जो साधनमें तत्पर है, वह 'साधु' है। जिसने साधन करके अनुभव कर लिया है और जिसकी वाणी, आचरण आदिमें सत्-तत्त्व उद्भासित होता है, वह 'सन्त' है। जिसकी दृष्टिमें मैं मेरे, तू- तेरेका भेद नहीं रहा, जिसका सब प्राणियोंके प्रति समानभाव हो गया, वह 'महात्मा' है।
||श्रीहरि:||
जो साधनमें तत्पर है, वह 'साधु' है। जिसने साधन करके अनुभव कर लिया है और जिसकी वाणी, आचरण आदिमें सत्-तत्त्व उद्भासित होता है, वह 'सन्त' है। जिसकी दृष्टिमें मैं मेरे, तू- तेरेका भेद नहीं रहा, जिसका सब प्राणियोंके प्रति समानभाव हो गया, वह 'महात्मा' है।- प्रश्नोत्तरमणिमाला ३०६
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प्रश्नोत्तरमणिमाला ३०६··
महात्मा' शब्दका अर्थ है- महान् आत्मा अर्थात् अहंभाव, व्यक्तित्व, एकदेशीयतासे सर्वथा रहित आत्मा। जिसमें अहंभाव, व्यक्तित्व, एकदेशीयता है, वह 'अल्पात्मा' है।
||श्रीहरि:||
महात्मा' शब्दका अर्थ है- महान् आत्मा अर्थात् अहंभाव, व्यक्तित्व, एकदेशीयतासे सर्वथा रहित आत्मा। जिसमें अहंभाव, व्यक्तित्व, एकदेशीयता है, वह 'अल्पात्मा' है।- साधक संजीवनी ७।१९ परि०
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साधक संजीवनी ७।१९ परि०··
असत् शरीर-संसारके साथ सम्बन्ध होनेसे मनुष्य 'अल्पात्मा' होते हैं; क्योंकि वे शरीर-संसारके आश्रित होते हैं। अपने स्वरूपमें स्थित होनेपर वे 'आत्मा' होते हैं; क्योंकि उनमें अणुरूपसे 'अहम्' की गन्ध रहनेकी सम्भावना होती है। भगवान् के साथ अभिन्नता होनेपर वे 'महात्मा' होते हैं; क्योंकि वे भगवन्निष्ठ होते हैं, उनकी अपनी कोई स्वतन्त्र स्थिति नहीं होती।
||श्रीहरि:||
असत् शरीर-संसारके साथ सम्बन्ध होनेसे मनुष्य 'अल्पात्मा' होते हैं; क्योंकि वे शरीर-संसारके आश्रित होते हैं। अपने स्वरूपमें स्थित होनेपर वे 'आत्मा' होते हैं; क्योंकि उनमें अणुरूपसे 'अहम्' की गन्ध रहनेकी सम्भावना होती है। भगवान् के साथ अभिन्नता होनेपर वे 'महात्मा' होते हैं; क्योंकि वे भगवन्निष्ठ होते हैं, उनकी अपनी कोई स्वतन्त्र स्थिति नहीं होती।- साधक संजीवनी ८/१५
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साधक संजीवनी ८/१५··
सन्तं भगवान्का हृदय हैं। जिस प्रकार बूढ़े माँ-बाप अपनी छिपी हुई पूँजी अपनी विशेष कृपापात्र सन्तानको ही बताते हैं, देते हैं, उसी प्रकार भगवान् अपने प्यारे सन्त जो कि उनके हृदय- धन हैं— उनके सामने खोलकर रख देते हैं, जिनपर विशेष कृपा करते हैं। जैसे सन्तोंके धन भगवान् हैं, ऐसे ही भगवान्के धन सन्त हैं। वे जब कृपा करते हैं तो हमें सन्तोंसे मिला देते हैं।
||श्रीहरि:||
सन्तं भगवान्का हृदय हैं। जिस प्रकार बूढ़े माँ-बाप अपनी छिपी हुई पूँजी अपनी विशेष कृपापात्र सन्तानको ही बताते हैं, देते हैं, उसी प्रकार भगवान् अपने प्यारे सन्त जो कि उनके हृदय- धन हैं— उनके सामने खोलकर रख देते हैं, जिनपर विशेष कृपा करते हैं। जैसे सन्तोंके धन भगवान् हैं, ऐसे ही भगवान्के धन सन्त हैं। वे जब कृपा करते हैं तो हमें सन्तोंसे मिला देते हैं।- साधन-सुधा-सिन्धु ६१९
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साधन-सुधा-सिन्धु ६१९··
‘कारक पुरुष' और सन्त-महात्माओंके रूपमें भी भगवान्का अवतार हुआ करता है। भगवान् और कारक पुरुषका अवतार तो 'नैमित्तिक' है, पर सन्त महात्माओंका अवतार 'नित्य' माना गया है।
||श्रीहरि:||
‘कारक पुरुष' और सन्त-महात्माओंके रूपमें भी भगवान्का अवतार हुआ करता है। भगवान् और कारक पुरुषका अवतार तो 'नैमित्तिक' है, पर सन्त महात्माओंका अवतार 'नित्य' माना गया है।- साधक संजीवनी ४।८
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साधक संजीवनी ४।८··
भगवान्को प्राप्त हुए भक्त लोग भी साधु पुरुषोंकी रक्षा, दुष्टोंकी सेवा और धर्मका अच्छी तरहसे पालन करने तथा करवानेके लिये कारक पुरुषके रूपमें, सन्तके रूपमें इस पृथ्वीपर जन्म ले सकते हैं।
||श्रीहरि:||
भगवान्को प्राप्त हुए भक्त लोग भी साधु पुरुषोंकी रक्षा, दुष्टोंकी सेवा और धर्मका अच्छी तरहसे पालन करने तथा करवानेके लिये कारक पुरुषके रूपमें, सन्तके रूपमें इस पृथ्वीपर जन्म ले सकते हैं।- साधक संजीवनी ८ । १५
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साधक संजीवनी ८ । १५··
सन्त-महात्मा धर्मकी स्थापना तो करते हैं, पर दुष्टोंके विनाशका कार्य वे नहीं करते । दुष्टों का विनाश करनेका कार्य भगवान् अपने हाथमें रखते हैं।
||श्रीहरि:||
सन्त-महात्मा धर्मकी स्थापना तो करते हैं, पर दुष्टोंके विनाशका कार्य वे नहीं करते । दुष्टों का विनाश करनेका कार्य भगवान् अपने हाथमें रखते हैं।- साधक संजीवनी ४।८
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साधक संजीवनी ४।८··
सबसे बढ़कर सन्त वे होते हैं, जिनमें मतभेद नहीं होता अर्थात् द्वैत, अद्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि किसी एक मतका आग्रह नहीं होता।
||श्रीहरि:||
सबसे बढ़कर सन्त वे होते हैं, जिनमें मतभेद नहीं होता अर्थात् द्वैत, अद्वैत, द्वैताद्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि किसी एक मतका आग्रह नहीं होता।- क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ? २४-२५
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क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ? २४-२५··
सच्चे महात्माको दुनियाकी गरज नहीं होती, प्रत्युत दुनियाको ही उसकी गरज होती है।
||श्रीहरि:||
सच्चे महात्माको दुनियाकी गरज नहीं होती, प्रत्युत दुनियाको ही उसकी गरज होती है।- क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ? ४
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क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ? ४··
जो सच्चे सन्त-महात्मा होते हैं, उनको गुरु बनने का शौक नहीं होता, प्रत्युत दुनियाके उद्धारका शौक होता है। उनमें दुनियाके उद्धारकी स्वाभाविक सच्ची लगन होती है।
||श्रीहरि:||
जो सच्चे सन्त-महात्मा होते हैं, उनको गुरु बनने का शौक नहीं होता, प्रत्युत दुनियाके उद्धारका शौक होता है। उनमें दुनियाके उद्धारकी स्वाभाविक सच्ची लगन होती है।- क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ? ४
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क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ? ४··
सन्त सबपर कृपा करते हैं, पर परमात्मतत्त्वका जिज्ञासु ही उस कृपाको ग्रहण करता है; जैसे प्यासा आदमी ही जलको ग्रहण करता है। वास्तवमें अपने उद्धारकी लगन जितनी तेज होती है, सत्य तत्त्वकी जिज्ञासा जितनी अधिक होती है, उतना ही वह उस कृपाको अधिक ग्रहण करता है।
||श्रीहरि:||
सन्त सबपर कृपा करते हैं, पर परमात्मतत्त्वका जिज्ञासु ही उस कृपाको ग्रहण करता है; जैसे प्यासा आदमी ही जलको ग्रहण करता है। वास्तवमें अपने उद्धारकी लगन जितनी तेज होती है, सत्य तत्त्वकी जिज्ञासा जितनी अधिक होती है, उतना ही वह उस कृपाको अधिक ग्रहण करता है।- क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ? ११
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क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ? ११··
जैसे समुद्रके भीतर लहरें उठती हैं, पर समुद्रके भीतर लहरें नहीं हैं, ऐसे ही सन्त व्यवहारमें सुखी - दु:खी होते दीखते हैं, पर भीतर ( तत्त्व ) - से वे न सुखी होते हैं, न दुःखी । वे दूसरोंके दुःखसे दुःखी नहीं होते, प्रत्युत उनका दुःख दूर करनेकी चेष्टा करते हैं।
||श्रीहरि:||
जैसे समुद्रके भीतर लहरें उठती हैं, पर समुद्रके भीतर लहरें नहीं हैं, ऐसे ही सन्त व्यवहारमें सुखी - दु:खी होते दीखते हैं, पर भीतर ( तत्त्व ) - से वे न सुखी होते हैं, न दुःखी । वे दूसरोंके दुःखसे दुःखी नहीं होते, प्रत्युत उनका दुःख दूर करनेकी चेष्टा करते हैं।- प्रश्नोत्तरमणिमाला १०५
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प्रश्नोत्तरमणिमाला १०५··
संग्रह करनेवाला सन्त नहीं होता।
||श्रीहरि:||
संग्रह करनेवाला सन्त नहीं होता।- ज्ञानके दीप जले १३४
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ज्ञानके दीप जले १३४··
भगवान्के दिये शरीरसे जीव नरकोंमें भी जा सकता है, पर महात्माकी दी चीजसे नरकोंमें नहीं जा सकता।
||श्रीहरि:||
भगवान्के दिये शरीरसे जीव नरकोंमें भी जा सकता है, पर महात्माकी दी चीजसे नरकोंमें नहीं जा सकता।- ज्ञानके दीप जले १४९
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ज्ञानके दीप जले १४९··
सन्त महात्मा वही बात कहते हैं, जो हम कर सकते हैं।
||श्रीहरि:||
सन्त महात्मा वही बात कहते हैं, जो हम कर सकते हैं।- सत्संगके फूल १३९
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सत्संगके फूल १३९··
शास्त्र, धर्म, सन्त-महात्मा और भगवान् — ये कभी किसीके विमुख नहीं होते।
||श्रीहरि:||
शास्त्र, धर्म, सन्त-महात्मा और भगवान् — ये कभी किसीके विमुख नहीं होते।- सत्संगके फूल १३९
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सत्संगके फूल १३९··
आँखोंसे महात्मा नहीं दीखता, प्रत्युत मनुष्य दीखता है।
||श्रीहरि:||
आँखोंसे महात्मा नहीं दीखता, प्रत्युत मनुष्य दीखता है।- सागरके मोती ५०
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सागरके मोती ५०··
भगवान्से लाभ उठानेकी पाँच बातें हैं - नामजप, ध्यान, सेवा, आज्ञापालन और संग। परन्तु सन्तोंसे लाभ उठानेमें तीन ही बातें उपयुक्त हैं-सेवा, आज्ञापालन और संग।
||श्रीहरि:||
भगवान्से लाभ उठानेकी पाँच बातें हैं - नामजप, ध्यान, सेवा, आज्ञापालन और संग। परन्तु सन्तोंसे लाभ उठानेमें तीन ही बातें उपयुक्त हैं-सेवा, आज्ञापालन और संग।- अमृत-बिन्दु ६१८
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अमृत-बिन्दु ६१८··
आज्ञापालनके समान सन्तोंकी कोई सेवा नहीं है। आज्ञापालनसे लोक-परलोक दोनों सुधर जाते हैं। अगर मनुष्य सन्तोंका कहना नहीं मानेगा तो यमदूतोंका, राजपुरुषोंका, डाकुओंका कहना मानना पड़ेगा और मार अलग पड़ेगी।
||श्रीहरि:||
आज्ञापालनके समान सन्तोंकी कोई सेवा नहीं है। आज्ञापालनसे लोक-परलोक दोनों सुधर जाते हैं। अगर मनुष्य सन्तोंका कहना नहीं मानेगा तो यमदूतोंका, राजपुरुषोंका, डाकुओंका कहना मानना पड़ेगा और मार अलग पड़ेगी।- ज्ञानके दीप जले २२९
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ज्ञानके दीप जले २२९··
यह सिद्धान्त है - ऐसा कहना सन्तकी एक नंबरकी आज्ञा है। ऐसा करना चाहिये, ऐसा नहीं करना चाहिये - ऐसा कहना दो नंबरकी आज्ञा है। ऐसा करो, ऐसा मत करो ऐसा कहना तीन नंबरकी आज्ञा है।
||श्रीहरि:||
यह सिद्धान्त है - ऐसा कहना सन्तकी एक नंबरकी आज्ञा है। ऐसा करना चाहिये, ऐसा नहीं करना चाहिये - ऐसा कहना दो नंबरकी आज्ञा है। ऐसा करो, ऐसा मत करो ऐसा कहना तीन नंबरकी आज्ञा है।- सागरके मोती १२२
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सागरके मोती १२२··
सन्तोंकी आज्ञामें जो सिद्धान्त भरा हुआ है, वह आज्ञापालकमें उतर आता है। उनकी आज्ञापालनके बिना भी उनके सिद्धान्तका पालन करनेवालोंका कल्याण हो जाता है; परन्तु वे महात्मा आज्ञा के रूपमें जिसको जो कुछ कह देते हैं, उसमें एक विलक्षण शक्ति आ जाती है। आज्ञापालन करनेवालेको कोई परिश्रम नहीं पड़ता और उसके द्वारा स्वतः - स्वाभाविक वैसे आचरण होने लगते हैं।
||श्रीहरि:||
सन्तोंकी आज्ञामें जो सिद्धान्त भरा हुआ है, वह आज्ञापालकमें उतर आता है। उनकी आज्ञापालनके बिना भी उनके सिद्धान्तका पालन करनेवालोंका कल्याण हो जाता है; परन्तु वे महात्मा आज्ञा के रूपमें जिसको जो कुछ कह देते हैं, उसमें एक विलक्षण शक्ति आ जाती है। आज्ञापालन करनेवालेको कोई परिश्रम नहीं पड़ता और उसके द्वारा स्वतः - स्वाभाविक वैसे आचरण होने लगते हैं।- साधक संजीवनी ७।१९ मा०
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साधक संजीवनी ७।१९ मा०··
सन्त-महापुरुषोंकी आज्ञाका पालन करनेसे, उनके मनके, संकेतके, आज्ञाके अनुसार तत्परतापूर्वक चलनेसे मनुष्य स्वतः उस परमात्मतत्त्वको प्राप्त हो जाता है, जो कि सबको सदासे ही स्वत:- स्वाभाविक प्राप्त है।
||श्रीहरि:||
सन्त-महापुरुषोंकी आज्ञाका पालन करनेसे, उनके मनके, संकेतके, आज्ञाके अनुसार तत्परतापूर्वक चलनेसे मनुष्य स्वतः उस परमात्मतत्त्वको प्राप्त हो जाता है, जो कि सबको सदासे ही स्वत:- स्वाभाविक प्राप्त है।- साधक संजीवनी १३ । २५
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साधक संजीवनी १३ । २५··
आप पहाड़में जाकर दिनभर खूब मेहनत करो, पर एक कौड़ी भी नहीं मिलेगी। परन्तु खेतमें जाकर किसी मालिकके कहनेसे काम करो तो रुपये मिलेंगे। ऐसे ही साधक महात्माकी आज्ञाके अनुसार तत्परता से भजनमें लग जाय तो भजनका माहात्म्य तो होगा ही, पर उनकी आज्ञासे लगनेपर एक विशेष शक्ति आती है, बड़ी भारी सहायता मिलती है, जिससे बहुत जल्दी काम होता है।
||श्रीहरि:||
आप पहाड़में जाकर दिनभर खूब मेहनत करो, पर एक कौड़ी भी नहीं मिलेगी। परन्तु खेतमें जाकर किसी मालिकके कहनेसे काम करो तो रुपये मिलेंगे। ऐसे ही साधक महात्माकी आज्ञाके अनुसार तत्परता से भजनमें लग जाय तो भजनका माहात्म्य तो होगा ही, पर उनकी आज्ञासे लगनेपर एक विशेष शक्ति आती है, बड़ी भारी सहायता मिलती है, जिससे बहुत जल्दी काम होता है।- ईसवर अंस जीव अबिनासी १००
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ईसवर अंस जीव अबिनासी १००··
सन्तके नजदीक रहनेका मतलब है – उनकी बात मानना । अगर सन्तकी बात माने तो कोसों दूर रहनेपर भी वह सन्तके नजदीक है। अगर बात न माने तो पासमें रहते हुए भी दूर है।
||श्रीहरि:||
सन्तके नजदीक रहनेका मतलब है – उनकी बात मानना । अगर सन्तकी बात माने तो कोसों दूर रहनेपर भी वह सन्तके नजदीक है। अगर बात न माने तो पासमें रहते हुए भी दूर है।- ईसवर अंस जीव अबिनासी ८२-८३
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ईसवर अंस जीव अबिनासी ८२-८३··
श्रेष्ठ पुरुषसे (परहितका असीम भाव होनेके कारण ) संसारमात्रका स्वाभाविक ही बहुत उपकार हुआ करता है, चाहे कोई समझे या न समझे। कारण यह है कि व्यक्तित्व (अहंता - ममता ) मिट जानेके कारण भगवान्की उस पालन - शक्तिके साथ उसकी एकता हो जाती है, जिसके द्वारा संसारमात्रका हित हो रहा है।
||श्रीहरि:||
श्रेष्ठ पुरुषसे (परहितका असीम भाव होनेके कारण ) संसारमात्रका स्वाभाविक ही बहुत उपकार हुआ करता है, चाहे कोई समझे या न समझे। कारण यह है कि व्यक्तित्व (अहंता - ममता ) मिट जानेके कारण भगवान्की उस पालन - शक्तिके साथ उसकी एकता हो जाती है, जिसके द्वारा संसारमात्रका हित हो रहा है।- साधक संजीवनी ३ । २१
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साधक संजीवनी ३ । २१··
साधु पुरुषके भावों और क्रियाओंमें पशु, पक्षी, वृक्ष, पर्वत, मनुष्य, देवता, पितर, ऋषि, मुनि आदि सबका हित भरा रहता है।........ यदि लोग उसके मनके भावोंको जान जायँ तो वे उसके चरणोंके दास बन जायँ । इसके विपरीत यदि लोग दुष्ट पुरुषके मनके भावोंको जान जायँ तो दिनमें कई बार लोगोंसे उसकी पिटाई हो।
||श्रीहरि:||
साधु पुरुषके भावों और क्रियाओंमें पशु, पक्षी, वृक्ष, पर्वत, मनुष्य, देवता, पितर, ऋषि, मुनि आदि सबका हित भरा रहता है।........ यदि लोग उसके मनके भावोंको जान जायँ तो वे उसके चरणोंके दास बन जायँ । इसके विपरीत यदि लोग दुष्ट पुरुषके मनके भावोंको जान जायँ तो दिनमें कई बार लोगोंसे उसकी पिटाई हो।- साधक संजीवनी ४।८
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साधक संजीवनी ४।८··
सन्त-महापुरुषकी सबसे बड़ी सेवा है— उनके सिद्धान्तोंके अनुसार अपना जीवन बनाना। कारण कि उन्हें सिद्धान्त जितने प्रिय होते हैं, उतना अपना शरीर प्रिय नहीं होता।
||श्रीहरि:||
सन्त-महापुरुषकी सबसे बड़ी सेवा है— उनके सिद्धान्तोंके अनुसार अपना जीवन बनाना। कारण कि उन्हें सिद्धान्त जितने प्रिय होते हैं, उतना अपना शरीर प्रिय नहीं होता।- साधक संजीवनी ४ । ३४
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ४ । ३४··
बुराईरहित महापुरुष अगर हिमालयकी एकान्त गुफामें भी बैठा हो तो भी उसके द्वारा विश्वका बहुत हित होता है।
||श्रीहरि:||
बुराईरहित महापुरुष अगर हिमालयकी एकान्त गुफामें भी बैठा हो तो भी उसके द्वारा विश्वका बहुत हित होता है।- साधक संजीवनी ५। ३ मा०
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साधक संजीवनी ५। ३ मा०··
शास्त्र और सन्त किसीको बाध्य नहीं करते कि तुम हमारेमें श्रद्धा करो। श्रद्धा करने अथवा न करनेमें मनुष्य स्वतन्त्र है।
||श्रीहरि:||
शास्त्र और सन्त किसीको बाध्य नहीं करते कि तुम हमारेमें श्रद्धा करो। श्रद्धा करने अथवा न करनेमें मनुष्य स्वतन्त्र है।- साधक संजीवनी २।१८ परि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी २।१८ परि०··
आज दिनतक भगवान्के अनेक अवतार हो चुके हैं, कई तरहके सन्त महात्मा, जीवन्मुक्त, भगवत्प्रेमी हो चुके हैं; परन्तु अभीतक हमारा उद्धार नहीं हुआ है। इससे भी सिद्ध होता है कि हमने स्वयं उनमें श्रद्धा नहीं की, हम स्वयं उनके सम्मुख नहीं हुए, हमने स्वयं उनकी बात नहीं मानी, इसलिये हमारा उद्धार नहीं हुआ।
||श्रीहरि:||
आज दिनतक भगवान्के अनेक अवतार हो चुके हैं, कई तरहके सन्त महात्मा, जीवन्मुक्त, भगवत्प्रेमी हो चुके हैं; परन्तु अभीतक हमारा उद्धार नहीं हुआ है। इससे भी सिद्ध होता है कि हमने स्वयं उनमें श्रद्धा नहीं की, हम स्वयं उनके सम्मुख नहीं हुए, हमने स्वयं उनकी बात नहीं मानी, इसलिये हमारा उद्धार नहीं हुआ।- साधक संजीवनी ६।५ वि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ६।५ वि०··
गुरु, सन्त और भगवान् भी तभी उद्धार करते हैं, जब मनुष्य स्वयं उनपर श्रद्धा-विश्वास करता है, उनको स्वीकार करता है, उनके सम्मुख होता है, उनके शरण होता है, उनकी आज्ञाका पालन करता है। अगर मनुष्य उनको स्वीकार न करे तो वे कैसे उद्धार करेंगे ? नहीं कर सकते।
||श्रीहरि:||
गुरु, सन्त और भगवान् भी तभी उद्धार करते हैं, जब मनुष्य स्वयं उनपर श्रद्धा-विश्वास करता है, उनको स्वीकार करता है, उनके सम्मुख होता है, उनके शरण होता है, उनकी आज्ञाका पालन करता है। अगर मनुष्य उनको स्वीकार न करे तो वे कैसे उद्धार करेंगे ? नहीं कर सकते।- साधक संजीवनी ६५ परि०
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साधक संजीवनी ६५ परि०··
गुरु, सन्त और भगवान्का कभी अभाव नहीं होता।
||श्रीहरि:||
गुरु, सन्त और भगवान्का कभी अभाव नहीं होता।- साधक संजीवनी ६ | ५ परि०
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साधक संजीवनी ६ | ५ परि०··
सन्त, भक्त आदिके दर्शन, सम्भाषण, चिन्तन आदिका माहात्म्य इस मृत्युलोकके मनुष्योंके लिये ही है।
||श्रीहरि:||
सन्त, भक्त आदिके दर्शन, सम्भाषण, चिन्तन आदिका माहात्म्य इस मृत्युलोकके मनुष्योंके लिये ही है।- साधक संजीवनी ८।१६
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साधक संजीवनी ८।१६··
वास्तवमें कल्याण दर्शनमात्रसे नहीं होता, प्रत्युत अपनी भावना विशेष होनेसे होता है।
||श्रीहरि:||
वास्तवमें कल्याण दर्शनमात्रसे नहीं होता, प्रत्युत अपनी भावना विशेष होनेसे होता है।- साधक संजीवनी ८।१६
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साधक संजीवनी ८।१६··
ऐसे आचार्य, सन्तके पास रहना चाहिये और केवल अपने उद्धारके लिये ही उनसे सम्बन्ध रखना चाहिये। वे क्या करते हैं, क्या नहीं करते? वे ऐसी क्रिया क्यों करते हैं? वे कब किसके साथ कैसा बर्ताव करते हैं ? आदिमें अपनी बुद्धि नहीं लगानी चाहिये अर्थात् उनकी क्रियाओंमें तर्क नहीं लगाना चाहिये।
||श्रीहरि:||
ऐसे आचार्य, सन्तके पास रहना चाहिये और केवल अपने उद्धारके लिये ही उनसे सम्बन्ध रखना चाहिये। वे क्या करते हैं, क्या नहीं करते? वे ऐसी क्रिया क्यों करते हैं? वे कब किसके साथ कैसा बर्ताव करते हैं ? आदिमें अपनी बुद्धि नहीं लगानी चाहिये अर्थात् उनकी क्रियाओंमें तर्क नहीं लगाना चाहिये।- साधक संजीवनी १३।७
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी १३।७··
शरीरसे सन्तोंका संग नहीं होता । शरीरसे तो उनको देखते हैं। सन्तोंका संग भीतरके भावके अनुसार होता है। शरीरसे भी लाभ है, पर असली लाभ भीतरके भावसे है।
||श्रीहरि:||
शरीरसे सन्तोंका संग नहीं होता । शरीरसे तो उनको देखते हैं। सन्तोंका संग भीतरके भावके अनुसार होता है। शरीरसे भी लाभ है, पर असली लाभ भीतरके भावसे है।- पायो परम बिश्रामु १५
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
पायो परम बिश्रामु १५··
अगर किसी कारणवश साधककी सन्त-महापुरुषके प्रति अश्रद्धा, दोष- दृष्टि हो जाय तो उनमें साधकको अवगुण-ही-अवगुण दीखेंगे, गुण दीखेंगे ही नहीं। इसका कारण यह है कि महापुरुष गुण-अवगुणोंसे ऊँचे उठे (गुणातीत) होते हैं; अतः उनमें अश्रद्धा होनेपर अपना ही भाव अपनेको दीखता है।
||श्रीहरि:||
अगर किसी कारणवश साधककी सन्त-महापुरुषके प्रति अश्रद्धा, दोष- दृष्टि हो जाय तो उनमें साधकको अवगुण-ही-अवगुण दीखेंगे, गुण दीखेंगे ही नहीं। इसका कारण यह है कि महापुरुष गुण-अवगुणोंसे ऊँचे उठे (गुणातीत) होते हैं; अतः उनमें अश्रद्धा होनेपर अपना ही भाव अपनेको दीखता है।- साधक संजीवनी १३ । २५
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साधक संजीवनी १३ । २५··
साधकको चाहिये कि वह तत्त्वज्ञ महापुरुषकी क्रियाओंपर, उनके आचरणोंपर ध्यान न देकर उनके पास तटस्थ होकर रहे । सन्त-महापुरुषसे ज्यादा लाभ वही ले सकता है, जो उनसे किसी प्रकारके सांसारिक व्यवहारका सम्बन्ध न रखकर केवल पारमार्थिक ( साधनका ) सम्बन्ध रखता है। दूसरी बात, साधक इस बातकी सावधानी रखे कि उसके द्वारा उन महापुरुषकी कहीं भी निन्दा न हो । यदि वह उनकी निन्दा करेगा, तो उसकी कहीं भी उन्नति नहीं होगी।
||श्रीहरि:||
साधकको चाहिये कि वह तत्त्वज्ञ महापुरुषकी क्रियाओंपर, उनके आचरणोंपर ध्यान न देकर उनके पास तटस्थ होकर रहे । सन्त-महापुरुषसे ज्यादा लाभ वही ले सकता है, जो उनसे किसी प्रकारके सांसारिक व्यवहारका सम्बन्ध न रखकर केवल पारमार्थिक ( साधनका ) सम्बन्ध रखता है। दूसरी बात, साधक इस बातकी सावधानी रखे कि उसके द्वारा उन महापुरुषकी कहीं भी निन्दा न हो । यदि वह उनकी निन्दा करेगा, तो उसकी कहीं भी उन्नति नहीं होगी।- साधक संजीवनी १३ ।२५
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साधक संजीवनी १३ ।२५··
किसी सन्तके पास जाओ तो कम-से-कम उनके मनके विरुद्ध काम मत करो। इससे कभी लाभ नहीं होगा, उल्टे हानि होगी । लाभ सन्तकी प्रसन्नतासे होता है, उनके मनके विरुद्ध काम करनेसे नहीं । उनके मनके विरुद्ध काम करेंगे तो वह अपराध होगा, जिसका दण्ड भोगना पड़ेगा । उनका कहना नहीं मानो तो कम-से-कम उनके विरुद्ध तो मत चलो। हम सन्तसे जबर्दस्ती लाभ नहीं ले सकते, प्रत्युत उनकी प्रसन्नतासे लाभ ले सकते हैं। लाभ सन्तकी प्रसन्नतामें है, उनके चरणोंमें नहीं।
||श्रीहरि:||
किसी सन्तके पास जाओ तो कम-से-कम उनके मनके विरुद्ध काम मत करो। इससे कभी लाभ नहीं होगा, उल्टे हानि होगी । लाभ सन्तकी प्रसन्नतासे होता है, उनके मनके विरुद्ध काम करनेसे नहीं । उनके मनके विरुद्ध काम करेंगे तो वह अपराध होगा, जिसका दण्ड भोगना पड़ेगा । उनका कहना नहीं मानो तो कम-से-कम उनके विरुद्ध तो मत चलो। हम सन्तसे जबर्दस्ती लाभ नहीं ले सकते, प्रत्युत उनकी प्रसन्नतासे लाभ ले सकते हैं। लाभ सन्तकी प्रसन्नतामें है, उनके चरणोंमें नहीं।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ८६
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सीमाके भीतर असीम प्रकाश ८६··
जैसे समुद्रके भीतर लहरें उठती दीखती हैं, पर समुद्रके भीतर कोई लहर नहीं होती, भीतरसे समुद्र शान्त (सम) रहता है, ऐसे ही व्यवहारमें सन्त दुःखी होते हुए दीखते हैं, पर उनके भीतर न सुख है, न दुःख । तात्पर्य है कि वास्तवमें वे दुःखी नहीं होते, प्रत्युत उनके द्वारा दूसरेका दुःख दूर करनेकी चेष्टा होती है।
||श्रीहरि:||
जैसे समुद्रके भीतर लहरें उठती दीखती हैं, पर समुद्रके भीतर कोई लहर नहीं होती, भीतरसे समुद्र शान्त (सम) रहता है, ऐसे ही व्यवहारमें सन्त दुःखी होते हुए दीखते हैं, पर उनके भीतर न सुख है, न दुःख । तात्पर्य है कि वास्तवमें वे दुःखी नहीं होते, प्रत्युत उनके द्वारा दूसरेका दुःख दूर करनेकी चेष्टा होती है।- साधक संजीवनी १६ । २
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साधक संजीवनी १६ । २··
सन्तोंको अनुकूलता अच्छी नहीं लगती । नमस्कार करना भी अच्छा नहीं लगता। कोई उनका आदर-सत्कार करे तो उनको सुहाता नहीं कि इससे हमारा पतन है।
||श्रीहरि:||
सन्तोंको अनुकूलता अच्छी नहीं लगती । नमस्कार करना भी अच्छा नहीं लगता। कोई उनका आदर-सत्कार करे तो उनको सुहाता नहीं कि इससे हमारा पतन है।- मैं नहीं, मेरा नहीं १५५
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मैं नहीं, मेरा नहीं १५५··
किसी महापुरुषके दर्शन हो जानेसे पूर्वसंस्कारवश मनुष्यकी वृत्ति बदल जाती है अथवा जिन स्थानोंपर बड़े-बड़े प्रभावशाली सन्त हुए हैं, उन स्थलोंमें, तीर्थोंमें जानेसे भी विवेकशक्ति जाग्रत् हो जाती है।
||श्रीहरि:||
किसी महापुरुषके दर्शन हो जानेसे पूर्वसंस्कारवश मनुष्यकी वृत्ति बदल जाती है अथवा जिन स्थानोंपर बड़े-बड़े प्रभावशाली सन्त हुए हैं, उन स्थलोंमें, तीर्थोंमें जानेसे भी विवेकशक्ति जाग्रत् हो जाती है।- साधक संजीवनी १६ । ७
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साधक संजीवनी १६ । ७··
अच्छे सन्त-महात्मा पहले युगों में भी कम हुए हैं, फिर कलियुगमें तो और भी कम होंगे। कम होनेपर भी यदि भीतर चाहना हो तो उन्हें सत्संग मिल सकता है। परन्तु मुश्किल यह है कि कलियुगमें दम्भ, पाखण्ड ज्यादा होनेसे कई दम्भी और पाखण्डी पुरुष सन्त बन जाते हैं। अतः सच्चे सन्त पहचानमें आने मुश्किल हैं। इस प्रकार पहले तो सन्त महात्मा मिलने कठिन हैं और मिल भी जायँ तो उनमें से कौन-से सन्त कैसे हैं- इस बातकी पहचान प्रायः नहीं होती और पहचान हुए बिना उनका संग करके विशेष लाभ ले लें- ऐसी बात भी नहीं है।
||श्रीहरि:||
अच्छे सन्त-महात्मा पहले युगों में भी कम हुए हैं, फिर कलियुगमें तो और भी कम होंगे। कम होनेपर भी यदि भीतर चाहना हो तो उन्हें सत्संग मिल सकता है। परन्तु मुश्किल यह है कि कलियुगमें दम्भ, पाखण्ड ज्यादा होनेसे कई दम्भी और पाखण्डी पुरुष सन्त बन जाते हैं। अतः सच्चे सन्त पहचानमें आने मुश्किल हैं। इस प्रकार पहले तो सन्त महात्मा मिलने कठिन हैं और मिल भी जायँ तो उनमें से कौन-से सन्त कैसे हैं- इस बातकी पहचान प्रायः नहीं होती और पहचान हुए बिना उनका संग करके विशेष लाभ ले लें- ऐसी बात भी नहीं है।- साधक संजीवनी १७।१
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साधक संजीवनी १७।१··
मनुष्यमें प्रायः यह एक कमजोरी रहती है कि जब उसके सामने सन्त - महापुरुष विद्यमान रहते हैं, तब उसका उनपर श्रद्धा - विश्वास एवं महत्त्वबुद्धि नहीं होती; परन्तु जब वे चले जाते हैं, तब पीछे वह रोता है, पश्चात्ताप करता है।
||श्रीहरि:||
मनुष्यमें प्रायः यह एक कमजोरी रहती है कि जब उसके सामने सन्त - महापुरुष विद्यमान रहते हैं, तब उसका उनपर श्रद्धा - विश्वास एवं महत्त्वबुद्धि नहीं होती; परन्तु जब वे चले जाते हैं, तब पीछे वह रोता है, पश्चात्ताप करता है।- साधक संजीवनी १८ । ६२
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साधक संजीवनी १८ । ६२··
दुनियाका एक भी आदमी उद्धारके बिना रह जाय, तबतक काम करना किसीका छूटता नहीं, चाहे वह महात्मा ही क्यों न हो । जबतक एक भी प्राणी बन्धनमें है, तबतक मनुष्यका, सन्तोंका कर्तव्य समाप्त नहीं होता।
||श्रीहरि:||
दुनियाका एक भी आदमी उद्धारके बिना रह जाय, तबतक काम करना किसीका छूटता नहीं, चाहे वह महात्मा ही क्यों न हो । जबतक एक भी प्राणी बन्धनमें है, तबतक मनुष्यका, सन्तोंका कर्तव्य समाप्त नहीं होता।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ३१
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ३१··
सच्चा सन्त वह है, जिसको कुछ नहीं चाहिये, नमस्कार भी नहीं चाहिये, पैसा भी नहीं चाहिये, पदार्थ भी नहीं चाहिये, भोग भी नहीं चाहिये। जिसको कभी स्वप्नमें भी संसारसे चाहना होती ही नहीं, वही सच्चा सन्त है, सच्चा गुरु है । वह चिन्मय तत्त्वमें स्थित होता है, जहाँ जड़ताका नामोनिशान ही नहीं है।
||श्रीहरि:||
सच्चा सन्त वह है, जिसको कुछ नहीं चाहिये, नमस्कार भी नहीं चाहिये, पैसा भी नहीं चाहिये, पदार्थ भी नहीं चाहिये, भोग भी नहीं चाहिये। जिसको कभी स्वप्नमें भी संसारसे चाहना होती ही नहीं, वही सच्चा सन्त है, सच्चा गुरु है । वह चिन्मय तत्त्वमें स्थित होता है, जहाँ जड़ताका नामोनिशान ही नहीं है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १०६
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १०६··
एक मार्मिक बात है। हमलोग यह चाहते हैं कि हमें अच्छे, ऊँचे महात्मा मिलें तो हम उनका संग करें। अगर यही बात स्वयं ऊँचे महात्मा भी विचार करें तो हमारे साथ माथापच्ची कौन करेगा? परन्तु वे महात्मा इस बातको समझते हैं कि ऊँचोंकी अपेक्षा छोटोंसे विशेष लाभ होता है। इसलिये वे दया करके छोटोंको सँभालते हैं। एकान्तमें भजन करना उनको आता है। वे एकान्तमें भजन करना नहीं जानते- ऐसी बात नहीं है । परन्तु वे अपने भजनसे भी विशेष महत्त्व सत्संगको देते हैं; क्योंकि जीवोंका सम्बन्ध भगवान् के साथ जुड़ जायगा तो बड़ा भारी काम हो जायगा।
||श्रीहरि:||
एक मार्मिक बात है। हमलोग यह चाहते हैं कि हमें अच्छे, ऊँचे महात्मा मिलें तो हम उनका संग करें। अगर यही बात स्वयं ऊँचे महात्मा भी विचार करें तो हमारे साथ माथापच्ची कौन करेगा? परन्तु वे महात्मा इस बातको समझते हैं कि ऊँचोंकी अपेक्षा छोटोंसे विशेष लाभ होता है। इसलिये वे दया करके छोटोंको सँभालते हैं। एकान्तमें भजन करना उनको आता है। वे एकान्तमें भजन करना नहीं जानते- ऐसी बात नहीं है । परन्तु वे अपने भजनसे भी विशेष महत्त्व सत्संगको देते हैं; क्योंकि जीवोंका सम्बन्ध भगवान् के साथ जुड़ जायगा तो बड़ा भारी काम हो जायगा।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १३२
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १३२··
अभी ढूँढ़ो तो सही मार्ग बतानेवाले सन्त महात्मा मिलेंगे नहीं, पर आप सच्चे हृदयसे भगवान्में लग जाओ तो वे स्वयं आकर आपको बतायेंगे। इतना ही नहीं, गुप्त रीतिसे रहनेवाले सन्त- महात्मा भी आपके सामने प्रकट हो जायँगे।
||श्रीहरि:||
अभी ढूँढ़ो तो सही मार्ग बतानेवाले सन्त महात्मा मिलेंगे नहीं, पर आप सच्चे हृदयसे भगवान्में लग जाओ तो वे स्वयं आकर आपको बतायेंगे। इतना ही नहीं, गुप्त रीतिसे रहनेवाले सन्त- महात्मा भी आपके सामने प्रकट हो जायँगे।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १३४ - १३५
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १३४ - १३५··
अच्छे महापुरुषोंको अवतार कहना उनका तिरस्कार है। कारण कि जो पहलेसे ही ऊँचे पुरुष हैं, वे इस जन्ममें आकर बड़ा काम करें तो क्या विशेषता हुई ? जो साधारण होकर भी उन्नति कर ले, उसकी विशेषता है।
||श्रीहरि:||
अच्छे महापुरुषोंको अवतार कहना उनका तिरस्कार है। कारण कि जो पहलेसे ही ऊँचे पुरुष हैं, वे इस जन्ममें आकर बड़ा काम करें तो क्या विशेषता हुई ? जो साधारण होकर भी उन्नति कर ले, उसकी विशेषता है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ४९
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश ४९··
संसारमें जितने सदाचार हैं, सद्गुण हैं, अच्छे भाव हैं, वे सब सन्तोंकी कृपासे हैं । जहाँ सन्त आते-जाते हैं, रहते हैं, वह घर, मुहल्ला, गाँव पवित्र हो जाता है।
||श्रीहरि:||
संसारमें जितने सदाचार हैं, सद्गुण हैं, अच्छे भाव हैं, वे सब सन्तोंकी कृपासे हैं । जहाँ सन्त आते-जाते हैं, रहते हैं, वह घर, मुहल्ला, गाँव पवित्र हो जाता है।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ १४६
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ १४६··
संसारमें जितना सद्गुण है, सदाचार है, वह सब महात्माओंकी कृपा है। मैंने तो प्रत्यक्ष देखा है। मैं गाँवोंमें और शहरोंमें बहुत घूमा हूँ। मैंने देखा है कि जिन गाँवोंमें सौ-दो सौ वर्षोंमें कोई सन्त नहीं गये, वे गाँव बिल्कुल भूतोंके निवास जैसे दीखते हैं। गाँवभरमें भगवान्का कोई मन्दिर नहीं। वे जानते ही नहीं कि क्या भगवान् होता है, क्या भक्त होता है ? परन्तु जिन गाँवोंमें सन्त गये हैं, वहाँ विलक्षणता दीखती है, शान्ति मिलती है।
||श्रीहरि:||
संसारमें जितना सद्गुण है, सदाचार है, वह सब महात्माओंकी कृपा है। मैंने तो प्रत्यक्ष देखा है। मैं गाँवोंमें और शहरोंमें बहुत घूमा हूँ। मैंने देखा है कि जिन गाँवोंमें सौ-दो सौ वर्षोंमें कोई सन्त नहीं गये, वे गाँव बिल्कुल भूतोंके निवास जैसे दीखते हैं। गाँवभरमें भगवान्का कोई मन्दिर नहीं। वे जानते ही नहीं कि क्या भगवान् होता है, क्या भक्त होता है ? परन्तु जिन गाँवोंमें सन्त गये हैं, वहाँ विलक्षणता दीखती है, शान्ति मिलती है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ५५-५६
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश ५५-५६··
शास्त्रोंकी बातकी अपेक्षा अनुभवी सन्तोंकी बात श्रेष्ठ है।
||श्रीहरि:||
शास्त्रोंकी बातकी अपेक्षा अनुभवी सन्तोंकी बात श्रेष्ठ है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ८६
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश ८६··
आध्यात्मिक उन्नति सन्तोंकी प्रसन्नतासे होती है, जबर्दस्ती नहीं होती। जब भैंस भी राजी हुए बिना दूध नहीं देती, फिर सन्त महात्मा राजी हुए बिना कल्याण कैसे कर देंगे ?
||श्रीहरि:||
आध्यात्मिक उन्नति सन्तोंकी प्रसन्नतासे होती है, जबर्दस्ती नहीं होती। जब भैंस भी राजी हुए बिना दूध नहीं देती, फिर सन्त महात्मा राजी हुए बिना कल्याण कैसे कर देंगे ?- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ४६
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ४६··
भगवत्प्राप्त महापुरुषके शरणागत होनेसे, उनका संग होनेसे परमात्मा सुलभ हो जाते हैं। जैसे अनन्यचित्तवाले भक्तके लिये भगवान् सुलभ हो जाते हैं - ' तस्याहं सुलभः पार्थ' (गीता ८ । १४), ऐसे ही महात्माके मिलनेसे भी परमात्मा सुलभ हो जाते हैं । सन्त महात्माके मिलनेसे बहुत विशेष लाभ होता है। जैसे कोई पूँजी दे दे, ऐसे ही सन्त महात्मा पूँजी दे देते हैं।
||श्रीहरि:||
भगवत्प्राप्त महापुरुषके शरणागत होनेसे, उनका संग होनेसे परमात्मा सुलभ हो जाते हैं। जैसे अनन्यचित्तवाले भक्तके लिये भगवान् सुलभ हो जाते हैं - ' तस्याहं सुलभः पार्थ' (गीता ८ । १४), ऐसे ही महात्माके मिलनेसे भी परमात्मा सुलभ हो जाते हैं । सन्त महात्माके मिलनेसे बहुत विशेष लाभ होता है। जैसे कोई पूँजी दे दे, ऐसे ही सन्त महात्मा पूँजी दे देते हैं।- ईसवर अंस जीव अबिनासी १००
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ईसवर अंस जीव अबिनासी १००··
सबका कल्याण कैसे हो - ऐसी लगनवाले महात्मा बहुत कम होते हैं। उनकी बातोंकी तरफ ध्यान देनेवाले, उसके अनुसार चलनेवाले भी बहुत कम होते हैं। उन महात्माओंकी बातोंका असर सब जीवोंपर पड़ता है, पर उसमें फर्क रहता है। रेत, जमीन, दीवार, खम्भे, तम्बू आदि जड़ चीजोंपर भी उनका असर पड़ता है, पर जो दुष्ट हृदय होते हैं, उनपर असर नहीं पड़ता; क्योंकि वे आड़ लगा देते हैं।
||श्रीहरि:||
सबका कल्याण कैसे हो - ऐसी लगनवाले महात्मा बहुत कम होते हैं। उनकी बातोंकी तरफ ध्यान देनेवाले, उसके अनुसार चलनेवाले भी बहुत कम होते हैं। उन महात्माओंकी बातोंका असर सब जीवोंपर पड़ता है, पर उसमें फर्क रहता है। रेत, जमीन, दीवार, खम्भे, तम्बू आदि जड़ चीजोंपर भी उनका असर पड़ता है, पर जो दुष्ट हृदय होते हैं, उनपर असर नहीं पड़ता; क्योंकि वे आड़ लगा देते हैं।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १९३
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १९३··
बालकको माँकी ज्यादा जरूरत होती है। परन्तु माँके हृदयमें बालकके हितकी जो लगन होती है, वह बालकके हृदयमें नहीं होती। इसी तरह सन्त-महात्माओंके हृदयमें आपके कल्याणकी जितनी लगन है, उतनी आपके हृदयमें नहीं है। उनका हृदय माँसे भी बढ़कर होता है।
||श्रीहरि:||
बालकको माँकी ज्यादा जरूरत होती है। परन्तु माँके हृदयमें बालकके हितकी जो लगन होती है, वह बालकके हृदयमें नहीं होती। इसी तरह सन्त-महात्माओंके हृदयमें आपके कल्याणकी जितनी लगन है, उतनी आपके हृदयमें नहीं है। उनका हृदय माँसे भी बढ़कर होता है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश २२४
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश २२४··
सन्त-महात्माओंके पास रहनेसे, उनका सत्संग करनेसे बहुत फायदा होता है। जहाँ दो आदमियों की आपसमें लड़ाई होती हो, वहाँ अगर क्रोधी स्वभाववाला आदमी चुपचाप आकर खड़ा हो जाय तो लड़ाई बढ़ जायगी; परन्तु कोई सन्त महात्मा आकर खड़ा हो जाय तो लड़ाई शान्त हो जायगी।
||श्रीहरि:||
सन्त-महात्माओंके पास रहनेसे, उनका सत्संग करनेसे बहुत फायदा होता है। जहाँ दो आदमियों की आपसमें लड़ाई होती हो, वहाँ अगर क्रोधी स्वभाववाला आदमी चुपचाप आकर खड़ा हो जाय तो लड़ाई बढ़ जायगी; परन्तु कोई सन्त महात्मा आकर खड़ा हो जाय तो लड़ाई शान्त हो जायगी।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ १०६
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ १०६··
सन्त-महात्माओंमें जो कड़ापन होता है, उसमें ज्यादा हित भरा होता है । यद्यपि स्वभावमें न होनेके कारण उनको कड़ाई करनेपर, शासन करनेपर जोर आता है, तथापि दूसरेके हित के लिये उनको कड़ाई करनी पड़ती है। कड़ाई करके वे प्रसन्न, राजी नहीं होते। नारियलके समान बाहरसे कठोर दीखनेपर भी उनके भीतर रस भरा रहता है।
||श्रीहरि:||
सन्त-महात्माओंमें जो कड़ापन होता है, उसमें ज्यादा हित भरा होता है । यद्यपि स्वभावमें न होनेके कारण उनको कड़ाई करनेपर, शासन करनेपर जोर आता है, तथापि दूसरेके हित के लिये उनको कड़ाई करनी पड़ती है। कड़ाई करके वे प्रसन्न, राजी नहीं होते। नारियलके समान बाहरसे कठोर दीखनेपर भी उनके भीतर रस भरा रहता है।- अनन्तकी ओर १०
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अनन्तकी ओर १०··
जो असली सन्त महात्मा हैं, उनके हृदयमें उदारता भरी रहती है। वे प्राणिमात्रका कल्याण चाहते हैं—'सुहृदः सर्वदेहिनाम्' (श्रीमद्भा० ३ । २५। २१) । वे कल्याणकी बात हरेक आदमीको बतानेके लिये तैयार रहते हैं। वे किसीसे कुछ नहीं चाहते, नमस्कार भी नहीं।
||श्रीहरि:||
जो असली सन्त महात्मा हैं, उनके हृदयमें उदारता भरी रहती है। वे प्राणिमात्रका कल्याण चाहते हैं—'सुहृदः सर्वदेहिनाम्' (श्रीमद्भा० ३ । २५। २१) । वे कल्याणकी बात हरेक आदमीको बतानेके लिये तैयार रहते हैं। वे किसीसे कुछ नहीं चाहते, नमस्कार भी नहीं।- अनन्तकी ओर ४१
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अनन्तकी ओर ४१··
चमत्कार दीखना महापुरुषकी पहचान नहीं है। यह कोई मूल्यवान् बात नहीं है। सब चमत्कार मायामें हैं। महापुरुषकी पहचान यह है कि उनके संगसे अपनेको स्वतः - स्वाभाविक शान्ति मिलती है। उनसे बिना पूछे अपनी शंकाओंका समाधान हो जाता है। वे कोई बात कह रहे हैं तो बिना प्रसंग बीचमें ऐसी बात आ जायगी, जिससे हमारे मनकी शंकाका समाधान हो जायगा।
||श्रीहरि:||
चमत्कार दीखना महापुरुषकी पहचान नहीं है। यह कोई मूल्यवान् बात नहीं है। सब चमत्कार मायामें हैं। महापुरुषकी पहचान यह है कि उनके संगसे अपनेको स्वतः - स्वाभाविक शान्ति मिलती है। उनसे बिना पूछे अपनी शंकाओंका समाधान हो जाता है। वे कोई बात कह रहे हैं तो बिना प्रसंग बीचमें ऐसी बात आ जायगी, जिससे हमारे मनकी शंकाका समाधान हो जायगा।- ईसवर अंस जीव अबिनासी ३१
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ईसवर अंस जीव अबिनासी ३१··
जिसको भगवान् अच्छे लगते हैं, उसको सन्त अच्छे लगते हैं। जिसको सन्त अच्छे लगते हैं, उसे सारी दुनिया अच्छी लगती है।
||श्रीहरि:||
जिसको भगवान् अच्छे लगते हैं, उसको सन्त अच्छे लगते हैं। जिसको सन्त अच्छे लगते हैं, उसे सारी दुनिया अच्छी लगती है।- स्वातिकी बूँदें ८७
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स्वातिकी बूँदें ८७··
भगवान् और सन्त महात्मा विशेष श्रद्धालु, अनन्यभक्तके सामने ही प्रकट होते हैं। वे हरेकके सामने प्रकट नहीं होते, गुप्त रहते हैं।
||श्रीहरि:||
भगवान् और सन्त महात्मा विशेष श्रद्धालु, अनन्यभक्तके सामने ही प्रकट होते हैं। वे हरेकके सामने प्रकट नहीं होते, गुप्त रहते हैं।- स्वातिकी बूँदें १३१
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स्वातिकी बूँदें १३१··
सन्त 'स्वभाव' होता है, गृहस्थ या साधु नहीं होता।
||श्रीहरि:||
सन्त 'स्वभाव' होता है, गृहस्थ या साधु नहीं होता।- स्वातिकी बूँदें १३३
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
स्वातिकी बूँदें १३३··
जितने सन्त महात्मा, श्रेष्ठ मनुष्य हुए हैं, उनके भीतर स्वार्थका त्याग तथा सबके हितका भाव था। अगर आपका भी ऐसा भाव बन जाय तो आप गृहस्थ में रहते हुए ही सन्त बन जायँगे । आपके हृदयमें आनन्दका समुद्र आ जायगा।
||श्रीहरि:||
जितने सन्त महात्मा, श्रेष्ठ मनुष्य हुए हैं, उनके भीतर स्वार्थका त्याग तथा सबके हितका भाव था। अगर आपका भी ऐसा भाव बन जाय तो आप गृहस्थ में रहते हुए ही सन्त बन जायँगे । आपके हृदयमें आनन्दका समुद्र आ जायगा।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ ८९
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
नये रास्ते, नयी दिशाएँ ८९··
सबका हित चाहनेवाला घर बैठे महात्मा हो जाता है।
||श्रीहरि:||
सबका हित चाहनेवाला घर बैठे महात्मा हो जाता है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ९४
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सीमाके भीतर असीम प्रकाश ९४··
सन्तोंका यह स्वभाव होता है कि उनको अपनेमें कोई गुण नहीं दीखता, जबकि उनमें कोई दोष नहीं रहता।
||श्रीहरि:||
सन्तोंका यह स्वभाव होता है कि उनको अपनेमें कोई गुण नहीं दीखता, जबकि उनमें कोई दोष नहीं रहता।- स्वातिकी बूँदें १३४
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
स्वातिकी बूँदें १३४··
भगवान्से और सन्तोंसे किसीका अहित नहीं होता। ऐसा स्वभाव भगवान्में तो स्वतः सिद्ध है और सन्तोंमें भगवान्से आता है।
||श्रीहरि:||
भगवान्से और सन्तोंसे किसीका अहित नहीं होता। ऐसा स्वभाव भगवान्में तो स्वतः सिद्ध है और सन्तोंमें भगवान्से आता है।- स्वातिकी बूँदें १४१
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
स्वातिकी बूँदें १४१··
जो कहता है कि 'मैं जानता हूँ' (मुझे तत्त्वज्ञान हो गया), वह वास्तवमें नहीं जानता, क्योंकि तत्त्वज्ञानमें त्रिपुटी नहीं है। केवल तीन अवस्थाओंमें महापुरुष 'मैं जानता हूँ' ऐसा कह सकता है - १) अत्यन्त जिज्ञासु सामने आ जाय, २) अपने प्रेमीका शरीर छूट रहा हो और ३) अपना शरीर छूट रहा हो।
||श्रीहरि:||
जो कहता है कि 'मैं जानता हूँ' (मुझे तत्त्वज्ञान हो गया), वह वास्तवमें नहीं जानता, क्योंकि तत्त्वज्ञानमें त्रिपुटी नहीं है। केवल तीन अवस्थाओंमें महापुरुष 'मैं जानता हूँ' ऐसा कह सकता है - १) अत्यन्त जिज्ञासु सामने आ जाय, २) अपने प्रेमीका शरीर छूट रहा हो और ३) अपना शरीर छूट रहा हो।- स्वातिकी बूँदें १८३
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
स्वातिकी बूँदें १८३··
सन्त-महात्मा संसारमें लोगोंको अपनी तरफ लगानेके लिये नहीं आते, प्रत्युत भगवान्की तरफ लगानेके लिये आते हैं। जो लोगोंको अपनी तरफ ( अपने ध्यान, पूजन आदिमें) लगाता है, वह भगवद्रोही और नरकोंमें ले जानेवाला होता है।
||श्रीहरि:||
सन्त-महात्मा संसारमें लोगोंको अपनी तरफ लगानेके लिये नहीं आते, प्रत्युत भगवान्की तरफ लगानेके लिये आते हैं। जो लोगोंको अपनी तरफ ( अपने ध्यान, पूजन आदिमें) लगाता है, वह भगवद्रोही और नरकोंमें ले जानेवाला होता है।- अमृत-बिन्दु ६२२
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
अमृत-बिन्दु ६२२··
जैसे अपनी शक्तिसे हम भगवान्को जान नहीं सकते, ऐसे ही सन्तोंको भी जान नहीं सकते। उनके पासमें रहते हुए भी नहीं जान सकते। उनको जाननेमें अपनी बुद्धिमानी काम नहीं करती, प्रत्युत उनकी कृपा काम करती है - 'सोइ जानइ जेहि देहु जनाई' (मानस, अयोध्या० १२७ । २) । भगवान् और उनके भक्तोंके चरित्रको उनकी कृपाके बिना समझ नहीं सकते । इसलिये भगवान्को और उनके भक्तोंको पहचाननेवाले कम होते हैं।
||श्रीहरि:||
जैसे अपनी शक्तिसे हम भगवान्को जान नहीं सकते, ऐसे ही सन्तोंको भी जान नहीं सकते। उनके पासमें रहते हुए भी नहीं जान सकते। उनको जाननेमें अपनी बुद्धिमानी काम नहीं करती, प्रत्युत उनकी कृपा काम करती है - 'सोइ जानइ जेहि देहु जनाई' (मानस, अयोध्या० १२७ । २) । भगवान् और उनके भक्तोंके चरित्रको उनकी कृपाके बिना समझ नहीं सकते । इसलिये भगवान्को और उनके भक्तोंको पहचाननेवाले कम होते हैं।- अनन्तकी ओर ११
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अनन्तकी ओर ११··
सन्तोंकी महिमा अपार है, असीम है, अनन्त है । संसारमें जितने तीर्थ बने हैं, जितने सत्कर्म होते हैं, जितना अच्छे भावोंका प्रचार है, जितनी अच्छी बातें मिलती हैं, उन सबमें सन्त महात्माओंका हाथ है । संसारमें जो अच्छापन है, वह सब सन्त महात्माओंसे ही है। लोगोंमें कल्याणकी तरफ जो रुचि है, उसके मूलमें सन्त महात्मा ही हैं । भगवान्का अवतार भी सन्त-महात्माओंके कारण होता है - ' परित्राणाय साधूनाम्' ( गीता ४ । ८)।
||श्रीहरि:||
सन्तोंकी महिमा अपार है, असीम है, अनन्त है । संसारमें जितने तीर्थ बने हैं, जितने सत्कर्म होते हैं, जितना अच्छे भावोंका प्रचार है, जितनी अच्छी बातें मिलती हैं, उन सबमें सन्त महात्माओंका हाथ है । संसारमें जो अच्छापन है, वह सब सन्त महात्माओंसे ही है। लोगोंमें कल्याणकी तरफ जो रुचि है, उसके मूलमें सन्त महात्मा ही हैं । भगवान्का अवतार भी सन्त-महात्माओंके कारण होता है - ' परित्राणाय साधूनाम्' ( गीता ४ । ८)।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ५५