गीताकी दृष्टिमें ऊँची चीज है- समता। दूसरे लक्षण आयें या न आयें, जिसमें समता आ गयी, उसको गीता सिद्ध कह देती है। जिसमें दूसरे सब लक्षण आ जायँ और समता न आये, उसको गीता सिद्ध नहीं कहती।
||श्रीहरि:||
गीताकी दृष्टिमें ऊँची चीज है- समता। दूसरे लक्षण आयें या न आयें, जिसमें समता आ गयी, उसको गीता सिद्ध कह देती है। जिसमें दूसरे सब लक्षण आ जायँ और समता न आये, उसको गीता सिद्ध नहीं कहती।- साधक संजीवनी २।४०
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साधक संजीवनी २।४०··
समता ही योग है अर्थात् समता परमात्माका स्वरूप है।
||श्रीहरि:||
समता ही योग है अर्थात् समता परमात्माका स्वरूप है।- साधक संजीवनी २ ।४८
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साधक संजीवनी २ ।४८··
समता एक ऐसी विद्या है, जिससे मनुष्य संसारमें रहता हुआ ही संसारसे सर्वथा निर्लिप्त रह सकता है।
||श्रीहरि:||
समता एक ऐसी विद्या है, जिससे मनुष्य संसारमें रहता हुआ ही संसारसे सर्वथा निर्लिप्त रह सकता है।- साधक संजीवनी २।५०
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साधक संजीवनी २।५०··
जगत्, जीव और परमात्मा - तीनोंकी दृष्टिसे हम सब एक समान हैं। इस समताको गीताने 'योग' कहा है- 'समत्वं योग उच्यते' ( गीता २।४८ ) । भेद ( विषमता ) केवल व्यवहारके लिये है, जो अनिवार्य है; क्योंकि व्यवहारमें समता सम्भव ही नहीं है। अतः साधककी दृष्टि (भावना) सम होनी चाहिये ।.... व्यवहारकी भिन्नता तो स्वाभाविक है, पर भावकी भिन्नता मनुष्यने अपने राग-द्वेषसे पैदा की है।
||श्रीहरि:||
जगत्, जीव और परमात्मा - तीनोंकी दृष्टिसे हम सब एक समान हैं। इस समताको गीताने 'योग' कहा है- 'समत्वं योग उच्यते' ( गीता २।४८ ) । भेद ( विषमता ) केवल व्यवहारके लिये है, जो अनिवार्य है; क्योंकि व्यवहारमें समता सम्भव ही नहीं है। अतः साधककी दृष्टि (भावना) सम होनी चाहिये ।.... व्यवहारकी भिन्नता तो स्वाभाविक है, पर भावकी भिन्नता मनुष्यने अपने राग-द्वेषसे पैदा की है।- साधक संजीवनी ७।३० अ०सा०
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साधक संजीवनी ७।३० अ०सा०··
समताका अर्थ यह नहीं है कि समान रीतिसे सबके साथ रोटी-बेटी ( भोजन और विवाह ) - का बर्ताव करें। व्यवहारमें समता तो महान् पतन करनेवाली चीज है। समान बर्ताव यमराजका, मौतका नाम है; क्योंकि उसके बर्तावमें विषमता नहीं होती।...... बर्तावमें पवित्रता रखनेसे अन्तःकरण पवित्र, निर्मल होता है । परन्तु बर्तावमें अपवित्रता रखनेसे, खान-पान आदि एक करनेसे अन्तःकरणमें अपवित्रता आती है, जिससे अशान्ति बढ़ती है। केवल बाहरका बर्ताव समान रखना शास्त्र और समाजकी मर्यादाके विरुद्ध है। इससे समाजमें संघर्ष पैदा होता है।
||श्रीहरि:||
समताका अर्थ यह नहीं है कि समान रीतिसे सबके साथ रोटी-बेटी ( भोजन और विवाह ) - का बर्ताव करें। व्यवहारमें समता तो महान् पतन करनेवाली चीज है। समान बर्ताव यमराजका, मौतका नाम है; क्योंकि उसके बर्तावमें विषमता नहीं होती।...... बर्तावमें पवित्रता रखनेसे अन्तःकरण पवित्र, निर्मल होता है । परन्तु बर्तावमें अपवित्रता रखनेसे, खान-पान आदि एक करनेसे अन्तःकरणमें अपवित्रता आती है, जिससे अशान्ति बढ़ती है। केवल बाहरका बर्ताव समान रखना शास्त्र और समाजकी मर्यादाके विरुद्ध है। इससे समाजमें संघर्ष पैदा होता है।- साधक संजीवनी ५। १८ वि०
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साधक संजीवनी ५। १८ वि०··
व्यवहारमें समता लाना पशुता है। दूसरेको सुख पहुँचाने और उसका दुःख दूर करनेमें समता होनी चाहिये।
||श्रीहरि:||
व्यवहारमें समता लाना पशुता है। दूसरेको सुख पहुँचाने और उसका दुःख दूर करनेमें समता होनी चाहिये।- स्वातिकी बूँदें १४४
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स्वातिकी बूँदें १४४··
भगवान्के मतमें कर्मोंमें विषमबुद्धि ( राग-द्वेष ) होनेसे ही पाप लगता है। समबुद्धि होनेसे पाप लगता ही नहीं। जैसे, संसारमें पाप और पुण्यकी अनेक क्रियाएँ होती रहती हैं, पर उनसे हमें पाप-पुण्य नहीं लगते; क्योंकि उनमें हमारी समबुद्धि रहती है अर्थात् उनमें हमारा कोई पक्षपात, आग्रह, राग-द्वेष नहीं रहते।
||श्रीहरि:||
भगवान्के मतमें कर्मोंमें विषमबुद्धि ( राग-द्वेष ) होनेसे ही पाप लगता है। समबुद्धि होनेसे पाप लगता ही नहीं। जैसे, संसारमें पाप और पुण्यकी अनेक क्रियाएँ होती रहती हैं, पर उनसे हमें पाप-पुण्य नहीं लगते; क्योंकि उनमें हमारी समबुद्धि रहती है अर्थात् उनमें हमारा कोई पक्षपात, आग्रह, राग-द्वेष नहीं रहते।- साधक संजीवनी २।३९
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साधक संजीवनी २।३९··
मनुष्य तप, दान, तीर्थ, व्रत आदि कोई भी पुण्यकर्म करे, वह फल देकर नष्ट हो जाता है; परन्तु साधन करते-करते अन्तःकरणमें थोड़ी भी समता (निर्विकारता ) आ जाय तो वह नष्ट नहीं होती, प्रत्युत कल्याण कर देती है। इसलिये साधनमें समता जितनी ऊँची चीज हैं, मनकी एकाग्रता उतनी ऊँची चीज नहीं है।
||श्रीहरि:||
मनुष्य तप, दान, तीर्थ, व्रत आदि कोई भी पुण्यकर्म करे, वह फल देकर नष्ट हो जाता है; परन्तु साधन करते-करते अन्तःकरणमें थोड़ी भी समता (निर्विकारता ) आ जाय तो वह नष्ट नहीं होती, प्रत्युत कल्याण कर देती है। इसलिये साधनमें समता जितनी ऊँची चीज हैं, मनकी एकाग्रता उतनी ऊँची चीज नहीं है।- साधक संजीवनी २।४०
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साधक संजीवनी २।४०··
यदि वास्तविक दृष्टिसे देखा जाय तो झूला चलते हुए (विषम दीखनेपर) भी निरन्तर समतामें ही रहता है अर्थात् आगे-पीछे जाते समय भी निरन्तर (जहाँसे रस्सी बँधी है, उसकी ) सीधमें ही रहता है। इसी प्रकार जीव भी प्रत्येक क्रियामें समतामें ही रहता है।
||श्रीहरि:||
यदि वास्तविक दृष्टिसे देखा जाय तो झूला चलते हुए (विषम दीखनेपर) भी निरन्तर समतामें ही रहता है अर्थात् आगे-पीछे जाते समय भी निरन्तर (जहाँसे रस्सी बँधी है, उसकी ) सीधमें ही रहता है। इसी प्रकार जीव भी प्रत्येक क्रियामें समतामें ही रहता है।- साधक संजीवनी ३।१९ मा०
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साधक संजीवनी ३।१९ मा०··
जब युद्ध- जैसा घोर (क्रूर) कर्म भी समभावसे किया जा सकता है, तब ऐसा कौन-सा दूसरा कर्म है, जो समभावसे न किया जा सकता हो ? समभाव तभी होता है, जब 'शरीर मैं नहीं, मेरा नहीं और मेरे लिये नहीं' - ऐसा भाव हो जाय, जो कि वास्तवमें है।
||श्रीहरि:||
जब युद्ध- जैसा घोर (क्रूर) कर्म भी समभावसे किया जा सकता है, तब ऐसा कौन-सा दूसरा कर्म है, जो समभावसे न किया जा सकता हो ? समभाव तभी होता है, जब 'शरीर मैं नहीं, मेरा नहीं और मेरे लिये नहीं' - ऐसा भाव हो जाय, जो कि वास्तवमें है।- साधक संजीवनी ३ | ३० वि०
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साधक संजीवनी ३ | ३० वि०··
अपना कुछ भी नहीं है, अपने लिये कुछ भी नहीं चाहिये और अपने लिये कुछ भी नहीं करना है - ये तीन बातें ठीक-ठीक अनुभवमें आ जायँ, तभी सिद्धि और असिद्धिमें पूर्णतः समता आयेगी।
||श्रीहरि:||
अपना कुछ भी नहीं है, अपने लिये कुछ भी नहीं चाहिये और अपने लिये कुछ भी नहीं करना है - ये तीन बातें ठीक-ठीक अनुभवमें आ जायँ, तभी सिद्धि और असिद्धिमें पूर्णतः समता आयेगी।- साधक संजीवनी ४।२२
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साधक संजीवनी ४।२२··
जबतक अपने सुखकी लालसा है, तबतक चाहे जितना उद्योग कर लें, समता नहीं आयेगी।
||श्रीहरि:||
जबतक अपने सुखकी लालसा है, तबतक चाहे जितना उद्योग कर लें, समता नहीं आयेगी।- साधक संजीवनी ५ । १८ वि०
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साधक संजीवनी ५ । १८ वि०··
ममताके रहते हुए समताका आना असम्भव है।
||श्रीहरि:||
ममताके रहते हुए समताका आना असम्भव है।- साधक संजीवनी ५। १८ वि०
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साधक संजीवनी ५। १८ वि०··
जिसको वास्तविक समताकी प्राप्ति हो गयी है, उसमें सभी सद्गुण- समाचार स्वतः आ जायँगे और उसकी संसारपर विजय हो जायगी (गीता ५ । १९)।
||श्रीहरि:||
जिसको वास्तविक समताकी प्राप्ति हो गयी है, उसमें सभी सद्गुण- समाचार स्वतः आ जायँगे और उसकी संसारपर विजय हो जायगी (गीता ५ । १९)।- साधक संजीवनी ६।९
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साधक संजीवनी ६।९··
जबतक राग-द्वेष (विषमता) है, तबतक संसार ही दीखता है, भगवान् नहीं दीखते । भगवान् द्वन्द्वातीत हैं। जबतक राग-द्वेषरूप द्वन्द्व रहता है, तबतक दो चीजें दीखती हैं, एक चीज नहीं दीखती । जब राग-द्वेष मिट जाते हैं, तब एक भगवान्के सिवाय कुछ नहीं दीखता । तात्पर्य है कि राग-द्वेष मिटनेपर अर्थात् समता आनेपर 'सब कुछ भगवान् ही हैं' - ऐसा अनुभव हो जाता है।
||श्रीहरि:||
जबतक राग-द्वेष (विषमता) है, तबतक संसार ही दीखता है, भगवान् नहीं दीखते । भगवान् द्वन्द्वातीत हैं। जबतक राग-द्वेषरूप द्वन्द्व रहता है, तबतक दो चीजें दीखती हैं, एक चीज नहीं दीखती । जब राग-द्वेष मिट जाते हैं, तब एक भगवान्के सिवाय कुछ नहीं दीखता । तात्पर्य है कि राग-द्वेष मिटनेपर अर्थात् समता आनेपर 'सब कुछ भगवान् ही हैं' - ऐसा अनुभव हो जाता है।- साधक संजीवनी १० १० परि०
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साधक संजीवनी १० १० परि०··
ढेले, पत्थर और स्वर्णका ज्ञान न होना समता नहीं कहलाती। समता वही है कि इन तीनोंका ज्ञान होते हुए भी इनमें राग-द्वेष न हों।
||श्रीहरि:||
ढेले, पत्थर और स्वर्णका ज्ञान न होना समता नहीं कहलाती। समता वही है कि इन तीनोंका ज्ञान होते हुए भी इनमें राग-द्वेष न हों।- साधक संजीवनी १४ । २४
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साधक संजीवनी १४ । २४··
यदि विशेष विचारपूर्वक देखा जाय तो समता स्वतः सिद्ध है। यह प्रत्येक मनुष्यका अनुभव है। कि अनुकूल परिस्थितिमें हम जो रहते हैं, प्रतिकूल परिस्थिति आनेपर भी हम वही रहते हैं । यदि हम वही (एक ही) न रहते, तो दो अलग-अलग (अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियोंका ज्ञान किसे होता ? इससे सिद्ध हुआ कि परिवर्तन परिस्थितियोंमें होता है, अपने स्वरूपमें नहीं।....... भूल यह होती है कि हम परिस्थितियोंकी ओर तो देखते हैं, पर स्वरूपकी ओर नहीं देखते।
||श्रीहरि:||
यदि विशेष विचारपूर्वक देखा जाय तो समता स्वतः सिद्ध है। यह प्रत्येक मनुष्यका अनुभव है। कि अनुकूल परिस्थितिमें हम जो रहते हैं, प्रतिकूल परिस्थिति आनेपर भी हम वही रहते हैं । यदि हम वही (एक ही) न रहते, तो दो अलग-अलग (अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थितियोंका ज्ञान किसे होता ? इससे सिद्ध हुआ कि परिवर्तन परिस्थितियोंमें होता है, अपने स्वरूपमें नहीं।....... भूल यह होती है कि हम परिस्थितियोंकी ओर तो देखते हैं, पर स्वरूपकी ओर नहीं देखते।- साधक संजीवनी ४।२२