समाज
प्राप्त वस्तुओंके दुरुपयोगसे समाजमें संघर्ष पैदा होता है और सदुपयोगसे समाजमें शान्तिकी स्थापना होती है।
समाजमें ज्यों-ज्यों अधिकार पानेकी लालसा बढ़ती जाती है, त्यों-ही-त्यों लोग अपने कर्तव्यसे हटते जाते हैं, जिससे समाजमें संघर्ष पैदा हो जाता है।
यदि व्यक्तिगत जीवन बिगड़ेगा तो समाज कैसे अच्छा रहेगा ? समाज भी पूरा का पूरा बिगड़ जायगा; क्योंकि व्यक्तियोंसे ही समाज बनता है। अतः व्यक्तिगत सुधारसे ही समाजका सुधार हो सकता है।
समाज-सुधारकी चेष्टा न करके अपने सुधारकी चेष्टा करनी चाहिये। अपना सुधार होगा - स्वार्थ और अभिमानका त्याग करके दूसरेका हित करनेसे।
जो स्वार्थी है, अपना लाभ देखता है, उसके द्वारा कल्याण नहीं होता । काम-क्रोधरूपी मलसे भरे झाड़से कूड़ा-कचरा साफ किया जाय (समाज-सुधारका काम किया जाय ) तो और गन्दगी फैल जायगी। उससे तो कूड़ा-कचरा अच्छा था।
समाज-सुधारका मूल मन्त्र है- सन्तोष।
लोगोंकी सांसारिक भोग और संग्रहमें ज्यों-ज्यों आसक्ति बढ़ती है, त्यों-ही-त्यों समाजमें अधर्म बढ़ता है और ज्यों-ज्यों अधर्म बढ़ता है, त्यों-ही-त्यों समाजमें पापाचरण, कलह, विद्रोह आदि दोष बढ़ते हैं।
समाजका सबसे अधिक सुधार वीतराग सन्तके द्वारा ही होता है।
धर्मरहित राज्य, ब्राह्मणरहित धर्मविधान, क्षत्रियरहित शासन वैश्यरहित व्यापार, शूद्ररहित सेवा, अन्त्यजरहित स्वच्छता-सफाई, वृक्षरहित उद्यान, फलरहित वृक्ष, सुगन्धरहित पुष्प, गोरस - घृतादिरहित मिष्टान्न भोजन, घृतरहित हवन, अनुभव और आचरणरहित उपदेश, त्यागरहित प्रेम, गुण और धर्मरहित शिक्षा, आदररहित आतिथ्य, श्रद्धारहित साधन, योग्यतारहित अधिकार, भजनरहित जीवन, कर्तव्यरहित क्रिया, गो-महिषरहित घृत, अश्व- गजरहित सवारी, ईश्वररहित जनसमुदाय, न्यायरहित निर्णय, स्त्रीरहित गृहस्थी, पुरुषरहित सेना, साहसरहित उद्योग, समत्वरहित ज्ञान, अनुरागरहित भक्ति, कुशलतारहित कर्म, पूर्ण निर्भरतारहित शरणागति, पूर्ण समर्पणरहित आत्मनिवेदन, गुरुओं (अध्यापकों और आचार्यों ) - पर शिष्योंका ( विद्यार्थियोंका ) शासन, माता- पितापर पुत्रका शासन, धार्मिकोंपर अधार्मिकोंका शासन, न्यायशील राजापर प्रजाका शासन और पुरुषोंपर स्त्रियोंका शासन आदि ऐसी चीजें हैं कि जिनसे समाज और राष्ट्रका सर्वनाश हो जाता है।