Seeker of Truth

संकल्प

एक स्फुरणा होती है और एक संकल्प होता है। कोई बात याद आती है - यह 'स्फुरणा ' है और ऐसा होना चाहिये, ऐसा नहीं होना चाहिये - यह 'संकल्प' है । संसारकी स्फुरणा होती रहती है और मिटती रहती है। आप जिस स्फुरणाको पकड़ लेते हो, वह संकल्प हो जाता है।

साधन-सुधा-सिन्धु ७६४-७६५··

सांसारिक वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ, देश, काल, घटना, परिस्थिति आदिको लेकर मनमें जो तरह- तरहकी स्फुरणाएँ होती हैं, उन स्फुरणाओंमेंसे जिस स्फुरणामें प्रियता, सुन्दरता और आवश्यकता दीखती है, वह स्फुरणा 'संकल्प' का रूप धारण कर लेती है। ऐसे ही जिस स्फुरणामें 'ये वस्तु, व्यक्ति आदि बड़े खराब हैं, ये हमारे उपयोगी नहीं हैं' - ऐसा विपरीत भाव पैदा हो जाता है, वह स्फुरणा भी 'संकल्प' बन जाती है।

साधक संजीवनी ६ । २४··

स्फुरणा' दर्पणके काँचकी तरह है, जिसमें चित्र पकड़ा नहीं जाता। परन्तु 'संकल्प' कैमरेके काँचकी तरह है, जिसमें चित्र पकड़ा जाता है। साधकको सावधानी रखनी चाहिये कि स्फुरणा तो हो, पर संकल्प न हो।

साधक संजीवनी ६ । २४ परि०··

वास्तवमें कर्म करनेकी स्फुरणा अथवा विचार होता है, संकल्प नहीं होता । संकल्प वह होता है, जिसमें अपनी आसक्ति, ममता और आग्रह रहता है। कार्य करनेकी स्फुरणा अथवा विचार बाँधनेवाला नहीं होता, पर संकल्प बाँधनेवाला होता है।

प्रश्नोत्तरमणिमाला ३०२··

अपने-आप उत्पन्न हुई स्फुरणाके साथ जबतक हम मिल नहीं जाते, तबतक उससे हमारा कोई नुकसान नहीं होता। उससे सम्बन्ध न जोड़े, उसे अपना न समझे तो कोई हानि नहीं। अपने- आप होनेवाली स्फुरणाकी उपेक्षा करो, विरोध मत करो। विरोध करनेसे, उसे हटानेकी चेष्टा करनेसे एक नया संकल्प, नयी वृत्ति पैदा होगी।

स्वातिकी बूँदें ६४··

वास्तवमें संकल्प भी प्रकृतिमें ही होता है, स्वयंमें नहीं ....... मन-बुद्धिके साथ अपनी एकता माननेसे ही संकल्प-विकल्प अपनेमें दीखते हैं।

प्रश्नोत्तरमणिमाला ३०४··

संकल्प न तो अपने स्वरूपका बोध होने देता है, न दूसरोंकी सेवा करने देता है, न भगवान्‌में प्रेम होने देता है, न भगवान्में मन लगने देता है, न अपने नजदीकके कुटुम्बियोंके अनुकूल ही बनने देता है। तात्पर्य है कि अपना संकल्प रखनेसे न अपना हित होता है, न संसारका हित होता है, न कुटुम्बियोंकी कोई सेवा होती है, न भगवान्‌की प्राप्ति होती है और न अपने स्वरूपका बोध ही होता है।

साधक संजीवनी ६ |४··

अगर मनुष्य संकल्पोंका त्याग कर दे तो योगारूढ़ हो जाय, तत्त्वकी प्राप्ति हो जाय, मुक्त हो जाय, भक्त हो जाय, जीवन्मुक्त हो जाय; जो कुछ बड़ा-से-बड़ा काम है, वह हो जाय; यह मनुष्यजन्म सफल हो जाय, कुछ भी करना, जानना और पाना बाकी नहीं रहे।

साधन-सुधा-सिन्धु ७६४··

अपना संकल्प कुछ नहीं रखो। वह संकल्प चाहे भगवान् के संकल्पपर छोड़ दो, चाहे संसारके संकल्पपर छोड़ दो, चाहे प्रारब्ध ( होनहार ) - पर छोड़ दो और चाहे प्रकृतिपर छोड़ दो। अपना संकल्प भगवान्पर छोड़ दो तो भक्ति मिलेगी, संसारपर छोड़ दो तो निष्कामता आयेगी, प्रारब्धपर छोड़ दो तो निश्चिन्तता आयेगी और प्रकृतिपर छोड़ दो तो स्वतन्त्रता आयेगी।

साधन-सुधा-सिन्धु ७६४··

अपनी मुक्तिका भी संकल्प न हो; क्योंकि मुक्तिके संकल्पसे बन्धनकी सत्ता दृढ़ होती है। अतः कोई भी संकल्प न रखकर उदासीन रहे।

साधक संजीवनी ६ । ४ परि०··

परमात्माका संकल्प तो हमारे कल्याणका ही है। यदि हम अपना अलग कोई संकल्प न रखें, प्रत्युत परमात्माके संकल्पमें ही अपना संकल्प मिला दें, तो फिर उनकी कृपासे स्वतः कल्याण हो ही जाता है।

साधक संजीवनी १६ । ५ मा०··

भोगोंको पानेकी इच्छासे पहले उनका संकल्प होता है। वह संकल्प होते ही सावधान हो जाना चाहिये कि मैं तो साधक हूँ, मुझे भोगोंमें नहीं फँसना है; क्योंकि यह साधकका काम नहीं है। इस तरह संकल्प उत्पन्न होते ही उसका त्याग कर देना चाहिये।

साधक संजीवनी ५। २३··

अगर आपका कोई शुद्ध संकल्प हो और वह छूटे नहीं तो उसको भगवान्पर छोड़ दो। भगवान्से कह दो कि 'हे प्रभो । मेरेसे यह संकल्प छूटता नहीं' और निश्चिन्त हो जाओ। फिर या तो वह संकल्प (भगवान् उचित समझेंगे तो ) पूरा हो जायगा अथवा छूट जायगा।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश २१४··