भोग और संग्रह करना ही प्राप्त वस्तुओंका दुरुपयोग है और उनको दूसरोंकी सेवामें लगाना ही उनका सदुपयोग है।
||श्रीहरि:||
भोग और संग्रह करना ही प्राप्त वस्तुओंका दुरुपयोग है और उनको दूसरोंकी सेवामें लगाना ही उनका सदुपयोग है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये ३४
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मानवमात्रके कल्याणके लिये ३४··
मिली हुई और बिछुड़नेवाली वस्तुको अपनी और अपने लिये न माननेसे मनुष्य निर्मम हो जाता है। निर्मम होते ही उसके द्वारा मिली हुई वस्तुओंका सदुपयोग सुगमतासे होने लगता है। कारण कि निर्मम हुए बिना प्राप्त वस्तुओंका सदुपयोग नहीं हो सकता। ममतावाले मनुष्यके द्वारा वस्तुओंका दुरुपयोग ही होता है।
||श्रीहरि:||
मिली हुई और बिछुड़नेवाली वस्तुको अपनी और अपने लिये न माननेसे मनुष्य निर्मम हो जाता है। निर्मम होते ही उसके द्वारा मिली हुई वस्तुओंका सदुपयोग सुगमतासे होने लगता है। कारण कि निर्मम हुए बिना प्राप्त वस्तुओंका सदुपयोग नहीं हो सकता। ममतावाले मनुष्यके द्वारा वस्तुओंका दुरुपयोग ही होता है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये ३३ ३४
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मानवमात्रके कल्याणके लिये ३३ ३४··
जिस वस्तुका दुरुपयोग करोगे, वह वस्तु पुनः नहीं मिलेगी - यह नियम है। यदि मनुष्यशरीरका दुरुपयोग करोगे तो यह दुबारा नहीं मिलेगा।
||श्रीहरि:||
जिस वस्तुका दुरुपयोग करोगे, वह वस्तु पुनः नहीं मिलेगी - यह नियम है। यदि मनुष्यशरीरका दुरुपयोग करोगे तो यह दुबारा नहीं मिलेगा।- ज्ञानके दीप जले १८४
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ज्ञानके दीप जले १८४··
सदुपयोग किया जाय तो सभी वस्तुएँ श्रेष्ठ हो जाती हैं, दुरुपयोग किया जाय तो सभी वस्तुएँ निकृष्ट हो जाती हैं।
||श्रीहरि:||
सदुपयोग किया जाय तो सभी वस्तुएँ श्रेष्ठ हो जाती हैं, दुरुपयोग किया जाय तो सभी वस्तुएँ निकृष्ट हो जाती हैं।- सागरके मोती २८
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सागरके मोती २८··
अनुकूल परिस्थिति आ जाय तो अनुकूल सामग्रीको दूसरोंके हितके लिये सेवाबुद्धिसे खर्च करना अनुकूल परिस्थितिका सदुपयोग है और उसका सुखबुद्धिसे भोग करना दुरुपयोग है। ऐसे ही प्रतिकूल परिस्थिति आ जाय तो सुखकी इच्छाका त्याग करना और 'मेरे पूर्वकृत् पापोंका नाश करनेके लिये, भविष्यमें पाप न करनेकी सावधानी रखनेके लिये और मेरी उन्नति करनेके लिये प्रभु कृपासे ऐसी परिस्थिति आयी है' - ऐसा समझकर परम प्रसन्न रहना प्रतिकूल परिस्थितिका सदुपयोग है और उससे दुःखी होना दुरुपयोग है।
||श्रीहरि:||
अनुकूल परिस्थिति आ जाय तो अनुकूल सामग्रीको दूसरोंके हितके लिये सेवाबुद्धिसे खर्च करना अनुकूल परिस्थितिका सदुपयोग है और उसका सुखबुद्धिसे भोग करना दुरुपयोग है। ऐसे ही प्रतिकूल परिस्थिति आ जाय तो सुखकी इच्छाका त्याग करना और 'मेरे पूर्वकृत् पापोंका नाश करनेके लिये, भविष्यमें पाप न करनेकी सावधानी रखनेके लिये और मेरी उन्नति करनेके लिये प्रभु कृपासे ऐसी परिस्थिति आयी है' - ऐसा समझकर परम प्रसन्न रहना प्रतिकूल परिस्थितिका सदुपयोग है और उससे दुःखी होना दुरुपयोग है।- साधक संजीवनी १८ । १२ वि०
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साधक संजीवनी १८ । १२ वि०··
ऊँच-नीच योनियोंकी प्राप्तिमें मनुष्यशरीरका सदुपयोग - दुरुपयोग ही कारण है।
||श्रीहरि:||
ऊँच-नीच योनियोंकी प्राप्तिमें मनुष्यशरीरका सदुपयोग - दुरुपयोग ही कारण है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ८७
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश ८७··
एक परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य होगा तो वस्तु, व्यक्ति, समय, अधिकार आदि सबका स्वाभाविक ही सदुपयोग होगा।
||श्रीहरि:||
एक परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य होगा तो वस्तु, व्यक्ति, समय, अधिकार आदि सबका स्वाभाविक ही सदुपयोग होगा।- अनन्तकी ओर ८०
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अनन्तकी ओर ८०··
जिसके भीतर भोग और संग्रहकी इच्छा है, उसके द्वारा सदुपयोग नहीं होगा। वह सदुपयोग भी करना चाहेगा तो दुरुपयोग जबर्दस्ती हो जायगा।
||श्रीहरि:||
जिसके भीतर भोग और संग्रहकी इच्छा है, उसके द्वारा सदुपयोग नहीं होगा। वह सदुपयोग भी करना चाहेगा तो दुरुपयोग जबर्दस्ती हो जायगा।- अनन्तकी ओर ८१
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अनन्तकी ओर ८१··
समयका सदुपयोग न करनेवाला व्यक्ति किसी भी क्षेत्रमें सफल नहीं हो सकता।
||श्रीहरि:||
समयका सदुपयोग न करनेवाला व्यक्ति किसी भी क्षेत्रमें सफल नहीं हो सकता।- अमृत-बिन्दु ७०३
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अमृत-बिन्दु ७०३··
गया हुआ धन पुनः प्राप्त हो सकता है, पर गया हुआ समय पुनः प्राप्त नहीं होता । धनकी तरह समयको तिजोरी में बन्द करके भी नहीं रख सकते। अतः हर समय सावधान रहकर समयका सदुपयोग करना चाहिये।
||श्रीहरि:||
गया हुआ धन पुनः प्राप्त हो सकता है, पर गया हुआ समय पुनः प्राप्त नहीं होता । धनकी तरह समयको तिजोरी में बन्द करके भी नहीं रख सकते। अतः हर समय सावधान रहकर समयका सदुपयोग करना चाहिये।- अमृत-बिन्दु ७०१
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अमृत-बिन्दु ७०१··
समय, समझ, सामग्री और सामर्थ्य - इन चारोंको अपने लिये मानना इनका दुरुपयोग है और दूसरोंके हितमें लगाना इनका सदुपयोग है।
||श्रीहरि:||
समय, समझ, सामग्री और सामर्थ्य - इन चारोंको अपने लिये मानना इनका दुरुपयोग है और दूसरोंके हितमें लगाना इनका सदुपयोग है।- अमृत-बिन्दु ८४३