Seeker of Truth

सगुण-निर्गुण

परमात्मामें शरीर और शरीरी, सत् और असत् जड़ और चेतन, ईश्वर और जगत्, सगुण और निर्गुण साकार और निराकार आदि कोई विभाग है ही नहीं। उस एकमें ही अनेक विभाग हैं और अनेक विभागमें वह एक ही है।

साधक संजीवनी ६ । ३० परि०··

वास्तवमें परमात्मा सगुण-निर्गुण, साकार - निराकार सब कुछ हैं। सगुण-निर्गुण तो उनके विशेषण हैं, नाम हैं।...... परमात्मा सगुण तथा निर्गुण- दोनों हैं और दोनोंसे परे भी हैं। परन्तु इस वास्तविकताका पता तभी लगता है, जब बोध होता है।

साधक संजीवनी ७।३०··

सगुण-निर्गुणका भेद तो उपासनाकी दृष्टिसे है। वास्तवमें इन दोनों उपासनाओंमें उपास्यतत्त्व एक ही है।

साधक संजीवनी ७ । ३० टि०··

सगुण-निर्गुण, साकार - निराकार आदिका भेद तो सम्प्रदायोंको लेकर है, वास्तवमें परमात्मा एक हैं। ये सगुण-निर्गुण आदि एक ही परमात्माके अलग-अलग विशेषण हैं, अलग-अलग नाम हैं।

साधक संजीवनी ९।४··

जो परमात्मा गुणोंसे कभी नहीं बँधते, जिनका गुणोंपर पूरा आधिपत्य होता है, वे ही परमात्मा निर्गुण होते हैं।.......निर्गुण तो वे ही हो सकते हैं, जो गुणोंसे सर्वथा अतीत हैं; और जो गुणोंसे सर्वथा अतीत हैं, ऐसे परमात्मामें ही सम्पूर्ण गुण रह सकते हैं। इसलिये परमात्माको सगुण- निर्गुण, साकार - निराकार आदि सब कुछ कह सकते हैं।

साधक संजीवनी ७।३० वि०··

भगवान् के सौन्दर्य, माधुर्य, ऐश्वर्य, औदार्य आदि जो दिव्य गुण हैं, उन गुणोंके सहित सर्वत्र व्यापक परमात्माको 'सगुण' कहते हैं।..... परमात्मा चाहे सगुण-निराकार हों, चाहे सगुण-साकार हों, वे प्रकृतिके सत्त्व, रज और तम तीनों गुणोंसे सर्वथा रहित हैं, अतीत हैं।

साधक संजीवनी ७ । ३० वि०··

सगुण-साकार भगवान् भी वास्तवमें निर्गुण ही हैं; क्योंकि वे सत्त्व, रज और तमोगुणसे युक्त नहीं हैं, प्रत्युत ऐश्वर्य, माधुर्य, सौन्दर्य, औदार्य आदि गुणोंसे युक्त हैं। इसलिये सगुण-साकार भगवान्‌की भक्तिको भी निर्गुण (सत्त्वादि गुणोंसे रहित) बताया गया है; जैसे- 'मन्निष्ठं निर्गुणं स्मृतम्', 'मन्निकेतं तु निर्गुणम्', 'निर्गुणो मदपाश्रयः, 'मत्सेवायां तु निर्गुणा' (श्रीमद्भा. ११ । २५ । २४ - २७) ।

साधक संजीवनी ७।१२ परि०··

केवल निर्गुणकी मुख्यता माननेसे सभी बातोंका ठीक समाधान नहीं होता । परन्तु केवल सगुणकी मुख्यता मानने से कोई सन्देह बाकी नहीं रहता । समग्रता सगुणमें ही है, निर्गुणमें नहीं । भगवान्ने भी सगुणको ही समग्र कहा है- 'असंशयं समग्रं माम्' ( गीता ७ । १) ।

साधक संजीवनी न०नि०··

ईश्वर सगुण, निर्गुण, साकार, निराकार सब कुछ है; क्योंकि वह समग्र है। समग्रमें सब आ जाते हैं।........' सगुण' के अन्तर्गत ब्रह्म, परमात्मा और भगवान्-ये तीनों आ जाते हैं, पर 'निर्गुण' के अन्तर्गत केवल ब्रह्म ही आता है; क्योंकि निर्गुणमें गुणोंका निषेध है। अतः निर्गुण सीमित है और सगुण समग्र है।

साधक संजीवनी ५१० परि०··

केवल निर्गुणको जाननेवाला परमात्माको तत्त्वसे नहीं जानता, प्रत्युत सगुण-निर्गुण दोनोंको (समग्रको ) जाननेवाला ही परमात्माको तत्त्वसे जानता है।

साधक संजीवनी ७३ परि०··

जो अपनेको गुणोंमें लिप्त, गुणोंसे बँधा हुआ मानकर जन्मता मरता था, वह बद्ध जीव भी जब परमात्माको प्राप्त होनेपर गुणातीत ( गुणोंसे रहित ) कहा जाता है, तो फिर परमात्मा गुणोंमें बद्ध कैसे हो सकते हैं? वे तो सदा ही गुणोंसे अतीत ( रहित) हैं। अतः वे प्राकृत इन्द्रियोंसे रहित हैं अर्थात् संसारी जीवोंकी तरह हाथ, पैर, नेत्र, सिर, मुख, कान आदि इन्द्रियोंसे युक्त नहीं हैं; किन्तु उन-उन इन्द्रियोंके विषयोंको ग्रहण करनेमें सर्वथा समर्थ हैं ।

साधक संजीवनी १३ | १४··

सगुणकी उपासना समग्रकी उपासना है। गीताने सगुणको समग्र माना है और ब्रह्म, जीव, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ - इन सबको समग्र भगवान् के ही अन्तर्गत माना है (गीता ७।२९- (३०) । इसलिये गीताको देखनेसे ऐसा प्रतीत होता है कि निर्गुणोपासना (ब्रह्मकी उपासना ) समग्र भगवान् के एक अंगकी उपासना है और सगुणोपासना स्वयं समग्र भगवान्की उपासना है - ' त्वां पर्युपासते' (गीता १२ । १), 'मां ध्यायन्त उपासते' (गीता १२ । ६ ) |

साधक संजीवनी १२।५ परि०··

सगुणका तिरस्कार, निन्दा, खण्डन करना निर्गुणोपासकके लिये बहुत घातक है अर्थात् उसकी साधनाके सिद्ध होनेमें बहुत बाधक है।

साधक संजीवनी १२।५ परि०··

हिरण्यकशिपुने भी हिरण्याक्षके मरनेपर अपनी भौजाईको निर्गुण (आत्मतत्त्व) - का उपदेश दिया है। कंसने भी आत्माका उपदेश दिया। पर सगुणके साथ उन्होंने वैर किया। इस प्रकार निर्गुणका उपदेश और सगुणसे वैर - यह राक्षसोंका काम है ।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १६५··

कोई भी साधक हो, सबकी उपासनाएँ सगुण-निराकारसे ही आरम्भ होती हैं। आपको परमात्माके विषयमें यही बात दृढ़ कर लेनी चाहिये कि परमात्मा है'। 'परमात्मा हैं' - इसका ध्यान मैं बहुत बढ़िया और बहुत सुगम मानता हूँ। राम, कृष्ण आदि साकार रूपकी उपासना निराकारसे कभी, किसी भी अंशमें कम नहीं है। मैं ऐसा कभी नहीं कहता कि सगुणको छोड़कर निर्गुणकी उपासना करो अथवा निर्गुणको छोड़कर सगुणकी उपासना करो। गीताने 'सब कुछ परमात्मा ही है' - ऐसा जाननेवालेकी बहुत प्रशंसा की है और उसे सबसे दुर्लभ महात्मा कहा है- 'वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ' ( गीता ७ । १९ ) । केवल निर्गुण अथवा सगुणको माननेवालेको गीता दुर्लभ महात्मा नहीं कहती

अनन्तकी ओर ९८-९९··

आपको केवल इतनी ही बात जाननेकी जरूरत है कि 'परमात्मा है'। परमात्मा कैसा है, सगुण है कि निर्गुण है, साकार है कि निराकार है, द्विभुज है कि चतुर्भुज है या सहस्रभुज है - यह जानने की जरूरत नहीं, पर वह है जरूर जो है, उसी परमात्माका मैं अंश हूँ।

अनन्तकी ओर १०१··

भगवान्‌का निर्गुण रूप भी गुणातीत है और सगुण रूप भी। जब जीवन्मुक्त महापुरुष भी गुणातीत होता है तो क्या सगुण भगवान् गुणातीत नहीं होंगे ?

स्वातिकी बूँदें ८४··

भगवान्‌के वास्तविक रूपका वर्णन कोई कर सकता ही नहीं। संसारको जाना जाता है, पर परमात्माको माना जाता है। परमात्माको कोई जान सकता ही नहीं। माता-पिताको कोई भी नहीं जानता, उनको तो माना जाता है। सगुण-निर्गुण आदिका भेद करनेवाला ईश्वरवादी नहीं है। अग्नि साकार- निराकार दोनों होती है, फिर भगवान् क्या अग्निसे भी कमजोर हैं?

स्वातिकी बूँदें १८८ - १८९··

भगवान्‌को आप जैसा मानते हो, वैसा मानकर उपासना करो। जो मान्यता होती है, वह सच्ची नहीं होती, चाहे वह सगुणकी हो या निर्गुणकी, साकारकी हो या निराकारकी । मान्यता अपने मनकी होती है। मन वहाँ पहुँचता नहीं है । परन्तु हम भगवान्‌को कैसे ही मानें, मनका जो भाव रहता है, उसको भगवान् अपना मान लेते हैं।

मामेकं शरणं व्रज ३६··

लोगोंमें इस बातकी प्रसिद्धि है कि 'निर्गुण-निराकार ब्रह्मके अन्तर्गत ही सगुण ईश्वर है। ब्रह्म मायारहित है और ईश्वर मायासहित है। अतः ब्रह्मके एक अंशमें ईश्वर है।' वास्तवमें ऐसा मानना शास्त्रसम्मत एवं युक्तिसंगत नहीं है; क्योंकि जब ब्रह्ममें माया है ही नहीं तो फिर मायासहित ईश्वर ब्रह्मके अन्तर्गत कैसे हुआ ? ब्रह्ममें माया कहाँसे आयी ? परन्तु गीतामें भगवान् कह रहे हैं कि मेरे समग्ररूपके एक अंशमें ब्रह्म है। इसलिये भगवान्ने अपनेको ब्रह्मका आधार बताया है— 'ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम्' (गीता १४ । २७) 'मैं ब्रह्मकी प्रतिष्ठा हूँ' तथा 'मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना' (गीता ९। ४) 'यह सब संसार मेरे अव्यक्त स्वरूपसे व्याप्त है।' भगवान् के इस कथनका तात्पर्य है कि ब्रह्मका अंश मैं नहीं हूँ, प्रत्युत मेरा अंश ब्रह्म है।

साधक संजीवनी ७ । ३० परि०··

भगवान्‌के सगुण-निर्गुण साकार निराकार, व्यक्त-अव्यक्त आदि जितने स्वरूप हैं, उन सब स्वरूपोंमें भगवान् के सगुण-साकार स्वरूपकी बहुत विशेष महिमा है।

साधक संजीवनी ९।२··