Seeker of Truth

शान्ति

मेरे मनकी हो जाय इसको आदमी जबतक नहीं छोड़ेगा, तबतक उसको शान्ति नहीं मिलेगी; वह जलता रहेगा, दुःखी रहेगा, पराधीन रहेगा।

साधन-सुधा-सिन्धु ६९२··

ऐसा होना चाहिये, ऐसा नहीं होना चाहिये - यह अशान्तिका मन्त्र है। इससे अशान्ति - ही अशान्ति होगी, दुःख-ही-दुःख होगा।

स्वातिकी बूँदें ३०··

कामनाओंके रहते हुए कभी शान्ति नहीं मिल सकती-'स शान्तिमाप्नोति न कामकामी' ( गीता २ । ७० ) । अतः कामनाओंकी निवृत्ति ही परमशान्तिका उपाय है।

साधक संजीवनी १५५ वि०··

लेनेकी इच्छासे अशान्ति होती है, पतन होता है। त्यागसे तत्काल शान्ति मिलती है- 'त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्' (गीता १२ । १२)।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश २९··

जिसके भीतर कोई चाहना नहीं है, उसके पास कुछ भी नहीं हो तो भी उसके हृदयमें शान्ति होगी। परन्तु जिसके भीतर चाहना है, उसके पास लाखों-करोड़ों रुपये हों तो भी उसके भीतर अशान्ति रहेगी। उसे नींद लानेके लिये भी गोली लेनी पड़ेगी।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १२९··

नींदमें संसारको भूल जाते हैं तो शान्ति मिलती है, अगर त्याग कर दें तो कितनी शान्ति मिले।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १९८··

मूलमें असत्को सत्ता देनेसे अशान्ति होती है। नाशवान्‌में अपनापन अशान्ति देनेवाला है। अविनाशी में अपनापन भक्ति, प्रेम, ज्ञान, शान्ति देनेवाला है।

ज्ञानके दीप जले २११··

मनमें अशान्ति, हलचल आदि कब होते हैं? जब मनुष्य धन-सम्पत्ति, स्त्री- पुत्र आदि नाशवान् चीजोंका सहारा ले लेता है।

साधक संजीवनी १७ । १६··

जो अपने कर्तव्यके परायण नहीं रहता, उसको शान्ति नहीं मिल सकती। जैसे साधु, शिक्षक, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आदि यदि अपने-अपने कर्तव्यमें तत्पर नहीं रहते, तो उनको शान्ति नहीं मिलती। कारण कि अपने कर्तव्यके पालनमें दृढ़ता न रहनेसे ही अशान्ति पैदा होती है।

साधक संजीवनी २।६६ परि०··

जिसके मनमें भोग- पदार्थोंकी कामना है, जो पदार्थोंको ही महत्त्व देते हैं, जिनकी दृष्टि पदार्थोंकी तरफ ही है, उनको कितने ही सांसारिक भोग- पदार्थ मिल जायँ, तो भी उनकी तृप्ति नहीं हो सकती; उनकी कामना, जलन, सन्ताप नहीं मिट सकते; तो फिर उनको शान्ति कैसे मिल सकती है ? कारण कि चेतन स्वरूपकी तृप्ति जड़ पदार्थोंसे हो ही नहीं सकती।

साधक संजीवनी २।७०··

अपने कर्तव्यका पालन करनेसे दूसरोंको भी कर्तव्य पालनकी प्रेरणा मिलती है। इससे घरमें एकता और शान्ति स्वाभाविक आ जाती है।

साधक संजीवनी ४।३१··

मनुष्य परमशान्ति-स्वरूप परमात्मासे तो विमुख हो जाता है और सांसारिक वस्तुओंमें शान्ति ढूँढ़ता है । इसलिये अनेक जन्मोंतक शान्तिकी खोज में भटकते रहनेपर भी उसे शान्ति नहीं मिलती। उत्पत्ति - विनाशशील वस्तुओंमें शान्ति मिल ही कैसे सकती है ?

साधक संजीवनी ४।३९··

यह बात अनुभवसिद्ध है कि सांसारिक पदार्थोंकी कामना और ममताके त्यागसे शान्ति मिलती है । सुषुप्तिमें जब संसारकी विस्मृति हो जाती है, तब उसमें भी शान्तिका अनुभव होता है । यदि जाग्रत्में ही संसारका सम्बन्ध-विच्छेद ( कामना - ममताका त्याग ) हो जाय तो फिर कहना ही क्या है।

साधक संजीवनी ५ | १२··

संसारके सम्बन्ध-विच्छेदसे होनेवाली शान्ति सत्त्वगुणसे सम्बन्ध रखनेवाली सात्त्विकी शान्ति है। जबतक साधक इस शान्तिका भोग करता है और इस शान्तिसे 'मुझमें शान्ति है' इस प्रकार अपना सम्बन्ध मानता है, तबतक परिच्छिन्नता रहती है (गीता १४ । ६) और जबतक परिच्छिन्नता रहती है, तबतक अखण्ड एकरस रहनेवाली वास्तविक शान्तिका अनुभव नहीं होता।

साधक संजीवनी ५/१२··

चाहे सुखकी इच्छाका त्याग हो जाय, चाहे ममताका अभाव हो जाय और चाहे भगवान्‌में सच्ची आत्मीयता हो जाय इसके होते ही परमशान्तिका अनुभव हो जायगा।

साधक संजीवनी ५।२९··

भीतरमें जो स्वतःसिद्ध शान्ति है, वह अनुकूलतामें राजी होनेसे और प्रतिकूलतामें नाराज होनेसे भंग हो जाती है।

साधक संजीवनी ६ । ७··

संसारके सम्बन्धके कारण ही हर्ष - शोक, राग-द्वेष आदि द्वन्द्व होते हैं और इन्हीं द्वन्द्वोंके कारण शान्ति भंग होती है। जब ये द्वन्द्व मिट जाते हैं, तब स्वतः सिद्ध शान्ति प्रकट हो जाती है।

साधक संजीवनी ६ । १४··

संग्रह और भोगोंकी प्राप्तिके लिये यह ज्यों-ज्यों उद्योग करता है, त्यों-ही-त्यों इसमें अभाव, अशान्ति, दुःख, जलन, सन्ताप आदि बढ़ते चले जाते हैं।

साधक संजीवनी ११ | ३६··

अन्तःकरणमें राग-द्वेषजनित हलचलका न होना 'शान्ति' है; क्योंकि संसारके साथ राग-द्वेष करनेसे ही अन्तःकरण अशान्ति आती है और उनके न होनेसे अन्तःकरण स्वाभाविक ही शान्त प्रसन्न रहता है।

साधक संजीवनी १६ । २··

संसारके त्यागसे जो शान्ति मिलती है, वह स्वरूप अथवा साध्य नहीं है, प्रत्युत वह तो एक साधन है – 'योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ' ( गीता ६ । ३ ) । परन्तु परमात्माकी प्राप्तिसे जो शान्ति मिलती है, वह साध्य है अर्थात् परमात्माका स्वरूप है – 'शान्तिं निर्वाणपरमाम्' (गीता ६ । १५) । अब साधकको सावधानी यह रखनी है कि वह उस साधनजन्य शान्तिका भोग न करे। भोग न करनेसे स्वतः वास्तविकताकी अनुभूति हो जायगी और यदि भोग करेगा तो वहीं पर अटक जायगा।

साधक संजीवनी १८ । १३ टि०··

दीखता तो ऐसा है कि धन ज्यादा बढ़नेसे शान्ति बढ़ेगी, पर वास्तवमें अशान्ति ज्यादा बढ़ेगी। धन जितना कम होगा, उतनी शान्ति बढ़ेगी; पर कब ? लोभ नहीं हो तब भीतरमें लोभ होगा तो न धनीको शान्ति मिलेगी, न निर्धनको शान्ति मिलेगी।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ३०··

दूसरेके अहितकी भावना पैदा होते ही अपनी शान्ति नष्ट हो जाती है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश २३०··

संसार दुःखालय है। इसमें आप अरबों वर्षोंतक मेहनत करो तो भी कभी शान्ति मिलनेवाली है नहीं । जो चीज संसारमें है ही नहीं, वह मिलेगी कैसे ?

नये रास्ते, नयी दिशाएँ ४०··

चाहे साधु हो, चाहे गृहस्थ, भगवान्‌का आश्रय लिये बिना शान्ति नहीं मिलेगी।

अनन्तकी ओर १२०··

सच्चे हृदयसे रात-दिन भगवान्‌को 'हे नाथ। हे नाथ।' पुकारो। भगवान् के पीछे ही पड़ जाओ । आपकी अशान्ति मिटेगी, सच्ची बात है। आप भले ही जबर्दस्ती करके देखो, नकली करके देखो, पर 'हे नाथ। मैं आपको भूलूँ नहीं' - यह आठ पहर करके देखो तो सही । जरूर शान्ति मिलेगी।

अनन्तकी ओर १२१··

भगवान्‌को पुकारो कि 'हे नाथ। ऐसी कृपा करो कि मैं आपको भूलूँ नहीं'। इस प्रकार भगवान्से प्रार्थना करो तो शान्ति मिलेगी। कोई आफत आ जाय तो एकान्तमें बैठकर पन्द्रह-बीस मिनट, आधा घण्टा 'राम-राम-राम-राम' करो तो शान्ति मिलेगी। ज्यादा करोगे तो ज्यादा लाभ होगा। भक्तोंके चरित्र पढ़ो तो शान्ति मिलेगी।

अनन्तकी ओर १२३··

अगर शान्ति चाहते हो तो 'यों होना चाहिये, यों नहीं होना चाहिये' – इसको छोड़ दो और 'जो भगवान् चाहें, वही होना चाहिये' – इसको स्वीकार कर लो।

अमृत-बिन्दु १३७··

न्यायपूर्वक काम करनेवालेके चित्तमें शान्ति और अन्यायपूर्वक काम करनेवालेके चित्तमें अशान्ति रहती है।

अमृत-बिन्दु ९२९··

मेरा कुछ नहीं है, मेरेको कुछ नहीं चाहिये' – यह बात मान लो तो आप निहाल हो जाओगे । यह बहुत ऊँची और तत्काल शान्ति देनेवाली बात है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ११९··

जैसे वृक्षके मूलमें जल डालनेसे वृक्षके सम्पूर्ण अंग तृप्त हो जाते हैं, ऐसे ही एक भगवान्का भजन करनेसे त्रिलोकीको शान्ति मिलती है। इसके सिवाय ऐसी कोई औषधि, उपाय, अनुष्ठान नहीं है, जिससे संसारको शान्ति मिले।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १७७··

आप भगवान्‌के अंश हैं, यह बात मैं बार-बार कहूँगा । कारण कि आपको असली शान्ति, आनन्द देनेवाला भगवान्का सम्बन्ध ही है।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ १३०··