जो साधन अपने-आप होता है, वह असली होता है और जो साधन किया जाता है, वह नकली होता है।
||श्रीहरि:||
जो साधन अपने-आप होता है, वह असली होता है और जो साधन किया जाता है, वह नकली होता है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये १२१
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मानवमात्रके कल्याणके लिये १२१··
यदि भगवान्की याद स्वतः नहीं आती, उनको याद करना पड़ता है तो समझें कि अभी साधन शुरू हुआ ही नहीं।
||श्रीहरि:||
यदि भगवान्की याद स्वतः नहीं आती, उनको याद करना पड़ता है तो समझें कि अभी साधन शुरू हुआ ही नहीं।- अमृत-बिन्दु ७६६
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अमृत-बिन्दु ७६६··
साधन स्वाभाविक होना चाहिये। करनेसे साधन बढ़िया नहीं होता। मैं साधक हूँ — ऐसे अहंता बदल लें तो साधन स्वाभाविक होगा।
||श्रीहरि:||
साधन स्वाभाविक होना चाहिये। करनेसे साधन बढ़िया नहीं होता। मैं साधक हूँ — ऐसे अहंता बदल लें तो साधन स्वाभाविक होगा।- सत्संगके फूल २१
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सत्संगके फूल २१··
साधककी अपने साध्यमें जो प्रियता है, वही साधन कहलाती है।
||श्रीहरि:||
साधककी अपने साध्यमें जो प्रियता है, वही साधन कहलाती है।- साधक संजीवनी २।३० परि०
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साधक संजीवनी २।३० परि०··
साधन करना कोई काम-धंधा नहीं है, जिसमें छुट्टी होती है। यह तो जीवन है, श्वासकी तरह।
||श्रीहरि:||
साधन करना कोई काम-धंधा नहीं है, जिसमें छुट्टी होती है। यह तो जीवन है, श्वासकी तरह।- सत्संगके फूल ८
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सत्संगके फूल ८··
जैसे किसान सुबह होते ही हल चलाना शुरू कर देता है, ऐसे ही मनुष्यको बचपनसे ही साधन शुरू कर देना चाहिये।
||श्रीहरि:||
जैसे किसान सुबह होते ही हल चलाना शुरू कर देता है, ऐसे ही मनुष्यको बचपनसे ही साधन शुरू कर देना चाहिये।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ७३
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश ७३··
पन्द्रह से चालीस वर्षतककी अवस्था साधन करनेके लिये विशेष है। साधन करे तो यह 'साधन- पचीसी' है, अन्यथा 'गदह - पचीसी' है। इस अवस्थामें जो भजन नहीं करता, वह बुढ़ापेमें भजन कर ही नहीं सकता। भजनमें उसका मन ही नहीं लगेगा।
||श्रीहरि:||
पन्द्रह से चालीस वर्षतककी अवस्था साधन करनेके लिये विशेष है। साधन करे तो यह 'साधन- पचीसी' है, अन्यथा 'गदह - पचीसी' है। इस अवस्थामें जो भजन नहीं करता, वह बुढ़ापेमें भजन कर ही नहीं सकता। भजनमें उसका मन ही नहीं लगेगा।- प्रेरक कहानियाँ २७
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प्रेरक कहानियाँ २७··
साधकको कोई एक इष्ट स्थापित करना चाहिये। एक ही सिद्धान्त, एक ही इष्ट, एक ही मन्त्र, एक ही माला, एक ही आसन और एक ही समय हो तो जल्दी सिद्धि होती है। जिसमें हमारी स्वाभाविक रुचि होती है, वही साधन सिद्ध होता है।
||श्रीहरि:||
साधकको कोई एक इष्ट स्थापित करना चाहिये। एक ही सिद्धान्त, एक ही इष्ट, एक ही मन्त्र, एक ही माला, एक ही आसन और एक ही समय हो तो जल्दी सिद्धि होती है। जिसमें हमारी स्वाभाविक रुचि होती है, वही साधन सिद्ध होता है।- स्वातिकी बूँदें १४२ - १४३
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स्वातिकी बूँदें १४२ - १४३··
जैसे व्यापार वह बढ़िया होता है, जिसमें पैसे ज्यादा मिलें, ऐसे ही साधन वह बढ़िया होता है, जिसमें मन भगवान् में ज्यादा लगे।
||श्रीहरि:||
जैसे व्यापार वह बढ़िया होता है, जिसमें पैसे ज्यादा मिलें, ऐसे ही साधन वह बढ़िया होता है, जिसमें मन भगवान् में ज्यादा लगे।- ज्ञानके दीप जले १४०
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ज्ञानके दीप जले १४०··
अपनी रुचि, श्रद्धा - विश्वास और योग्यताको देखकर ही साधन करना चाहिये। इनके बिना, केवल गुरुके कहनेपर साधन करनेपर जल्दी सिद्धि नहीं होती। कोई साधन ठीक न बैठे तो रात - दिन नामजप करो। फिर सब ठीक हो जायगा।
||श्रीहरि:||
अपनी रुचि, श्रद्धा - विश्वास और योग्यताको देखकर ही साधन करना चाहिये। इनके बिना, केवल गुरुके कहनेपर साधन करनेपर जल्दी सिद्धि नहीं होती। कोई साधन ठीक न बैठे तो रात - दिन नामजप करो। फिर सब ठीक हो जायगा।- स्वातिकी बूँदें १४३
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स्वातिकी बूँदें १४३··
जो कुछ दीखता है, वह हमारा नहीं है, प्रत्युत भगवान्का है - यह दृढ़तासे स्वीकार कर लें तो हमारा साधन शुरू हो जायगा । जबतक हम मिले हुएको अपना मानते रहेंगे, तबतक साधन शुरू नहीं होगा।
||श्रीहरि:||
जो कुछ दीखता है, वह हमारा नहीं है, प्रत्युत भगवान्का है - यह दृढ़तासे स्वीकार कर लें तो हमारा साधन शुरू हो जायगा । जबतक हम मिले हुएको अपना मानते रहेंगे, तबतक साधन शुरू नहीं होगा।- मानवमात्रके कल्याणके लिये २२०
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मानवमात्रके कल्याणके लिये २२०··
साधन शरीरनिरपेक्ष होता है। कारण कि साधनमें स्वयंकी जरूरत है, शरीरकी नहीं।
||श्रीहरि:||
साधन शरीरनिरपेक्ष होता है। कारण कि साधनमें स्वयंकी जरूरत है, शरीरकी नहीं।- सत्संगके फूल १०
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सत्संगके फूल १०··
जितना संसारमें आकर्षण कम हुआ है और भगवान्में आकर्षण अधिक हुआ है, उतना ही हम साधनमें आगे बढ़े हैं। साधनमें आगे बढ़नेपर व्यवहारमें राग-द्वेष कम होते हैं। चित्तमें शान्ति, प्रसन्नता रहती है । सांसारिक लाभ-हानिमें हर्ष - शोक कम होते हैं।
||श्रीहरि:||
जितना संसारमें आकर्षण कम हुआ है और भगवान्में आकर्षण अधिक हुआ है, उतना ही हम साधनमें आगे बढ़े हैं। साधनमें आगे बढ़नेपर व्यवहारमें राग-द्वेष कम होते हैं। चित्तमें शान्ति, प्रसन्नता रहती है । सांसारिक लाभ-हानिमें हर्ष - शोक कम होते हैं।- सत्संग-मुक्ताहार ११७
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सत्संग-मुक्ताहार ११७··
जड़की तरफ जितना आकर्षण है, उतना ही असाधन है।
||श्रीहरि:||
जड़की तरफ जितना आकर्षण है, उतना ही असाधन है।- ज्ञानके दीप जले २६
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ज्ञानके दीप जले २६··
आपका मैं-पन बदल जाय कि मैं भगवान्का हूँ, संसारका नहीं हूँ । अहंता बदलनेसे साधन बहुत सुगम हो जायगा । फिर यह शिकायत नहीं रहेगी कि क्या करें, निरन्तर साधन नहीं होता, मन नहीं लगता, भगवान्को भूल जाते हैं। फिर चौबीसों घण्टे साधन होगा।
||श्रीहरि:||
आपका मैं-पन बदल जाय कि मैं भगवान्का हूँ, संसारका नहीं हूँ । अहंता बदलनेसे साधन बहुत सुगम हो जायगा । फिर यह शिकायत नहीं रहेगी कि क्या करें, निरन्तर साधन नहीं होता, मन नहीं लगता, भगवान्को भूल जाते हैं। फिर चौबीसों घण्टे साधन होगा।- सागरके मोती ६५
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सागरके मोती ६५··
भगवत्प्राप्तिके सभी साधनोंमें 'अहंता' (मैं- पन) और 'ममता' (मेरा - पन) का परिवर्तन - रूप साधन बहुत सुगम और श्रेष्ठ है।..... साधककी 'अहंता' यह होनी चाहिये कि 'मैं भगवान्का ही हूँ' और 'ममता' यह होनी चाहिये कि 'भगवान् ही मेरे हैं।'
||श्रीहरि:||
भगवत्प्राप्तिके सभी साधनोंमें 'अहंता' (मैं- पन) और 'ममता' (मेरा - पन) का परिवर्तन - रूप साधन बहुत सुगम और श्रेष्ठ है।..... साधककी 'अहंता' यह होनी चाहिये कि 'मैं भगवान्का ही हूँ' और 'ममता' यह होनी चाहिये कि 'भगवान् ही मेरे हैं।'- साधक संजीवनी १५/७
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साधक संजीवनी १५/७··
चाहे किसी मार्गसे चलो कोई भी साधन करो, अहंता ममता छोड़नी ही पड़ेगी।
||श्रीहरि:||
चाहे किसी मार्गसे चलो कोई भी साधन करो, अहंता ममता छोड़नी ही पड़ेगी।- सत्संगके फूल ८८
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सत्संगके फूल ८८··
शरीर 'मैं' नहीं और 'मेरा' नहीं - यही असली त्याग है। यह होनेसे सभी साधन बहुत सुगम हो जायँगे। शरीरके साथ एकता माननेसे ही साधन कठिन मालूम देता है।
||श्रीहरि:||
शरीर 'मैं' नहीं और 'मेरा' नहीं - यही असली त्याग है। यह होनेसे सभी साधन बहुत सुगम हो जायँगे। शरीरके साथ एकता माननेसे ही साधन कठिन मालूम देता है।- सत्संगके फूल १७९
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सत्संगके फूल १७९··
श्रवण, मनन, अध्ययन आदिपर तो खूब विचार करते हैं, पर शरीरमें मैं मेरेपनकी तरफ ध्यान नहीं देते। इसलिये शरीरकी सत्ता बनी रहती है। जबतक शरीरकी सत्ता रहेगी, तबतक दोषोंसे नहीं बच सकते - 'देहाभिमानिनि सर्वे दोषाः प्रादुर्भवन्ति । शरीरके बिना भजन कैसे होगा - यह बात भीतर बैठी रहनेसे देहाध्यास मिटता नहीं।
||श्रीहरि:||
श्रवण, मनन, अध्ययन आदिपर तो खूब विचार करते हैं, पर शरीरमें मैं मेरेपनकी तरफ ध्यान नहीं देते। इसलिये शरीरकी सत्ता बनी रहती है। जबतक शरीरकी सत्ता रहेगी, तबतक दोषोंसे नहीं बच सकते - 'देहाभिमानिनि सर्वे दोषाः प्रादुर्भवन्ति । शरीरके बिना भजन कैसे होगा - यह बात भीतर बैठी रहनेसे देहाध्यास मिटता नहीं।- स्वातिकी बूँदें १७६
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स्वातिकी बूँदें १७६··
‘मैं भगवान्का हूँ और भगवान् मेरे हैं' – इस अपनेपनके समान योग्यता, पात्रता और अधिकारिता आदि कुछ भी नहीं है। यह सम्पूर्ण साधनोंका सार है।
||श्रीहरि:||
‘मैं भगवान्का हूँ और भगवान् मेरे हैं' – इस अपनेपनके समान योग्यता, पात्रता और अधिकारिता आदि कुछ भी नहीं है। यह सम्पूर्ण साधनोंका सार है।- साधक संजीवनी १८ /६६
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साधक संजीवनी १८ /६६··
मन-ही-मन सबको दण्डवत् प्रणाम करो कि उनको पता ही न लगे। गुप्त दान, गुप्त साधन बड़ा तेज होता है। सबको किया गया प्रणाम भगवान्को प्राप्त होता है।...... कम-से-कम प्रत्येक मनुष्यको नमस्कार करो। नमस्कार किये बिना कोई मनुष्य खाली न जाय।
||श्रीहरि:||
मन-ही-मन सबको दण्डवत् प्रणाम करो कि उनको पता ही न लगे। गुप्त दान, गुप्त साधन बड़ा तेज होता है। सबको किया गया प्रणाम भगवान्को प्राप्त होता है।...... कम-से-कम प्रत्येक मनुष्यको नमस्कार करो। नमस्कार किये बिना कोई मनुष्य खाली न जाय।- सत्संगके फूल ४३
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सत्संगके फूल ४३··
जो साधन सुगम दीखे, उसे करना शुरू कर दो तो जो कठिन है, वह सुगम हो जायगा और जो समझमें नहीं आता, वह समझमें आने लग जायगा।
||श्रीहरि:||
जो साधन सुगम दीखे, उसे करना शुरू कर दो तो जो कठिन है, वह सुगम हो जायगा और जो समझमें नहीं आता, वह समझमें आने लग जायगा।- सत्संगके फूल ५५
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सत्संगके फूल ५५··
साधनमें भी लोभ नहीं करना चाहिये। जो साधन कर सकते हो, वह साधन करो। जो साधन नहीं कर सकते, वह साधन ( चुप साधन आदि) मत करो, उसका लोभ मत करो।
||श्रीहरि:||
साधनमें भी लोभ नहीं करना चाहिये। जो साधन कर सकते हो, वह साधन करो। जो साधन नहीं कर सकते, वह साधन ( चुप साधन आदि) मत करो, उसका लोभ मत करो।- सत्संगके फूल ६५
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सत्संगके फूल ६५··
परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य होनेसे कोई साधन छोटा नहीं होता।
||श्रीहरि:||
परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य होनेसे कोई साधन छोटा नहीं होता।- स्वातिकी बूँदें ६२
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स्वातिकी बूँदें ६२··
कर्मयोग, सांख्ययोग, ध्यानयोग, भक्तियोग आदि सभी साधनोंमें एक दृढ़ निश्चय या उद्देश्यकी बड़ी आवश्यकता है। अगर अपने कल्याणका उद्देश्य ही दृढ़ नहीं होगा, तो साधनसे सिद्धि कैसे मिलेगी ?
||श्रीहरि:||
कर्मयोग, सांख्ययोग, ध्यानयोग, भक्तियोग आदि सभी साधनोंमें एक दृढ़ निश्चय या उद्देश्यकी बड़ी आवश्यकता है। अगर अपने कल्याणका उद्देश्य ही दृढ़ नहीं होगा, तो साधनसे सिद्धि कैसे मिलेगी ?- साधक संजीवनी ५।२८
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साधक संजीवनी ५।२८··
किसी साधनकी सुगमता या कठिनता साधककी 'रुचि' और 'उद्देश्य' पर निर्भर करती है। रुचि और उद्देश्य एक भगवान्का होनेसे साधन सुगम होता है तथा रुचि संसारकी और उद्देश्य भगवान्का होनेसे साधन कठिन हो जाता है।
||श्रीहरि:||
किसी साधनकी सुगमता या कठिनता साधककी 'रुचि' और 'उद्देश्य' पर निर्भर करती है। रुचि और उद्देश्य एक भगवान्का होनेसे साधन सुगम होता है तथा रुचि संसारकी और उद्देश्य भगवान्का होनेसे साधन कठिन हो जाता है।- साधक संजीवनी १२ । १२ वि०
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साधक संजीवनी १२ । १२ वि०··
परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण हैं, उनकी प्राप्तिके लिये ही हम यहाँ आये हैं, उनकी प्राप्तिके लिये ही बैठे हैं और उनके होकर ही रहना है-ये चार बातें मान लें।
||श्रीहरि:||
परमात्मा सर्वत्र परिपूर्ण हैं, उनकी प्राप्तिके लिये ही हम यहाँ आये हैं, उनकी प्राप्तिके लिये ही बैठे हैं और उनके होकर ही रहना है-ये चार बातें मान लें।- सत्संगके फूल ८४
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सत्संगके फूल ८४··
शरीरको अपना और अपने लिये मानना विवेकविरोधी है। विवेकविरोधी सम्बन्धके रहते हुए कोई भी साधन सिद्ध नहीं हो सकता । शरीरके साथ सम्बन्ध रखते हुए कोई कितना ही तप कर ले, समाधि लगा ले, लोक-लोकान्तरमें घूम आये, तो भी उसके मोहका नाश तथा सत्य तत्त्वकी प्राप्ति नहीं हो सकती।
||श्रीहरि:||
शरीरको अपना और अपने लिये मानना विवेकविरोधी है। विवेकविरोधी सम्बन्धके रहते हुए कोई भी साधन सिद्ध नहीं हो सकता । शरीरके साथ सम्बन्ध रखते हुए कोई कितना ही तप कर ले, समाधि लगा ले, लोक-लोकान्तरमें घूम आये, तो भी उसके मोहका नाश तथा सत्य तत्त्वकी प्राप्ति नहीं हो सकती।- साधक संजीवनी २।३० परि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी २।३० परि०··
आपके काम न क्रिया आयेगी, न चिन्तन आयेगा, न स्थिरता आयेगी, न समाधि आयेगी। इसी तरह प्रणायाम, कुण्डलिनी जागरण, एकाग्रता आदि आपके कोई काम नहीं हैं। ये सब प्राकृत चीजें हैं, जबकि आप परमात्माके अंश हो।
||श्रीहरि:||
आपके काम न क्रिया आयेगी, न चिन्तन आयेगा, न स्थिरता आयेगी, न समाधि आयेगी। इसी तरह प्रणायाम, कुण्डलिनी जागरण, एकाग्रता आदि आपके कोई काम नहीं हैं। ये सब प्राकृत चीजें हैं, जबकि आप परमात्माके अंश हो।- मानवमात्रके कल्याणके लिये २३
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
मानवमात्रके कल्याणके लिये २३··
श्रवण, मनन, निदिध्यासन, ध्यान, समाधिसे तत्त्वकी प्राप्ति नहीं होती । तत्त्वकी प्राप्ति जड़के द्वारा नहीं होती, प्रत्युत जड़के त्यागसे होती है । श्रवण, मनन आदि (अभ्यास) - में जड़की सहायता लेनी पड़ती है।
||श्रीहरि:||
श्रवण, मनन, निदिध्यासन, ध्यान, समाधिसे तत्त्वकी प्राप्ति नहीं होती । तत्त्वकी प्राप्ति जड़के द्वारा नहीं होती, प्रत्युत जड़के त्यागसे होती है । श्रवण, मनन आदि (अभ्यास) - में जड़की सहायता लेनी पड़ती है।- सागरके मोती ३३
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सागरके मोती ३३··
अभ्याससे न राग मिटता है, न प्रेम होता है । अभ्यास केवल मनोनिग्रहके लिये है।
||श्रीहरि:||
अभ्याससे न राग मिटता है, न प्रेम होता है । अभ्यास केवल मनोनिग्रहके लिये है।- सागरके मोती ४६
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सागरके मोती ४६··
विहितकर्मके अनुष्ठानमें कमी होनेसे बाधा नहीं लगेगी, पर निषिद्ध कर्म जबतक होंगे, तबतक साधन सिद्ध नहीं होगा, तत्त्वकी प्राप्ति नहीं होगी।
||श्रीहरि:||
विहितकर्मके अनुष्ठानमें कमी होनेसे बाधा नहीं लगेगी, पर निषिद्ध कर्म जबतक होंगे, तबतक साधन सिद्ध नहीं होगा, तत्त्वकी प्राप्ति नहीं होगी।- सागरके मोती ४३
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सागरके मोती ४३··
भगवान्का चिन्तन करेंगे तो संसारका चिन्तन जबर्दस्ती होगा। पर संसारका चिन्तन नहीं करेंगे तो भगवान्का चिन्तन स्वतः होगा।
||श्रीहरि:||
भगवान्का चिन्तन करेंगे तो संसारका चिन्तन जबर्दस्ती होगा। पर संसारका चिन्तन नहीं करेंगे तो भगवान्का चिन्तन स्वतः होगा।- सागरके मोती ७८
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सागरके मोती ७८··
वस्तुओंको व्यक्तियोंकी सेवामें लगाना साधन है और वस्तुओं तथा व्यक्तियोंसे सुख लेना घोर असाधन है। जिसके जीवनमें कभी साधन और कभी असाधन रहता है, उसके जीवनमें असाधनकी ही मुख्यता रहती है।
||श्रीहरि:||
वस्तुओंको व्यक्तियोंकी सेवामें लगाना साधन है और वस्तुओं तथा व्यक्तियोंसे सुख लेना घोर असाधन है। जिसके जीवनमें कभी साधन और कभी असाधन रहता है, उसके जीवनमें असाधनकी ही मुख्यता रहती है।- साधन-सुधा-सिन्धु ४३६
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधन-सुधा-सिन्धु ४३६··
अनुकूलताकी इच्छावाला साधन नहीं कर सकता।
||श्रीहरि:||
अनुकूलताकी इच्छावाला साधन नहीं कर सकता।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ११३
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सीमाके भीतर असीम प्रकाश ११३··
साधनकी मुख्य बाधा है - संयोगजन्य सुखकी कामना । यह बाधा साधनमें बहुत दूरतक रहती है। साधक जहाँ सुख लेता है, वहीं अटक जाता है । यहाँतक कि वह समाधिका भी सुख लेता है तो वहाँ अटक जाता है।
||श्रीहरि:||
साधनकी मुख्य बाधा है - संयोगजन्य सुखकी कामना । यह बाधा साधनमें बहुत दूरतक रहती है। साधक जहाँ सुख लेता है, वहीं अटक जाता है । यहाँतक कि वह समाधिका भी सुख लेता है तो वहाँ अटक जाता है।- साधक संजीवनी ३ | ३९ परि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ३ | ३९ परि०··
सुखकी इच्छाको लेकर जो भजन किया जाता है, वह वास्तवमें भजन नहीं होता । सुखकी इच्छा पापोंकी जड़ है। अपने सुखके लिये साधन करना राक्षसी स्वभाव है । हिरण्यकशिपुने अपने सुखके लिये ही तप किया था। अपने सुखके लिये जो काम किया जाता है, वह पतन करनेवाली आसुरी सम्पत्ति होती है।
||श्रीहरि:||
सुखकी इच्छाको लेकर जो भजन किया जाता है, वह वास्तवमें भजन नहीं होता । सुखकी इच्छा पापोंकी जड़ है। अपने सुखके लिये साधन करना राक्षसी स्वभाव है । हिरण्यकशिपुने अपने सुखके लिये ही तप किया था। अपने सुखके लिये जो काम किया जाता है, वह पतन करनेवाली आसुरी सम्पत्ति होती है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १०
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १०··
आध्यात्मिक मार्गमें चलनेवालोंको सांसारिक सुखका त्याग करनेकी बात सौ प्रतिशत, पूरी -की- पूरी माननी पड़ेगी। ऐसी ढिलाई नहीं चलेगी कि संसारका सुख भी भोग लें और परमात्माकी प्राप्ति भी कर लें।
||श्रीहरि:||
आध्यात्मिक मार्गमें चलनेवालोंको सांसारिक सुखका त्याग करनेकी बात सौ प्रतिशत, पूरी -की- पूरी माननी पड़ेगी। ऐसी ढिलाई नहीं चलेगी कि संसारका सुख भी भोग लें और परमात्माकी प्राप्ति भी कर लें।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ ४०
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ ४०··
परमात्मप्राप्तिके मार्गमें सात्त्विक सुखकी आसक्ति अटकाती है और राजस - तामस सुखकी आसक्ति पतन करती है।
||श्रीहरि:||
परमात्मप्राप्तिके मार्गमें सात्त्विक सुखकी आसक्ति अटकाती है और राजस - तामस सुखकी आसक्ति पतन करती है।- साधक संजीवनी ३ | ३९ परि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ३ | ३९ परि०··
भजन सुविधा अथवा दुविधाके अधीन नहीं है। सुख-सुविधाकी इच्छा भोग है। चाहे दुःख मिले या सुख, भजन बढ़ना चाहिये । अनुकूलता आये या प्रतिकूलता, हमारा मन भगवान्में लगना चाहिये, हमारी चालमें फर्क नहीं आना चाहिये।
||श्रीहरि:||
भजन सुविधा अथवा दुविधाके अधीन नहीं है। सुख-सुविधाकी इच्छा भोग है। चाहे दुःख मिले या सुख, भजन बढ़ना चाहिये । अनुकूलता आये या प्रतिकूलता, हमारा मन भगवान्में लगना चाहिये, हमारी चालमें फर्क नहीं आना चाहिये।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १३३
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १३३··
अपने हितके लिये साधन करनेसे 'अहम्' ज्यों-का-त्यों बना रहता है।
||श्रीहरि:||
अपने हितके लिये साधन करनेसे 'अहम्' ज्यों-का-त्यों बना रहता है।- साधक संजीवनी ५।२
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साधक संजीवनी ५।२··
साधनमें स्वाभाविक प्रवृत्ति न होनेमें कारण है— उद्देश्य और रुचिमें भिन्नता । जबतक अन्त:करण में संसारका महत्त्व है, तबतक उद्देश्य और रुचिका संघर्ष प्रायः मिटता नहीं।
||श्रीहरि:||
साधनमें स्वाभाविक प्रवृत्ति न होनेमें कारण है— उद्देश्य और रुचिमें भिन्नता । जबतक अन्त:करण में संसारका महत्त्व है, तबतक उद्देश्य और रुचिका संघर्ष प्रायः मिटता नहीं।- साधक संजीवनी ५। ७
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साधक संजीवनी ५। ७··
जड़ पदार्थोंके साथ जीवका जो रागयुक्त सम्बन्ध है, उसे मिटानेमें ही सम्पूर्ण साधनोंकी सार्थकता है।
||श्रीहरि:||
जड़ पदार्थोंके साथ जीवका जो रागयुक्त सम्बन्ध है, उसे मिटानेमें ही सम्पूर्ण साधनोंकी सार्थकता है।- साधक संजीवनी ५।१२
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साधक संजीवनी ५।१२··
वास्तवमें मुक्तिके लिये अथवा परमात्मप्राप्तिके लिये साधन करना भी फलासक्ति है। मनुष्यकी आदत पड़ी हुई है कि वह प्रत्येक कार्य फलकी कामनासे करता है, इसीलिये कहा जाता है कि मुक्ति के लिये, परमात्मप्राप्तिके लिये साधन करे। वास्तवमें साधन केवल असाधनको मिटाने के लिये है । मुक्ति स्वतः सिद्ध है। परमात्मा नित्यप्राप्त हैं । परमात्मप्राप्ति किसी क्रियाका फल नहीं है। अत: कुछ करनेसे परमात्मप्राप्ति होगी – ऐसी इच्छा करना भी फलेच्छा है।
||श्रीहरि:||
वास्तवमें मुक्तिके लिये अथवा परमात्मप्राप्तिके लिये साधन करना भी फलासक्ति है। मनुष्यकी आदत पड़ी हुई है कि वह प्रत्येक कार्य फलकी कामनासे करता है, इसीलिये कहा जाता है कि मुक्ति के लिये, परमात्मप्राप्तिके लिये साधन करे। वास्तवमें साधन केवल असाधनको मिटाने के लिये है । मुक्ति स्वतः सिद्ध है। परमात्मा नित्यप्राप्त हैं । परमात्मप्राप्ति किसी क्रियाका फल नहीं है। अत: कुछ करनेसे परमात्मप्राप्ति होगी – ऐसी इच्छा करना भी फलेच्छा है।- साधक संजीवनी ५।१२ परि०
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साधक संजीवनी ५।१२ परि०··
जो केवल भगवान्का ही हो जाता है, जिसका अपना व्यक्तिगत कुछ नहीं रहता, उसकी साधन- भजन, जप-कीर्तन, श्रवण - मनन आदि सभी पारमार्थिक क्रियाएँ; खाना-पीना, चलना-फिरना आदि सभी शारीरिक क्रियाएँ और खेती, व्यापार, नौकरी आदि जीविका सम्बन्धी क्रियाएँ भजन हो जाती हैं।
||श्रीहरि:||
जो केवल भगवान्का ही हो जाता है, जिसका अपना व्यक्तिगत कुछ नहीं रहता, उसकी साधन- भजन, जप-कीर्तन, श्रवण - मनन आदि सभी पारमार्थिक क्रियाएँ; खाना-पीना, चलना-फिरना आदि सभी शारीरिक क्रियाएँ और खेती, व्यापार, नौकरी आदि जीविका सम्बन्धी क्रियाएँ भजन हो जाती हैं।- साधक संजीवनी ६ । ४७
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साधक संजीवनी ६ । ४७··
मनुष्योंकी रुचि, विश्वास और योग्यताके अनुसार उपासनाके भिन्न-भिन्न प्रकार होते हैं, पर उनके अन्तिम फलमें कोई फरक नहीं होता। सबका प्रापणीय तत्त्व एक ही होता है। जैसे भोजनके प्राप्त न होनेपर अभावकी और प्राप्त होनेपर तृप्तिकी एकता होनेपर भी भोजनके पदार्थोंमें भिन्नता रहती है, ऐसे ही परमात्माके प्राप्त न होनेपर अभावकी और प्राप्त होनेपर पूर्णताकी एकता होनेपर भी उपासनाओंमें भिन्नता रहती है।
||श्रीहरि:||
मनुष्योंकी रुचि, विश्वास और योग्यताके अनुसार उपासनाके भिन्न-भिन्न प्रकार होते हैं, पर उनके अन्तिम फलमें कोई फरक नहीं होता। सबका प्रापणीय तत्त्व एक ही होता है। जैसे भोजनके प्राप्त न होनेपर अभावकी और प्राप्त होनेपर तृप्तिकी एकता होनेपर भी भोजनके पदार्थोंमें भिन्नता रहती है, ऐसे ही परमात्माके प्राप्त न होनेपर अभावकी और प्राप्त होनेपर पूर्णताकी एकता होनेपर भी उपासनाओंमें भिन्नता रहती है।- साधक संजीवनी ८।२१
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साधक संजीवनी ८।२१··
जैसे, भूख सबकी एक ही होती है और भोजन करनेपर तृप्तिका अनुभव भी सबको एक ही होता है, पर भोजनकी रुचि सबकी भिन्न-भिन्न होनेके कारण भोज्य पदार्थ भी भिन्न-भिन्न होते हैं। इसी तरह साधकोंकी रुचि विश्वास और योग्यताके अनुसार साधन भी भिन्न-भिन्न होते हैं, पर भगवत्प्राप्तिकी अभिलाषा (भूख) सभी साधनोंमें एक ही होती है।
||श्रीहरि:||
जैसे, भूख सबकी एक ही होती है और भोजन करनेपर तृप्तिका अनुभव भी सबको एक ही होता है, पर भोजनकी रुचि सबकी भिन्न-भिन्न होनेके कारण भोज्य पदार्थ भी भिन्न-भिन्न होते हैं। इसी तरह साधकोंकी रुचि विश्वास और योग्यताके अनुसार साधन भी भिन्न-भिन्न होते हैं, पर भगवत्प्राप्तिकी अभिलाषा (भूख) सभी साधनोंमें एक ही होती है।- साधक संजीवनी १२।१२ वि०
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साधक संजीवनी १२।१२ वि०··
कर्मयोगकी दृष्टिसे जो वस्तु अपनी नहीं है, प्रत्युत दूसरोंकी है, उसको दूसरोंकी सेवामें लगानेमें क्या जोर आता है । ज्ञानयोगकी दृष्टिसे अपने-आपमें स्थित होनेमें क्या जोर आता है । भक्तियोगकी दृष्टिसे जो अपना है, उसकी तरफ जानेमें क्या जोर आता है। ये सब काम सुखपूर्वक होते हैं।
||श्रीहरि:||
कर्मयोगकी दृष्टिसे जो वस्तु अपनी नहीं है, प्रत्युत दूसरोंकी है, उसको दूसरोंकी सेवामें लगानेमें क्या जोर आता है । ज्ञानयोगकी दृष्टिसे अपने-आपमें स्थित होनेमें क्या जोर आता है । भक्तियोगकी दृष्टिसे जो अपना है, उसकी तरफ जानेमें क्या जोर आता है। ये सब काम सुखपूर्वक होते हैं।- साधक संजीवनी ९।२ परि०
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साधक संजीवनी ९।२ परि०··
कुछ लोग अनेक देवी-देवताओंकी उपासना आरम्भ कर देते हैं, पर जब उनके मनमें एक ही देवताकी उपासनाका विचार आता है, तब अन्य देवताओंकी उपासना छोड़नेमें उनको भय लगता है कि कहीं देवता नाराज न हो जायँ हमारी हानि न कर दें। वास्तवमें ऐसी बात नहीं है। यदि उद्देश्य कल्याणका हो और निष्कामभाव हो तो एककी उपासना करनेसे दूसरे नाराज नहीं होंगे; क्योंकि मूलमें उपास्य तत्त्व एक ही है । अनेककी उपासना करनेसे सकामभावकी पूर्ति होनी कठिन है। अतः साधकका इष्ट एक ही होना चाहिये।
||श्रीहरि:||
कुछ लोग अनेक देवी-देवताओंकी उपासना आरम्भ कर देते हैं, पर जब उनके मनमें एक ही देवताकी उपासनाका विचार आता है, तब अन्य देवताओंकी उपासना छोड़नेमें उनको भय लगता है कि कहीं देवता नाराज न हो जायँ हमारी हानि न कर दें। वास्तवमें ऐसी बात नहीं है। यदि उद्देश्य कल्याणका हो और निष्कामभाव हो तो एककी उपासना करनेसे दूसरे नाराज नहीं होंगे; क्योंकि मूलमें उपास्य तत्त्व एक ही है । अनेककी उपासना करनेसे सकामभावकी पूर्ति होनी कठिन है। अतः साधकका इष्ट एक ही होना चाहिये।- सत्संग-मुक्ताहार ७३
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सत्संग-मुक्ताहार ७३··
अगर साधककी देवताओंमें भगवद्बुद्धि हो अथवा अपनेमें निष्कामभाव हो तो उसका उद्धार हो जायगा अर्थात् वह भी भगवान्को प्राप्त हो जायगा । परन्तु देवताओंमें भगवद्बुद्धि न हो और अपने में निष्कामभाव भी न हो तो उद्धार नहीं होगा।
||श्रीहरि:||
अगर साधककी देवताओंमें भगवद्बुद्धि हो अथवा अपनेमें निष्कामभाव हो तो उसका उद्धार हो जायगा अर्थात् वह भी भगवान्को प्राप्त हो जायगा । परन्तु देवताओंमें भगवद्बुद्धि न हो और अपने में निष्कामभाव भी न हो तो उद्धार नहीं होगा।- साधक संजीवनी ७।२३ परि०
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साधक संजीवनी ७।२३ परि०··
सगुण उपासनामें विष्णु, राम, कृष्ण, शिव, शक्ति, गणेश, सूर्य आदि जो भगवान्के स्वरूप हैं, उनमें से जो जिस स्वरूपकी उपासना करता है, उसी स्वरूपका चिन्तन हो । परन्तु दूसरे स्वरूपोंको अपने इष्टसे अलग न माने और अपने-आपको भी अपने इष्टके सिवाय और किसीका न माने।
||श्रीहरि:||
सगुण उपासनामें विष्णु, राम, कृष्ण, शिव, शक्ति, गणेश, सूर्य आदि जो भगवान्के स्वरूप हैं, उनमें से जो जिस स्वरूपकी उपासना करता है, उसी स्वरूपका चिन्तन हो । परन्तु दूसरे स्वरूपोंको अपने इष्टसे अलग न माने और अपने-आपको भी अपने इष्टके सिवाय और किसीका न माने।- साधक संजीवनी ८ । १४
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साधक संजीवनी ८ । १४··
देवताओंमें भगवद्भाव और निष्कामभाव हो तो उनकी उपासना भी कल्याण करनेवाली है । परन्तु भूत, प्रेत आदिकी उपासना करनेवालोंकी कभी सद्गति होती ही नहीं, दुर्गति ही होती है।
||श्रीहरि:||
देवताओंमें भगवद्भाव और निष्कामभाव हो तो उनकी उपासना भी कल्याण करनेवाली है । परन्तु भूत, प्रेत आदिकी उपासना करनेवालोंकी कभी सद्गति होती ही नहीं, दुर्गति ही होती है।- साधक संजीवनी ९ । २५ वि०
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साधक संजीवनी ९ । २५ वि०··
भगवान् से विमुख हुए सभी मनुष्य भगवान् के सम्मुख होनेमें, भगवान् के साथ सम्बन्ध जोड़नेमें, भगवान् की तरफ चलनेमें स्वतन्त्र हैं, समर्थ हैं, योग्य हैं, अधिकारी हैं। इसलिये भगवान्की तरफ चलनेमें किसीको कभी किंचिन्मात्र भी निराश नहीं होना चाहिये।
||श्रीहरि:||
भगवान् से विमुख हुए सभी मनुष्य भगवान् के सम्मुख होनेमें, भगवान् के साथ सम्बन्ध जोड़नेमें, भगवान् की तरफ चलनेमें स्वतन्त्र हैं, समर्थ हैं, योग्य हैं, अधिकारी हैं। इसलिये भगवान्की तरफ चलनेमें किसीको कभी किंचिन्मात्र भी निराश नहीं होना चाहिये।- साधक संजीवनी ९ । ३३ मा०
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साधक संजीवनी ९ । ३३ मा०··
एक चिन्तन करते हैं और एक चिन्तन 'होता' है। जो चिन्तन, भजन करते हैं, वह नकली (कृत्रिम) होता है और जो स्वतः होता है, वह असली होता है।.....शरीरमें प्रियता, आसक्ति होनेसे भगवान्का चिन्तन करना पड़ता है और शरीरका चिन्तन स्वतः होता है । परन्तु भगवान् में प्रियता (अपनापन ) होनेसे भजन करना नहीं पड़ता, प्रत्युत स्वतः होता है और छूटता भी नहीं।
||श्रीहरि:||
एक चिन्तन करते हैं और एक चिन्तन 'होता' है। जो चिन्तन, भजन करते हैं, वह नकली (कृत्रिम) होता है और जो स्वतः होता है, वह असली होता है।.....शरीरमें प्रियता, आसक्ति होनेसे भगवान्का चिन्तन करना पड़ता है और शरीरका चिन्तन स्वतः होता है । परन्तु भगवान् में प्रियता (अपनापन ) होनेसे भजन करना नहीं पड़ता, प्रत्युत स्वतः होता है और छूटता भी नहीं।- साधक संजीवनी १०।१० परि०
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साधक संजीवनी १०।१० परि०··
अपनेमें जो साधन करनेके बलका भान होता है कि साधनके बलपर मैं अपना उद्धार कर लूँगा, उसको मिटानेके लिये ही साधन करना है। तात्पर्य है कि भगवान्की प्राप्ति साधन करनेसे नहीं होती, प्रत्युत साधनका अभिमान गलनेसे होती है। साधनका अभिमान गल जानेसे साधकपर भगवान्की शुद्ध कृपा असर करती है अर्थात् उस कृपाके आनेमें कोई आड़ नहीं रहती और ( उस कृपासे) भगवान्की प्राप्ति हो जाती है।
||श्रीहरि:||
अपनेमें जो साधन करनेके बलका भान होता है कि साधनके बलपर मैं अपना उद्धार कर लूँगा, उसको मिटानेके लिये ही साधन करना है। तात्पर्य है कि भगवान्की प्राप्ति साधन करनेसे नहीं होती, प्रत्युत साधनका अभिमान गलनेसे होती है। साधनका अभिमान गल जानेसे साधकपर भगवान्की शुद्ध कृपा असर करती है अर्थात् उस कृपाके आनेमें कोई आड़ नहीं रहती और ( उस कृपासे) भगवान्की प्राप्ति हो जाती है।- साधक संजीवनी ११।५४
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साधक संजीवनी ११।५४··
इन्द्रियाँ अच्छी प्रकारसे पूर्णतः वशमें न होनेपर निर्गुण तत्त्वकी उपासनामें कठिनता होती है । सगुण- उपासनामें तो ध्यानका विषय सगुण भगवान् होनेसे इन्द्रियाँ भगवान्में लग सकती हैं; क्योंकि भगवान् के सगुण स्वरूपमें इन्द्रियोंको अपने विषय प्राप्त हो जाते हैं। अतः सगुण - उपासनामें इन्द्रिय- संयमकी आवश्यकता होते हुए भी इसकी उतनी अधिक आवश्यकता नहीं है, जितनी निर्गुण-उपासनामें है।
||श्रीहरि:||
इन्द्रियाँ अच्छी प्रकारसे पूर्णतः वशमें न होनेपर निर्गुण तत्त्वकी उपासनामें कठिनता होती है । सगुण- उपासनामें तो ध्यानका विषय सगुण भगवान् होनेसे इन्द्रियाँ भगवान्में लग सकती हैं; क्योंकि भगवान् के सगुण स्वरूपमें इन्द्रियोंको अपने विषय प्राप्त हो जाते हैं। अतः सगुण - उपासनामें इन्द्रिय- संयमकी आवश्यकता होते हुए भी इसकी उतनी अधिक आवश्यकता नहीं है, जितनी निर्गुण-उपासनामें है।- साधक संजीवनी १२।३-४
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साधक संजीवनी १२।३-४··
साधनकी सार्थकता असाधन ( जड़के साथ माने हुए सम्बन्ध ) - का त्याग करानेमें ही है।.......इस रहस्यको न समझकर साधनमें ममता करने और उसका आश्रय लेनेसे साधकका जड़के साथ सम्बन्ध बना रहता है। जबतक हृदयमें जड़ताका किंचिन्मात्र भी आदर है, तबतक भगवत्प्राप्ति कठिन है।
||श्रीहरि:||
साधनकी सार्थकता असाधन ( जड़के साथ माने हुए सम्बन्ध ) - का त्याग करानेमें ही है।.......इस रहस्यको न समझकर साधनमें ममता करने और उसका आश्रय लेनेसे साधकका जड़के साथ सम्बन्ध बना रहता है। जबतक हृदयमें जड़ताका किंचिन्मात्र भी आदर है, तबतक भगवत्प्राप्ति कठिन है।- साधक संजीवनी १२ १८ वि०
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साधक संजीवनी १२ १८ वि०··
अपने साधनको किसी भी तरह हीन (निम्नश्रेणीका ) नहीं मानना चाहिये और साधनकी सफलता ( भगवत्प्राप्ति) के विषयमें कभी निराश भी नहीं होना चाहिये; क्योंकि कोई भी साधन निम्नश्रेणीका नहीं होता।
||श्रीहरि:||
अपने साधनको किसी भी तरह हीन (निम्नश्रेणीका ) नहीं मानना चाहिये और साधनकी सफलता ( भगवत्प्राप्ति) के विषयमें कभी निराश भी नहीं होना चाहिये; क्योंकि कोई भी साधन निम्नश्रेणीका नहीं होता।- साधक संजीवनी १२ । १२ वि०
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साधक संजीवनी १२ । १२ वि०··
श्रद्धाको लेकर ही आध्यात्मिक मार्गमें प्रवेश होता है, फिर चाहे वह मार्ग कर्मयोगका हो, चाहे ज्ञानयोगका हो और चाहे भक्तियोगका हो, साध्य और साधन – दोनोंपर श्रद्धा हुए बिना आध्यात्मिक मार्गमें प्रगति नहीं होती।
||श्रीहरि:||
श्रद्धाको लेकर ही आध्यात्मिक मार्गमें प्रवेश होता है, फिर चाहे वह मार्ग कर्मयोगका हो, चाहे ज्ञानयोगका हो और चाहे भक्तियोगका हो, साध्य और साधन – दोनोंपर श्रद्धा हुए बिना आध्यात्मिक मार्गमें प्रगति नहीं होती।- साधक संजीवनी १७ । ३ मा०
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साधक संजीवनी १७ । ३ मा०··
लगनके बिना हठ कामका नहीं है। लगनयुक्त हठ होना चाहिये। केवल हठ करनेसे मर जाओ तो भी कुछ नहीं होगा। ताकत लगनमें है, भूखे-प्यासे रहनेमें नहीं।
||श्रीहरि:||
लगनके बिना हठ कामका नहीं है। लगनयुक्त हठ होना चाहिये। केवल हठ करनेसे मर जाओ तो भी कुछ नहीं होगा। ताकत लगनमें है, भूखे-प्यासे रहनेमें नहीं।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १५८
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १५८··
अगर साधनजन्य – ध्यान और एकाग्रताका सुख भी लिया जाय, तो वह भी बन्धनकारक हो जाता है। इतना ही नहीं, अगर समाधिका सुख भी लिया जाय, तो वह भी परमात्मप्राप्तिमें बाधक हो जाता है – 'सुखसङ्गेन बध्नाति' (गीता १४ । ६ ) |
||श्रीहरि:||
अगर साधनजन्य – ध्यान और एकाग्रताका सुख भी लिया जाय, तो वह भी बन्धनकारक हो जाता है। इतना ही नहीं, अगर समाधिका सुख भी लिया जाय, तो वह भी परमात्मप्राप्तिमें बाधक हो जाता है – 'सुखसङ्गेन बध्नाति' (गीता १४ । ६ ) |- साधक संजीवनी १८ । ३६
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साधक संजीवनी १८ । ३६··
वास्तवमें 'भजन' नाम प्रेमका है। भजन क्रिया नहीं है। गिनती करके नामजप करना भजन नहीं है। नामजप करनेसे भगवान्में प्रेम होगा, उस प्रेमका नाम भजन है।
||श्रीहरि:||
वास्तवमें 'भजन' नाम प्रेमका है। भजन क्रिया नहीं है। गिनती करके नामजप करना भजन नहीं है। नामजप करनेसे भगवान्में प्रेम होगा, उस प्रेमका नाम भजन है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ४५
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश ४५··
भजन वही बढ़िया होता है, जिसमें भगवान्का प्रेम बढ़े और संसारसे वैराग्य हो।
||श्रीहरि:||
भजन वही बढ़िया होता है, जिसमें भगवान्का प्रेम बढ़े और संसारसे वैराग्य हो।- अनन्तकी ओर १७९
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
अनन्तकी ओर १७९··
भगवान्के नामका उच्चारण करना ही भजन है - ऐसा कायदा नहीं है। भगवान् मीठे लगें, उनकी हर चीज मीठी लगे - यह भगवान्का सर्वश्रेष्ठ भजन है।
||श्रीहरि:||
भगवान्के नामका उच्चारण करना ही भजन है - ऐसा कायदा नहीं है। भगवान् मीठे लगें, उनकी हर चीज मीठी लगे - यह भगवान्का सर्वश्रेष्ठ भजन है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १०५
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १०५··
भजन क्रिया नहीं है, समर्पण है। ऐसा मान ले कि मैं भगवान्का हूँ, तो यह भजन हो गया।
||श्रीहरि:||
भजन क्रिया नहीं है, समर्पण है। ऐसा मान ले कि मैं भगवान्का हूँ, तो यह भजन हो गया।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १५७
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १५७··
अभ्यासका नाम भजन नहीं है, प्रत्युत भगवान्की स्मृति और प्रियताका नाम भजन है। भगवान्को अपना माने बिना स्मृति और प्रियता जाग्रत् नहीं होती।
||श्रीहरि:||
अभ्यासका नाम भजन नहीं है, प्रत्युत भगवान्की स्मृति और प्रियताका नाम भजन है। भगवान्को अपना माने बिना स्मृति और प्रियता जाग्रत् नहीं होती।- अमृत-बिन्दु ७४६
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अमृत-बिन्दु ७४६··
भजन करनेका अर्थ है - भगवान् के सम्मुख होना, भगवान् में प्रियता (अपनापन ) होना, भगवान्की प्राप्तिका उद्देश्य होना। भगवद्बुद्धिसे दूसरोंकी सेवा करना, दूसरोंको देनेका भाव रखना, अभावग्रस्तोंकी सहायता करना - यह भी भजन है।
||श्रीहरि:||
भजन करनेका अर्थ है - भगवान् के सम्मुख होना, भगवान् में प्रियता (अपनापन ) होना, भगवान्की प्राप्तिका उद्देश्य होना। भगवद्बुद्धिसे दूसरोंकी सेवा करना, दूसरोंको देनेका भाव रखना, अभावग्रस्तोंकी सहायता करना - यह भी भजन है।- साधक संजीवनी ९ । ३३ परि०
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साधक संजीवनी ९ । ३३ परि०··
भगवान्के नामका जप - कीर्तन करना, भगवान्के रूपका चिन्तन-ध्यान करना, भगवान्की कथा सुनना, भगवत्सम्बन्धी ग्रन्थों (गीता, रामायण, भागवत आदि ) का पठन-पाठन करना - ये सब-के-सब भजन हैं। परन्तु असली भजन तो वह है, जिसमें हृदय भगवान्की तरफ ही खिंच जाता है, केवल भगवान् ही प्यारे लगते हैं, भगवान्की विस्मृति चुभती है, बुरी लगती है। इस प्रकार भगवान् में तल्लीन होना ही असली भजन है।
||श्रीहरि:||
भगवान्के नामका जप - कीर्तन करना, भगवान्के रूपका चिन्तन-ध्यान करना, भगवान्की कथा सुनना, भगवत्सम्बन्धी ग्रन्थों (गीता, रामायण, भागवत आदि ) का पठन-पाठन करना - ये सब-के-सब भजन हैं। परन्तु असली भजन तो वह है, जिसमें हृदय भगवान्की तरफ ही खिंच जाता है, केवल भगवान् ही प्यारे लगते हैं, भगवान्की विस्मृति चुभती है, बुरी लगती है। इस प्रकार भगवान् में तल्लीन होना ही असली भजन है।- साधक संजीवनी १०।८
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी १०।८··
अपने लिये तप करना, ध्यान करना भी भोग है। भगवान्के लिये करना योग है। जो अपने लिये न करके केवल भगवान्के लिये करता है, वह सन्त महात्मा, जीवन्मुक्त हो जाता है । आप प्रत्येक क्रिया भगवान्की प्रसन्नताके लिये करो तो आपकी सब क्रियाएँ भजन हो जायँगी।
||श्रीहरि:||
अपने लिये तप करना, ध्यान करना भी भोग है। भगवान्के लिये करना योग है। जो अपने लिये न करके केवल भगवान्के लिये करता है, वह सन्त महात्मा, जीवन्मुक्त हो जाता है । आप प्रत्येक क्रिया भगवान्की प्रसन्नताके लिये करो तो आपकी सब क्रियाएँ भजन हो जायँगी।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ १९
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
नये रास्ते, नयी दिशाएँ १९··
साधन (क्रिया) निरन्तर नहीं होता, पर सम्बन्ध निरन्तर होता है। साधक कोई सा भी साधन करे, पर अपना सम्बन्ध परमात्माके साथ ही रखे। जबतक अन्यके साथ सम्बन्ध रहेगा, तबतक भजन नहीं होगा। जिसको आप भगवत्प्राप्तिका साधन मानते हैं, वह वास्तवमें भगवत्प्राप्तिका साधन नहीं होता। असली साधन तब होता है, जब आपका सम्बन्ध भगवान् के साथ होता है।
||श्रीहरि:||
साधन (क्रिया) निरन्तर नहीं होता, पर सम्बन्ध निरन्तर होता है। साधक कोई सा भी साधन करे, पर अपना सम्बन्ध परमात्माके साथ ही रखे। जबतक अन्यके साथ सम्बन्ध रहेगा, तबतक भजन नहीं होगा। जिसको आप भगवत्प्राप्तिका साधन मानते हैं, वह वास्तवमें भगवत्प्राप्तिका साधन नहीं होता। असली साधन तब होता है, जब आपका सम्बन्ध भगवान् के साथ होता है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ११७
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ११७··
रुपयों और भोगोंकी आसक्ति अगर मिट रही है तो साधन ठीक है, अगर नहीं मिट रही है तो साधन शुरू ही नहीं हुआ है। किया हुआ साधन, सत्संग व्यर्थ तो नहीं जायगा, पर कई जन्मोंमें उद्धार होगा । अगर इसी जन्ममें उद्धार चाहते हो तो इनकी आसक्तिका त्याग करो।
||श्रीहरि:||
रुपयों और भोगोंकी आसक्ति अगर मिट रही है तो साधन ठीक है, अगर नहीं मिट रही है तो साधन शुरू ही नहीं हुआ है। किया हुआ साधन, सत्संग व्यर्थ तो नहीं जायगा, पर कई जन्मोंमें उद्धार होगा । अगर इसी जन्ममें उद्धार चाहते हो तो इनकी आसक्तिका त्याग करो।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १२०
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १२०··
अपने लोग पारमार्थिक बातोंमें लगे हुए हैं, फिर भी लाभ नहीं होता है तो इसका कारण यह है कि मनमें परमात्मप्राप्तिकी जोरदार इच्छा नहीं है। जिसके भीतर जोरदार इच्छा होगी, वह हरेक जगह ठहर नहीं सकेगा। वह किसी गुरुमें, किसी सम्प्रदायमें, किसी सत्संगमें टिक जाय, यह उसके हाथकी बात नहीं है। जिसको जोरसे प्यास लगी हो, वह कैसे ठहर जायगा ?
||श्रीहरि:||
अपने लोग पारमार्थिक बातोंमें लगे हुए हैं, फिर भी लाभ नहीं होता है तो इसका कारण यह है कि मनमें परमात्मप्राप्तिकी जोरदार इच्छा नहीं है। जिसके भीतर जोरदार इच्छा होगी, वह हरेक जगह ठहर नहीं सकेगा। वह किसी गुरुमें, किसी सम्प्रदायमें, किसी सत्संगमें टिक जाय, यह उसके हाथकी बात नहीं है। जिसको जोरसे प्यास लगी हो, वह कैसे ठहर जायगा ?- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १३६
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १३६··
साधकको नामजप और प्रार्थना- इन दोनोंको नहीं छोड़ना चाहिये। साधनमें कमी हो, साधन छूटता हो तो प्रार्थना करो। नामजप आरम्भसे अन्ततक चलता है। नामजप सब साधनोंका पोषक है। भीतरकी पुकार सभी साधनोंमें काम आती है।
||श्रीहरि:||
साधकको नामजप और प्रार्थना- इन दोनोंको नहीं छोड़ना चाहिये। साधनमें कमी हो, साधन छूटता हो तो प्रार्थना करो। नामजप आरम्भसे अन्ततक चलता है। नामजप सब साधनोंका पोषक है। भीतरकी पुकार सभी साधनोंमें काम आती है।- ज्ञानके दीप जले २३३
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ज्ञानके दीप जले २३३··
ऐसा स्वभाव बनाओ कि काम करते हुए भजन न छूटे और भजन करते हुए काम याद न आये।
||श्रीहरि:||
ऐसा स्वभाव बनाओ कि काम करते हुए भजन न छूटे और भजन करते हुए काम याद न आये।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १२२
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १२२··
सेवा की जाय, नामजप किया जाय तो इससे सत्संगकी बातें भीतर ठहरती हैं अर्थात् उनको धारण करनेकी शक्ति आती है। गहरा विचार किया जाय तो नयी-नयी बातें समझनेकी शक्ति आती है।
||श्रीहरि:||
सेवा की जाय, नामजप किया जाय तो इससे सत्संगकी बातें भीतर ठहरती हैं अर्थात् उनको धारण करनेकी शक्ति आती है। गहरा विचार किया जाय तो नयी-नयी बातें समझनेकी शक्ति आती है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १४७
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १४७··
जबतक साधकका यह भाव होता है कि मैंने बहुत भजन किया, तबतक भजन शुरू नहीं हुआ । भजन शुरू होनेपर यह मालूम नहीं होगा कि मैंने भजन किया है। भगवान्का भजन करनेवालेको यह पता ही नहीं लगता कि हम भजन करनेवाले हैं।
||श्रीहरि:||
जबतक साधकका यह भाव होता है कि मैंने बहुत भजन किया, तबतक भजन शुरू नहीं हुआ । भजन शुरू होनेपर यह मालूम नहीं होगा कि मैंने भजन किया है। भगवान्का भजन करनेवालेको यह पता ही नहीं लगता कि हम भजन करनेवाले हैं।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १८१
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १८१··
वास्तवमें भजन बहुत होता ही नहीं। जितना करें, उतना ही कम है।
||श्रीहरि:||
वास्तवमें भजन बहुत होता ही नहीं। जितना करें, उतना ही कम है।- स्वातिकी बूँदें १४३
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स्वातिकी बूँदें १४३··
ये पाँच बातें आप याद कर लें - १. भगवान् अपने हैं, २. भगवान् अपनेमें हैं, ३. भगवान् अभी हैं, ४. भगवान् सर्वसमर्थ हैं, और ५. भगवान् अद्वितीय हैं। ये पाँच बातें मान लें तो आपसे अपने-आप भजन होगा।
||श्रीहरि:||
ये पाँच बातें आप याद कर लें - १. भगवान् अपने हैं, २. भगवान् अपनेमें हैं, ३. भगवान् अभी हैं, ४. भगवान् सर्वसमर्थ हैं, और ५. भगवान् अद्वितीय हैं। ये पाँच बातें मान लें तो आपसे अपने-आप भजन होगा।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश २०५
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश २०५··
मेरा कुछ नहीं है और मेरेको कुछ नहीं चाहिये – इन दो बातोंसे पूरा काम हो जायगा । श्रवण- मनन आदि सब इसके पेटमें आ गया।
||श्रीहरि:||
मेरा कुछ नहीं है और मेरेको कुछ नहीं चाहिये – इन दो बातोंसे पूरा काम हो जायगा । श्रवण- मनन आदि सब इसके पेटमें आ गया।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ १२
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ १२··
जो लाभ वर्षोंसे नहीं हुआ, वह केवल इस बातको माननेसे हो जायगा कि 'मेरा कुछ नहीं है, मेरेको कुछ नहीं चाहिये।
||श्रीहरि:||
जो लाभ वर्षोंसे नहीं हुआ, वह केवल इस बातको माननेसे हो जायगा कि 'मेरा कुछ नहीं है, मेरेको कुछ नहीं चाहिये।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ११९ - १२०
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश ११९ - १२०··
जबतक मिली हुई वस्तुओंको अपनी और अपने लिये मानते रहोगे, तबतक भूल मिटेगी नहीं। कितना ही साधन करो, सिद्धि नहीं होगी।
||श्रीहरि:||
जबतक मिली हुई वस्तुओंको अपनी और अपने लिये मानते रहोगे, तबतक भूल मिटेगी नहीं। कितना ही साधन करो, सिद्धि नहीं होगी।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ १६३
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ १६३··
जबतक अपना विचार परमात्मप्राप्तिका नहीं होगा, तबतक बातें कहने-सुननेसे काम नहीं होगा, कोई उपाय काम नहीं देगा। परमात्मप्राप्तिकी जोरदार अभिलाषा होनेपर ही उपाय काम देते हैं, नहीं तो बढ़िया से बढ़िया उपाय भी काम नहीं देगा।
||श्रीहरि:||
जबतक अपना विचार परमात्मप्राप्तिका नहीं होगा, तबतक बातें कहने-सुननेसे काम नहीं होगा, कोई उपाय काम नहीं देगा। परमात्मप्राप्तिकी जोरदार अभिलाषा होनेपर ही उपाय काम देते हैं, नहीं तो बढ़िया से बढ़िया उपाय भी काम नहीं देगा।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ १०३
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ १०३··
संसारमें तो नफा और नुकसान दोनों होते हैं, पर परमात्मप्राप्तिके मार्गमें नफा - ही - नफा है, कल्याण- ही - कल्याण है, उद्धार - ही- उद्धार है, सुधार-ही-सुधार है, नुकसान है ही नहीं। कारण कि संसारके पदार्थ आपको नहीं चाहते, पर भगवान् आपको चाहते हैं। आप जैसे भगवान्को भजते हैं, भगवान् भी आपको वैसे ही भजते हैं- 'ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ' ( गीता ४। ११) । इस प्रकार दोनों ही भजन करते हैं। भगवान् जिसका भजन करें, उसके कल्याणमें क्या सन्देह है।
||श्रीहरि:||
संसारमें तो नफा और नुकसान दोनों होते हैं, पर परमात्मप्राप्तिके मार्गमें नफा - ही - नफा है, कल्याण- ही - कल्याण है, उद्धार - ही- उद्धार है, सुधार-ही-सुधार है, नुकसान है ही नहीं। कारण कि संसारके पदार्थ आपको नहीं चाहते, पर भगवान् आपको चाहते हैं। आप जैसे भगवान्को भजते हैं, भगवान् भी आपको वैसे ही भजते हैं- 'ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ' ( गीता ४। ११) । इस प्रकार दोनों ही भजन करते हैं। भगवान् जिसका भजन करें, उसके कल्याणमें क्या सन्देह है।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ १६८
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ १६८··
एक विलक्षण बात है कि हम तेजीसे साधन करेंगे तो भगवान् भी तेजीसे हमारी तरफ आयेंगे । भगवान् ने गीतामें कहा है- 'ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ' ( गीता ४। ११) अर्थात् जो जैसे मेरी भक्ति करते हैं, मैं भी वैसे ही उनकी भक्ति करता हूँ। अगर अपनी लगन तेज हो तो हजारों वर्षोंमें होनेवाला काम घण्टोंमें हो सकता है।
||श्रीहरि:||
एक विलक्षण बात है कि हम तेजीसे साधन करेंगे तो भगवान् भी तेजीसे हमारी तरफ आयेंगे । भगवान् ने गीतामें कहा है- 'ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ' ( गीता ४। ११) अर्थात् जो जैसे मेरी भक्ति करते हैं, मैं भी वैसे ही उनकी भक्ति करता हूँ। अगर अपनी लगन तेज हो तो हजारों वर्षोंमें होनेवाला काम घण्टोंमें हो सकता है।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ १८१
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ १८१··
आप भगवान्का चिन्तन करते हैं और संसारका चिन्तन होता है। जो 'करते' हैं, वह नकली है और जो 'होता' है, वह असली है। असली बात भगवान्की होनी चाहिये, संसारकी नहीं । भीतरमें भगवान्की लालसा है तो भगवान्का चिन्तन जरूर होगा। अगर भीतरमें संसारकी लालसा है तो भले ही भगवान्का चिन्तन करो, होगा संसारका ही चिन्तन।
||श्रीहरि:||
आप भगवान्का चिन्तन करते हैं और संसारका चिन्तन होता है। जो 'करते' हैं, वह नकली है और जो 'होता' है, वह असली है। असली बात भगवान्की होनी चाहिये, संसारकी नहीं । भीतरमें भगवान्की लालसा है तो भगवान्का चिन्तन जरूर होगा। अगर भीतरमें संसारकी लालसा है तो भले ही भगवान्का चिन्तन करो, होगा संसारका ही चिन्तन।- अनन्तकी ओर ३२
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अनन्तकी ओर ३२··
भगवान्के भजनसे जो अधिकार मिलता है, वैसा अधिकार किसी लोकमें नहीं मिलता।
||श्रीहरि:||
भगवान्के भजनसे जो अधिकार मिलता है, वैसा अधिकार किसी लोकमें नहीं मिलता।- अनन्तकी ओर १३९
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अनन्तकी ओर १३९··
यह मनुष्यशरीर तभी सफल होगा, जब पारमार्थिक कार्योंमें ज्यादा समय लगाओगे। इसलिये मेरा सभीसे कहना है कि पारमार्थिक कार्योंमें आप हृदय खोलकर, बड़े धैर्यसे, शान्तिसे समय लगाओ। पारमार्थिक बातोंका आदर करो। सांसारिक काम तो जल्दी-जल्दी करो, पर भजन- ध्यान शान्तिपूर्वक करो।
||श्रीहरि:||
यह मनुष्यशरीर तभी सफल होगा, जब पारमार्थिक कार्योंमें ज्यादा समय लगाओगे। इसलिये मेरा सभीसे कहना है कि पारमार्थिक कार्योंमें आप हृदय खोलकर, बड़े धैर्यसे, शान्तिसे समय लगाओ। पारमार्थिक बातोंका आदर करो। सांसारिक काम तो जल्दी-जल्दी करो, पर भजन- ध्यान शान्तिपूर्वक करो।- अनन्तकी ओर १२६
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अनन्तकी ओर १२६··
संसारका कार्य तो निर्लिप्त होकर, कर्तव्यमात्र समझकर करना चाहिये, पर भगवान्का कार्य (जप, ध्यान आदि) तल्लीन होकर अपनी खास वस्तु समझकर करना चाहिये।
||श्रीहरि:||
संसारका कार्य तो निर्लिप्त होकर, कर्तव्यमात्र समझकर करना चाहिये, पर भगवान्का कार्य (जप, ध्यान आदि) तल्लीन होकर अपनी खास वस्तु समझकर करना चाहिये।- अमृत-बिन्दु ७३९
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अमृत-बिन्दु ७३९··
पहले 'मेरा कुछ नहीं है', फिर 'मुझे कुछ नहीं चाहिये', फिर 'मैं कुछ नहीं हूँ', फिर तत्त्वकी प्राप्ति - यह साधनका क्रम है।
||श्रीहरि:||
पहले 'मेरा कुछ नहीं है', फिर 'मुझे कुछ नहीं चाहिये', फिर 'मैं कुछ नहीं हूँ', फिर तत्त्वकी प्राप्ति - यह साधनका क्रम है।- स्वातिकी बूँदें १८-१९
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स्वातिकी बूँदें १८-१९··
असत्को सत्ता देना, महत्ता देना और अपना मानना – ये तीन बाधाएँ हैं। इन तीन बाधाओंके रहते कितना ही साधन करो, वहीं के वहीं रहोगे, जैसे- रस्सी नौकासे बँधी रहे तो रातभर नौका चलाते रहो, वहीं के वहीं रहोगे।
||श्रीहरि:||
असत्को सत्ता देना, महत्ता देना और अपना मानना – ये तीन बाधाएँ हैं। इन तीन बाधाओंके रहते कितना ही साधन करो, वहीं के वहीं रहोगे, जैसे- रस्सी नौकासे बँधी रहे तो रातभर नौका चलाते रहो, वहीं के वहीं रहोगे।- स्वातिकी बूँदें २६
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स्वातिकी बूँदें २६··
यदि काम-क्रोधादि विकारोंमें फर्क न पड़े तो समझें कि अभी साधन हाथ नहीं लगा है। असली साधन हाथ लग जाय तो बहुत शीघ्र उन्नति होती है।
||श्रीहरि:||
यदि काम-क्रोधादि विकारोंमें फर्क न पड़े तो समझें कि अभी साधन हाथ नहीं लगा है। असली साधन हाथ लग जाय तो बहुत शीघ्र उन्नति होती है।- स्वातिकी बूँदें ३१
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स्वातिकी बूँदें ३१··
भजन प्रकट करनेसे आफत आती है। भजन जितना गुप्त होता है, उतना तेज होता है। यदि प्रकट हो जाय तो तत्परतासे भजन करे।
||श्रीहरि:||
भजन प्रकट करनेसे आफत आती है। भजन जितना गुप्त होता है, उतना तेज होता है। यदि प्रकट हो जाय तो तत्परतासे भजन करे।- स्वातिकी बूँदें ३२
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स्वातिकी बूँदें ३२··
लोग तो अपने रुपयोंको भी प्रकट नहीं करते, जो कि बाहरकी पूँजी है । भजन तो अन्तःकरणकी पूँजी, साथमें चलनेवाली पूँजी है। इसको प्रकट क्यों करें? किसीको रुपये मिल जायँ तो वह किसीको बताता नहीं, पर मन ही मन प्रसन्न होता है, ऐसे ही भगवान्के भजनका आनन्द आना चाहिये। दिखावटीपना भगवान्का भजन नहीं है।
||श्रीहरि:||
लोग तो अपने रुपयोंको भी प्रकट नहीं करते, जो कि बाहरकी पूँजी है । भजन तो अन्तःकरणकी पूँजी, साथमें चलनेवाली पूँजी है। इसको प्रकट क्यों करें? किसीको रुपये मिल जायँ तो वह किसीको बताता नहीं, पर मन ही मन प्रसन्न होता है, ऐसे ही भगवान्के भजनका आनन्द आना चाहिये। दिखावटीपना भगवान्का भजन नहीं है।- मैं नहीं, मेरा नहीं १२४
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मैं नहीं, मेरा नहीं १२४··
भगवान्से प्रार्थना करो कि 'हे नाथ। मैं आपको भूलूँ नहीं' और नाम जप करते रहो, फिर सच्चा मार्ग अपने-आप मिल जायगा।
||श्रीहरि:||
भगवान्से प्रार्थना करो कि 'हे नाथ। मैं आपको भूलूँ नहीं' और नाम जप करते रहो, फिर सच्चा मार्ग अपने-आप मिल जायगा।- स्वातिकी बूँदें ३४
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स्वातिकी बूँदें ३४··
जबतक मनुष्य साधना करता है, तबतक उसकी दृष्टिमें संसारकी सत्ता रहती है। अतः साधकको ऐसा मानना चाहिये कि 'परमात्मामें संसार है, संसारमें परमात्मा हैं।' फिर ऐसा माने कि 'सब परमात्मा ही हैं।' फिर इसको भी छोड़कर चुप हो जाय - इससे ऊँची चीज कोई है नहीं, होगी नहीं। 'सब परमात्मा ही हैं' - यह झाड़ू है और अन्य सत्ता कूड़ा-कचरा है। झाड़ूसे कूड़ा- कचरा दूर करके झाड़को भी फेंक दें।
||श्रीहरि:||
जबतक मनुष्य साधना करता है, तबतक उसकी दृष्टिमें संसारकी सत्ता रहती है। अतः साधकको ऐसा मानना चाहिये कि 'परमात्मामें संसार है, संसारमें परमात्मा हैं।' फिर ऐसा माने कि 'सब परमात्मा ही हैं।' फिर इसको भी छोड़कर चुप हो जाय - इससे ऊँची चीज कोई है नहीं, होगी नहीं। 'सब परमात्मा ही हैं' - यह झाड़ू है और अन्य सत्ता कूड़ा-कचरा है। झाड़ूसे कूड़ा- कचरा दूर करके झाड़को भी फेंक दें।- स्वातिकी बूँदें ४२
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स्वातिकी बूँदें ४२··
वे (भगवान्) सर्वत्र व्यापक हैं तो मैं जो जप करता हूँ उस जपमें भी भगवान् हैं; मैं श्वास लेता हूँ तो उस श्वासमें भी भगवान् हैं; मेरे मनमें भी भगवान् हैं, बुद्धिमें भी भगवान् हैं; मैं जो 'मैं-मैं' कहता हूँ, उस 'मैं' में भी भगवान् हैं। उस 'मैं' का जो आधार है, वह अपना स्वरूप भगवान् से अभिन्न है अर्थात् 'मैं' - पन तो दूर है, पर भगवान् 'मैं' - पनसे भी नजदीक हैं। इस प्रकार अपनेमें भगवान्को मानते हुए ही भजन, जप, ध्यान आदि करने चाहिये।
||श्रीहरि:||
वे (भगवान्) सर्वत्र व्यापक हैं तो मैं जो जप करता हूँ उस जपमें भी भगवान् हैं; मैं श्वास लेता हूँ तो उस श्वासमें भी भगवान् हैं; मेरे मनमें भी भगवान् हैं, बुद्धिमें भी भगवान् हैं; मैं जो 'मैं-मैं' कहता हूँ, उस 'मैं' में भी भगवान् हैं। उस 'मैं' का जो आधार है, वह अपना स्वरूप भगवान् से अभिन्न है अर्थात् 'मैं' - पन तो दूर है, पर भगवान् 'मैं' - पनसे भी नजदीक हैं। इस प्रकार अपनेमें भगवान्को मानते हुए ही भजन, जप, ध्यान आदि करने चाहिये।- साधक संजीवनी १८।६१
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साधक संजीवनी १८।६१··
सब कुछ परमात्मा ही हैं, उनके सिवाय कुछ नहीं है- यह केवल सावधानी रखनी है। यह साधन है। इसमें कोई अपात्र, अयोग्य, कमजोर, अनाधिकारी नहीं है । इन्द्रियोंसे जो कुछ ग्रहण हो, वही परमात्मा हैं। जो स्फुरणा हो, जो याद आये, वही परमात्मा हैं। केवल यह सावधानी रखना ही साधना है। बादमें सावधानी भी नहीं रखनी पड़ेगी।
||श्रीहरि:||
सब कुछ परमात्मा ही हैं, उनके सिवाय कुछ नहीं है- यह केवल सावधानी रखनी है। यह साधन है। इसमें कोई अपात्र, अयोग्य, कमजोर, अनाधिकारी नहीं है । इन्द्रियोंसे जो कुछ ग्रहण हो, वही परमात्मा हैं। जो स्फुरणा हो, जो याद आये, वही परमात्मा हैं। केवल यह सावधानी रखना ही साधना है। बादमें सावधानी भी नहीं रखनी पड़ेगी।- स्वातिकी बूँदें ४५
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स्वातिकी बूँदें ४५··
वासुदेवः सर्वम्' अर्थात् सब कुछ भगवान् ही हैं - ऐसा दीखे चाहे न दीखे, इसे स्वीकार कर लो और जो दीखे, उसे प्रणाम करो। बाहरसे प्रणाम करनेमें शर्म आये तो कम-से-कम मनसे सबको प्रणाम करो। फिर कोई साधन बाकी नहीं रहेगा।
||श्रीहरि:||
वासुदेवः सर्वम्' अर्थात् सब कुछ भगवान् ही हैं - ऐसा दीखे चाहे न दीखे, इसे स्वीकार कर लो और जो दीखे, उसे प्रणाम करो। बाहरसे प्रणाम करनेमें शर्म आये तो कम-से-कम मनसे सबको प्रणाम करो। फिर कोई साधन बाकी नहीं रहेगा।- स्वातिकी बूँदें २५
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
स्वातिकी बूँदें २५··
साधनमें किसी तरह की बाधा आये तो – 'हे नाथ, हे नाथ' पुकारो। बाधा न आये तो भी पुकारते रहो । हठसे साधन करनेसे जल्दी सिद्धि नहीं होती। साधन 'होता' है, वह असली है। जो साधन 'करते हैं, वह नकली है।
||श्रीहरि:||
साधनमें किसी तरह की बाधा आये तो – 'हे नाथ, हे नाथ' पुकारो। बाधा न आये तो भी पुकारते रहो । हठसे साधन करनेसे जल्दी सिद्धि नहीं होती। साधन 'होता' है, वह असली है। जो साधन 'करते हैं, वह नकली है।- स्वातिकी बूँदें ६२
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स्वातिकी बूँदें ६२··
आप स्वयं भगवान्में लग जाओगे तो मन, बुद्धि, शरीर, इन्द्रियाँ आदि सब कुछ भगवान्में लग जायगा। आप स्वयं नहीं लगोगे तो भगवान्में न मन लगेगा, न बुद्धि लगेगी, न इन्द्रियाँ लगेंगी, न शरीर लगेगा। ये संसारमें लगेंगे, संसारकी उपासना करेंगे।
||श्रीहरि:||
आप स्वयं भगवान्में लग जाओगे तो मन, बुद्धि, शरीर, इन्द्रियाँ आदि सब कुछ भगवान्में लग जायगा। आप स्वयं नहीं लगोगे तो भगवान्में न मन लगेगा, न बुद्धि लगेगी, न इन्द्रियाँ लगेंगी, न शरीर लगेगा। ये संसारमें लगेंगे, संसारकी उपासना करेंगे।- स्वातिकी बूँदें ११४
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स्वातिकी बूँदें ११४··
भगवान् के लिये रोना भी साधन है। रोनेसे सांसारिक वस्तु नहीं मिलती, पर भगवान् मिल जाते हैं।
||श्रीहरि:||
भगवान् के लिये रोना भी साधन है। रोनेसे सांसारिक वस्तु नहीं मिलती, पर भगवान् मिल जाते हैं।- स्वातिकी बूँदें ११८
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
स्वातिकी बूँदें ११८··
यदि परमात्मप्राप्ति चाहते हैं तो हरदम साधन होना चाहिये। हरदम साधन कैसे हो ? हरेक काम करते समय यह याद रखें कि मैं भगवान्का ही काम करता हूँ। यह नामजपसे कम नहीं है। यह बहुत बड़ा भजन है।
||श्रीहरि:||
यदि परमात्मप्राप्ति चाहते हैं तो हरदम साधन होना चाहिये। हरदम साधन कैसे हो ? हरेक काम करते समय यह याद रखें कि मैं भगवान्का ही काम करता हूँ। यह नामजपसे कम नहीं है। यह बहुत बड़ा भजन है।- स्वातिकी बूँदें १३२
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
स्वातिकी बूँदें १३२··
अपनेको तो संसारी मानते हैं और भगवान्का भजन करना चाहते है तो वह पूरा भजन नहीं होता । समय लगाते हैं तो वह पूरा भजन नहीं होता। अपने-आपको लगा देते हैं तो पूरा भजन होता है। साधकका पूरा समय ही साधन है। वह चौबीस घण्टे जो कुछ करता है, वह भगवान्का ही काम होता है।
||श्रीहरि:||
अपनेको तो संसारी मानते हैं और भगवान्का भजन करना चाहते है तो वह पूरा भजन नहीं होता । समय लगाते हैं तो वह पूरा भजन नहीं होता। अपने-आपको लगा देते हैं तो पूरा भजन होता है। साधकका पूरा समय ही साधन है। वह चौबीस घण्टे जो कुछ करता है, वह भगवान्का ही काम होता है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ८०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ८०··
मैं मनुष्य हूँ' – यह पांचभौतिक मनुष्यशरीर है और 'मैं साधक (सेवक, जिज्ञासु अथवा भक्त) हूँ' – यह भावशरीर है। भावशरीरकी मुख्यता होनेसे साधन निरन्तर होता है।
||श्रीहरि:||
मैं मनुष्य हूँ' – यह पांचभौतिक मनुष्यशरीर है और 'मैं साधक (सेवक, जिज्ञासु अथवा भक्त) हूँ' – यह भावशरीर है। भावशरीरकी मुख्यता होनेसे साधन निरन्तर होता है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये १६९
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मानवमात्रके कल्याणके लिये १६९··
नींद बाकी रही हो, भोजन अधिक किया हो, अजीर्ण रोग हो, ज्यादा परिश्रम किया हो, भजनमें रुचि कम हो - इन कारणोंसे भजन स्मरण करते समय नींद आती है। भोजन करते समय नींद नहीं आती, पर भजन करते समय नींद आती है तो आपने भजनको आवश्यक नहीं समझा। यदि भजनमें रुचि तेज हो तो अन्य कारणोंके होते हुए भी नींद नहीं आती।
||श्रीहरि:||
नींद बाकी रही हो, भोजन अधिक किया हो, अजीर्ण रोग हो, ज्यादा परिश्रम किया हो, भजनमें रुचि कम हो - इन कारणोंसे भजन स्मरण करते समय नींद आती है। भोजन करते समय नींद नहीं आती, पर भजन करते समय नींद आती है तो आपने भजनको आवश्यक नहीं समझा। यदि भजनमें रुचि तेज हो तो अन्य कारणोंके होते हुए भी नींद नहीं आती।- स्वातिकी बूँदें १४४
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
स्वातिकी बूँदें १४४··
पारमार्थिक काममें लगनेसे लाभ ही होता है, हानि नहीं। जैसे परीक्षाके दिनोंमें रात-दिन पढ़ाई करनेपर भी अन्य सांसारिक कार्य रुकते नहीं, चलते रहते हैं, ऐसे ही भजन ध्यानमें ज्यादा समय लगानेपर भी कोई बाधा नहीं आती।
||श्रीहरि:||
पारमार्थिक काममें लगनेसे लाभ ही होता है, हानि नहीं। जैसे परीक्षाके दिनोंमें रात-दिन पढ़ाई करनेपर भी अन्य सांसारिक कार्य रुकते नहीं, चलते रहते हैं, ऐसे ही भजन ध्यानमें ज्यादा समय लगानेपर भी कोई बाधा नहीं आती।- स्वातिकी बूँदें १४०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
स्वातिकी बूँदें १४०··
जिस गति से आप साधन कर रहे हैं उस गतिसे कल्याण कब होगा ? - विचार करें। जीवनका भरोसा नहीं है। शरीर चला गया तो? बीमारी आ गयी तो ? भाव बदल गया तो? पागलपन आ गया तो ?
||श्रीहरि:||
जिस गति से आप साधन कर रहे हैं उस गतिसे कल्याण कब होगा ? - विचार करें। जीवनका भरोसा नहीं है। शरीर चला गया तो? बीमारी आ गयी तो ? भाव बदल गया तो? पागलपन आ गया तो ?- स्वातिकी बूँदें १४३ - १४४
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स्वातिकी बूँदें १४३ - १४४··
साधनमें जबर्दस्ती करनेसे सिद्धि नहीं होती। साधन वह करें, जो सुगमतापूर्वक हो। साधन स्वतः होना चाहिये। करनेसे जल्दी सिद्धि नहीं होती । असाधनका त्याग करनेसे साधन अपने-आप होगा। साधन करनेकी उतनी मुख्यता नहीं है, जितनी असाधनके त्यागकी मुख्यता है, आवश्यकता है।
||श्रीहरि:||
साधनमें जबर्दस्ती करनेसे सिद्धि नहीं होती। साधन वह करें, जो सुगमतापूर्वक हो। साधन स्वतः होना चाहिये। करनेसे जल्दी सिद्धि नहीं होती । असाधनका त्याग करनेसे साधन अपने-आप होगा। साधन करनेकी उतनी मुख्यता नहीं है, जितनी असाधनके त्यागकी मुख्यता है, आवश्यकता है।- स्वातिकी बूँदें १५१ - १५२
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
स्वातिकी बूँदें १५१ - १५२··
१) हम भगवान्के ही हैं २) हम जहाँ भी रहते हैं, भगवान्के ही दरबारमें रहते हैं ३) हम जो भी शुभ काम करते हैं, भगवान्का ही काम करते हैं ४) शुद्ध- सात्त्विक जो भी पाते हैं, भगवान्का ही प्रसाद पाते हैं ५) भगवान्के दिये प्रसादसे भगवान्के ही जनोंकी सेवा करते हैं। इस 'पंचामृत' का सेवन करनेसे आपका जीवन महान् पवित्र हो जायगा, आप सन्त महात्मा हो जायँगे, जीवन्मुक्त हो जायँगे, परमात्माको प्राप्त हो जायँगे।
||श्रीहरि:||
१) हम भगवान्के ही हैं २) हम जहाँ भी रहते हैं, भगवान्के ही दरबारमें रहते हैं ३) हम जो भी शुभ काम करते हैं, भगवान्का ही काम करते हैं ४) शुद्ध- सात्त्विक जो भी पाते हैं, भगवान्का ही प्रसाद पाते हैं ५) भगवान्के दिये प्रसादसे भगवान्के ही जनोंकी सेवा करते हैं। इस 'पंचामृत' का सेवन करनेसे आपका जीवन महान् पवित्र हो जायगा, आप सन्त महात्मा हो जायँगे, जीवन्मुक्त हो जायँगे, परमात्माको प्राप्त हो जायँगे।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १०७
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १०७··
कठिनतासे जो चीज मिलती है, वह बहुत मूल्यवान् और बढ़िया होती है। इसलिये आज कठिनता होते हुए भी जो सच्चे हृदयसे साधन करेंगे, वे बड़े ऊँचे साधक बन सकते हैं, अच्छे महात्मा बन सकते हैं।
||श्रीहरि:||
कठिनतासे जो चीज मिलती है, वह बहुत मूल्यवान् और बढ़िया होती है। इसलिये आज कठिनता होते हुए भी जो सच्चे हृदयसे साधन करेंगे, वे बड़े ऊँचे साधक बन सकते हैं, अच्छे महात्मा बन सकते हैं।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ ९२
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ ९२··
एक ऐसी बढ़िया बात है कि आप आज मान लो तो आज ही काम पूरा है। जिन-जिनको आप अपना मानते हो, वे व्यक्ति अथवा पदार्थ अपने कबसे हैं और कबतक रहेंगे? इस बातपर सब भाई-बहन विचार करें।
||श्रीहरि:||
एक ऐसी बढ़िया बात है कि आप आज मान लो तो आज ही काम पूरा है। जिन-जिनको आप अपना मानते हो, वे व्यक्ति अथवा पदार्थ अपने कबसे हैं और कबतक रहेंगे? इस बातपर सब भाई-बहन विचार करें।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ ७१
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
नये रास्ते, नयी दिशाएँ ७१··
प्रत्येक मनुष्यको भगवान्की तरफ चलना ही पड़ेगा, चाहे आज चले या अनेक जन्मोंके बाद, तो फिर देरी क्यों ?
||श्रीहरि:||
प्रत्येक मनुष्यको भगवान्की तरफ चलना ही पड़ेगा, चाहे आज चले या अनेक जन्मोंके बाद, तो फिर देरी क्यों ?- अमृत-बिन्दु २६६
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अमृत-बिन्दु २६६··
परमात्माकी तरफ चलनेसे संसारका कार्य (व्यवहार) भी ठीक चलता है, पर संसारकी तरफ चलनेसे परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती।
||श्रीहरि:||
परमात्माकी तरफ चलनेसे संसारका कार्य (व्यवहार) भी ठीक चलता है, पर संसारकी तरफ चलनेसे परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती।- अमृत-बिन्दु २७३
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अमृत-बिन्दु २७३··
किसी भी साधनकी पूर्णता होनेपर जीनेकी इच्छा, मरनेका भय, पानेका लालच और करनेका राग - ये चारों सर्वथा मिट जाते हैं।
||श्रीहरि:||
किसी भी साधनकी पूर्णता होनेपर जीनेकी इच्छा, मरनेका भय, पानेका लालच और करनेका राग - ये चारों सर्वथा मिट जाते हैं।- साधक संजीवनी ५/५
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साधक संजीवनी ५/५··
दुनियामात्रके जितने साधन हैं, उन सबमें सबसे श्रेष्ठ साधन है- भगवान् के शरण होना।
||श्रीहरि:||
दुनियामात्रके जितने साधन हैं, उन सबमें सबसे श्रेष्ठ साधन है- भगवान् के शरण होना।- ईसवर अंस जीव अबिनासी १०४
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ईसवर अंस जीव अबिनासी १०४··
आजतक भगवान् के विषयमें जितना आपने जाना है, जितनी आपकी समझ है, उसी रूपको याद करो और 'हे नाथ। हे प्रभो।' पुकारो। इतना सरल कोई रास्ता है नहीं।
||श्रीहरि:||
आजतक भगवान् के विषयमें जितना आपने जाना है, जितनी आपकी समझ है, उसी रूपको याद करो और 'हे नाथ। हे प्रभो।' पुकारो। इतना सरल कोई रास्ता है नहीं।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ १६२ - १६३