, पुरुषार्थ ( शास्त्रोक्त कर्तव्य-कर्म ) - को छोड़ने में नहीं।
||श्रीहरि:||
शरणागति और प्रारब्ध - इन दोनोंका तात्पर्य चिन्ताको छोड़नेमें है, पुरुषार्थ ( शास्त्रोक्त कर्तव्य-कर्म ) - को छोड़ने में नहीं।- अमृत-बिन्दु ६०१
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अमृत-बिन्दु ६०१··
अपनेमें कुछ भी विशेषता दीखती है तो यह शरणागतिमें बाधक है।
||श्रीहरि:||
अपनेमें कुछ भी विशेषता दीखती है तो यह शरणागतिमें बाधक है।- अमृत-बिन्दु ६०६
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अमृत-बिन्दु ६०६··
शरणागति बहुत सुगम है, पर अभिमानी व्यक्तिके लिये बहुत कठिन है। मैं कुछ कर सकता हूँ — यह अभिमान जबतक रहेगा, तबतक शरण होना कठिन है।
||श्रीहरि:||
शरणागति बहुत सुगम है, पर अभिमानी व्यक्तिके लिये बहुत कठिन है। मैं कुछ कर सकता हूँ — यह अभिमान जबतक रहेगा, तबतक शरण होना कठिन है।- अमृत-बिन्दु ६०९
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अमृत-बिन्दु ६०९··
तटस्थ होकर देखा जाय तो परमात्मप्राप्तिके, तत्त्वज्ञानके, जीवन्मुक्त होनेके जितने उपाय हैं, उन सबसे बढ़िया उपाय भगवान्की शरणागति है।
||श्रीहरि:||
तटस्थ होकर देखा जाय तो परमात्मप्राप्तिके, तत्त्वज्ञानके, जीवन्मुक्त होनेके जितने उपाय हैं, उन सबसे बढ़िया उपाय भगवान्की शरणागति है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १७५
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १७५··
भक्त सर्वत्र परिपूर्ण भगवान्के शरणागत होकर अपने-आपको भी भगवान् में ही लीन कर देता है । फिर शरणागत नहीं रहता, केवल शरण्य रह जाते हैं। 'मैं' नहीं रहता, केवल भगवान् रह जाते हैं। यही असली शरणागति है।
||श्रीहरि:||
भक्त सर्वत्र परिपूर्ण भगवान्के शरणागत होकर अपने-आपको भी भगवान् में ही लीन कर देता है । फिर शरणागत नहीं रहता, केवल शरण्य रह जाते हैं। 'मैं' नहीं रहता, केवल भगवान् रह जाते हैं। यही असली शरणागति है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये २२२
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मानवमात्रके कल्याणके लिये २२२··
सब कुछ भगवान् ही हैं - यह वास्तविक ज्ञान है। ऐसे वास्तविक ज्ञानवाला महात्मा भक्त भगवान्के शरण हो जाता है अर्थात् अपना अस्तित्व ( मैंपन ) मिटाकर भगवान्में लीन हो जाता है। फिर मैंपन नहीं रहता अर्थात् प्रेमवाला नहीं रहता प्रत्युत केवल प्रेमस्वरूप भगवान् रह जाते हैं, जिनमें मैं- तू - यह वह चारों ही नहीं हैं। यही शरणागतिका वास्तविक स्वरूप है।
||श्रीहरि:||
सब कुछ भगवान् ही हैं - यह वास्तविक ज्ञान है। ऐसे वास्तविक ज्ञानवाला महात्मा भक्त भगवान्के शरण हो जाता है अर्थात् अपना अस्तित्व ( मैंपन ) मिटाकर भगवान्में लीन हो जाता है। फिर मैंपन नहीं रहता अर्थात् प्रेमवाला नहीं रहता प्रत्युत केवल प्रेमस्वरूप भगवान् रह जाते हैं, जिनमें मैं- तू - यह वह चारों ही नहीं हैं। यही शरणागतिका वास्तविक स्वरूप है।- साधक संजीवनी ७ । १९ परि०
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साधक संजीवनी ७ । १९ परि०··
वास्तवमें पूर्ण शरणागति भगवान् ही प्रदान करते हैं। जैसे छोटा बालक अपना हाथ ऊँचा करता है तो माँ उसको उठा लेती है, ऐसे ही भक्त अपनी शक्तिसे भगवान्के सम्मुख होता है, शरणागतिकी तैयारी करता है तो भगवान् उसको पूर्ण शरणागति दे देते हैं।
||श्रीहरि:||
वास्तवमें पूर्ण शरणागति भगवान् ही प्रदान करते हैं। जैसे छोटा बालक अपना हाथ ऊँचा करता है तो माँ उसको उठा लेती है, ऐसे ही भक्त अपनी शक्तिसे भगवान्के सम्मुख होता है, शरणागतिकी तैयारी करता है तो भगवान् उसको पूर्ण शरणागति दे देते हैं।- साधक संजीवनी १८ । ६६ परि०
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साधक संजीवनी १८ । ६६ परि०··
अगर मरणासन्न व्यक्ति सबका सहारा छोड़कर केवल भगवान्का सहारा ले ले, यह मान ले कि मेरा कुछ नहीं है, मेरे केवल भगवान् हैं तो वह मुक्त हो जायगा।
||श्रीहरि:||
अगर मरणासन्न व्यक्ति सबका सहारा छोड़कर केवल भगवान्का सहारा ले ले, यह मान ले कि मेरा कुछ नहीं है, मेरे केवल भगवान् हैं तो वह मुक्त हो जायगा।- पायो परम बिश्रामु ८७