स्वार्थ और अभिमानका त्याग करनेसे साधुता आती है।- अमृत-बिन्दु ७
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अमृत-बिन्दु ७··
हम साधु हो गये, पर दूसरोंसे सुख चाहते हैं, आराम चाहते हैं, मान-बड़ाई चाहते हैं, रोटी- कपड़ा चाहते हैं, मकान चाहते हैं, पुस्तक चाहते हैं, गाड़ीका किराया चाहते हैं तो मुक्तिसे हाथ धोनेके सिवाय कुछ मिलेगा नहीं।
||श्रीहरि:||
हम साधु हो गये, पर दूसरोंसे सुख चाहते हैं, आराम चाहते हैं, मान-बड़ाई चाहते हैं, रोटी- कपड़ा चाहते हैं, मकान चाहते हैं, पुस्तक चाहते हैं, गाड़ीका किराया चाहते हैं तो मुक्तिसे हाथ धोनेके सिवाय कुछ मिलेगा नहीं।- सन्त समागम २९
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सन्त समागम २९··
अगर किसी वस्तुकी हमें जरूरत अनुभव होती है तो हम साधु क्या हुए।
||श्रीहरि:||
अगर किसी वस्तुकी हमें जरूरत अनुभव होती है तो हम साधु क्या हुए।- सागरके मोती २५
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सागरके मोती २५··
साधुका कर्तव्य है— लोगोंको पापोंसे हटाकर भगवान्में लगाना। उसके लिए भजन करानेकी अपेक्षा भी दूसरोंको पापोंसे बचाना उत्तम है।
||श्रीहरि:||
साधुका कर्तव्य है— लोगोंको पापोंसे हटाकर भगवान्में लगाना। उसके लिए भजन करानेकी अपेक्षा भी दूसरोंको पापोंसे बचाना उत्तम है।- स्वातिकी बूँदें ११५
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स्वातिकी बूँदें ११५··
जो साधु अपनेको ब्राह्मण मानता है, वह असली साधु नहीं हुआ।
||श्रीहरि:||
जो साधु अपनेको ब्राह्मण मानता है, वह असली साधु नहीं हुआ।- अनन्तकी ओर २९
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अनन्तकी ओर २९··
जो सच्चे हृदयसे साधु हो जाता है, उसकी जाति नहीं रहती । वह ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि नहीं रहता । वह तो 'अच्युतगोत्र' हो जाता है।
||श्रीहरि:||
जो सच्चे हृदयसे साधु हो जाता है, उसकी जाति नहीं रहती । वह ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि नहीं रहता । वह तो 'अच्युतगोत्र' हो जाता है।- स्वातिकी बूँदें ३९
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स्वातिकी बूँदें ३९··
साधुओंमें भी जो अपनेको जातिके कारणसे ऊँचा मानते हैं, वे वास्तवमें साधु नहीं हुए। साधुकी जाति पूछना ही उसका अपमान है।
||श्रीहरि:||
साधुओंमें भी जो अपनेको जातिके कारणसे ऊँचा मानते हैं, वे वास्तवमें साधु नहीं हुए। साधुकी जाति पूछना ही उसका अपमान है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १३५
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १३५··
कल्याण जीवका होता है, शरीरका नहीं। जो कल्याणके लिये साधु हुए, फिर भी उनमें जातिकी मुख्यता रही तो वे साधु कहाँ हुए।
||श्रीहरि:||
कल्याण जीवका होता है, शरीरका नहीं। जो कल्याणके लिये साधु हुए, फिर भी उनमें जातिकी मुख्यता रही तो वे साधु कहाँ हुए।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १३५
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १३५··
जबतक मनुष्यको संसार प्रिय, अच्छा लगता है, तबतक वह संसारमें ही फँसा हुआ है, चाहे वह साधु क्यों न हो ।
||श्रीहरि:||
जबतक मनुष्यको संसार प्रिय, अच्छा लगता है, तबतक वह संसारमें ही फँसा हुआ है, चाहे वह साधु क्यों न हो ।- सागरके मोती ११३
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सागरके मोती ११३··
असत् और परिवर्तनशील वस्तुमें सद्भाव करने और उसे महत्त्व देनेसे कामनाएँ पैदा होती हैं। ज्यों-ज्यों कामनाएँ नष्ट होती हैं, त्यों-त्यों साधुता आती है और ज्यों-ज्यों कामनाएँ बढ़ती हैं, त्यों-त्यों साधुता लुप्त होती है। कारण कि असाधुताका मूल हेतु कामना ही है।
||श्रीहरि:||
असत् और परिवर्तनशील वस्तुमें सद्भाव करने और उसे महत्त्व देनेसे कामनाएँ पैदा होती हैं। ज्यों-ज्यों कामनाएँ नष्ट होती हैं, त्यों-त्यों साधुता आती है और ज्यों-ज्यों कामनाएँ बढ़ती हैं, त्यों-त्यों साधुता लुप्त होती है। कारण कि असाधुताका मूल हेतु कामना ही है।- साधक संजीवनी ४।८
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साधक संजीवनी ४।८··
कोई साधु होता है तो मानो नया जन्म हो गया। जैसे आप लोगोंमें जिसका जन्म पहले हुआ हो, वह बड़ा माना जाता है, ऐसे ही हमारे साधुओंमें बड़ा उसको माना जाता है, जो पहले साधु हुआ हो। साधु होनेपर उसका नाम गोत्र सब बदल जाता है। जो उसको पुराने नामसे कहते हैं, वे उसका तिरस्कार, अपमान करते हैं।
||श्रीहरि:||
कोई साधु होता है तो मानो नया जन्म हो गया। जैसे आप लोगोंमें जिसका जन्म पहले हुआ हो, वह बड़ा माना जाता है, ऐसे ही हमारे साधुओंमें बड़ा उसको माना जाता है, जो पहले साधु हुआ हो। साधु होनेपर उसका नाम गोत्र सब बदल जाता है। जो उसको पुराने नामसे कहते हैं, वे उसका तिरस्कार, अपमान करते हैं।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ३३
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ३३··
जो बूढ़े होकर, साधु होकर भजन नहीं करते, उनपर भगवान्को बड़ा क्रोध आता है।
||श्रीहरि:||
जो बूढ़े होकर, साधु होकर भजन नहीं करते, उनपर भगवान्को बड़ा क्रोध आता है।- सागरके मोती ९७-९८
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सागरके मोती ९७-९८··
अगर आदमी बनावटी भी साधु हो जाय तो कितनी आफत छूट जाय, फिर असली साधु हो जाय तो आनन्दका क्या कहना । आनन्दका पार नहीं है। जिन सन्तोंका संग करनेसे सुख होता है, जिनकी बात सुननेसे सुख होता है, अगर वैसा खुद बन जाय तो कितना सुख है।
||श्रीहरि:||
अगर आदमी बनावटी भी साधु हो जाय तो कितनी आफत छूट जाय, फिर असली साधु हो जाय तो आनन्दका क्या कहना । आनन्दका पार नहीं है। जिन सन्तोंका संग करनेसे सुख होता है, जिनकी बात सुननेसे सुख होता है, अगर वैसा खुद बन जाय तो कितना सुख है।- अनन्तकी ओर ६५
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अनन्तकी ओर ६५··
लोग कहते हैं कि साधु अच्छे नहीं हैं। साधु आकाशसे थोड़े ही आते हैं, वे आप गृहस्थोंसे ही आते हैं। घरमें जो निकम्मे होते हैं, वे साधु बन जाते हैं, फिर अच्छे साधु कहाँसे आयेंगे ? यदि अच्छे-अच्छे आदमी साधु हो जायँ तो साधु अच्छे हो जायँगे।
||श्रीहरि:||
लोग कहते हैं कि साधु अच्छे नहीं हैं। साधु आकाशसे थोड़े ही आते हैं, वे आप गृहस्थोंसे ही आते हैं। घरमें जो निकम्मे होते हैं, वे साधु बन जाते हैं, फिर अच्छे साधु कहाँसे आयेंगे ? यदि अच्छे-अच्छे आदमी साधु हो जायँ तो साधु अच्छे हो जायँगे।- ज्ञानके दीप जले ८०
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ज्ञानके दीप जले ८०··
कोई असली साधु हो जाता है तो दस-पन्द्रह वर्ष बीतनेपर भी घरवालोंका कोई पत्र, समाचार नहीं आये तो उसके मनमें विचार नहीं होता कि घरवाले ठीक हैं कि बेठीक हैं, मर गये कि जीवित हैं, धनी हैं कि निर्धन हैं, सुखी हैं कि दुःखी हैं? इतना ही नहीं, घरवाले सब - के-सब एक साथ मर जायँ तो भी उसको चिन्ता - शोक नहीं होते। अगर चिन्ता - शोक होते हैं तो वह असली साधु नहीं हुआ। जो घरवालोंमें मोह रखते हैं, वे असली साधु नहीं हुए।
||श्रीहरि:||
कोई असली साधु हो जाता है तो दस-पन्द्रह वर्ष बीतनेपर भी घरवालोंका कोई पत्र, समाचार नहीं आये तो उसके मनमें विचार नहीं होता कि घरवाले ठीक हैं कि बेठीक हैं, मर गये कि जीवित हैं, धनी हैं कि निर्धन हैं, सुखी हैं कि दुःखी हैं? इतना ही नहीं, घरवाले सब - के-सब एक साथ मर जायँ तो भी उसको चिन्ता - शोक नहीं होते। अगर चिन्ता - शोक होते हैं तो वह असली साधु नहीं हुआ। जो घरवालोंमें मोह रखते हैं, वे असली साधु नहीं हुए।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ३३
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ३३··
सन्तोंकी पहचान तीन जगह होती है- भिक्षामें आदरमें और निरादरमें एक कुत्ता भी आदर करनेसे राजी हो जाता है और निरादर करनेसे नाराज हो जाता है। जब आदर - निरादर में राजी- नाराज होना मनुष्यपना भी नहीं है, तो फिर साधुपना कैसे होगा ? आदरमें राजी और निरादरमें नाराज हो जाय तो इसमें साधुकी फजीती है, इज्जत नहीं है। वह साधु नहीं, स्वादु है । साधु स्वादु नहीं होता और स्वादु साधु नहीं होता। योगी भोगी नहीं होता और भोगी योगी नहीं होता।
||श्रीहरि:||
सन्तोंकी पहचान तीन जगह होती है- भिक्षामें आदरमें और निरादरमें एक कुत्ता भी आदर करनेसे राजी हो जाता है और निरादर करनेसे नाराज हो जाता है। जब आदर - निरादर में राजी- नाराज होना मनुष्यपना भी नहीं है, तो फिर साधुपना कैसे होगा ? आदरमें राजी और निरादरमें नाराज हो जाय तो इसमें साधुकी फजीती है, इज्जत नहीं है। वह साधु नहीं, स्वादु है । साधु स्वादु नहीं होता और स्वादु साधु नहीं होता। योगी भोगी नहीं होता और भोगी योगी नहीं होता।- अनन्तकी ओर ५८