Seeker of Truth

समाज

प्राप्त वस्तुओंके दुरुपयोगसे समाजमें संघर्ष पैदा होता है और सदुपयोगसे समाजमें शान्तिकी स्थापना होती है।

मानवमात्रके कल्याणके लिये ३४··

समाजमें ज्यों-ज्यों अधिकार पानेकी लालसा बढ़ती जाती है, त्यों-ही-त्यों लोग अपने कर्तव्यसे हटते जाते हैं, जिससे समाजमें संघर्ष पैदा हो जाता है।

मानवमात्रके कल्याणके लिये ४५··

यदि व्यक्तिगत जीवन बिगड़ेगा तो समाज कैसे अच्छा रहेगा ? समाज भी पूरा का पूरा बिगड़ जायगा; क्योंकि व्यक्तियोंसे ही समाज बनता है। अतः व्यक्तिगत सुधारसे ही समाजका सुधार हो सकता है।

अमरताकी ओर १०७··

समाज-सुधारकी चेष्टा न करके अपने सुधारकी चेष्टा करनी चाहिये। अपना सुधार होगा - स्वार्थ और अभिमानका त्याग करके दूसरेका हित करनेसे।

प्रश्नोत्तरमणिमाला ४१४··

जो स्वार्थी है, अपना लाभ देखता है, उसके द्वारा कल्याण नहीं होता । काम-क्रोधरूपी मलसे भरे झाड़से कूड़ा-कचरा साफ किया जाय (समाज-सुधारका काम किया जाय ) तो और गन्दगी फैल जायगी। उससे तो कूड़ा-कचरा अच्छा था।

स्वातिकी बूँदें ८··

समाज-सुधारका मूल मन्त्र है- सन्तोष।

सागरके मोती ११९··

लोगोंकी सांसारिक भोग और संग्रहमें ज्यों-ज्यों आसक्ति बढ़ती है, त्यों-ही-त्यों समाजमें अधर्म बढ़ता है और ज्यों-ज्यों अधर्म बढ़ता है, त्यों-ही-त्यों समाजमें पापाचरण, कलह, विद्रोह आदि दोष बढ़ते हैं।

साधक संजीवनी ४। ७··

समाजका सबसे अधिक सुधार वीतराग सन्तके द्वारा ही होता है।

अमृत-बिन्दु ६२१··

धर्मरहित राज्य, ब्राह्मणरहित धर्मविधान, क्षत्रियरहित शासन वैश्यरहित व्यापार, शूद्ररहित सेवा, अन्त्यजरहित स्वच्छता-सफाई, वृक्षरहित उद्यान, फलरहित वृक्ष, सुगन्धरहित पुष्प, गोरस - घृतादिरहित मिष्टान्न भोजन, घृतरहित हवन, अनुभव और आचरणरहित उपदेश, त्यागरहित प्रेम, गुण और धर्मरहित शिक्षा, आदररहित आतिथ्य, श्रद्धारहित साधन, योग्यतारहित अधिकार, भजनरहित जीवन, कर्तव्यरहित क्रिया, गो-महिषरहित घृत, अश्व- गजरहित सवारी, ईश्वररहित जनसमुदाय, न्यायरहित निर्णय, स्त्रीरहित गृहस्थी, पुरुषरहित सेना, साहसरहित उद्योग, समत्वरहित ज्ञान, अनुरागरहित भक्ति, कुशलतारहित कर्म, पूर्ण निर्भरतारहित शरणागति, पूर्ण समर्पणरहित आत्मनिवेदन, गुरुओं (अध्यापकों और आचार्यों ) - पर शिष्योंका ( विद्यार्थियोंका ) शासन, माता- पितापर पुत्रका शासन, धार्मिकोंपर अधार्मिकोंका शासन, न्यायशील राजापर प्रजाका शासन और पुरुषोंपर स्त्रियोंका शासन आदि ऐसी चीजें हैं कि जिनसे समाज और राष्ट्रका सर्वनाश हो जाता है।

साधन-सुधा-सिन्धु ८६६··