असत् और सत् – इन दोनोंको ही प्रकृति और पुरुष, क्षर और अक्षर शरीर और शरीरी, अनित्य और नित्य, नाशवान् और अविनाशी आदि अनेक नामोंसे कहा गया है। देखने, सुनने, समझने, चिन्तन करने, निश्चय करने आदिमें जो कुछ भी आता है, वह सब 'असत्' है। जिसके द्वारा देखते, सुनते, चिन्तन आदि करते हैं, वह भी 'असत्' है और दीखनेवाला भी 'असत् ' है।
||श्रीहरि:||
असत् और सत् – इन दोनोंको ही प्रकृति और पुरुष, क्षर और अक्षर शरीर और शरीरी, अनित्य और नित्य, नाशवान् और अविनाशी आदि अनेक नामोंसे कहा गया है। देखने, सुनने, समझने, चिन्तन करने, निश्चय करने आदिमें जो कुछ भी आता है, वह सब 'असत्' है। जिसके द्वारा देखते, सुनते, चिन्तन आदि करते हैं, वह भी 'असत्' है और दीखनेवाला भी 'असत् ' है।- साधक संजीवनी २।१६ परि०
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साधक संजीवनी २।१६ परि०··
असत्की जो सत्ता प्रतीत होती हैं, वह सत्ता भी वास्तवमें सत्की ही है। सत्की सत्तासे ही असत् सत्तावान् प्रतीत होता है।
||श्रीहरि:||
असत्की जो सत्ता प्रतीत होती हैं, वह सत्ता भी वास्तवमें सत्की ही है। सत्की सत्तासे ही असत् सत्तावान् प्रतीत होता है।- साधक संजीवनी २।१६
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साधक संजीवनी २।१६··
असत्को जाननेसे असत्की निवृत्ति हो जाती है; क्योंकि असत्की स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं । सत्से ही असत्को सत्ता मिलती है।
||श्रीहरि:||
असत्को जाननेसे असत्की निवृत्ति हो जाती है; क्योंकि असत्की स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं । सत्से ही असत्को सत्ता मिलती है।- साधक संजीवनी २।७२ टि०
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साधक संजीवनी २।७२ टि०··
भोग - वासना कितनी ही प्रबल क्यों न हो, पर वह है 'असत्' ही उसका जीवके सत् - स्वरूपके साथ कोई सम्बन्ध ही नहीं है। जितना ध्यानयोग आदि साधन किया है, साधनके जितने संस्कार हैं, वे कितने ही साधारण क्यों न हो, पर वे हैं 'सत्' ही। वे सभी जीवके सत्-स्वरूपके अनुकूल हैं।
||श्रीहरि:||
भोग - वासना कितनी ही प्रबल क्यों न हो, पर वह है 'असत्' ही उसका जीवके सत् - स्वरूपके साथ कोई सम्बन्ध ही नहीं है। जितना ध्यानयोग आदि साधन किया है, साधनके जितने संस्कार हैं, वे कितने ही साधारण क्यों न हो, पर वे हैं 'सत्' ही। वे सभी जीवके सत्-स्वरूपके अनुकूल हैं।- साधक संजीवनी ६ । ४४
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साधक संजीवनी ६ । ४४··
सत्-असत्को अलग-अलग करनेसे ज्ञानमार्ग होता है- 'नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः । उभयोरपि.....' (गीता २ । १६) और एक करनेसे भक्तिमार्ग होता है – 'सदसच्चाहमर्जुन' (गीता ९ । १९)।
||श्रीहरि:||
सत्-असत्को अलग-अलग करनेसे ज्ञानमार्ग होता है- 'नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः । उभयोरपि.....' (गीता २ । १६) और एक करनेसे भक्तिमार्ग होता है – 'सदसच्चाहमर्जुन' (गीता ९ । १९)।- साधक संजीवनी ७ । ३० परि०
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साधक संजीवनी ७ । ३० परि०··
जिनकी दृष्टि असत् (सांसारिक भोग और संग्रह ) - पर ही जमी हुई है, ऐसे पुरुष सत् (तत्त्व) - को कैसे देख सकते हैं।
||श्रीहरि:||
जिनकी दृष्टि असत् (सांसारिक भोग और संग्रह ) - पर ही जमी हुई है, ऐसे पुरुष सत् (तत्त्व) - को कैसे देख सकते हैं।- साधक संजीवनी १५ । ११
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साधक संजीवनी १५ । ११··
परमात्मप्राप्ति के लिये जो सत्-कर्म, सत् - चर्चा और सत् चिन्तन किया जाता है, उसमें जड़ता (असत्) - का आश्रय रहता ही है।...... जड़तासे सम्बन्ध-विच्छेद तभी होगा, जब ये (सत्-कर्म, सत्-चर्चा और सत्-चिन्तन) केवल संसारके हितके लिये ही किये जायँ, अपने लिये नहीं।
||श्रीहरि:||
परमात्मप्राप्ति के लिये जो सत्-कर्म, सत् - चर्चा और सत् चिन्तन किया जाता है, उसमें जड़ता (असत्) - का आश्रय रहता ही है।...... जड़तासे सम्बन्ध-विच्छेद तभी होगा, जब ये (सत्-कर्म, सत्-चर्चा और सत्-चिन्तन) केवल संसारके हितके लिये ही किये जायँ, अपने लिये नहीं।- साधक संजीवनी १५ । १५ वि०
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साधक संजीवनी १५ । १५ वि०··
असत्' का त्याग किये बिना लाया गया 'सत्' ऊपरसे चिपकाया जाता है, जो ठहरता नहीं । परन्तु असत्का त्याग करनेसे 'सत्' भीतरसे उदय होता है। अतः जिसको हम असत् - रूपसे जानते हैं, उसका त्याग करनेसे 'सत्' का अनुभव हो जाता है।
||श्रीहरि:||
असत्' का त्याग किये बिना लाया गया 'सत्' ऊपरसे चिपकाया जाता है, जो ठहरता नहीं । परन्तु असत्का त्याग करनेसे 'सत्' भीतरसे उदय होता है। अतः जिसको हम असत् - रूपसे जानते हैं, उसका त्याग करनेसे 'सत्' का अनुभव हो जाता है।- साधक संजीवनी १७ । २६ परि०
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साधक संजीवनी १७ । २६ परि०··
दैवी सम्पत्ति 'सत्' है और आसुरी सम्पत्ति 'असत्' है। मुक्ति देनेवाले सब साधन 'सत्' हैं और बन्धनकारक सब कर्म 'असत्' हैं। दुर्गुण- दुराचार 'असत् ' हैं, पर उनका त्याग 'सत्' है। असत्का त्याग भी 'सत्' है और सत्का ग्रहण भी 'सत्' है। वास्तवमें असत्के त्यागकी जितनी जरूरत है, उतनी 'सत्' को ग्रहण करनेकी जरूरत नहीं है।
||श्रीहरि:||
दैवी सम्पत्ति 'सत्' है और आसुरी सम्पत्ति 'असत्' है। मुक्ति देनेवाले सब साधन 'सत्' हैं और बन्धनकारक सब कर्म 'असत्' हैं। दुर्गुण- दुराचार 'असत् ' हैं, पर उनका त्याग 'सत्' है। असत्का त्याग भी 'सत्' है और सत्का ग्रहण भी 'सत्' है। वास्तवमें असत्के त्यागकी जितनी जरूरत है, उतनी 'सत्' को ग्रहण करनेकी जरूरत नहीं है।- साधक संजीवनी १७ । २६ परि०
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साधक संजीवनी १७ । २६ परि०··
सत् असत्का विरोधी नहीं है। अतः सत्ता असत्का अभाव नहीं करती। सत्ताकी जिज्ञासा ही असत्का अभाव करती है।
||श्रीहरि:||
सत् असत्का विरोधी नहीं है। अतः सत्ता असत्का अभाव नहीं करती। सत्ताकी जिज्ञासा ही असत्का अभाव करती है।- स्वातिकी बूँदें ४५
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स्वातिकी बूँदें ४५··
सत्के बिना असत्को देख नहीं सकते और असत्के बिना सत्का वर्णन नहीं कर सकते।
||श्रीहरि:||
सत्के बिना असत्को देख नहीं सकते और असत्के बिना सत्का वर्णन नहीं कर सकते।- अमृत-बिन्दु ३९२
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अमृत-बिन्दु ३९२··
असत्को असत् जाननेपर भी जबतक असत्का आकर्षण नहीं मिट जाता, तबतक सत्की प्राप्ति नहीं होती (जैसे, सिनेमाको असत्य जाननेपर भी उसका आकर्षण रहता है)।
||श्रीहरि:||
असत्को असत् जाननेपर भी जबतक असत्का आकर्षण नहीं मिट जाता, तबतक सत्की प्राप्ति नहीं होती (जैसे, सिनेमाको असत्य जाननेपर भी उसका आकर्षण रहता है)।- अमृत-बिन्दु ६३९
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अमृत-बिन्दु ६३९··
सत् और असत् - ये दो विभाग हमारी दृष्टिमें हैं, तभी भगवान् हमें समझानेके लिये कहते हैं—- 'सदसच्चाहम्' भगवान्की दृष्टिमें तो एक उनके सिवाय कुछ नहीं है। ऊँची-से-ऊँची दार्शनिक दृष्टिसे भी देखें तो सत्ता एक ही है। दो सत्ता हो ही नहीं सकती। दूसरी सत्ता मानने से ही मोह होता है (गीता ७।१३) । राग-द्वेष भी दूसरी सत्ता माननेसे ही होते हैं।
||श्रीहरि:||
सत् और असत् - ये दो विभाग हमारी दृष्टिमें हैं, तभी भगवान् हमें समझानेके लिये कहते हैं—- 'सदसच्चाहम्' भगवान्की दृष्टिमें तो एक उनके सिवाय कुछ नहीं है। ऊँची-से-ऊँची दार्शनिक दृष्टिसे भी देखें तो सत्ता एक ही है। दो सत्ता हो ही नहीं सकती। दूसरी सत्ता मानने से ही मोह होता है (गीता ७।१३) । राग-द्वेष भी दूसरी सत्ता माननेसे ही होते हैं।- साधक संजीवनी ९ । १९ परि०