Seeker of Truth

संसार

चींटीसे लेकर ब्रह्मलोकतक सम्पूर्ण संसार कर्मफल है । संसारका स्वरूप है- वस्तु, व्यक्ति और क्रिया ।

साधक संजीवनी ६ । १ परि०··

वास्तवमें संसारकी स्थिति है ही नहीं, प्रत्युत उत्पत्ति और प्रलयके प्रवाहको ही स्थिति कह देते हैं। तात्त्विक दृष्टिसे देखें तो संसारकी उत्पत्ति भी नहीं है, प्रत्युत प्रलय ही प्रलय अर्थात् अभाव-ही-अभाव है। अतः संसारका प्रलय, अभाव अथवा वियोग ही मुख्य है।

साधक संजीवनी ९।७ परि०··

यह संसार ‘चर्मदृष्टि' से सच्चा, 'विवेकदृष्टि' से परिवर्तनशील, 'भावदृष्टि' से भगवत्स्वरूप और 'दिव्यदृष्टि' से विराट्रूपका ही एक छोटा-सा अंग दीखता है।

साधक संजीवनी ११ । २० मा०··

जगत् न तो परमात्माकी दृष्टिमें है, न जीवन्मुक्त महात्माकी दृष्टिमें है, प्रत्युत जीवकी दृष्टिमें है।

मानवमात्रके कल्याणके लिये ५५··

संसार हमें वह वस्तु दे ही नहीं सकता, जो हम वास्तवमें चाहते हैं। हम सुख चाहते हैं, अमरता चाहते हैं, निश्चिन्तता चाहते हैं, निर्भयता चाहते हैं, स्वाधीनता चाहते हैं । परन्तु यह सब हमें संसारसे नहीं मिलेगा, प्रत्युत संसारके सम्बन्ध विच्छेदसे मिलेगा।

साधक संजीवनी ३ । ९ परि०··

अनन्त ब्रह्माण्ड मिलकर भी हमारी आवश्यकताकी पूर्ति नहीं कर सकते। कारण कि ब्रह्माण्ड नाशवान् हैं, हमारी आवश्यकता अविनाशी है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १३४··

अगर संसारका असर पड़ जाय तो उसकी परवाह मत करो, उसको स्वीकार मत करो, फिर वह मिट जायगा । असरको महत्त्व देकर आप बड़े भारी लाभसे वंचित हो रहे हो। इसलिये असर पड़ता है तो पड़ने दो, पर मनमें समझो कि यह सच्ची बात नहीं है। झूठी चीजका असर भी झूठा ही होगा, सच्चा कैसे होगा ?

मानवमात्रके कल्याणके लिये २४··

संसार अध्यस्त नहीं है, प्रत्युत उसका सम्बन्ध अध्यस्त है।

सागरके मोती ५४··

हमारे और परमात्माके बीचमें जड़ता ( शरीर संसार) का परदा नहीं है, प्रत्युत जड़ताके सम्बन्धका परदा है।

मानवमात्रके कल्याणके लिये २६··

ग्रन्थोंमें यह बात आती है कि संसार असत् है, कल्पित है, मिथ्या है, यह बात ठीक है, पर इससे भी बढ़िया बात यह है कि संसारका सम्बन्ध असत् है । जब संसारसे हमारा सम्बन्ध नहीं है, तो फिर वह अनादि हो या सान्त हो अथवा अनन्त हो, सत् हो या असत् हो, कैसा ही क्यों न हो, हमें उससे क्या मतलब ? संसारका सम्बन्ध ही दुःख देनेवाला है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १४··

संसारको असत् माननेसे ही कल्याण होगा - यह कायदा नहीं है । सिनेमाको असत् माननेपर भी उसमें आसक्ति हो जाती है। सिनेमामें दीखनेवाला सच्चा नहीं है - ऐसा निर्णय पक्का है, फिर भी देखनेकी रुचि होती है। अतः अपनी स्वार्थबुद्धि भोगबुद्धि, आरामबुद्धि बाधक है।

अनन्तकी ओर २३-२४··

संसारको झूठा माननेमात्रसे कल्याण नहीं होता । कल्याण संसारके सम्बन्धका त्याग करनेसे होता है । सम्बन्धमें भी सुखबुद्धि बाधक है । संसारका सम्बन्ध केवल सुख पहुँचानेके लिये है, सुख लेनेके लिये नहीं।

अनन्तकी ओर २४··

संसार अनादि - सान्त है या अनादि - अनन्त है अथवा प्रतीतिमात्र है, इत्यादि विषयोंपर दार्शनिकों में अनेक मतभेद हैं; परन्तु संसारके साथ हमारा सम्बन्ध असत् है, जिसका विच्छेद करना आवश्यक है - इस विषयपर सभी दार्शनिक एकमत हैं।

साधक संजीवनी १५ । ३ वि०··

जगत् जीव अथवा साधककी दृष्टिमें है, महात्मा या भगवान्की दृष्टिमें नहीं। इसको मिथ्या इसलिये कहा है कि साधककी दृष्टि उधर नहीं जाय । वास्तवमें एक चिन्मय तत्त्व ही है।

सन्त समागम १४··

संसार मिथ्या है - यह साधककी धारणासे है; क्योंकि जड़ता ( मिथ्यापना) हमारी ही बुद्धिमें है, वास्तवमें है नहीं।

सन्त समागम १६··

सेवा करनेके लिये दुनिया हमारी है और लेनेके लिये कोई हमारा नहीं है।

ज्ञानके दीप जले १८··

संसारकी जितनी जानकारी (साक्षरता ) बढ़ेगी, उतने राग-द्वेष, अशान्ति, संघर्ष बढ़ेंगे। संसारकी जानकारी कामकी नहीं है। उससे ज्यादा आफत होगी। भगवान्‌की जानकारी बढ़ेगी तो शान्ति होगी।

सागरके मोती १३१··

संसारसे हमने सम्बन्ध माना है, इसलिये कहते हैं कि सम्बन्ध-विच्छेद हो रहा है। वास्तवमें संसारसे सम्बन्ध है ही नहीं। हम परमात्मामें हैं, परमात्मा हमारेमें हैं। संसार तो अलग बह रहा है।

सागरके मोती १३३··

कामनाओंके कारण ही संसारके साथ सम्बन्ध जुड़ा हुआ है। कामनाओंका सर्वथा त्याग करनेपर संसारके साथ सम्बन्ध रह ही नहीं सकता।

साधक संजीवनी २ । ७१··

संसारका स्वरूप है - क्रिया और पदार्थ । जब स्वरूपका न तो क्रियासे और न पदार्थसे ही कोई सम्बन्ध है, तब यह सिद्ध हो गया कि शरीर - इन्द्रियाँ - मन-बुद्धिसहित सम्पूर्ण संसारका अभाव है।

साधक संजीवनी २।१६··

संसारको हम एक ही बार देख सकते हैं, दूसरी बार नहीं । कारण कि संसार प्रतिक्षण परिवर्तनशील है; अतः एक क्षण पहले वस्तु जैसी थी, दूसरे क्षणमें वह वैसी नहीं रहती।...... इससे भी अधिक मार्मिक बात यह है कि वास्तवमें संसार एक बार भी नहीं दीखता । कारण कि शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदि जिन करणोंसे हम संसारको देखते हैं- अनुभव करते हैं, वे करण भी संसारके ही हैं। अतः वास्तवमें संसारसे ही संसार दीखता है। जो शरीर - संसारसे सर्वथा सम्बन्धरहित है, उस स्वरूपसे संसार कभी दीखता ही नहीं।

साधक संजीवनी २।१६··

यह सिद्धान्त है कि जिस वस्तुका किसी भी क्षण अभाव है, उसका सदा अभाव ही है। अतः संसारका सदा ही अभाव है।

साधक संजीवनी २।१६ परि०··

संसार विश्वास करनेयोग्य नहीं है, प्रत्युत सेवा करनेयोग्य है।

अमृत-बिन्दु ६३७··

संसारमें प्रेम करनेवाले तो कई हैं, पर सहारा देनेवाला कोई नहीं है। कोई सच्चे हृदयसे सहारा देना चाहता नहीं, और देना चाहे तो भी दे सकता नहीं। इसलिये संसारका भरोसा मत करो, न आदमियोंका, न जीवोंका, न पदार्थोंका, न परिस्थितिका।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ १४६··

सम्पूर्ण सृष्टिकी रचना ही इस ढंगसे हुई है कि अपने लिये कुछ ( वस्तु और क्रिया) नहीं है, दूसरेके लिये ही है-' इदं ब्रह्मणे न मम' जैसे पतिव्रता स्त्री पतिके लिये ही होती है, अपने लिये नहीं। स्त्रीके अंग पुरुषको सुख देते हैं, पर स्त्रीको सुख नहीं देते। पुरुषके अंग स्त्रीको सुख देते हैं, पर पुरुषको सुख नहीं देते।

साधक संजीवनी ३ | ११··

संसारमें अपने लिये रहना ही नहीं है - यही संसारमें रहनेकी विद्या है। संसार वस्तुतः एक विद्यालय है, जहाँ हमें कामना, ममता, स्वार्थ आदिके त्यागपूर्वक दूसरोंके हितके लिये कर्म करना सीखना है और उसके अनुसार कर्म करके अपना उद्धार करना है । संसारके सभी सम्बन्धी एक- दूसरेकी सेवा (हित) करनेके लिये ही हैं।

साधक संजीवनी ३ । २३··

संसारमें रबड़की गेंदकी तरह रहो, मिट्टीका लाँदा मत बनो। जो चिपकता है, वहीं फँसता है। गेंद किसीसे नहीं चिपकती। सेवा सबकी करो, पर कहीं चिपको मत।

सागरके मोती ८२··

जड़ता (संसार) - की सत्ता, महत्ता और सम्बन्ध केवल कामना ( भोगेच्छा) - के कारण ही है । अतः जबतक सुखकी इच्छा है, तभीतक यह संसार है।

साधक संजीवनी ९।४-५ परि०··

अन्तःकरणमें सांसारिक ( संयोगजन्य ) सुखकी कामना रहनेसे संसारमें आसक्ति हो जाती है । यह आसक्ति संसारको असत्य या मिथ्या जान लेनेपर भी मिटती नहीं; जैसे- सिनेमामें दीखनेवाले दृश्य (प्राणी- पदार्थों) - को मिथ्या जानते हुए भी उसमें आसक्ति हो जाती है अथवा जैसे भूतकालकी बातोंको याद करते समय मानसिक दृष्टिके सामने आनेवाले दृश्यको मिथ्या जानते हुए भी उसमें आसक्ति हो जाती है। अतः जबतक भीतरमें सांसारिक सुखकी कामना है, तबतक संसारको मिथ्या माननेपर भी संसारकी आसक्ति नहीं मिटती।

साधक संजीवनी १२ । १९··

सांसारिक वस्तुओंका अत्यन्ताभाव अर्थात् सर्वथा नाश तो नहीं हो सकता, पर उनमें रागका सर्वथा अभाव हो सकता है ........ संसारसे सम्बन्ध विच्छेद होनेपर संसारका अपने लिये सर्वथा अभाव हो जाता है, जिसे 'आत्यन्तिक प्रलय' भी कहते हैं।

साधक संजीवनी १५ । ३ वि०··

परमात्माका रचा हुआ संसार भी जब इतना प्रिय लगता है, तब ( संसारके रचयिता ) परमात्मा कितने प्रिय लगने चाहिये । यद्यपि रची हुई वस्तुमें आकर्षण होना एक प्रकारसे रचयिताका ही आकर्षण है (गीता १० । ४१ ), तथापि मनुष्य अज्ञानवश उस आकर्षणमें परमात्माको कारण न मानकर संसारको ही कारण मान लेता है और उसीमें फँस जाता है।

साधक संजीवनी १५ । ४··

संसारका यह कायदा है कि सांसारिक पदार्थोंको लेकर जो अपनेमें कुछ विशेषता मानता है, उसको यह सांसारिक पदार्थ तुच्छ बना देते हैं, पद- दलित कर देते हैं।

साधक संजीवनी १८ । ६६ वि०··

जो मनुष्य सांसारिक वस्तु, व्यक्ति और क्रियासे सुख लेता है, उसके लिये तो संसार भयंकर दुःख देनेवाला है, पर जो वस्तु और क्रियासे व्यक्तियोंकी सेवा करता है, उसके लिये संसार परमात्माका स्वरूप है।

साधक संजीवनी ८।१५ परि०··

संसारकी आशावाला कभी सुखी नहीं हो सकता। कम-से-कम, कम-से-कम इस संसारकी आशा छोड़ दें कि ये हमारा कहना मानेंगे, हमारा साथ देंगे, हमारी सहायता करेंगे। बाहरसे तो कहे ( जताये) नहीं, पर भीतरसे जाने कि किसीसे कोई मतलब नहीं है। इस बातको हृदयमें पकाओ । दूसरे हमारे विरुद्ध होते हैं, हमारा कहना नहीं मानते हैं, वे क्रियात्मक उपदेश दे रहे हैं; मानो यह कह रहे हैं कि तुम हमारी आशा मत रखो।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ६४··

संसारकी सेवा करो, पर भरोसा मत करो। भरोसा एक भगवान्‌का करो।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १२३··

संसार पूरा है ही नहीं, फिर संसारकी पूरी चीज कैसे मिले? परमात्मा पूरे हैं, फिर वे अधूरे कैसे मिलें ? संसार अधूरा ही मिलता है और परमात्मा पूरे ही मिलते हैं।

स्वातिकी बूँदें ३३··

संसारकी सत्ता जितनी अधिक मालूम देती है, उतना ही पतन है।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १६०··

मेरा कुछ नहीं है, मेरेको कुछ नहीं चाहिये और मैं कुछ नहीं - यह संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करनेके लिये बहुत बढ़िया चीज है।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १६६··

सबसे पहले यह समझना चाहिये कि 'मेरा कुछ नहीं है'। यह खास मूल बात है। शरीर संसारकी सेवाके लिये है। निष्कामभावसे संसारकी सेवा करनेसे आपका संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जायगा । संसार एक सामान्य सम्पत्ति है। यह सार्वभौम चीज है। यहाँ व्यक्तिगत वस्तु कुछ भी नहीं है। अगर यह समझमें आ जाय तो बहुत लाभकी बात है।

साधक संजीवनी १८८··

संसार न्याय कर देगा- इसकी आशा मत रखो। वह अन्याय न करे यही उसका न्याय है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १५७··

अभी आप मानते हैं कि मैं तो छोटा हूँ, संसार बहुत बड़ा है। वास्तवमें आँखके अन्तर्गत दृश्य आता है, दृश्यके अन्तर्गत आँख नहीं आती। इसलिये संसार आपके अन्तर्गत है । संसार आपसे छोटा है, पर आपने बड़ा मान लिया। संसार निरन्तर आपसे अलग हो रहा है और अभावमें जा रहा है - इसके सिवाय उसके पास कुछ नहीं है । उसको आपसे कोई मतलब नहीं।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ २२··

शास्त्रोंकी दृष्टिसे संसार परमात्मासे ही पैदा हुआ है, परमात्माकी शक्तिसे ही स्थिर है और परमात्मामें ही लीन हो जायगा। अपनी उत्कट अभिलाषाके बिना आप शास्त्रकी बात सीख सकते हो, जान सकते हो। परन्तु साधककी दृष्टिसे देखा जाय तो संसार अहम्से अर्थात् 'मैं हूँ' से पैदा हुआ है। 'मैं हूँ' में जहाँ भोग भोगनेकी वासना होती है, वहाँसे संसार पैदा हुआ है। वह वासना जितनी तरहकी होगी, उतनी तरहका संसार दीखेगा। अब अगर संसारको मिटाना हो तो अहम्को मिटाओ।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ १०३··

संसारका काम तो संसारमें घुलने-मिलने से बिगड़ता है, पर भगवान्‌का काम भगवान्में नहीं घुलने- मिलनेसे बिगड़ता है । संसारके साथ घुल मिलकर आप संसारको नहीं जान सकते, और परमात्मासे घुले-मिले बिना आप परमात्माको नहीं जान सकते - यह अकाट्य नियम है। इसे याद कर लो। कारण कि आप सदासे ही परमात्माके हो, संसारके नहीं हो। परमात्मासे घुल-मिल जाओगे तो संसारका बन्धन तो छूट जागा, पर काम-धन्धा बढ़िया, सुचारुरूपसे होगा। एक बारीक बात है कि केवल कर्तव्य समझकर संसारका काम किया जाय तो काम बढ़िया होता है और बन्धन भी नहीं होता।

अनन्तकी ओर १०६··

आप संसारको मानते हो, जानते नहीं । अगर आप संसारको जान लो तो संसारसे वैराग्य हो ही जायगा और भगवान् से प्रेम हो ही जायगा – यह पक्का नियम है।

अनन्तकी ओर १०६··

जो संसारकी गरज नहीं करता, उसकी गरज संसार करता है। परन्तु जो संसारकी गरज करता है, उसको संसार चूसकर फेंक देता है।

अमृत-बिन्दु ६५२··

भगवान्‌को अपना मान लो तो फिर संसारकी गुलामी गरज नहीं करनी पड़ेगी ? प्रत्युत संसार ही आपकी गरज करेगा।

स्वातिकी बूँदें १४७··

शरीर - संसारका निरन्तर परिवर्तन हमें यह क्रियात्मक उपदेश दे रहा है कि तुम्हारा सम्बन्ध अपरिवर्तनशील तत्त्व (परमात्मा ) के साथ है, हमारे साथ नहीं; हम तुम्हारे साथ और तुम हमारे साथ नहीं रह सकते।

अमृत-बिन्दु ६४६··

संसारकी जिन वस्तुओंको हम बड़ा महत्त्व देते हैं, उनका काम यही है कि वे हमें परमात्मप्राप्ति नहीं होने देंगी और खुद भी नहीं रहेंगी।

अमृत-बिन्दु ६५७··

जैसे उदय होनेके बाद सूर्य निरन्तर अस्तकी ओर ही जाता है, ऐसे ही उत्पन्न होनेके बाद मात्र संसार निरन्तर अभावकी ओर ही जा रहा है।

अमृत-बिन्दु ६६१··

शरीर - संसारको भूल जानेसे ( निद्रामें) विश्राम मिलता है, पर उनसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाय तो परम विश्राम मिलता है।

अमृत-बिन्दु ६६७··

जैसे किसी सेठका जो नौकर होता है, वह सेठके बेटेका भी नौकर होता है, ऐसे ही भगवान्का सेवक संसारका भी सेवक होता है; क्योंकि यह संसार भगवान्का ही है। पशु-पक्षी, वृक्ष- लता आदि भी भगवान्के ही हैं। इसलिये सबका पालन-पोषण करो, सबका आदर करो, सबकी सेवा करो । सबको भगवान्‌का ही स्वरूप मानकर सबका पूजन करो।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ८··

अपनी कामनाके कारण ही यह संसार जड़ दीखता है, वास्तवमें तो यह चिन्मय परमात्मा ही है।

साधक संजीवनी २।७० परि०··

यह संसार मेंहदीके पत्तेकी तरह ऊपरसे हरा दीखता है, पर इसके भीतर परमात्मरूप लाली परिपूर्ण है।

अमृत-बिन्दु ६५९··

यह संसार उस परमात्माकी ही लहरें हैं। जैसे ऊपरसे लहरें दीखनेपर भी समुद्रके भीतर कोई लहर नहीं है, एक सम, शान्त समुद्र है, ऐसे ही ऊपरसे परिवर्तनशील संसार दीखते हुए भी भीतरसे एक सम, शान्त परमात्मा है (गीता १३ ।२७)।

साधक संजीवनी १५ ।१··

जहाँ राग-द्वेष, हर्ष- शोक, अच्छा मन्दा, अनुकूल-प्रतिकूल आदि दो चीजें रहती हैं, वह 'संसार' है। दो चीजें मिटकर एक समता हो जाय तो वह 'परमात्मा' है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ११५··