मनुष्यको भगवान्ने इतना बड़ा अधिकार दिया है कि वह जीव-जन्तुओंकी, मनुष्योंकी, ऋषि- मुनियोंकी, सन्त-महात्माओंकी, देवताओंकी, पितरोंकी, भूत-प्रेतोंकी, सबकी सेवा कर सकता है। और तो क्या, वह साक्षात् भगवान्की भी सेवा कर सकता है।
||श्रीहरि:||
मनुष्यको भगवान्ने इतना बड़ा अधिकार दिया है कि वह जीव-जन्तुओंकी, मनुष्योंकी, ऋषि- मुनियोंकी, सन्त-महात्माओंकी, देवताओंकी, पितरोंकी, भूत-प्रेतोंकी, सबकी सेवा कर सकता है। और तो क्या, वह साक्षात् भगवान्की भी सेवा कर सकता है।- अमृत-बिन्दु ८४७
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अमृत-बिन्दु ८४७··
शरीर-मन-वाणी से संयम करना त्रिलोकीकी सेवा है। वस्तुओंसे उपकार करना समाजकी सेवा है । समाजकी सेवा करके फल न चाहना अपनी सेवा है। आप कुछ चाहेंगे तो आप तत्त्वसे अलग होंगे। अतः कुछ न चाहना आपकी अपनी सेवा है। भगवान्को याद करना, उनका आश्रय लेना भगवान्की सेवा है । संसारकी सेवा समाजकी सेवा, अपनी सेवा और भगवान्की सेवासे परमात्माकी प्राप्ति होती है।
||श्रीहरि:||
शरीर-मन-वाणी से संयम करना त्रिलोकीकी सेवा है। वस्तुओंसे उपकार करना समाजकी सेवा है । समाजकी सेवा करके फल न चाहना अपनी सेवा है। आप कुछ चाहेंगे तो आप तत्त्वसे अलग होंगे। अतः कुछ न चाहना आपकी अपनी सेवा है। भगवान्को याद करना, उनका आश्रय लेना भगवान्की सेवा है । संसारकी सेवा समाजकी सेवा, अपनी सेवा और भगवान्की सेवासे परमात्माकी प्राप्ति होती है।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ ३५
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ ३५··
शरीरको भोगी, आलसी, अकर्मण्य नहीं बनने देना 'स्थूलशरीर' की सेवा है। विषयोंका चिन्तन न करना, सबके सुख और हितका चिन्तन करना 'सूक्ष्मशरीर' की सेवा है। समाधि लगाना, अपने सिद्धान्तपर अचलरूपसे दृढ़ रहना, अपने कल्याणके निश्चयसे विचलित न होना 'कारणशरीर' की सेवा है। स्थूलशरीरसे होनेवाली क्रिया, सूक्ष्मशरीरसे होनेवाला चिन्तन और कारणशरीरसे होनेवाली स्थिरता - तीनोंको ही 'अपना' और 'अपने लिये' न मानना उनकी सेवा है।
||श्रीहरि:||
शरीरको भोगी, आलसी, अकर्मण्य नहीं बनने देना 'स्थूलशरीर' की सेवा है। विषयोंका चिन्तन न करना, सबके सुख और हितका चिन्तन करना 'सूक्ष्मशरीर' की सेवा है। समाधि लगाना, अपने सिद्धान्तपर अचलरूपसे दृढ़ रहना, अपने कल्याणके निश्चयसे विचलित न होना 'कारणशरीर' की सेवा है। स्थूलशरीरसे होनेवाली क्रिया, सूक्ष्मशरीरसे होनेवाला चिन्तन और कारणशरीरसे होनेवाली स्थिरता - तीनोंको ही 'अपना' और 'अपने लिये' न मानना उनकी सेवा है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये १६९- १७०
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मानवमात्रके कल्याणके लिये १६९- १७०··
भलाई करनेसे समाजकी सेवा होती है। बुराई - रहित होनेसे विश्वमात्रकी सेवा होती है। कामना- रहित होनेसे अपनी सेवा होती है। भगवान्से प्रेम (अपनापन) करनेसे भगवान्की सेवा होती है।
||श्रीहरि:||
भलाई करनेसे समाजकी सेवा होती है। बुराई - रहित होनेसे विश्वमात्रकी सेवा होती है। कामना- रहित होनेसे अपनी सेवा होती है। भगवान्से प्रेम (अपनापन) करनेसे भगवान्की सेवा होती है।- अमृत-बिन्दु ८६०
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अमृत-बिन्दु ८६०··
जो किसीको दुःख नहीं देता, उसके द्वारा दूसरोंकी सेवा शुरू हो गयी।
||श्रीहरि:||
जो किसीको दुःख नहीं देता, उसके द्वारा दूसरोंकी सेवा शुरू हो गयी।- सत्संगके फूल ९१
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सत्संगके फूल ९१··
दूसरेके दुःखसे दुःखी होना सबसे ऊँची सेवा है और गोपनीय सेवा है, सेवाका मूल है। दूसरेके दुःखसे दुःखी हो जायँ तो आपके पास जो वस्तु है, वह दूसरेकी सेवामें लग जायगी ...... एक मार्मिक बात है कि आपके पास कुछ नहीं हो और आप दूसरेके दुःखसे सच्चे हृदयसे दुःखी हो जायँ तो वह दुःख भगवान्को हो जायगा । उसके दुःख-नाशका उपाय भगवान् करेंगे।
||श्रीहरि:||
दूसरेके दुःखसे दुःखी होना सबसे ऊँची सेवा है और गोपनीय सेवा है, सेवाका मूल है। दूसरेके दुःखसे दुःखी हो जायँ तो आपके पास जो वस्तु है, वह दूसरेकी सेवामें लग जायगी ...... एक मार्मिक बात है कि आपके पास कुछ नहीं हो और आप दूसरेके दुःखसे सच्चे हृदयसे दुःखी हो जायँ तो वह दुःख भगवान्को हो जायगा । उसके दुःख-नाशका उपाय भगवान् करेंगे।- सत्संगके फूल १७३
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सत्संगके फूल १७३··
दूसरोंकी सेवा अपनी शक्तिके अनुसार करनी है। हमारे पास जितना समय है, जितनी समझ है, जितनी सामर्थ्य है, जितनी सामग्री है, उतनेसे ही दूसरोंकी सेवा करनी है। इससे अधिककी हमारेपर जिम्मेवारी ही नहीं है, और दूसरे हमारेसे आशा भी नहीं रखते। मालपर जगात और इन्कमपर टैक्स लगता है। माल नहीं हो तो जगात किस बातकी? इन्कम नहीं तो टैक्स किस बातका ?
||श्रीहरि:||
दूसरोंकी सेवा अपनी शक्तिके अनुसार करनी है। हमारे पास जितना समय है, जितनी समझ है, जितनी सामर्थ्य है, जितनी सामग्री है, उतनेसे ही दूसरोंकी सेवा करनी है। इससे अधिककी हमारेपर जिम्मेवारी ही नहीं है, और दूसरे हमारेसे आशा भी नहीं रखते। मालपर जगात और इन्कमपर टैक्स लगता है। माल नहीं हो तो जगात किस बातकी? इन्कम नहीं तो टैक्स किस बातका ?- साधन-सुधा-सिन्धु २२५
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साधन-सुधा-सिन्धु २२५··
दूसरेका बुरा करनेवाला, बुरा समझनेवाला अथवा बुरा चाहनेवाला दूसरेपर शासन तो कर सकता है, पर सेवा नहीं कर सकता।
||श्रीहरि:||
दूसरेका बुरा करनेवाला, बुरा समझनेवाला अथवा बुरा चाहनेवाला दूसरेपर शासन तो कर सकता है, पर सेवा नहीं कर सकता।- मानवमात्रके कल्याणके लिये ४२
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मानवमात्रके कल्याणके लिये ४२··
बुराईका त्याग होनेपर दूसरोंकी जो सेवा होती है, वह बड़े-से-बड़े दान - पुण्यसे भी नहीं हो सकती। इसलिये बुराईका त्याग भलाईका मूल है।
||श्रीहरि:||
बुराईका त्याग होनेपर दूसरोंकी जो सेवा होती है, वह बड़े-से-बड़े दान - पुण्यसे भी नहीं हो सकती। इसलिये बुराईका त्याग भलाईका मूल है।- साधक संजीवनी १२।३-४ परि०
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साधक संजीवनी १२।३-४ परि०··
शरीरसे जप, ध्यान, पूजन, तीर्थ, व्रत आदि जो कुछ भी किया जाय, वह इस भावसे किया जाय कि दूसरोंका हित हो। अपने लिये कुछ भी करना भोग है, योग नहीं।
||श्रीहरि:||
शरीरसे जप, ध्यान, पूजन, तीर्थ, व्रत आदि जो कुछ भी किया जाय, वह इस भावसे किया जाय कि दूसरोंका हित हो। अपने लिये कुछ भी करना भोग है, योग नहीं।- मानवमात्रके कल्याणके लिये ११०
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मानवमात्रके कल्याणके लिये ११०··
जो सुख चाहता है, वह सेवक नहीं होता।
||श्रीहरि:||
जो सुख चाहता है, वह सेवक नहीं होता।- मानवमात्रके कल्याणके लिये १६८
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मानवमात्रके कल्याणके लिये १६८··
सुख - आराममें आसक्ति होनेसे ही सेवा कठिन दीखती है। अपने सुख-आरामका त्याग करें तो सेवा कठिन नहीं है; क्योंकि सेवा करनेकी सब सामग्री संसारकी ही है, अपनी नहीं । उस सामग्रीको अपने सुखमें लगानेसे सेवा नहीं होती।
||श्रीहरि:||
सुख - आराममें आसक्ति होनेसे ही सेवा कठिन दीखती है। अपने सुख-आरामका त्याग करें तो सेवा कठिन नहीं है; क्योंकि सेवा करनेकी सब सामग्री संसारकी ही है, अपनी नहीं । उस सामग्रीको अपने सुखमें लगानेसे सेवा नहीं होती।- प्रश्नोत्तरमणिमाला ३९०
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प्रश्नोत्तरमणिमाला ३९०··
भोग और संग्रहकी इच्छावाला मनुष्य कभी सेवा नहीं कर सकता। वह लेता अधिक है, देता कम है।
||श्रीहरि:||
भोग और संग्रहकी इच्छावाला मनुष्य कभी सेवा नहीं कर सकता। वह लेता अधिक है, देता कम है।- ज्ञानके दीप जले ५०
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ज्ञानके दीप जले ५०··
सच्चे हृदयसे दूसरोंकी सेवा करनेसे, जिसकी वह सेवा करता है, उस ( सेव्य ) - के हृदयमें भी सेवाभाव जाग्रत् होता है - यह नियम है।...... यदि सेव्यके हृदयमें सेवाभाव जाग्रत् न हो, तो साधकको समझ लेना चाहिये कि सेवा करनेमें कोई त्रुटि ( अपने लिये कुछ पाने या लेनेकी इच्छा ) है।
||श्रीहरि:||
सच्चे हृदयसे दूसरोंकी सेवा करनेसे, जिसकी वह सेवा करता है, उस ( सेव्य ) - के हृदयमें भी सेवाभाव जाग्रत् होता है - यह नियम है।...... यदि सेव्यके हृदयमें सेवाभाव जाग्रत् न हो, तो साधकको समझ लेना चाहिये कि सेवा करनेमें कोई त्रुटि ( अपने लिये कुछ पाने या लेनेकी इच्छा ) है।- साधक संजीवनी ३ | ३४ मा०
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साधक संजीवनी ३ | ३४ मा०··
संसारके साथ ममता तोड़नेका बहुत बढ़िया उपाय है- सेवा करना । सेवा करनेसे व्यवहार भी बढ़िया होगा और ममता भी टूट जायगी।
||श्रीहरि:||
संसारके साथ ममता तोड़नेका बहुत बढ़िया उपाय है- सेवा करना । सेवा करनेसे व्यवहार भी बढ़िया होगा और ममता भी टूट जायगी।- ज्ञानके दीप जले ७९
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ज्ञानके दीप जले ७९··
दूसरोंके साथ केवल सेवाका सम्बन्ध रखनेका परिणाम है- सम्बन्ध-विच्छेद । चाहे मैं - मेराका सम्बन्ध न रखे, चाहे सेवाका सम्बन्ध रखे, दोनोंका परिणाम एक ही है- सम्बन्ध-विच्छेद।
||श्रीहरि:||
दूसरोंके साथ केवल सेवाका सम्बन्ध रखनेका परिणाम है- सम्बन्ध-विच्छेद । चाहे मैं - मेराका सम्बन्ध न रखे, चाहे सेवाका सम्बन्ध रखे, दोनोंका परिणाम एक ही है- सम्बन्ध-विच्छेद।- सत्संगके फूल १३५
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सत्संगके फूल १३५··
साधकोंके मनमें प्रायः ऐसी भावना पैदा हो जाती है कि अगर हम संसारकी सेवा करेंगे तो उसमें हमारी आसक्ति हो जायगी और हम संसारमें फँस जायँगे । परन्तु भगवान् के वचनोंसे यह सिद्ध होता है कि फँसनेका कारण सेवा नहीं है, प्रत्युत अपने लिये कुछ भी लेनेका भाव ही है।
||श्रीहरि:||
साधकोंके मनमें प्रायः ऐसी भावना पैदा हो जाती है कि अगर हम संसारकी सेवा करेंगे तो उसमें हमारी आसक्ति हो जायगी और हम संसारमें फँस जायँगे । परन्तु भगवान् के वचनोंसे यह सिद्ध होता है कि फँसनेका कारण सेवा नहीं है, प्रत्युत अपने लिये कुछ भी लेनेका भाव ही है।- साधक संजीवनी ३ । १२
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साधक संजीवनी ३ । १२··
कोई गलती करता हुआ दीखे तो उसे भगवत्स्वरूप मानते हुए मन-ही-मन भगवान् से कहो कि 'हे नाथ। आप ऐसा न करते तो अच्छा था। यह उसकी गुप्त सेवा हो गयी। इसका उसपर स्वतः असर पड़ेगा।
||श्रीहरि:||
कोई गलती करता हुआ दीखे तो उसे भगवत्स्वरूप मानते हुए मन-ही-मन भगवान् से कहो कि 'हे नाथ। आप ऐसा न करते तो अच्छा था। यह उसकी गुप्त सेवा हो गयी। इसका उसपर स्वतः असर पड़ेगा।- सागरके मोती ३९
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सागरके मोती ३९··
दूसरेका सुधार नहीं, सेवा करनी है। बुराई उपदेशसे नहीं मिटती, आचरण (सेवा) - से मिटती है।
||श्रीहरि:||
दूसरेका सुधार नहीं, सेवा करनी है। बुराई उपदेशसे नहीं मिटती, आचरण (सेवा) - से मिटती है।- सागरके मोती १२३
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सागरके मोती १२३··
वास्तवमें असली सेवा त्यागीके द्वारा ही होती है अर्थात् भोग और संग्रहकी इच्छा सर्वथा मिटनेसे ही असली सेवा होती है, अन्यथा नकली सेवा होती है । परन्तु उद्देश्य असली ( सबके हितका ) होनेसे नकली सेवा भी असलीमें बदल जाती है।
||श्रीहरि:||
वास्तवमें असली सेवा त्यागीके द्वारा ही होती है अर्थात् भोग और संग्रहकी इच्छा सर्वथा मिटनेसे ही असली सेवा होती है, अन्यथा नकली सेवा होती है । परन्तु उद्देश्य असली ( सबके हितका ) होनेसे नकली सेवा भी असलीमें बदल जाती है।- साधक संजीवनी २।४४ टि०
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साधक संजीवनी २।४४ टि०··
वस्तुतः सेवा करनेवाला व्यक्ति सेव्यकी वस्तु ही सेव्यको देता है। जैसे माँका दूध उसके अपने लिये न होकर बच्चेके लिये ही है, ऐसे ही मनुष्यके पास जितनी भी सामग्री है, वह उसके अपने लिये न होकर दूसरोंके लिये ही है।
||श्रीहरि:||
वस्तुतः सेवा करनेवाला व्यक्ति सेव्यकी वस्तु ही सेव्यको देता है। जैसे माँका दूध उसके अपने लिये न होकर बच्चेके लिये ही है, ऐसे ही मनुष्यके पास जितनी भी सामग्री है, वह उसके अपने लिये न होकर दूसरोंके लिये ही है।- साधक संजीवनी ३।१२
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साधक संजीवनी ३।१२··
संसारके सभी सम्बन्धी एक-दूसरेकी सेवा (हित) करनेके लिये ही हैं।
||श्रीहरि:||
संसारके सभी सम्बन्धी एक-दूसरेकी सेवा (हित) करनेके लिये ही हैं।- साधक संजीवनी ३ । २३-२४
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साधक संजीवनी ३ । २३-२४··
सांसारिक पदार्थोंको संसारकी सेवामें लगाकर कोई दान-पुण्य नहीं करना है, प्रत्युत उन पदार्थोंसे अपना पिण्ड छुड़ाना है।
||श्रीहरि:||
सांसारिक पदार्थोंको संसारकी सेवामें लगाकर कोई दान-पुण्य नहीं करना है, प्रत्युत उन पदार्थोंसे अपना पिण्ड छुड़ाना है।- साधक संजीवनी ३ । २५ वि०
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साधक संजीवनी ३ । २५ वि०··
निष्कामभावपूर्वक संसारकी सेवा करना राग-द्वेषको मिटानेका अचूक उपाय है। अपने पास स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीरसे लेकर माने हुए 'अहम्' तक जो कुछ है, उसे संसारकी ही सेवा में लगा देना है। कारण कि ये सब पदार्थ तत्त्वतः संसारसे अभिन्न हैं। इनको संसारसे भिन्न (अपना) मानना ही बन्धन है।
||श्रीहरि:||
निष्कामभावपूर्वक संसारकी सेवा करना राग-द्वेषको मिटानेका अचूक उपाय है। अपने पास स्थूल, सूक्ष्म और कारण-शरीरसे लेकर माने हुए 'अहम्' तक जो कुछ है, उसे संसारकी ही सेवा में लगा देना है। कारण कि ये सब पदार्थ तत्त्वतः संसारसे अभिन्न हैं। इनको संसारसे भिन्न (अपना) मानना ही बन्धन है।- साधक संजीवनी ३ । ३४
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साधक संजीवनी ३ । ३४··
सेवा करनेका अर्थ है - सुख पहुँचाना। साधकका भाव 'मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत् ' ( किसीको किंचिन्मात्र भी दुःख न हो ) होनेसे वह सभीको सुख पहुँचाता है अर्थात् सभीकी सेवा करता है ....... सेवा करनेमें धनादि पदार्थोंकी आवश्यकता नहीं है, प्रत्युत सेवा भावकी ही आवश्यकता है।
||श्रीहरि:||
सेवा करनेका अर्थ है - सुख पहुँचाना। साधकका भाव 'मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत् ' ( किसीको किंचिन्मात्र भी दुःख न हो ) होनेसे वह सभीको सुख पहुँचाता है अर्थात् सभीकी सेवा करता है ....... सेवा करनेमें धनादि पदार्थोंकी आवश्यकता नहीं है, प्रत्युत सेवा भावकी ही आवश्यकता है।- साधक संजीवनी ३ | ३४
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साधक संजीवनी ३ | ३४··
सेवा वही कर सकता है, जो अपने लिये कभी कुछ नहीं चाहता। सेवा करनेके लिये धनादि पदार्थोंकी चाह तो कामना है ही, सेवा करनेकी चाह भी कामना ही है; क्योंकि सेवाकी चाह होनेसे ही धनादि पदार्थोंकी कामना होती है। इसलिये अवसर प्राप्त हो और योग्यता हो तो सेवा कर देनी चाहिये, पर सेवाकी कामना नहीं करनी चाहिये।
||श्रीहरि:||
सेवा वही कर सकता है, जो अपने लिये कभी कुछ नहीं चाहता। सेवा करनेके लिये धनादि पदार्थोंकी चाह तो कामना है ही, सेवा करनेकी चाह भी कामना ही है; क्योंकि सेवाकी चाह होनेसे ही धनादि पदार्थोंकी कामना होती है। इसलिये अवसर प्राप्त हो और योग्यता हो तो सेवा कर देनी चाहिये, पर सेवाकी कामना नहीं करनी चाहिये।- साधक संजीवनी ३ । ३४ मा०
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साधक संजीवनी ३ । ३४ मा०··
वास्तवमें सेवा भावसे होती है, वस्तुओंसे नहीं । वस्तुओंसे कर्म होते हैं, सेवा नहीं । अतः वस्तुओंको दे देना ही सेवा नहीं है।
||श्रीहरि:||
वास्तवमें सेवा भावसे होती है, वस्तुओंसे नहीं । वस्तुओंसे कर्म होते हैं, सेवा नहीं । अतः वस्तुओंको दे देना ही सेवा नहीं है।- साधक संजीवनी ३ | ३४ मा०
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साधक संजीवनी ३ | ३४ मा०··
जिसके भीतर स्वार्थका भाव है, वह दूसरेका हित, सेवा नहीं कर सकता - यह अकाट्य सिद्धान्त है । वह हितका स्वाँग (नाटक) कर सकता है, हितकी बातें कह सकता है, पर हित नहीं कर सकता।
||श्रीहरि:||
जिसके भीतर स्वार्थका भाव है, वह दूसरेका हित, सेवा नहीं कर सकता - यह अकाट्य सिद्धान्त है । वह हितका स्वाँग (नाटक) कर सकता है, हितकी बातें कह सकता है, पर हित नहीं कर सकता।- अनन्तकी ओर ११०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
अनन्तकी ओर ११०··
मनुष्य सेवाके द्वारा पशु-पक्षीसे लेकर मनुष्य, देवता, पितर, ऋषि, सन्त महात्मा और भगवान्तकको अपने वशमें कर सकता है।
||श्रीहरि:||
मनुष्य सेवाके द्वारा पशु-पक्षीसे लेकर मनुष्य, देवता, पितर, ऋषि, सन्त महात्मा और भगवान्तकको अपने वशमें कर सकता है।- साधक संजीवनी ४।२
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ४।२··
सबसे ऊँची सेवा है- किसीको दुःख न देना।
||श्रीहरि:||
सबसे ऊँची सेवा है- किसीको दुःख न देना।- स्वातिकी बूँदें १०२
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
स्वातिकी बूँदें १०२··
सेवा करनेकी अपेक्षा भी किसीको दुःख न देना श्रेष्ठ है। किसीको दुःख न देनेसे, किसीका भी अहित न करनेसे सेवा अपने आप होने लगती है, करनी नहीं पड़ती। अपने-आप होनेवाली क्रियाका अभिमान नहीं होता और उसके फलकी इच्छा भी नहीं होती। अभिमान और फलेच्छाका त्याग होनेपर हमें वह वस्तु मिल जाती है, जो वास्तवमें हमारी है।
||श्रीहरि:||
सेवा करनेकी अपेक्षा भी किसीको दुःख न देना श्रेष्ठ है। किसीको दुःख न देनेसे, किसीका भी अहित न करनेसे सेवा अपने आप होने लगती है, करनी नहीं पड़ती। अपने-आप होनेवाली क्रियाका अभिमान नहीं होता और उसके फलकी इच्छा भी नहीं होती। अभिमान और फलेच्छाका त्याग होनेपर हमें वह वस्तु मिल जाती है, जो वास्तवमें हमारी है।- साधक संजीवनी ७।५ परि०
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साधक संजीवनी ७।५ परि०··
उपकार करनेकी उतनी महिमा नहीं है, जितनी अनुपकार न करनेकी महिमा है। आप दूसरोंकी सेवामें करोड़ रुपये खर्च करो तो उससे दुनियामात्रकी सेवा नहीं होगी, पर किसीको भी दुःख मत दो तो दुनियामात्रकी सेवा होगी। कारण कि करोड़ रुपये खर्च करनेपर भी सीमित सेवा होगी, पर किसीको दुःख न देनेसे असीम सेवा होगी।
||श्रीहरि:||
उपकार करनेकी उतनी महिमा नहीं है, जितनी अनुपकार न करनेकी महिमा है। आप दूसरोंकी सेवामें करोड़ रुपये खर्च करो तो उससे दुनियामात्रकी सेवा नहीं होगी, पर किसीको भी दुःख मत दो तो दुनियामात्रकी सेवा होगी। कारण कि करोड़ रुपये खर्च करनेपर भी सीमित सेवा होगी, पर किसीको दुःख न देनेसे असीम सेवा होगी।- अनन्तकी ओर ८५-८६
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अनन्तकी ओर ८५-८६··
शरीर, पदार्थ और क्रियासे जो सेवाकी जाती है, वह सीमित ही होती है; क्योंकि सम्पूर्ण पदार्थ और क्रियाएँ मिलकर भी सीमित ही हैं। परन्तु सेवामें प्राणिमात्रके हितका भाव असीम होनेसे सेवा भी असीम हो जाती है।........ असीम परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिके लिये प्राणिमात्रके हितमें रति अर्थात् प्रीतिरूप असीम भावका होना आवश्यक है।
||श्रीहरि:||
शरीर, पदार्थ और क्रियासे जो सेवाकी जाती है, वह सीमित ही होती है; क्योंकि सम्पूर्ण पदार्थ और क्रियाएँ मिलकर भी सीमित ही हैं। परन्तु सेवामें प्राणिमात्रके हितका भाव असीम होनेसे सेवा भी असीम हो जाती है।........ असीम परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिके लिये प्राणिमात्रके हितमें रति अर्थात् प्रीतिरूप असीम भावका होना आवश्यक है।- साधक संजीवनी १२।३-४
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साधक संजीवनी १२।३-४··
सेवा तभी हो सकती है, जब सेवक जिसकी सेवा करता है, उसे अपनेसे अभिन्न ( अपने शरीरकी तरह) मानता है और बदलेमें उससे कुछ भी लेना नहीं चाहता।
||श्रीहरि:||
सेवा तभी हो सकती है, जब सेवक जिसकी सेवा करता है, उसे अपनेसे अभिन्न ( अपने शरीरकी तरह) मानता है और बदलेमें उससे कुछ भी लेना नहीं चाहता।- साधक संजीवनी १२ । ३-४
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साधक संजीवनी १२ । ३-४··
मनुष्यको शरीरादि नाशवान् पदार्थ अधिकार करने अथवा अपना माननेके लिये नहीं मिले हैं, प्रत्युत सेवा करनेके लिये ही मिले हैं। इन पदार्थोंके द्वारा दूसरोंकी सेवा करनेकी ही मनुष्यपर जिम्मेवारी है, अपना माननेकी बिलकुल जिम्मेवारी नहीं।
||श्रीहरि:||
मनुष्यको शरीरादि नाशवान् पदार्थ अधिकार करने अथवा अपना माननेके लिये नहीं मिले हैं, प्रत्युत सेवा करनेके लिये ही मिले हैं। इन पदार्थोंके द्वारा दूसरोंकी सेवा करनेकी ही मनुष्यपर जिम्मेवारी है, अपना माननेकी बिलकुल जिम्मेवारी नहीं।- साधक संजीवनी १५ । १८ वि०
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साधक संजीवनी १५ । १८ वि०··
मालिककी सुख-सुविधाकी सामग्री जुटा देना, मालिकके दैनिक कार्योंमें अनुकूलता उपस्थित कर देना आदि कार्य तो वेतन लेनेवाला नौकर भी कर सकता है और करता भी है । परन्तु उसमें 'क्रिया' की ( कि इतना काम करना है) और समयकी ( कि इतने घण्टे काम करना है) प्रधानता रहती है। इसलिये वह काम-धन्धा 'सेवा' नहीं बन पाता। यदि मालिकका वह काम-धन्धा आदरपूर्वक सेव्यबुद्धिसे, महत्त्वबुद्धिसे किया जाय तो वह 'सेवा' हो जाता है।
||श्रीहरि:||
मालिककी सुख-सुविधाकी सामग्री जुटा देना, मालिकके दैनिक कार्योंमें अनुकूलता उपस्थित कर देना आदि कार्य तो वेतन लेनेवाला नौकर भी कर सकता है और करता भी है । परन्तु उसमें 'क्रिया' की ( कि इतना काम करना है) और समयकी ( कि इतने घण्टे काम करना है) प्रधानता रहती है। इसलिये वह काम-धन्धा 'सेवा' नहीं बन पाता। यदि मालिकका वह काम-धन्धा आदरपूर्वक सेव्यबुद्धिसे, महत्त्वबुद्धिसे किया जाय तो वह 'सेवा' हो जाता है।- साधक संजीवनी १८ । ४५ वि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी १८ । ४५ वि०··
दूसरोंकी सेवामें रुपये खर्च करना ज्यादा ऊँची बात नहीं है। यह तो एक टैक्स है। टैक्स देना दण्ड है, कोई ऊँची बात नहीं है। आपने रुपया इकट्ठा किया है तो टैक्स दो, दूसरोंकी सेवा करो।
||श्रीहरि:||
दूसरोंकी सेवामें रुपये खर्च करना ज्यादा ऊँची बात नहीं है। यह तो एक टैक्स है। टैक्स देना दण्ड है, कोई ऊँची बात नहीं है। आपने रुपया इकट्ठा किया है तो टैक्स दो, दूसरोंकी सेवा करो।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १०··
सेवा करनेमें जो परिश्रम होता है, उससे 'अहंता' कम होगी और वस्तु देनेसे 'ममता' कम होगी। सेवा करनेसे आपसमें प्रेम बढ़ेगा। जहाँ आपसमें प्रेम बढ़ता है, वहाँ लक्ष्मी बढ़ती है और जहाँ आपसमें कलह होती है, वहाँ लक्ष्मी नष्ट हो जाती है। इस तरह सेवा करनेसे लौकिक और पारलौकिक दोनों लाभ हैं।
||श्रीहरि:||
सेवा करनेमें जो परिश्रम होता है, उससे 'अहंता' कम होगी और वस्तु देनेसे 'ममता' कम होगी। सेवा करनेसे आपसमें प्रेम बढ़ेगा। जहाँ आपसमें प्रेम बढ़ता है, वहाँ लक्ष्मी बढ़ती है और जहाँ आपसमें कलह होती है, वहाँ लक्ष्मी नष्ट हो जाती है। इस तरह सेवा करनेसे लौकिक और पारलौकिक दोनों लाभ हैं।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १३३ - १३४
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १३३ - १३४··
घरमें रहनेवाले सभी प्राणी अपनेको सेवक और दूसरेको सेव्य समझें तो सेवा भी सबकी हो जायगी और कल्याण भी सबका हो जायगा।
||श्रीहरि:||
घरमें रहनेवाले सभी प्राणी अपनेको सेवक और दूसरेको सेव्य समझें तो सेवा भी सबकी हो जायगी और कल्याण भी सबका हो जायगा।- स्वातिकी बूँदें ११८
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
स्वातिकी बूँदें ११८··
घरवालोंकी सेवा करना एक नम्बर है, बाहरकी सेवा करना दो नम्बर है। इसलिये कम-से- कम पहले कर्जा उतारो। जिन्होंने शरीर दिया है, शिक्षा दी है, खर्चा किया है, उनको न मानकर बाहर जाकर सेवा करते हैं - यह बिलकुल अन्याय है। घरमें माँ-बाप बीमार हैं और चले हैं दुनियाकी सेवा करने। इसलिये पहले घरवालोंकी सेवा करके कर्जा उतारो, पीछे उपकार करो। उनकी आज्ञा लेकर बाहर जाओ।
||श्रीहरि:||
घरवालोंकी सेवा करना एक नम्बर है, बाहरकी सेवा करना दो नम्बर है। इसलिये कम-से- कम पहले कर्जा उतारो। जिन्होंने शरीर दिया है, शिक्षा दी है, खर्चा किया है, उनको न मानकर बाहर जाकर सेवा करते हैं - यह बिलकुल अन्याय है। घरमें माँ-बाप बीमार हैं और चले हैं दुनियाकी सेवा करने। इसलिये पहले घरवालोंकी सेवा करके कर्जा उतारो, पीछे उपकार करो। उनकी आज्ञा लेकर बाहर जाओ।- अनन्तकी ओर ३४
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अनन्तकी ओर ३४··
जिन माँ-बापसे मनुष्यजन्म पाया है, उनकी तो सेवा करते नहीं, पर दुनियाकी सेवा करते हो - यह पाप है पाप।
||श्रीहरि:||
जिन माँ-बापसे मनुष्यजन्म पाया है, उनकी तो सेवा करते नहीं, पर दुनियाकी सेवा करते हो - यह पाप है पाप।- अनन्तकी ओर ३३
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अनन्तकी ओर ३३··
किसीसे कुछ भी लेनेकी इच्छा न रखना आपकी अपनी सेवा है।
||श्रीहरि:||
किसीसे कुछ भी लेनेकी इच्छा न रखना आपकी अपनी सेवा है।- अनन्तकी ओर ८९
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अनन्तकी ओर ८९··
संसार हमारे काम आ जाय - यह गलती है। हमारे द्वारा संसारकी सेवा हो जाय - यह सही है। संसार बड़ा है, शरीर छोटा है। छोटा ही बड़ेके आश्रित होता है। अतः शरीर संसारकी सेवाके लिये है, संसार शरीरकी सेवाके लिये नहीं है।
||श्रीहरि:||
संसार हमारे काम आ जाय - यह गलती है। हमारे द्वारा संसारकी सेवा हो जाय - यह सही है। संसार बड़ा है, शरीर छोटा है। छोटा ही बड़ेके आश्रित होता है। अतः शरीर संसारकी सेवाके लिये है, संसार शरीरकी सेवाके लिये नहीं है।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ २५
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ २५··
दूसरोंकी सेवा करनेमें तो लाभ है, पर उनको अपना माननेमें नुकसान है। सेवाके लिये भी सम्बन्ध जोड़ोगे तो दुःख पाओगे । सेवा कर दो, पर सम्बन्ध मत जोड़ो।
||श्रीहरि:||
दूसरोंकी सेवा करनेमें तो लाभ है, पर उनको अपना माननेमें नुकसान है। सेवाके लिये भी सम्बन्ध जोड़ोगे तो दुःख पाओगे । सेवा कर दो, पर सम्बन्ध मत जोड़ो।- अनन्तकी ओर १२३
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अनन्तकी ओर १२३··
सेवा हरेककी करो, पर अपना किसीको मत मानो अपना मानकर सेवा करोगे तो वह सेवा रद्दी हो जायगी।
||श्रीहरि:||
सेवा हरेककी करो, पर अपना किसीको मत मानो अपना मानकर सेवा करोगे तो वह सेवा रद्दी हो जायगी।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १३३
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १३३··
जिसकी सेवा करते हो, उससे अपनापन हटा लो अथवा जिसको अपना नहीं मानते, उसकी सेवा करो - दोनोंका फल बराबर है।
||श्रीहरि:||
जिसकी सेवा करते हो, उससे अपनापन हटा लो अथवा जिसको अपना नहीं मानते, उसकी सेवा करो - दोनोंका फल बराबर है।- सागरके मोती ७
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सागरके मोती ७··
संसारकी सेवा करनेका फल मुक्ति है । परन्तु संसारको अपना मानोगे तो सेवा नहीं होगी। कुटुम्बको अपना मानोगे तो परिवारकी सेवा नहीं होगी। परिवारको अपना मानोगे तो गाँवकी सेवा नहीं होगी। गाँवको अपना मानोगे तो प्रान्तकी सेवा नहीं होगी। प्रान्तको अपना मानोगे तो देशकी सेवा नहीं होगी । देशको अपना मानोगे तो विदेशकी सेवा नहीं होगी। विदेशको अपना मानोगे तो त्रिलोकीकी सेवा नहीं होगी। परन्तु किसीको भी अपना नहीं मानोगे तो सबकी सेवा होगी। तात्पर्य है कि किसीको अपना मानना सेवामें बाधक है। सेवा वही कर सकता है, जो किसीको भी अपना नहीं मानता।
||श्रीहरि:||
संसारकी सेवा करनेका फल मुक्ति है । परन्तु संसारको अपना मानोगे तो सेवा नहीं होगी। कुटुम्बको अपना मानोगे तो परिवारकी सेवा नहीं होगी। परिवारको अपना मानोगे तो गाँवकी सेवा नहीं होगी। गाँवको अपना मानोगे तो प्रान्तकी सेवा नहीं होगी। प्रान्तको अपना मानोगे तो देशकी सेवा नहीं होगी । देशको अपना मानोगे तो विदेशकी सेवा नहीं होगी। विदेशको अपना मानोगे तो त्रिलोकीकी सेवा नहीं होगी। परन्तु किसीको भी अपना नहीं मानोगे तो सबकी सेवा होगी। तात्पर्य है कि किसीको अपना मानना सेवामें बाधक है। सेवा वही कर सकता है, जो किसीको भी अपना नहीं मानता।- अनन्तकी ओर १४०
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अनन्तकी ओर १४०··
दो बातें याद रखो, सेवा करनेके लिये सब अपने हैं, और सेवा लेनेके लिये कोई अपना नहीं है।
||श्रीहरि:||
दो बातें याद रखो, सेवा करनेके लिये सब अपने हैं, और सेवा लेनेके लिये कोई अपना नहीं है।- अनन्तकी ओर १४१
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अनन्तकी ओर १४१··
जब संसारमें आये थे, तब पासमें कुछ नहीं था और जायँगे तो कुछ भी साथ चलेगा नहीं। अतः सेवा करनेसे अपना कुछ भी खर्च नहीं होता और अपना कल्याण कर सकते हैं मुफ्त में।
||श्रीहरि:||
जब संसारमें आये थे, तब पासमें कुछ नहीं था और जायँगे तो कुछ भी साथ चलेगा नहीं। अतः सेवा करनेसे अपना कुछ भी खर्च नहीं होता और अपना कल्याण कर सकते हैं मुफ्त में।- स्वातिकी बूँदें १५
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स्वातिकी बूँदें १५··
आपके पास जो अधिक सामग्री आयी है, वह उदार बनानेके लिये आयी है। अतः उससे अभावग्रस्तकी सेवा करो। सेवा करना और भजन करना- दोनोंका फल एक है।
||श्रीहरि:||
आपके पास जो अधिक सामग्री आयी है, वह उदार बनानेके लिये आयी है। अतः उससे अभावग्रस्तकी सेवा करो। सेवा करना और भजन करना- दोनोंका फल एक है।- स्वातिकी बूँदें ८०
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स्वातिकी बूँदें ८०··
अन्धोंका आँखवालोंपर अधिकार है। आँखवाले उनके ऋणी हैं। ऐसे ही निर्धनोंका धनवानोंपर अधिकार है। निर्धनोंकी सेवा नहीं करोगे तो पाप लगेगा । अभावग्रस्तोंकी सेवा न करना कृतघ्नता है। आपका बल निर्बलोंके लिये है। उनकी सेवा करो।
||श्रीहरि:||
अन्धोंका आँखवालोंपर अधिकार है। आँखवाले उनके ऋणी हैं। ऐसे ही निर्धनोंका धनवानोंपर अधिकार है। निर्धनोंकी सेवा नहीं करोगे तो पाप लगेगा । अभावग्रस्तोंकी सेवा न करना कृतघ्नता है। आपका बल निर्बलोंके लिये है। उनकी सेवा करो।- स्वातिकी बूँदें ९२
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स्वातिकी बूँदें ९२··
जहाँ रहो, वहीं बड़े-बूढ़ोंकी, बीमारकी, दुःखीकी सेवा करो । यह भगवान्के मिलनेकी जगह है। इनकी सेवासे भगवान् मिलते हैं।
||श्रीहरि:||
जहाँ रहो, वहीं बड़े-बूढ़ोंकी, बीमारकी, दुःखीकी सेवा करो । यह भगवान्के मिलनेकी जगह है। इनकी सेवासे भगवान् मिलते हैं।- स्वातिकी बूँदें १००
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स्वातिकी बूँदें १००··
सन्त-महात्मा, बड़े-बूढ़े और दीन-दुःखी - ये भगवान्के रहनेके स्थान हैं, इनकी सेवा करो।
||श्रीहरि:||
सन्त-महात्मा, बड़े-बूढ़े और दीन-दुःखी - ये भगवान्के रहनेके स्थान हैं, इनकी सेवा करो।- ज्ञानके दीप जले १२२
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ज्ञानके दीप जले १२२··
कभी सेवाका मौका मिल जाय तो आनन्द मनाना चाहिये कि भाग्य खुल गया।
||श्रीहरि:||
कभी सेवाका मौका मिल जाय तो आनन्द मनाना चाहिये कि भाग्य खुल गया।- अमृत-बिन्दु ८७९
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अमृत-बिन्दु ८७९··
आप धनके द्वारा, विद्याके द्वारा, पदार्थोंके द्वारा दुनियाका इतना उपकार नहीं कर सकते, जितना उपकार भगवान्के भजनमें लगकर कर सकते हैं। इसलिये यदि अपना और दुनियाका उपकार करना हो तो भगवान् के भजनमें लग जाओ।
||श्रीहरि:||
आप धनके द्वारा, विद्याके द्वारा, पदार्थोंके द्वारा दुनियाका इतना उपकार नहीं कर सकते, जितना उपकार भगवान्के भजनमें लगकर कर सकते हैं। इसलिये यदि अपना और दुनियाका उपकार करना हो तो भगवान् के भजनमें लग जाओ।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ३६-३७
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश ३६-३७··
जैसे वृक्षके मूलमें जल देनेसे पूरे वृक्षको तृप्ति पहुँचती है, ऐसे ही परमात्मामें तल्लीन होनेसे दुनियामात्रका जितना हित होगा, उतना करनेसे नहीं।
||श्रीहरि:||
जैसे वृक्षके मूलमें जल देनेसे पूरे वृक्षको तृप्ति पहुँचती है, ऐसे ही परमात्मामें तल्लीन होनेसे दुनियामात्रका जितना हित होगा, उतना करनेसे नहीं।- ज्ञानके दीप जले ९
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ज्ञानके दीप जले ९··
आप सच्चे हृदयसे भगवान्में लग जाओ - इसके समान संसारका कोई उपकार नहीं है, इससे बढ़कर कोई सेवा नहीं है, इससे बड़ा कोई पुण्य नहीं है।
||श्रीहरि:||
आप सच्चे हृदयसे भगवान्में लग जाओ - इसके समान संसारका कोई उपकार नहीं है, इससे बढ़कर कोई सेवा नहीं है, इससे बड़ा कोई पुण्य नहीं है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १२९
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सीमाके भीतर असीम प्रकाश १२९··
दूसरोंको भगवान्में लगाना हाथकी बात नहीं है, पर आप पूरी तरह भगवान्में लग जाओ तो संसारमात्रको भगवान्में लगानेका माहात्म्य हो जायगा। आपके द्वारा संसारमात्रकी बड़ी भारी सेवा हो जायगी।
||श्रीहरि:||
दूसरोंको भगवान्में लगाना हाथकी बात नहीं है, पर आप पूरी तरह भगवान्में लग जाओ तो संसारमात्रको भगवान्में लगानेका माहात्म्य हो जायगा। आपके द्वारा संसारमात्रकी बड़ी भारी सेवा हो जायगी।- ईसवर अंस जीव अबिनासी १२९
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ईसवर अंस जीव अबिनासी १२९··
हम साक्षात् भगवान्की सेवा नहीं कर सकते पर भगवान्का मानकर संसारकी सेवा करें तो भगवान् राजी हो जाते हैं।
||श्रीहरि:||
हम साक्षात् भगवान्की सेवा नहीं कर सकते पर भगवान्का मानकर संसारकी सेवा करें तो भगवान् राजी हो जाते हैं।- पायो परम बिश्रामु १५२
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
पायो परम बिश्रामु १५२··
जैसे किसी कम्पनीका काम अच्छा करनेसे उसका मालिक प्रसन्न हो जाता है, ऐसे ही संसारकी सेवा करनेसे उसके मालिक भगवान् प्रसन्न हो जाते हैं।
||श्रीहरि:||
जैसे किसी कम्पनीका काम अच्छा करनेसे उसका मालिक प्रसन्न हो जाता है, ऐसे ही संसारकी सेवा करनेसे उसके मालिक भगवान् प्रसन्न हो जाते हैं।- अमृत-बिन्दु ८४९
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
अमृत-बिन्दु ८४९··
अगर व्यक्तियोंको भगवान्का स्वरूप मानकर कर्मोंसे और पदार्थोंसे उनकी सेवा की जाय तो संसार लुप्त हो जायगा और एकमात्र भगवान् रह जायँगे अर्थात् 'सब कुछ भगवान् ही हैं'- इसका अनुभव हो जायगा।
||श्रीहरि:||
अगर व्यक्तियोंको भगवान्का स्वरूप मानकर कर्मोंसे और पदार्थोंसे उनकी सेवा की जाय तो संसार लुप्त हो जायगा और एकमात्र भगवान् रह जायँगे अर्थात् 'सब कुछ भगवान् ही हैं'- इसका अनुभव हो जायगा।- साधक संजीवनी १८ । ४६ परि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी १८ । ४६ परि०··
भगवद्भावसे किसी प्राणीकी सेवा, आदर-सत्कार करेंगे तो वह भगवान्की ही सेवा होगी। अगर किसी प्राणीका अनादर-तिरस्कार करेंगे तो वह भगवान्का ही अनादर - तिरस्कार होगा - 'कर्शयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः' (गीता १७।६ )।
||श्रीहरि:||
भगवद्भावसे किसी प्राणीकी सेवा, आदर-सत्कार करेंगे तो वह भगवान्की ही सेवा होगी। अगर किसी प्राणीका अनादर-तिरस्कार करेंगे तो वह भगवान्का ही अनादर - तिरस्कार होगा - 'कर्शयन्तः शरीरस्थं भूतग्राममचेतसः' (गीता १७।६ )।- साधक संजीवनी १८ । ४६ परि०