जिसमें दैवी - सम्पत्तिके गुण हैं, जिसके आचरण और विचार अच्छे हैं, वह 'सज्जन' है। जिसमें कल्याणकी तीव्र उत्कण्ठा है, जिसका परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य है, वह 'साधक' है। साधक तो सज्जन होता ही है, पर सज्जन साधक नहीं होता।
||श्रीहरि:||
जिसमें दैवी - सम्पत्तिके गुण हैं, जिसके आचरण और विचार अच्छे हैं, वह 'सज्जन' है। जिसमें कल्याणकी तीव्र उत्कण्ठा है, जिसका परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य है, वह 'साधक' है। साधक तो सज्जन होता ही है, पर सज्जन साधक नहीं होता।- प्रश्नोत्तरमणिमाला ३५१
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प्रश्नोत्तरमणिमाला ३५१··
जबतक साधकमें यह भाव रहेगा कि मैं शरीर हूँ और शरीर मेरा तथा मेरे लिये है, तबतक वह कितना ही उपदेश पढ़ता - सुनता रहे और दूसरोंको सुनाता रहे, उसको शान्ति नहीं मिलेगी और कल्याण भी नहीं होगा।
||श्रीहरि:||
जबतक साधकमें यह भाव रहेगा कि मैं शरीर हूँ और शरीर मेरा तथा मेरे लिये है, तबतक वह कितना ही उपदेश पढ़ता - सुनता रहे और दूसरोंको सुनाता रहे, उसको शान्ति नहीं मिलेगी और कल्याण भी नहीं होगा।- मानवमात्रके कल्याणके लिये ६
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मानवमात्रके कल्याणके लिये ६··
किसी भी मार्गका कोई भी साधक क्यों न हो, उसे इस सत्यको स्वीकार करना ही पड़ेगा कि शरीर मैं नहीं हूँ, शरीर मेरा नहीं है और शरीर मेरे लिये नहीं है; क्योंकि मैं अशरीरी हूँ, मेरा स्वरूप अव्यक्त है।
||श्रीहरि:||
किसी भी मार्गका कोई भी साधक क्यों न हो, उसे इस सत्यको स्वीकार करना ही पड़ेगा कि शरीर मैं नहीं हूँ, शरीर मेरा नहीं है और शरीर मेरे लिये नहीं है; क्योंकि मैं अशरीरी हूँ, मेरा स्वरूप अव्यक्त है।- साधक संजीवनी २।३० परि०
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साधक संजीवनी २।३० परि०··
जबतक साधकका शरीरके साथ मैं मेरेपनका सम्बन्ध रहता है, तबतक साधन करते हुए भी सिद्धि नहीं होती और वह शुभ कर्मोंसे, सार्थक चिन्तनसे और स्थितिकी आसक्तिसे बँधा रहता है । वह यज्ञ, तप, दान आदि बड़े-बड़े शुभ कर्म करे, आत्माका अथवा परमात्माका चिन्तन करे अथवा समाधिमें भी स्थित हो जाय तो भी उसका बन्धन सर्वथा मिटता नहीं।
||श्रीहरि:||
जबतक साधकका शरीरके साथ मैं मेरेपनका सम्बन्ध रहता है, तबतक साधन करते हुए भी सिद्धि नहीं होती और वह शुभ कर्मोंसे, सार्थक चिन्तनसे और स्थितिकी आसक्तिसे बँधा रहता है । वह यज्ञ, तप, दान आदि बड़े-बड़े शुभ कर्म करे, आत्माका अथवा परमात्माका चिन्तन करे अथवा समाधिमें भी स्थित हो जाय तो भी उसका बन्धन सर्वथा मिटता नहीं।- साधक संजीवनी २ । ३० परि०
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साधक संजीवनी २ । ३० परि०··
साधकको यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिये कि मैं अव्यक्त ( निराकार) - रूप हूँ, मनुष्यरूप नहीं हूँ। साधन करनेवाला शरीर नहीं होता ।......शरीर तो एक क्षण भी नहीं रहता, निरन्तर बदलता रहता है। जो नहीं बदलता, वही साधक है। बदलनेवाला साधक नहीं है।
||श्रीहरि:||
साधकको यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिये कि मैं अव्यक्त ( निराकार) - रूप हूँ, मनुष्यरूप नहीं हूँ। साधन करनेवाला शरीर नहीं होता ।......शरीर तो एक क्षण भी नहीं रहता, निरन्तर बदलता रहता है। जो नहीं बदलता, वही साधक है। बदलनेवाला साधक नहीं है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये ६३
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मानवमात्रके कल्याणके लिये ६३··
भगवान्की तरफ रुचि होते ही आप पहले जैसे शरीरवाले नहीं रहते, आपका परिवर्तन हो जाता है, आप अव्यक्तमूर्ति (निराकार) हो जाते हैं। कारण कि मूलमें आप साक्षात् परमात्माके अंश हैं। इसलिये साधक शरीर नहीं होता। शरीर तो संसारकी तरफ चलनेके लिये है।
||श्रीहरि:||
भगवान्की तरफ रुचि होते ही आप पहले जैसे शरीरवाले नहीं रहते, आपका परिवर्तन हो जाता है, आप अव्यक्तमूर्ति (निराकार) हो जाते हैं। कारण कि मूलमें आप साक्षात् परमात्माके अंश हैं। इसलिये साधक शरीर नहीं होता। शरीर तो संसारकी तरफ चलनेके लिये है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश २२६
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश २२६··
जो भक्ति या मुक्ति चाहता है, वह स्वयं होता है, शरीर नहीं।...... जबतक शरीरके साथ तादात्म्य रहता है, तबतक वह न भक्तिका और न ज्ञानका ही अधिकारी होता है तथा न सम्पूर्ण शंकाओंका समाधान ही कर सकता है।
||श्रीहरि:||
जो भक्ति या मुक्ति चाहता है, वह स्वयं होता है, शरीर नहीं।...... जबतक शरीरके साथ तादात्म्य रहता है, तबतक वह न भक्तिका और न ज्ञानका ही अधिकारी होता है तथा न सम्पूर्ण शंकाओंका समाधान ही कर सकता है।- साधक संजीवनी ९ । ३२ मा०
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साधक संजीवनी ९ । ३२ मा०··
यद्यपि होनापन (सत्ता) आत्माका ही है, शरीरका नहीं, तथापि साधकसे भूल यह होती है कि वह पहले शरीरको देखकर फिर उसमें आत्माको देखता है, पहले आकृतिको देखकर फिर भावको देखता है। ऊपर लगायी हुई पालिश कबतक टिकेगी ?
||श्रीहरि:||
यद्यपि होनापन (सत्ता) आत्माका ही है, शरीरका नहीं, तथापि साधकसे भूल यह होती है कि वह पहले शरीरको देखकर फिर उसमें आत्माको देखता है, पहले आकृतिको देखकर फिर भावको देखता है। ऊपर लगायी हुई पालिश कबतक टिकेगी ?- मानवमात्रके कल्याणके लिये ८
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मानवमात्रके कल्याणके लिये ८··
आपका जो स्त्री-पुरुष रूपसे जो साकाररूप है, यह ऊपरका चोला है, यह साधक नहीं है। जो अपनेको स्त्री, पुरुष, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि मानता है, वह साधक नहीं होता। साधक शरीर नहीं होता।
||श्रीहरि:||
आपका जो स्त्री-पुरुष रूपसे जो साकाररूप है, यह ऊपरका चोला है, यह साधक नहीं है। जो अपनेको स्त्री, पुरुष, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि मानता है, वह साधक नहीं होता। साधक शरीर नहीं होता।- अनन्तकी ओर १६२ - १६३
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अनन्तकी ओर १६२ - १६३··
शरीर परिवार, समाज और संसारकी सेवाके काम आयेगा, इसके सिवाय किसी काम नहीं आयेगा । साधकके जीवनमें शरीरका कोई उपयोग नहीं है।
||श्रीहरि:||
शरीर परिवार, समाज और संसारकी सेवाके काम आयेगा, इसके सिवाय किसी काम नहीं आयेगा । साधकके जीवनमें शरीरका कोई उपयोग नहीं है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १२९
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १२९··
भगवान्की तरफ चलनेवाले साधकमात्रके न स्थूलशरीर काम आता है, न सूक्ष्मशरीर काम आता है, न कारणशरीर काम आता है। यह बड़ी दामी बात है । बड़े-बड़े ग्रन्थोंमें समाधिकी बड़ी महिमा गायी गयी है, पर वह भी आपके काम नहीं आती।
||श्रीहरि:||
भगवान्की तरफ चलनेवाले साधकमात्रके न स्थूलशरीर काम आता है, न सूक्ष्मशरीर काम आता है, न कारणशरीर काम आता है। यह बड़ी दामी बात है । बड़े-बड़े ग्रन्थोंमें समाधिकी बड़ी महिमा गायी गयी है, पर वह भी आपके काम नहीं आती।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १३० - १३१
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १३० - १३१··
शरीर और संसारको 'अपना' तथा 'अपने लिये' मानना बहुत घातक है। ऐसा माननेवाला साधक नहीं बन सकता, भले ही उम्र बीत जाय।
||श्रीहरि:||
शरीर और संसारको 'अपना' तथा 'अपने लिये' मानना बहुत घातक है। ऐसा माननेवाला साधक नहीं बन सकता, भले ही उम्र बीत जाय।- मानवमात्रके कल्याणके लिये १७०
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मानवमात्रके कल्याणके लिये १७०··
जो भोग भी भोगता रहे, सुख भी भोगता रहे, लोभ करता रहे, रुपये भी इकट्ठा करता रहे, ऐश-आराम भी करता रहे, उसका कोई भी योग सिद्ध नहीं होता। वह साधक भी नहीं हो सकता, सिद्ध होना तो दूर रहा।
||श्रीहरि:||
जो भोग भी भोगता रहे, सुख भी भोगता रहे, लोभ करता रहे, रुपये भी इकट्ठा करता रहे, ऐश-आराम भी करता रहे, उसका कोई भी योग सिद्ध नहीं होता। वह साधक भी नहीं हो सकता, सिद्ध होना तो दूर रहा।- मानवमात्रके कल्याणके लिये १७१
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मानवमात्रके कल्याणके लिये १७१··
साधकको सर्वप्रथम इस सत्यको दृढ़तासे स्वीकार करना चाहिये कि मैं मुक्त हो सकता हूँ। क्यों हो सकता हूँ? क्योंकि मैं मुक्त हूँ। मैं परमात्माको प्राप्त कर सकता हूँ। क्यों कर सकता हूँ ? क्योंकि परमात्मा प्राप्त हैं।
||श्रीहरि:||
साधकको सर्वप्रथम इस सत्यको दृढ़तासे स्वीकार करना चाहिये कि मैं मुक्त हो सकता हूँ। क्यों हो सकता हूँ? क्योंकि मैं मुक्त हूँ। मैं परमात्माको प्राप्त कर सकता हूँ। क्यों कर सकता हूँ ? क्योंकि परमात्मा प्राप्त हैं।- मानवमात्रके कल्याणके लिये ७१
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मानवमात्रके कल्याणके लिये ७१··
जबतक अपने लिये 'करना' है, तबतक कर्तापन (अहंकार) है; क्योंकि कर्तापनके बिना अपने लिये 'करना' सिद्ध नहीं होता। इसलिये अपने उद्धारके लिये जो साधन किया जाता है, उससे अहंकार ज्यों-का-त्यों सुरक्षित रहता है। अहंकारपूर्वक किया गया कोई भी कर्म कल्याणकारक नहीं होता; क्योंकि अहंकार ही जन्म-मरणका मूल है। इसलिये साधकको चाहिये कि वह क्रियाको महत्त्व न देकर स्वयंको महत्त्व दे।
||श्रीहरि:||
जबतक अपने लिये 'करना' है, तबतक कर्तापन (अहंकार) है; क्योंकि कर्तापनके बिना अपने लिये 'करना' सिद्ध नहीं होता। इसलिये अपने उद्धारके लिये जो साधन किया जाता है, उससे अहंकार ज्यों-का-त्यों सुरक्षित रहता है। अहंकारपूर्वक किया गया कोई भी कर्म कल्याणकारक नहीं होता; क्योंकि अहंकार ही जन्म-मरणका मूल है। इसलिये साधकको चाहिये कि वह क्रियाको महत्त्व न देकर स्वयंको महत्त्व दे।- मानवमात्रके कल्याणके लिये ९२
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मानवमात्रके कल्याणके लिये ९२··
स्वयंका कर्ता - भोक्ता न होना साधनजन्य नहीं है, प्रत्युत स्वतः - स्वाभाविक है। अतः साधकको कर्तृत्व-भोक्तृत्व मिटाना नहीं है, प्रत्युत इनको अपनेमें स्वीकार नहीं करना है; क्योंकि वास्तवमें ये अपनेमें हैं ही नहीं।
||श्रीहरि:||
स्वयंका कर्ता - भोक्ता न होना साधनजन्य नहीं है, प्रत्युत स्वतः - स्वाभाविक है। अतः साधकको कर्तृत्व-भोक्तृत्व मिटाना नहीं है, प्रत्युत इनको अपनेमें स्वीकार नहीं करना है; क्योंकि वास्तवमें ये अपनेमें हैं ही नहीं।- मानवमात्रके कल्याणके लिये ९३
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मानवमात्रके कल्याणके लिये ९३··
यह कायदा है कि साधकको साध्यकी प्राप्ति तत्काल होनी चाहिये। साध्यके बिना साधक नहीं रह सकता और साधकके बिना साध्य नहीं रह सकता। फिर देरी क्यों ?
||श्रीहरि:||
यह कायदा है कि साधकको साध्यकी प्राप्ति तत्काल होनी चाहिये। साध्यके बिना साधक नहीं रह सकता और साधकके बिना साध्य नहीं रह सकता। फिर देरी क्यों ?- नये रास्ते, नयी दिशाएँ ५३
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ ५३··
जब आप साधक हो गये तो फिर साध्यकी प्राप्तिके बिना आपको चैन कैसे पड़ रहा है? केवल बेचैनी होनी चाहिये, और किसीकी आवश्यकता नहीं है। आपको साध्यकी प्राप्ति हो जायगी; क्योंकि साध्य सबमें स्वतः परिपूर्ण है। आप जहाँ है, वहीं साध्य है, फिर कैसे प्राप्त नहीं होगा।
||श्रीहरि:||
जब आप साधक हो गये तो फिर साध्यकी प्राप्तिके बिना आपको चैन कैसे पड़ रहा है? केवल बेचैनी होनी चाहिये, और किसीकी आवश्यकता नहीं है। आपको साध्यकी प्राप्ति हो जायगी; क्योंकि साध्य सबमें स्वतः परिपूर्ण है। आप जहाँ है, वहीं साध्य है, फिर कैसे प्राप्त नहीं होगा।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ ५४
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ ५४··
अगर साधक साध्यके बिना रहता है तो समझना चाहिये कि वह साध्यके सिवाय अन्य (भोग तथा संग्रह) का भी साधक है।
||श्रीहरि:||
अगर साधक साध्यके बिना रहता है तो समझना चाहिये कि वह साध्यके सिवाय अन्य (भोग तथा संग्रह) का भी साधक है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये १०६
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मानवमात्रके कल्याणके लिये १०६··
मनमें नाशवान्का जितना महत्त्व है, उतनी ही साधकपनेमें कमी है। साधकपनेमें जितनी कमी रहती है, उतनी ही साध्यसे दूरी रहती है। पूर्ण साधक होनेपर साध्यकी प्राप्ति हो जाती है।
||श्रीहरि:||
मनमें नाशवान्का जितना महत्त्व है, उतनी ही साधकपनेमें कमी है। साधकपनेमें जितनी कमी रहती है, उतनी ही साध्यसे दूरी रहती है। पूर्ण साधक होनेपर साध्यकी प्राप्ति हो जाती है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये १०६
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मानवमात्रके कल्याणके लिये १०६··
अपने साधनका आग्रह होनेपर बाधा लगती है, प्रेम होनेपर बाधा नहीं लगती। अपना आग्रह न हो तो भक्तिकी बात सुननेसे ज्ञानमार्गी गद्गद हो जायगा और ज्ञानकी बात भक्तिमार्गी सुगमतासे समझ लेगा।
||श्रीहरि:||
अपने साधनका आग्रह होनेपर बाधा लगती है, प्रेम होनेपर बाधा नहीं लगती। अपना आग्रह न हो तो भक्तिकी बात सुननेसे ज्ञानमार्गी गद्गद हो जायगा और ज्ञानकी बात भक्तिमार्गी सुगमतासे समझ लेगा।- सागरके मोती ३०
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सागरके मोती ३०··
एक 'शरीर' होता है, एक 'भावशरीर' होता है। मैं साधक हूँ, मैं योगी हूँ, मैं जिज्ञासु हूँ, मैं भक्त हूँ — यह भावशरीर है। मैं अमुक वर्ण, आश्रम आदिका हूँ- यह जबतक रहेगा, तबतक साधक शरीरमें रहेगा, भावशरीरमें नहीं जायगा। जबतक भावशरीरमें नहीं जायगा, तबतक तत्त्वज्ञान नहीं होगा। भावशरीरके बिना तत्त्वको नहीं जान सकते।
||श्रीहरि:||
एक 'शरीर' होता है, एक 'भावशरीर' होता है। मैं साधक हूँ, मैं योगी हूँ, मैं जिज्ञासु हूँ, मैं भक्त हूँ — यह भावशरीर है। मैं अमुक वर्ण, आश्रम आदिका हूँ- यह जबतक रहेगा, तबतक साधक शरीरमें रहेगा, भावशरीरमें नहीं जायगा। जबतक भावशरीरमें नहीं जायगा, तबतक तत्त्वज्ञान नहीं होगा। भावशरीरके बिना तत्त्वको नहीं जान सकते।- स्वातिकी बूँदें १४० - १४१
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स्वातिकी बूँदें १४० - १४१··
अहम्को बदलनेका नाम है- भावशरीर। मैं साधक हूँ, मैं भक्त हूँ - यह भावशरीर है। साधकमें भाव पहले होता है, आकृति पीछे। भावकी मुख्यता तथा आकृतिकी गौणता होनेपर साधन स्वतः होता है।
||श्रीहरि:||
अहम्को बदलनेका नाम है- भावशरीर। मैं साधक हूँ, मैं भक्त हूँ - यह भावशरीर है। साधकमें भाव पहले होता है, आकृति पीछे। भावकी मुख्यता तथा आकृतिकी गौणता होनेपर साधन स्वतः होता है।- स्वातिकी बूँदें ६१-६२
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स्वातिकी बूँदें ६१-६२··
साधक जबतक परमात्माके सिवाय अन्य कुछ भी सत्ता मानता है, तबतक उसकी परमात्मासे दूरी, भेद तथा भिन्नता बनी रहती है।
||श्रीहरि:||
साधक जबतक परमात्माके सिवाय अन्य कुछ भी सत्ता मानता है, तबतक उसकी परमात्मासे दूरी, भेद तथा भिन्नता बनी रहती है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये २०७
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
मानवमात्रके कल्याणके लिये २०७··
भगवान्के एक रूपको ही मानकर उसका आग्रह, पक्षपात रखना 'अनन्यता' नहीं है। अनन्यताका तात्पर्य है - भगवान् के सिवाय संसारमें कहीं भी आसक्ति न करना।
||श्रीहरि:||
भगवान्के एक रूपको ही मानकर उसका आग्रह, पक्षपात रखना 'अनन्यता' नहीं है। अनन्यताका तात्पर्य है - भगवान् के सिवाय संसारमें कहीं भी आसक्ति न करना।- साधन-सुधा-सिन्धु ८३७
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधन-सुधा-सिन्धु ८३७··
अपने इष्टको सर्वोपरि समझना चाहिये और तत्त्वसे सबको एक समझना चाहिये।
||श्रीहरि:||
अपने इष्टको सर्वोपरि समझना चाहिये और तत्त्वसे सबको एक समझना चाहिये।- सागरके मोती ९५
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सागरके मोती ९५··
जो भोगी होता है, वह साधक नहीं होता। भोगी रोगी होता है, योगी नहीं होता।
||श्रीहरि:||
जो भोगी होता है, वह साधक नहीं होता। भोगी रोगी होता है, योगी नहीं होता।- मानवमात्रके कल्याणके लिये १६९
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
मानवमात्रके कल्याणके लिये १६९··
यदि भोग और संग्रहकी रुचि है तो वह साधकोंमें भरती नहीं हुआ। उसकी गिनती संसारीमें ही होगी। साधक साधनके लिये जीता है, सुख-सुविधाके लिये नहीं।
||श्रीहरि:||
यदि भोग और संग्रहकी रुचि है तो वह साधकोंमें भरती नहीं हुआ। उसकी गिनती संसारीमें ही होगी। साधक साधनके लिये जीता है, सुख-सुविधाके लिये नहीं।- सत्संगके फूल १७६ - १७७
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सत्संगके फूल १७६ - १७७··
जो संसारसे दुःखी तो होता है, पर उस दुःखको सांसारिक सुखके द्वारा मिटाना चाहता है, वह संसारी (भोगी) होता है, साधक नहीं हो सकता। कारण कि सांसारिक सुखमें आसक्त मनुष्यकी साधनबुद्धि हो ही नहीं सकती।
||श्रीहरि:||
जो संसारसे दुःखी तो होता है, पर उस दुःखको सांसारिक सुखके द्वारा मिटाना चाहता है, वह संसारी (भोगी) होता है, साधक नहीं हो सकता। कारण कि सांसारिक सुखमें आसक्त मनुष्यकी साधनबुद्धि हो ही नहीं सकती।- साधन-सुधा-सिन्धु ७८२
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधन-सुधा-सिन्धु ७८२··
साधकमें तीन बातें रहनी चाहिये। वह किसीको बुरा मत समझे, किसीका बुरा मत चाहे और किसीका बुरा मत करे। इन तीन बातोंका वह नियम ले ले तो उसका साधन बहुत तेज और बढ़िया होगा। इन तीन बातोंको धारण करनेसे वह कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग - तीनोंका अधिकारी बन जाता है।
||श्रीहरि:||
साधकमें तीन बातें रहनी चाहिये। वह किसीको बुरा मत समझे, किसीका बुरा मत चाहे और किसीका बुरा मत करे। इन तीन बातोंका वह नियम ले ले तो उसका साधन बहुत तेज और बढ़िया होगा। इन तीन बातोंको धारण करनेसे वह कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग - तीनोंका अधिकारी बन जाता है।- मेरे तो गिरधर गोपाल ३४
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
मेरे तो गिरधर गोपाल ३४··
साधकको सन्तोष नहीं करना चाहिये, चाहे किसी मार्गसे चले। संसारमें असन्तोष नहीं करना चाहिये । अपनेको ज्ञानी या भक्त न मानकर साधक ही मानना चाहिये।
||श्रीहरि:||
साधकको सन्तोष नहीं करना चाहिये, चाहे किसी मार्गसे चले। संसारमें असन्तोष नहीं करना चाहिये । अपनेको ज्ञानी या भक्त न मानकर साधक ही मानना चाहिये।- ज्ञानके दीप जले ११५
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ज्ञानके दीप जले ११५··
साधनसे जो सुख मिले, उसका तिरस्कार नहीं करे, प्रत्युत उसमें सन्तोष न करे। इतनेसे क्या होगा, तत्त्वप्राप्ति होनी चाहिये- इस तरह सन्तोष न करनेसे साधक आगे बढ़ेगा।
||श्रीहरि:||
साधनसे जो सुख मिले, उसका तिरस्कार नहीं करे, प्रत्युत उसमें सन्तोष न करे। इतनेसे क्या होगा, तत्त्वप्राप्ति होनी चाहिये- इस तरह सन्तोष न करनेसे साधक आगे बढ़ेगा।- ज्ञानके दीप जले ९७
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ज्ञानके दीप जले ९७··
परमात्माकी प्राप्ति चाहनेवाले साधकको देशकथा, राजकथा और भोजनकथा - इन तीनोंका ही त्याग कर देना चाहिये।
||श्रीहरि:||
परमात्माकी प्राप्ति चाहनेवाले साधकको देशकथा, राजकथा और भोजनकथा - इन तीनोंका ही त्याग कर देना चाहिये।- पायो परम बिश्रामु १७
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
पायो परम बिश्रामु १७··
जो व्यापारके नामसे चाहे कोई काम कर ले और औषधिके नामसे चाहे कुछ ले ले, वह साधक नहीं हो सकता।
||श्रीहरि:||
जो व्यापारके नामसे चाहे कोई काम कर ले और औषधिके नामसे चाहे कुछ ले ले, वह साधक नहीं हो सकता।- सत्संगके फूल २१
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सत्संगके फूल २१··
साधक वह है, जो चौबीस घण्टे साधन करे। चौबीस घण्टोंमें एक मिनट भी साधन न करे तो वह साधक नहीं है। ऐसे अखण्ड साधनके लिये मैं-पन बदलनेकी जरूरत है।
||श्रीहरि:||
साधक वह है, जो चौबीस घण्टे साधन करे। चौबीस घण्टोंमें एक मिनट भी साधन न करे तो वह साधक नहीं है। ऐसे अखण्ड साधनके लिये मैं-पन बदलनेकी जरूरत है।- सत्संगके फूल ६३
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सत्संगके फूल ६३··
साधनमें लगनेसे दोष स्वतः कम होते हैं। दोष कम नहीं हुए तो अभी साधनमें लगा ही नहीं।
||श्रीहरि:||
साधनमें लगनेसे दोष स्वतः कम होते हैं। दोष कम नहीं हुए तो अभी साधनमें लगा ही नहीं।- सत्संगके फूल ९४
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सत्संगके फूल ९४··
अच्छा साधक भूलमें भी साधन - विरुद्ध काम नहीं करता। वह शरीरकी भी परवाह नहीं करता । शरीरका विशेष ख्याल रखेगा तो साधन ठीक नहीं होगा- 'जिमि अबिबेकी पुरुष सरीरहि' (मानस, अयोध्या० १४२ । १); ' राम भजन में देह गले तो गालिये'।
||श्रीहरि:||
अच्छा साधक भूलमें भी साधन - विरुद्ध काम नहीं करता। वह शरीरकी भी परवाह नहीं करता । शरीरका विशेष ख्याल रखेगा तो साधन ठीक नहीं होगा- 'जिमि अबिबेकी पुरुष सरीरहि' (मानस, अयोध्या० १४२ । १); ' राम भजन में देह गले तो गालिये'।- सत्संगके फूल १३१
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सत्संगके फूल १३१··
मेरेको कुछ लेना नहीं है, प्रत्युत देना - ही देना है - ऐसा विचार करनेसे मनुष्य साधक बन जाता है।
||श्रीहरि:||
मेरेको कुछ लेना नहीं है, प्रत्युत देना - ही देना है - ऐसा विचार करनेसे मनुष्य साधक बन जाता है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये १७४
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मानवमात्रके कल्याणके लिये १७४··
लेनेकी इच्छावाला साधक नहीं होता। साधकके स्वभावमें देना ही देना होता है। त्याग और संग्रह सभीमें होता है, पर साधकमें त्याग - ही - त्याग होता है।
||श्रीहरि:||
लेनेकी इच्छावाला साधक नहीं होता। साधकके स्वभावमें देना ही देना होता है। त्याग और संग्रह सभीमें होता है, पर साधकमें त्याग - ही - त्याग होता है।- सत्संगके फूल १७६
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सत्संगके फूल १७६··
स्वार्थ और अभिमानके त्यागसे ही साधक होता है, और साधकको ही सिद्धि होती है। सुख- सुविधा, आराम चाहनेवाला साधक नहीं हो सकता।
||श्रीहरि:||
स्वार्थ और अभिमानके त्यागसे ही साधक होता है, और साधकको ही सिद्धि होती है। सुख- सुविधा, आराम चाहनेवाला साधक नहीं हो सकता।- सत्संगके फूल १७६
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सत्संगके फूल १७६··
सच्ची लगन हो तो भगवान् सहायता करते हैं। जैसे- कोई साधक किसी जगह अटका है, छोड़ना नहीं चाहता, उससे भगवान् वह जगह छुड़ा देते हैं । जहाँसे लाभ भी न हो और छोड़ना भी न चाहे, उसके सामने ऐसी परिस्थिति रखते हैं कि उसे छोड़ना ही पड़ता है।
||श्रीहरि:||
सच्ची लगन हो तो भगवान् सहायता करते हैं। जैसे- कोई साधक किसी जगह अटका है, छोड़ना नहीं चाहता, उससे भगवान् वह जगह छुड़ा देते हैं । जहाँसे लाभ भी न हो और छोड़ना भी न चाहे, उसके सामने ऐसी परिस्थिति रखते हैं कि उसे छोड़ना ही पड़ता है।- सागरके मोती १४
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सागरके मोती १४··
साधकके लिये खास बात है - जाने हुए असत्का त्याग। साधक जिसको असत् जानता है, उसका वह त्याग कर दे तो उसका साधन सहज, सुगम हो जायगा और जल्दी सिद्ध हो जायगा ।.......जाने हुए असत्का त्याग करनेके लिये यह आवश्यक है कि साधक विवेकविरोधी सम्बन्धका त्याग करे। जिसके साथ हमारा न तो नित्य सम्बन्ध है और न तो स्वरूपगत एकता ही है, उसको अपना और अपने लिये मानना विवेकविरोधी है । इस दृष्टिसे शरीरको अपना और अपने लिये मानना विवेकविरोधी है। विवेकविरोधी सम्बन्धके रहते हुए कोई भी साधन सिद्ध नहीं हो सकता।
||श्रीहरि:||
साधकके लिये खास बात है - जाने हुए असत्का त्याग। साधक जिसको असत् जानता है, उसका वह त्याग कर दे तो उसका साधन सहज, सुगम हो जायगा और जल्दी सिद्ध हो जायगा ।.......जाने हुए असत्का त्याग करनेके लिये यह आवश्यक है कि साधक विवेकविरोधी सम्बन्धका त्याग करे। जिसके साथ हमारा न तो नित्य सम्बन्ध है और न तो स्वरूपगत एकता ही है, उसको अपना और अपने लिये मानना विवेकविरोधी है । इस दृष्टिसे शरीरको अपना और अपने लिये मानना विवेकविरोधी है। विवेकविरोधी सम्बन्धके रहते हुए कोई भी साधन सिद्ध नहीं हो सकता।- साधक संजीवनी २।३० परि०
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साधक संजीवनी २।३० परि०··
शास्त्रीय दृष्टिसे पहले कामनाका त्याग, फिर स्पृहा, ममता और अहंकारका त्याग बताया जाता है । परन्तु साधककी दृष्टिसे पहले ममताका त्याग, फिर कामना, स्पृहा और अहंकारका त्याग करना ही ठीक है।
||श्रीहरि:||
शास्त्रीय दृष्टिसे पहले कामनाका त्याग, फिर स्पृहा, ममता और अहंकारका त्याग बताया जाता है । परन्तु साधककी दृष्टिसे पहले ममताका त्याग, फिर कामना, स्पृहा और अहंकारका त्याग करना ही ठीक है।- साधक संजीवनी २।७१
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साधक संजीवनी २।७१··
साधकका जब अपना कल्याण करनेका विचार होता है, तब वह कर्मोंको साधनमें विघ्न समझकर उनसे उपराम होना चाहता है । परन्तु वास्तवमें कर्म करना दोषी नहीं है, प्रत्युत कर्मोंमें सकामभाव ही दोषी है।
||श्रीहरि:||
साधकका जब अपना कल्याण करनेका विचार होता है, तब वह कर्मोंको साधनमें विघ्न समझकर उनसे उपराम होना चाहता है । परन्तु वास्तवमें कर्म करना दोषी नहीं है, प्रत्युत कर्मोंमें सकामभाव ही दोषी है।- साधक संजीवनी ३।७
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साधक संजीवनी ३।७··
प्रायः सभी साधकोंके अनुभवकी बात है कि कल्याणकी उत्कट अभिलाषा जाग्रत् होते ही कर्म, पदार्थ और व्यक्ति (परिवार ) - से उनकी अरुचि होने लगती है । परन्तु वास्तवमें देहके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध होनेसे यह आराम - विश्रामकी इच्छा ही है, जो साधककी उन्नतिमें बाधक है। साधकोंके मनमें ऐसा भाव रहता है कि कर्म, पदार्थ और व्यक्तिका स्वरूपसे त्याग करनेपर ही हम परमार्थमार्गमें आगे बढ़ सकते हैं। परन्तु वास्तवमें इनका स्वरूपसे त्याग न करके इनमें आसक्तिका त्याग करना ही आवश्यक है।
||श्रीहरि:||
प्रायः सभी साधकोंके अनुभवकी बात है कि कल्याणकी उत्कट अभिलाषा जाग्रत् होते ही कर्म, पदार्थ और व्यक्ति (परिवार ) - से उनकी अरुचि होने लगती है । परन्तु वास्तवमें देहके साथ घनिष्ठ सम्बन्ध होनेसे यह आराम - विश्रामकी इच्छा ही है, जो साधककी उन्नतिमें बाधक है। साधकोंके मनमें ऐसा भाव रहता है कि कर्म, पदार्थ और व्यक्तिका स्वरूपसे त्याग करनेपर ही हम परमार्थमार्गमें आगे बढ़ सकते हैं। परन्तु वास्तवमें इनका स्वरूपसे त्याग न करके इनमें आसक्तिका त्याग करना ही आवश्यक है।- साधक संजीवनी ३ | ४
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साधक संजीवनी ३ | ४··
जो साधक तत्त्वप्राप्तिमें सुगमता ढूँढ़ता है और उसे शीघ्र प्राप्त करना चाहता है, वह वास्तव में सुखका रागी है, न कि साधनका प्रेमी जो सुगमतासे तत्त्वप्राप्ति चाहता है, उसे कठिनता सहनी पड़ती है और जो शीघ्रतासे तत्त्वप्राप्ति चाहता है, उसे विलम्ब सहना पड़ता है। कारण कि सुगमता और शीघ्रताकी इच्छा करनेसे साधककी दृष्टि 'साधन' पर न रहकर 'फल' पर चली जाती है, जिससे साधनमें उकताहट प्रतीत होती है और साध्यकी प्राप्तिमें विलम्ब भी होता है । जिसका यह दृढ़ निश्चय या उद्देश्य है कि चाहे जैसे भी हो, मुझे तत्त्वकी प्राप्ति होनी ही चाहिये, उसकी दृष्टि सुगमता और शीघ्रतापर नहीं जाती।
||श्रीहरि:||
जो साधक तत्त्वप्राप्तिमें सुगमता ढूँढ़ता है और उसे शीघ्र प्राप्त करना चाहता है, वह वास्तव में सुखका रागी है, न कि साधनका प्रेमी जो सुगमतासे तत्त्वप्राप्ति चाहता है, उसे कठिनता सहनी पड़ती है और जो शीघ्रतासे तत्त्वप्राप्ति चाहता है, उसे विलम्ब सहना पड़ता है। कारण कि सुगमता और शीघ्रताकी इच्छा करनेसे साधककी दृष्टि 'साधन' पर न रहकर 'फल' पर चली जाती है, जिससे साधनमें उकताहट प्रतीत होती है और साध्यकी प्राप्तिमें विलम्ब भी होता है । जिसका यह दृढ़ निश्चय या उद्देश्य है कि चाहे जैसे भी हो, मुझे तत्त्वकी प्राप्ति होनी ही चाहिये, उसकी दृष्टि सुगमता और शीघ्रतापर नहीं जाती।- साधक संजीवनी ३।८
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साधक संजीवनी ३।८··
ठीक लोभी व्यक्तिकी तरह साधककी साध्यमें निष्ठा होनी चाहिये । उसे साध्यकी प्राप्तिके बिना चैनसे न रहा जाय, जीवन भारस्वरूप प्रतीत होने लगे, खाना-पीना, आराम आदि कुछ भी अच्छा न लगे और हृदयमें साधनका आदर और तत्परता रहे।
||श्रीहरि:||
ठीक लोभी व्यक्तिकी तरह साधककी साध्यमें निष्ठा होनी चाहिये । उसे साध्यकी प्राप्तिके बिना चैनसे न रहा जाय, जीवन भारस्वरूप प्रतीत होने लगे, खाना-पीना, आराम आदि कुछ भी अच्छा न लगे और हृदयमें साधनका आदर और तत्परता रहे।- साधक संजीवनी ३।८
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साधक संजीवनी ३।८··
सबसे उत्तम साधक तो वह है, जो अपनी मुक्तिके लिये भी कोई कर्म न करके केवल दूसरोंके हितके लिये ही कर्म करता है। कारण कि अपना हित दूसरोंके लिये कर्म करनेसे होता है, अपने लिये कर्म करनेसे नहीं।
||श्रीहरि:||
सबसे उत्तम साधक तो वह है, जो अपनी मुक्तिके लिये भी कोई कर्म न करके केवल दूसरोंके हितके लिये ही कर्म करता है। कारण कि अपना हित दूसरोंके लिये कर्म करनेसे होता है, अपने लिये कर्म करनेसे नहीं।- साधक संजीवनी ३।९
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साधक संजीवनी ३।९··
मेरेको कहीं भी आसक्त नहीं होना है' - ऐसी जागृति साधकको निरन्तर रखनी चाहिये।
||श्रीहरि:||
मेरेको कहीं भी आसक्त नहीं होना है' - ऐसी जागृति साधकको निरन्तर रखनी चाहिये।- साधक संजीवनी ३|१९
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साधक संजीवनी ३|१९··
सत्संग, भजन-ध्यान आदिमें कोई व्यक्ति बाधा पहुँचाये, तो उसपर क्रोध आनेसे समझना चाहिये कि सत्संग आदिमें 'राग' है; और ( उसपर क्रोध न आकर ) रोना आ जाय तो समझना चाहिये कि सत्संग आदिमें प्रेम है। कारण कि अपनेमें लगन (दृढ़ता ) - की कमी होनेसे ही साधनमें बाधा लगती है।
||श्रीहरि:||
सत्संग, भजन-ध्यान आदिमें कोई व्यक्ति बाधा पहुँचाये, तो उसपर क्रोध आनेसे समझना चाहिये कि सत्संग आदिमें 'राग' है; और ( उसपर क्रोध न आकर ) रोना आ जाय तो समझना चाहिये कि सत्संग आदिमें प्रेम है। कारण कि अपनेमें लगन (दृढ़ता ) - की कमी होनेसे ही साधनमें बाधा लगती है।- साधक संजीवनी ३ | ३४
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साधक संजीवनी ३ | ३४··
साधकमें एक तत्परता होती है और एक आग्रह होता है। तत्परता होनेसे साधनमें रुचि रहती है और आग्रह होनेसे साधनमें राग रहता है। रुचि होनेसे अपने साधनमें कहाँ-कहाँ कमी है, उसका ज्ञान होता है और उसे दूर करनेकी शक्ति आती है तथा दूर करनेकी चेष्टा भी होती है । परन्तु राग होनेसे साधनमें विघ्न डालनेवालेके साथ द्वेष होनेकी सम्भावना रहती है। वास्तवमें देखा जाय तो साधनमें हमारी रुचि कम होनेसे ही दूसरा हमारे साधनमें बाधा डालता है।
||श्रीहरि:||
साधकमें एक तत्परता होती है और एक आग्रह होता है। तत्परता होनेसे साधनमें रुचि रहती है और आग्रह होनेसे साधनमें राग रहता है। रुचि होनेसे अपने साधनमें कहाँ-कहाँ कमी है, उसका ज्ञान होता है और उसे दूर करनेकी शक्ति आती है तथा दूर करनेकी चेष्टा भी होती है । परन्तु राग होनेसे साधनमें विघ्न डालनेवालेके साथ द्वेष होनेकी सम्भावना रहती है। वास्तवमें देखा जाय तो साधनमें हमारी रुचि कम होनेसे ही दूसरा हमारे साधनमें बाधा डालता है।- साधक संजीवनी १६।२
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साधक संजीवनी १६।२··
सेवा, परहित - चिन्तन, स्थिरता आदिका सुख लेना और इनके बने रहनेकी इच्छा करना भी परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति में बाधक है । (गीता १४ । ६) । इसलिये साधकको सात्त्विक, राजस और तामस - तीनों ही गुणोंसे असंग होना है; क्योंकि स्वरूप असंग है।
||श्रीहरि:||
सेवा, परहित - चिन्तन, स्थिरता आदिका सुख लेना और इनके बने रहनेकी इच्छा करना भी परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति में बाधक है । (गीता १४ । ६) । इसलिये साधकको सात्त्विक, राजस और तामस - तीनों ही गुणोंसे असंग होना है; क्योंकि स्वरूप असंग है।- साधक संजीवनी ३ | ३७ टि०
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साधक संजीवनी ३ | ३७ टि०··
साधकका लक्षण है - खोज करना । यदि वह मन और इन्द्रियोंसे देखी बातको ही सत्य मान लेता है, तो वहीं रुक जाता है, आगे नहीं बढ़ पाता।
||श्रीहरि:||
साधकका लक्षण है - खोज करना । यदि वह मन और इन्द्रियोंसे देखी बातको ही सत्य मान लेता है, तो वहीं रुक जाता है, आगे नहीं बढ़ पाता।- साधक संजीवनी ४।४०
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साधक संजीवनी ४।४०··
साधकका मुख्य काम होना चाहिये - रागका अभाव करना, सत्ताका अभाव करना नहीं; क्योंकि बाँधनेवाली वस्तु राग या सम्बन्ध ही है, सत्तामात्र नहीं। पदार्थ चाहे सत् हो, चाहे असत् हो, चाहे सत्-असत्से विलक्षण हो, यदि उसमें राग है तो वह बाँधनेवाला हो ही जायगा।
||श्रीहरि:||
साधकका मुख्य काम होना चाहिये - रागका अभाव करना, सत्ताका अभाव करना नहीं; क्योंकि बाँधनेवाली वस्तु राग या सम्बन्ध ही है, सत्तामात्र नहीं। पदार्थ चाहे सत् हो, चाहे असत् हो, चाहे सत्-असत्से विलक्षण हो, यदि उसमें राग है तो वह बाँधनेवाला हो ही जायगा।- साधक संजीवनी ५/२
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साधक संजीवनी ५/२··
साधकको भूतकालमें किये हुए कर्मोंकी याद आनेसे जो सुख - दुःख होता है, चिन्ता होती है, यह भी वास्तवमें अहंकारके कारण ही है। वर्तमानमें अहंकारविमूढात्मा होकर अर्थात् अहंकारके साथ अपना सम्बन्ध मानकर ही साधक सुखी दुःखी होता है । स्थूलदृष्टिसे देखें तो जैसे अभी भूतकालका अभाव है, ऐसे ही भूतकालमें किये गये कर्मोंका भी अभी प्रत्यक्ष अभाव है। सूक्ष्मदृष्टि देखें तो जैसे भूतकालमें वर्तमानका अभाव था, ऐसे ही भूतकालका भी अभाव था। इसी तरह वर्तमानमें जैसे भूतकालका अभाव है, ऐसे ही वर्तमानका भी अभाव है। परन्तु सत्ताका नित्य- निरन्तर भाव है।........ अतः साधककी दृष्टि सत्तामात्रकी तरफ रहनी चाहिये।
||श्रीहरि:||
साधकको भूतकालमें किये हुए कर्मोंकी याद आनेसे जो सुख - दुःख होता है, चिन्ता होती है, यह भी वास्तवमें अहंकारके कारण ही है। वर्तमानमें अहंकारविमूढात्मा होकर अर्थात् अहंकारके साथ अपना सम्बन्ध मानकर ही साधक सुखी दुःखी होता है । स्थूलदृष्टिसे देखें तो जैसे अभी भूतकालका अभाव है, ऐसे ही भूतकालमें किये गये कर्मोंका भी अभी प्रत्यक्ष अभाव है। सूक्ष्मदृष्टि देखें तो जैसे भूतकालमें वर्तमानका अभाव था, ऐसे ही भूतकालका भी अभाव था। इसी तरह वर्तमानमें जैसे भूतकालका अभाव है, ऐसे ही वर्तमानका भी अभाव है। परन्तु सत्ताका नित्य- निरन्तर भाव है।........ अतः साधककी दृष्टि सत्तामात्रकी तरफ रहनी चाहिये।- साधक संजीवनी ५ । ९ परि०
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साधक संजीवनी ५ । ९ परि०··
साधकको यह नहीं देखना चाहिये कि मैं साधन करूँगा तो इसका यह फल होगा। फलको देखना ही फलासक्ति है, जिससे वर्तमानमें साधन ठीक नहीं होता। अतः फलको न देखकर अपने साधनको देखना चाहिये, साधन तत्पर होकर करना चाहिये, फिर सिद्धि अपने-आप आयेगी । अगर साधक फलकी ओर देखता रहेगा तो सिद्धि नहीं होगी। हम निर्विकल्प, निष्काम हो जायँगे तो बड़ा सुख मिलेगा - इस प्रकार मूलमें सुख लेनेकी जो इच्छा रहती है, यह भी फलेच्छा है, जो साधकको निर्विकल्प निष्काम नहीं होने देती।
||श्रीहरि:||
साधकको यह नहीं देखना चाहिये कि मैं साधन करूँगा तो इसका यह फल होगा। फलको देखना ही फलासक्ति है, जिससे वर्तमानमें साधन ठीक नहीं होता। अतः फलको न देखकर अपने साधनको देखना चाहिये, साधन तत्पर होकर करना चाहिये, फिर सिद्धि अपने-आप आयेगी । अगर साधक फलकी ओर देखता रहेगा तो सिद्धि नहीं होगी। हम निर्विकल्प, निष्काम हो जायँगे तो बड़ा सुख मिलेगा - इस प्रकार मूलमें सुख लेनेकी जो इच्छा रहती है, यह भी फलेच्छा है, जो साधकको निर्विकल्प निष्काम नहीं होने देती।- साधक संजीवनी ५।१२ परि०
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साधक संजीवनी ५।१२ परि०··
जप, ध्यान, सत्संग और स्वाध्याय - ये प्रत्येक साधकके लिये उपयोगी हैं; और आवश्यक भी।
||श्रीहरि:||
जप, ध्यान, सत्संग और स्वाध्याय - ये प्रत्येक साधकके लिये उपयोगी हैं; और आवश्यक भी।- साधक संजीवनी ५२६ टि०
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साधक संजीवनी ५२६ टि०··
कभी-कभी वृत्तियाँ ठीक होनेसे साधकको ऐसा प्रतीत होता है कि मेरी पूर्णावस्था हो गयी । परन्तु वास्तवमें जबतक पूर्णावस्थाका अनुभव करनेवाला है, तबतक (व्यक्तित्व बना रहनेसे) पूर्णावस्था हुई नहीं।
||श्रीहरि:||
कभी-कभी वृत्तियाँ ठीक होनेसे साधकको ऐसा प्रतीत होता है कि मेरी पूर्णावस्था हो गयी । परन्तु वास्तवमें जबतक पूर्णावस्थाका अनुभव करनेवाला है, तबतक (व्यक्तित्व बना रहनेसे) पूर्णावस्था हुई नहीं।- साधक संजीवनी ५।२६
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साधक संजीवनी ५।२६··
साधकको विचार करना चाहिये कि मेरी दृष्टि अपने भावोंपर रहती है या दूसरेके आचरणोंपर ? दूसरोंके आचरणोंपर दृष्टि रहनेसे जिस दृष्टिसे अपना कल्याण होता है, वह दृष्टि बन्द हो जाती है और अँधेरा हो जाता है। इसलिये दूसरोंके श्रेष्ठ और निकृष्ट आचरणोंपर दृष्टि न रहकर उनका जो वास्तविक स्वरूप है, उसपर दृष्टि रहनी चाहिये।
||श्रीहरि:||
साधकको विचार करना चाहिये कि मेरी दृष्टि अपने भावोंपर रहती है या दूसरेके आचरणोंपर ? दूसरोंके आचरणोंपर दृष्टि रहनेसे जिस दृष्टिसे अपना कल्याण होता है, वह दृष्टि बन्द हो जाती है और अँधेरा हो जाता है। इसलिये दूसरोंके श्रेष्ठ और निकृष्ट आचरणोंपर दृष्टि न रहकर उनका जो वास्तविक स्वरूप है, उसपर दृष्टि रहनी चाहिये।- साधक संजीवनी ६ । ९
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साधक संजीवनी ६ । ९··
साधकके लिये इस बातकी बड़ी आवश्यकता है कि वह ध्यानके समय तो भगवान्के चिन्तनमें तत्परतापूर्वक लगा रहे, व्यवहारके समय भी निर्लिप्त रहते हुए भगवान्का चिन्तन करता रहे; क्योंकि व्यवहारके समय भगवान्का चिन्तन न होनेसे संसारमें लिप्तता अधिक होती है।....... तात्पर्य है कि साधकका साधकपना हर समय जाग्रत् रहे। वह संसारमें तो भगवान्को मिलाये, पर भगवान्में संसारको न मिलाये अर्थात् सांसारिक कार्य करते समय भी भगवत्स्मरण करता रहे।
||श्रीहरि:||
साधकके लिये इस बातकी बड़ी आवश्यकता है कि वह ध्यानके समय तो भगवान्के चिन्तनमें तत्परतापूर्वक लगा रहे, व्यवहारके समय भी निर्लिप्त रहते हुए भगवान्का चिन्तन करता रहे; क्योंकि व्यवहारके समय भगवान्का चिन्तन न होनेसे संसारमें लिप्तता अधिक होती है।....... तात्पर्य है कि साधकका साधकपना हर समय जाग्रत् रहे। वह संसारमें तो भगवान्को मिलाये, पर भगवान्में संसारको न मिलाये अर्थात् सांसारिक कार्य करते समय भी भगवत्स्मरण करता रहे।- साधक संजीवनी ६/१०
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साधक संजीवनी ६/१०··
साधक पहले परमात्माको दूर देखता है, फिर नजदीक देखता है, फिर अपनेमें देखता है, और फिर केवल परमात्माको ही देखता है।
||श्रीहरि:||
साधक पहले परमात्माको दूर देखता है, फिर नजदीक देखता है, फिर अपनेमें देखता है, और फिर केवल परमात्माको ही देखता है।- साधक संजीवनी ६ ३० परि०
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साधक संजीवनी ६ ३० परि०··
पहलेकी साधनावस्थामें वह जितना साधन कर चुका है, उसका संसारके साथ जितना सम्बन्ध टूट चुका है, उतनी पूँजी तो उसकी वैसी की वैसी ही रहती है अर्थात् वह कभी किसी अवस्थामें छूटती नहीं, प्रत्युत उसके भीतर सुरक्षित रहती है।
||श्रीहरि:||
पहलेकी साधनावस्थामें वह जितना साधन कर चुका है, उसका संसारके साथ जितना सम्बन्ध टूट चुका है, उतनी पूँजी तो उसकी वैसी की वैसी ही रहती है अर्थात् वह कभी किसी अवस्थामें छूटती नहीं, प्रत्युत उसके भीतर सुरक्षित रहती है।- साधक संजीवनी ६ । ४०
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साधक संजीवनी ६ । ४०··
भगवान्का स्वभाव है कि वे यह नहीं देखते कि साधक करता क्या है, प्रत्युत यह देखते हैं कि साधक चाहता क्या है।
||श्रीहरि:||
भगवान्का स्वभाव है कि वे यह नहीं देखते कि साधक करता क्या है, प्रत्युत यह देखते हैं कि साधक चाहता क्या है।- साधक संजीवनी ६ । ४४
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साधक संजीवनी ६ । ४४··
अगर साधकको जगत् दीखता है तो उसको निष्कामभावपूर्वक जगत्की सेवा करनी चाहिये। जगत्को अपना और अपने लिये मानना तथा उससे सुख लेना ही असाधन है, बन्धन है।
||श्रीहरि:||
अगर साधकको जगत् दीखता है तो उसको निष्कामभावपूर्वक जगत्की सेवा करनी चाहिये। जगत्को अपना और अपने लिये मानना तथा उससे सुख लेना ही असाधन है, बन्धन है।- साधक संजीवनी ७/५ परि०
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साधक संजीवनी ७/५ परि०··
रुचि, श्रद्धा, विश्वास और योग्यता एक साधनमें होनेसे साधक उस तत्त्वको जल्दी समझता है। परन्तु रुचि और श्रद्धा - विश्वास होनेपर भी वैसी योग्यता न हो अथवा योग्यता होनेपर भी वैसी रुचि और श्रद्धा - विश्वास न हो, तो साधकको उस साधनमें कठिनता पड़ती है।
||श्रीहरि:||
रुचि, श्रद्धा, विश्वास और योग्यता एक साधनमें होनेसे साधक उस तत्त्वको जल्दी समझता है। परन्तु रुचि और श्रद्धा - विश्वास होनेपर भी वैसी योग्यता न हो अथवा योग्यता होनेपर भी वैसी रुचि और श्रद्धा - विश्वास न हो, तो साधकको उस साधनमें कठिनता पड़ती है।- साधक संजीवनी ८।४ वि०
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साधक संजीवनी ८।४ वि०··
जब साधक सत्संगके द्वारा अपनी रुचि, श्रद्धा-विश्वास और योग्यताका निर्णय कर लेता है अथवा निर्णय न हो सकनेकी दशामें भगवान्के शरण होकर उनको पुकारता है, तब भगवत्कृपासे उसकी बुद्धि निश्चयात्मिका हो जाती है।
||श्रीहरि:||
जब साधक सत्संगके द्वारा अपनी रुचि, श्रद्धा-विश्वास और योग्यताका निर्णय कर लेता है अथवा निर्णय न हो सकनेकी दशामें भगवान्के शरण होकर उनको पुकारता है, तब भगवत्कृपासे उसकी बुद्धि निश्चयात्मिका हो जाती है।- साधक संजीवनी २।५३
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साधक संजीवनी २।५३··
साधकको चाहिये कि वह वस्तु, व्यक्ति और क्रियाके बिना अपनेको अकेला अनुभव करनेका स्वभाव बनाये, उस अनुभवको महत्त्व दे, उसमें अधिक-से-अधिक स्थित रहे।
||श्रीहरि:||
साधकको चाहिये कि वह वस्तु, व्यक्ति और क्रियाके बिना अपनेको अकेला अनुभव करनेका स्वभाव बनाये, उस अनुभवको महत्त्व दे, उसमें अधिक-से-अधिक स्थित रहे।- साधक संजीवनी ८ । १९ परि०
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साधक संजीवनी ८ । १९ परि०··
जब साधक अपना बल मानते हुए साधन करता है, तब अपना बल माननेके कारण उसको बार-बार विफलताका अनुभव होता रहता है और तत्त्वकी प्राप्तिमें देरी लगती है। अगर साधक अपने बलका किंचिन्मात्र भी अभिमान न करे तो सिद्धि तत्काल हो जाती है।
||श्रीहरि:||
जब साधक अपना बल मानते हुए साधन करता है, तब अपना बल माननेके कारण उसको बार-बार विफलताका अनुभव होता रहता है और तत्त्वकी प्राप्तिमें देरी लगती है। अगर साधक अपने बलका किंचिन्मात्र भी अभिमान न करे तो सिद्धि तत्काल हो जाती है।- साधक संजीवनी ११ । ३३
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साधक संजीवनी ११ । ३३··
दुर्गुण - दुराचार दूर नहीं हो रहे हैं, क्या करूँ ।' - ऐसी चिन्ता होनेमें तो साधकका अभिमान ही कारण है और 'ये दूर होने चाहिये और जल्दी होने चाहिये' – इसमें भगवान्के विश्वासकी, भरोसेकी, आश्रयकी कमी है। दुर्गुण- दुराचार अच्छे नहीं लगते, सुहाते नहीं, इसमें दोष नहीं है। दोष है चिन्ता करनेमें। इसलिये साधकको कभी चिन्ता नहीं करनी चाहिये।
||श्रीहरि:||
दुर्गुण - दुराचार दूर नहीं हो रहे हैं, क्या करूँ ।' - ऐसी चिन्ता होनेमें तो साधकका अभिमान ही कारण है और 'ये दूर होने चाहिये और जल्दी होने चाहिये' – इसमें भगवान्के विश्वासकी, भरोसेकी, आश्रयकी कमी है। दुर्गुण- दुराचार अच्छे नहीं लगते, सुहाते नहीं, इसमें दोष नहीं है। दोष है चिन्ता करनेमें। इसलिये साधकको कभी चिन्ता नहीं करनी चाहिये।- साधक संजीवनी ११ । ३४ वि०
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साधक संजीवनी ११ । ३४ वि०··
साधकको अपनी चिन्तन और दर्शन शक्तिको भगवान् के सिवाय दूसरी किसी भी जगह खर्च नहीं करनी चाहिये अर्थात् साधक चिन्तन करे तो परमात्माका ही चिन्तन करे और जिस किसीको देखे तो उसको परमात्मस्वरूप ही देखे।
||श्रीहरि:||
साधकको अपनी चिन्तन और दर्शन शक्तिको भगवान् के सिवाय दूसरी किसी भी जगह खर्च नहीं करनी चाहिये अर्थात् साधक चिन्तन करे तो परमात्माका ही चिन्तन करे और जिस किसीको देखे तो उसको परमात्मस्वरूप ही देखे।- साधक संजीवनी ११।५५ वि०
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साधक संजीवनी ११।५५ वि०··
सगुणोपासक और निर्गुणोपासक – दोनों ही प्रकारके साधकोंके लिये सम्पूर्ण प्राणियोंके हितका भाव रखना जरूरी है। सम्पूर्ण प्राणियोंके हितसे अलग अपना हित माननेसे 'अहम्' अर्थात् व्यक्तित्व बना रहता है, जो साधकके लिये आगे चलकर बाधक होता है।
||श्रीहरि:||
सगुणोपासक और निर्गुणोपासक – दोनों ही प्रकारके साधकोंके लिये सम्पूर्ण प्राणियोंके हितका भाव रखना जरूरी है। सम्पूर्ण प्राणियोंके हितसे अलग अपना हित माननेसे 'अहम्' अर्थात् व्यक्तित्व बना रहता है, जो साधकके लिये आगे चलकर बाधक होता है।- साधक संजीवनी १२ । ३-४
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साधक संजीवनी १२ । ३-४··
देहाभिमानीके लिये निर्गुणोपासनाकी सिद्धि कठिनतासे तथा देरीसे होती है । परन्तु सगुणोपासनामें भगवान्की विमुखता बाधक है, देहाभिमान बाधक नहीं है।
||श्रीहरि:||
देहाभिमानीके लिये निर्गुणोपासनाकी सिद्धि कठिनतासे तथा देरीसे होती है । परन्तु सगुणोपासनामें भगवान्की विमुखता बाधक है, देहाभिमान बाधक नहीं है।- साधक संजीवनी १२।५
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साधक संजीवनी १२।५··
साधकके लिये ज्यादा जाननेकी जरूरत नहीं है। ज्यादा जाननेमें समय तो ज्यादा खर्च होगा, पर साधन कम होगा।
||श्रीहरि:||
साधकके लिये ज्यादा जाननेकी जरूरत नहीं है। ज्यादा जाननेमें समय तो ज्यादा खर्च होगा, पर साधन कम होगा।- साधक संजीवनी १३ । २३ परि०
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साधक संजीवनी १३ । २३ परि०··
सत्तामें एकदेशीयता अहम्के कारण दीखती है। यह अहम् सुखलोलुपतापर टिका हुआ है । साधन करते हुए भी साधक जहाँ है, वहीं सुख भोगने लग जाता है – 'सुखसङ्गेन बध्नाति' ( गीता १४ । ६)। यह सुखलोलुपता गुणातीत होनेतक रहती है। अतः इसमें साधकको बहुत विशेष सावधान रहना चाहिये और सावधानीपूर्वक सुखलोलुपतासे बचना चाहिये।
||श्रीहरि:||
सत्तामें एकदेशीयता अहम्के कारण दीखती है। यह अहम् सुखलोलुपतापर टिका हुआ है । साधन करते हुए भी साधक जहाँ है, वहीं सुख भोगने लग जाता है – 'सुखसङ्गेन बध्नाति' ( गीता १४ । ६)। यह सुखलोलुपता गुणातीत होनेतक रहती है। अतः इसमें साधकको बहुत विशेष सावधान रहना चाहिये और सावधानीपूर्वक सुखलोलुपतासे बचना चाहिये।- साधक संजीवनी १३ | ३२ परि०
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साधक संजीवनी १३ | ३२ परि०··
जिस समय सात्त्विक वृत्तियाँ बढ़ी हों, उस समय साधकको विशेषरूपसे भजन- ध्यान आदिमें लग जाना चाहिये। ऐसे समयमें किये गये थोड़े-से साधनसे भी शीघ्र ही बहुत लाभ हो सकता है।
||श्रीहरि:||
जिस समय सात्त्विक वृत्तियाँ बढ़ी हों, उस समय साधकको विशेषरूपसे भजन- ध्यान आदिमें लग जाना चाहिये। ऐसे समयमें किये गये थोड़े-से साधनसे भी शीघ्र ही बहुत लाभ हो सकता है।- साधक संजीवनी १४ । ११
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साधक संजीवनी १४ । ११··
साधकको सत्त्वगुणसे उत्पन्न सुखका भी उपभोग नहीं करना चाहिये । सात्त्विक सुखका उपभोग करना रजोगुण - अंश है।
||श्रीहरि:||
साधकको सत्त्वगुणसे उत्पन्न सुखका भी उपभोग नहीं करना चाहिये । सात्त्विक सुखका उपभोग करना रजोगुण - अंश है।- साधक संजीवनी १४ । १३
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साधक संजीवनी १४ । १३··
साधकको आने-जानेवाली वृत्तियोंके साथ मिलकर अपने वास्तविक स्वरूपसे विचलित नहीं होना चाहिये। चाहे जैसी वृत्तियाँ आयें, उनसे राजी - नाराज नहीं होना चाहिये; उनके साथ अपनी एकता नहीं माननी चाहिये। सदा एकरस रहनेवाले, गुणोंसे सर्वथा निर्लिप्त, निर्विकार एवं अविनाशी अपने स्वरूपको न देखकर परिवर्तनशील, विकारी एवं विनाशी वृत्तियोंको देखना साधकके लिये महान् बाधक है।
||श्रीहरि:||
साधकको आने-जानेवाली वृत्तियोंके साथ मिलकर अपने वास्तविक स्वरूपसे विचलित नहीं होना चाहिये। चाहे जैसी वृत्तियाँ आयें, उनसे राजी - नाराज नहीं होना चाहिये; उनके साथ अपनी एकता नहीं माननी चाहिये। सदा एकरस रहनेवाले, गुणोंसे सर्वथा निर्लिप्त, निर्विकार एवं अविनाशी अपने स्वरूपको न देखकर परिवर्तनशील, विकारी एवं विनाशी वृत्तियोंको देखना साधकके लिये महान् बाधक है।- साधक संजीवनी १४ । २२ वि०
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साधक संजीवनी १४ । २२ वि०··
साधकमात्रके लिये यह आवश्यक है कि वह देहका धर्म अपनेमें न माने । वृत्तियाँ अन्तःकरणमें हैं, अपनेमें नहीं हैं। अतः साधक वृत्तियोंको न अच्छा माने, न बुरा माने और न अपनेमें माने।
||श्रीहरि:||
साधकमात्रके लिये यह आवश्यक है कि वह देहका धर्म अपनेमें न माने । वृत्तियाँ अन्तःकरणमें हैं, अपनेमें नहीं हैं। अतः साधक वृत्तियोंको न अच्छा माने, न बुरा माने और न अपनेमें माने।- साधक संजीवनी १४ । २२ परि०
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साधक संजीवनी १४ । २२ परि०··
साधकको साधन-भजन करना तो बहुत आवश्यक है; क्योंकि इसके समान कोई उत्तम काम नहीं है; किन्तु 'परमात्मतत्त्वको साधन-भजनके द्वारा प्राप्त कर लेंगे' - ऐसा मानना ठीक नहीं; क्योंकि ऐसा माननेसे अभिमान बढ़ता है, जो परमात्मप्राप्तिमें बाधक है। परमात्मा कृपासे मिलते हैं। उनको किसी साधनसे खरीदा नहीं जा सकता।
||श्रीहरि:||
साधकको साधन-भजन करना तो बहुत आवश्यक है; क्योंकि इसके समान कोई उत्तम काम नहीं है; किन्तु 'परमात्मतत्त्वको साधन-भजनके द्वारा प्राप्त कर लेंगे' - ऐसा मानना ठीक नहीं; क्योंकि ऐसा माननेसे अभिमान बढ़ता है, जो परमात्मप्राप्तिमें बाधक है। परमात्मा कृपासे मिलते हैं। उनको किसी साधनसे खरीदा नहीं जा सकता।- साधक संजीवनी १५ ।४
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साधक संजीवनी १५ ।४··
साधकको जैसे संसारके संगका त्याग करना है, ऐसे ही 'असंगता' के संगका भी त्याग करना है। कारण कि असंग होनेके बाद भी साधकमें 'मैं असंग हूँ' - ऐसा सूक्ष्म अहंभाव (परिच्छिन्नता) रह सकता है, जो परमात्माके शरण होनेपर ही सुगमतापूर्वक मिट सकता है।
||श्रीहरि:||
साधकको जैसे संसारके संगका त्याग करना है, ऐसे ही 'असंगता' के संगका भी त्याग करना है। कारण कि असंग होनेके बाद भी साधकमें 'मैं असंग हूँ' - ऐसा सूक्ष्म अहंभाव (परिच्छिन्नता) रह सकता है, जो परमात्माके शरण होनेपर ही सुगमतापूर्वक मिट सकता है।- साधक संजीवनी १५ । ४
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साधक संजीवनी १५ । ४··
शरीरसे माने हुए सम्बन्धका त्याग करनेके लिये साधकको तीन बातें मान लेनी चाहिये - १. शरीर मेरा नहीं है; क्योंकि इसपर मेरा वश नहीं चलता, २. मेरेको कुछ नहीं चाहिये और ३. मेरेको अपने लिये कुछ नहीं करना है। जबतक साधक स्थूल, सूक्ष्म और कारण - तीनों शरीरोंसे अपना सम्बन्ध मानता रहता है, तबतक स्थूलशरीरसे होनेवाला 'कर्म', सूक्ष्मशरीरसे होनेवाला 'चिन्तन' और कारणशरीरसे होनेवाली 'स्थिरता' (निर्विकल्प अवस्था ) – तीनों ही उसको बाँधनेवाले होते हैं।
||श्रीहरि:||
शरीरसे माने हुए सम्बन्धका त्याग करनेके लिये साधकको तीन बातें मान लेनी चाहिये - १. शरीर मेरा नहीं है; क्योंकि इसपर मेरा वश नहीं चलता, २. मेरेको कुछ नहीं चाहिये और ३. मेरेको अपने लिये कुछ नहीं करना है। जबतक साधक स्थूल, सूक्ष्म और कारण - तीनों शरीरोंसे अपना सम्बन्ध मानता रहता है, तबतक स्थूलशरीरसे होनेवाला 'कर्म', सूक्ष्मशरीरसे होनेवाला 'चिन्तन' और कारणशरीरसे होनेवाली 'स्थिरता' (निर्विकल्प अवस्था ) – तीनों ही उसको बाँधनेवाले होते हैं।- साधक संजीवनी १५७ परि०
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साधक संजीवनी १५७ परि०··
जीवनको साधनमय बनानेके लिये यह आवश्यक है कि साधक इन दो बातोंको दृढ़तापूर्वक स्वीकार कर ले - (१) मेरा कुछ भी नहीं है, मेरेको कुछ भी नहीं चाहिये और मेरा किसीसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, (२) केवल भगवान् ही मेरे अपने हैं।
||श्रीहरि:||
जीवनको साधनमय बनानेके लिये यह आवश्यक है कि साधक इन दो बातोंको दृढ़तापूर्वक स्वीकार कर ले - (१) मेरा कुछ भी नहीं है, मेरेको कुछ भी नहीं चाहिये और मेरा किसीसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, (२) केवल भगवान् ही मेरे अपने हैं।- साधनके दो प्रधान सूत्र २
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साधनके दो प्रधान सूत्र २··
भगवान्के नित्य-सम्बन्धकी जागृतिके लिये साधकको तीन बातें मान लेनी चाहिये - १. प्रभु मेरे हैं, २. मैं प्रभुका हूँ और ३. सब कुछ प्रभुका है। भगवान्से नित्य सम्बन्धकी जागृति होनेपर साधकको भगवत्प्रेमकी प्राप्ति हो जाती है। भगवत्प्रेमकी प्राप्तिमें ही मनुष्य जीवनकी पूर्णता है।
||श्रीहरि:||
भगवान्के नित्य-सम्बन्धकी जागृतिके लिये साधकको तीन बातें मान लेनी चाहिये - १. प्रभु मेरे हैं, २. मैं प्रभुका हूँ और ३. सब कुछ प्रभुका है। भगवान्से नित्य सम्बन्धकी जागृति होनेपर साधकको भगवत्प्रेमकी प्राप्ति हो जाती है। भगवत्प्रेमकी प्राप्तिमें ही मनुष्य जीवनकी पूर्णता है।- साधक संजीवनी १५।७ परि०
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साधक संजीवनी १५।७ परि०··
साधकमें सीधा, सरल भाव होना चाहिये। सीधा, सरल होनेके कारण लोग उसको मूर्ख, बेसमझ कह सकते हैं, पर उससे साधकको कोई हानि नहीं है। अपने उद्धारके लिये तो सरलता बड़े कामकी चीज है।
||श्रीहरि:||
साधकमें सीधा, सरल भाव होना चाहिये। सीधा, सरल होनेके कारण लोग उसको मूर्ख, बेसमझ कह सकते हैं, पर उससे साधकको कोई हानि नहीं है। अपने उद्धारके लिये तो सरलता बड़े कामकी चीज है।- साधक संजीवनी १६ । १
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साधक संजीवनी १६ । १··
जैसे पुष्पसे सुगन्ध स्वतः फैलती है, ऐसे ही साधकसे स्वतः पारमार्थिक परमाणु फैलते हैं और वायुमण्डल शुद्ध होता है। इससे उसके द्वारा स्वतः - स्वाभाविक प्राणिमात्रका बड़ा भारी उपकार एवं हित होता रहता है।
||श्रीहरि:||
जैसे पुष्पसे सुगन्ध स्वतः फैलती है, ऐसे ही साधकसे स्वतः पारमार्थिक परमाणु फैलते हैं और वायुमण्डल शुद्ध होता है। इससे उसके द्वारा स्वतः - स्वाभाविक प्राणिमात्रका बड़ा भारी उपकार एवं हित होता रहता है।- साधक संजीवनी १६ । २
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साधक संजीवनी १६ । २··
जब साधक इन्द्रियोंको वशमें करता है, तब उसमें अपने बलका अभिमान रहता है कि मैंने इन्द्रियोंको अपने वशमें किया है। यह अभिमान साधकको उन्नत नहीं होने देता और उसे भगवान्से विमुख करा देता है।
||श्रीहरि:||
जब साधक इन्द्रियोंको वशमें करता है, तब उसमें अपने बलका अभिमान रहता है कि मैंने इन्द्रियोंको अपने वशमें किया है। यह अभिमान साधकको उन्नत नहीं होने देता और उसे भगवान्से विमुख करा देता है।- साधक संजीवनी २।६१
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साधक संजीवनी २।६१··
साधकको अपनी इन्द्रियोंपर कभी भी 'मेरी इन्द्रियाँ वशमें हैं, ऐसा विश्वास नहीं करना चाहिये और कभी भी यह अभिमान नहीं करना चाहिये कि 'मैं जितेन्द्रिय हो गया हूँ।'
||श्रीहरि:||
साधकको अपनी इन्द्रियोंपर कभी भी 'मेरी इन्द्रियाँ वशमें हैं, ऐसा विश्वास नहीं करना चाहिये और कभी भी यह अभिमान नहीं करना चाहिये कि 'मैं जितेन्द्रिय हो गया हूँ।'- साधक संजीवनी २/६०
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साधक संजीवनी २/६०··
अपने लिये पानेकी इच्छासे साधक कुछ भी करता है तो वह अपने व्यक्तित्वको ही स्थिर रखता है; क्योंकि वह संसारमात्रके हितसे अपना हित अलग मानता है।
||श्रीहरि:||
अपने लिये पानेकी इच्छासे साधक कुछ भी करता है तो वह अपने व्यक्तित्वको ही स्थिर रखता है; क्योंकि वह संसारमात्रके हितसे अपना हित अलग मानता है।- साधक संजीवनी १८ । १२
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साधक संजीवनी १८ । १२··
आज पारमार्थिक मार्गपर चलनेवाले जितने भी साधक हैं, उन साधकोंकी ऊँची स्थिति न होनेमें अथवा उनको परमात्मतत्त्वका अनुभव न होनेमें अगर कोई विघ्न-बाधा है, तो वह है - सुखकी इच्छा।
||श्रीहरि:||
आज पारमार्थिक मार्गपर चलनेवाले जितने भी साधक हैं, उन साधकोंकी ऊँची स्थिति न होनेमें अथवा उनको परमात्मतत्त्वका अनुभव न होनेमें अगर कोई विघ्न-बाधा है, तो वह है - सुखकी इच्छा।- साधक संजीवनी १८ । ३६
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साधक संजीवनी १८ । ३६··
साधकमात्रको पहलेसे ही याद कर लेना चाहिये कि परमात्माकी प्राप्ति चाहिये तो सुखभोग, मान- बड़ाई, आदर-सत्कार, आराम मत चाहो और अगर ये चाहो तो परमात्माको मत चाहो । परमात्मप्राप्तिमें सुख बाधक नहीं है, प्रत्युत सुखकी इच्छा, लोलुपता बाधक है।
||श्रीहरि:||
साधकमात्रको पहलेसे ही याद कर लेना चाहिये कि परमात्माकी प्राप्ति चाहिये तो सुखभोग, मान- बड़ाई, आदर-सत्कार, आराम मत चाहो और अगर ये चाहो तो परमात्माको मत चाहो । परमात्मप्राप्तिमें सुख बाधक नहीं है, प्रत्युत सुखकी इच्छा, लोलुपता बाधक है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश २२२
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश २२२··
जो साधक होता है, वह सुखभोगका त्याग करता है, नहीं तो भोगीमें और साधकमें फर्क क्या हुआ ? साधक होते ही भोगीपना नष्ट हो जाता है।
||श्रीहरि:||
जो साधक होता है, वह सुखभोगका त्याग करता है, नहीं तो भोगीमें और साधकमें फर्क क्या हुआ ? साधक होते ही भोगीपना नष्ट हो जाता है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १२२
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १२२··
जो साधक हैं, उनको विश्रामके लिये नहीं सोना चाहिये। उनका तो यही भाव होना चाहिये कि पहले काम-धन्धा करते हुए भगवान्का भजन करते थे, अब लेटे-लेटे भजन करना है।
||श्रीहरि:||
जो साधक हैं, उनको विश्रामके लिये नहीं सोना चाहिये। उनका तो यही भाव होना चाहिये कि पहले काम-धन्धा करते हुए भगवान्का भजन करते थे, अब लेटे-लेटे भजन करना है।- साधक संजीवनी १८ । ३९
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साधक संजीवनी १८ । ३९··
साधक कोई भी काम-धन्धा करे तो उसमें यह एक सावधानी रखे कि अपने चित्तको उस काम- धन्धे में द्रवित न होने दे, चित्तको संसारके साथ घुलने-मिलने न दे अर्थात् तदाकार न होने दे, प्रत्युत उसमें अपने चित्तको कठोर रखे। परन्तु भगवन्नामका जप, कीर्तन, भगवत्कथा, भगवच्चिन्तन आदि भगवत्सम्बन्धी कार्योंमें चित्तको द्रवित करता रहे, उस रसमें चित्तको तरान्तर करता रहे। इस प्रकार करते रहने से साधक बहुत जल्दी भगवान् में चित्तवाला हो जायगा।
||श्रीहरि:||
साधक कोई भी काम-धन्धा करे तो उसमें यह एक सावधानी रखे कि अपने चित्तको उस काम- धन्धे में द्रवित न होने दे, चित्तको संसारके साथ घुलने-मिलने न दे अर्थात् तदाकार न होने दे, प्रत्युत उसमें अपने चित्तको कठोर रखे। परन्तु भगवन्नामका जप, कीर्तन, भगवत्कथा, भगवच्चिन्तन आदि भगवत्सम्बन्धी कार्योंमें चित्तको द्रवित करता रहे, उस रसमें चित्तको तरान्तर करता रहे। इस प्रकार करते रहने से साधक बहुत जल्दी भगवान् में चित्तवाला हो जायगा।- साधक संजीवनी १८ । ५७
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साधक संजीवनी १८ । ५७··
साधकको सबसे पहले 'मैं भगवान्का हूँ' इस प्रकार अपनी अहंता ( मैं - पन ) - को बदल देना चाहिये। कारण कि बिना अहंताके बदले साधन सुगमतासे नहीं होता । अहंताके बदलनेपर साधन सुगमतासे, स्वाभाविक होने लगता है।
||श्रीहरि:||
साधकको सबसे पहले 'मैं भगवान्का हूँ' इस प्रकार अपनी अहंता ( मैं - पन ) - को बदल देना चाहिये। कारण कि बिना अहंताके बदले साधन सुगमतासे नहीं होता । अहंताके बदलनेपर साधन सुगमतासे, स्वाभाविक होने लगता है।- साधक संजीवनी १८ । ६५
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साधक संजीवनी १८ । ६५··
अपना सुख देखनेवाला साधक नहीं हो सकता। इसलिये साधकको आरम्भमें ही सुखका त्याग करना पड़ेगा। इससे छूटनेका उपाय है कि 'मैं साधक हूँ' – इस प्रकार अपनी अहंता अर्थात् मैं- पनको बदल दे । अपनेको साधक माननेसे हमारे द्वारा वही कार्य होंगे, जो साधकको करने चाहिये।
||श्रीहरि:||
अपना सुख देखनेवाला साधक नहीं हो सकता। इसलिये साधकको आरम्भमें ही सुखका त्याग करना पड़ेगा। इससे छूटनेका उपाय है कि 'मैं साधक हूँ' – इस प्रकार अपनी अहंता अर्थात् मैं- पनको बदल दे । अपनेको साधक माननेसे हमारे द्वारा वही कार्य होंगे, जो साधकको करने चाहिये।- स्वातिकी बूँदें १८२
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स्वातिकी बूँदें १८२··
साधक तभी होता है, जब कम-से-कम संसारसे विमुख हो जाय। संसारसे विमुख हुए बिना आध्यात्मिक रुचि भी नहीं होगी, उसकी प्राप्ति तो और कठिन है। सुख भोगना और रुपयोंका, पदार्थोंका संग्रह करना - ये दो जिसके विचार हैं, वह परमात्माकी प्राप्तिका अधिकारी ही नहीं है।
||श्रीहरि:||
साधक तभी होता है, जब कम-से-कम संसारसे विमुख हो जाय। संसारसे विमुख हुए बिना आध्यात्मिक रुचि भी नहीं होगी, उसकी प्राप्ति तो और कठिन है। सुख भोगना और रुपयोंका, पदार्थोंका संग्रह करना - ये दो जिसके विचार हैं, वह परमात्माकी प्राप्तिका अधिकारी ही नहीं है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ २००
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ २००··
साधकके लिये साधनसे विरुद्ध बात जितनी घातक है, उतनी साधनकी कमी घातक नहीं है।
||श्रीहरि:||
साधकके लिये साधनसे विरुद्ध बात जितनी घातक है, उतनी साधनकी कमी घातक नहीं है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ९
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सीमाके भीतर असीम प्रकाश ९··
अपने उद्धारके विषयमें साधकको खुला रहना चाहिये, किसी एक मत, सम्प्रदाय, गुरु आदिमें बँधना नहीं चाहिये । वह गुरुमें निष्ठा तो रखे, पर बँधे नहीं। साधनकी निष्ठा तो रखे, पर बँधे नहीं। किसी एकमें बँधनेसे वह दूसरेकी बात नहीं सुनेगा, उसका तिरस्कार करेगा।
||श्रीहरि:||
अपने उद्धारके विषयमें साधकको खुला रहना चाहिये, किसी एक मत, सम्प्रदाय, गुरु आदिमें बँधना नहीं चाहिये । वह गुरुमें निष्ठा तो रखे, पर बँधे नहीं। साधनकी निष्ठा तो रखे, पर बँधे नहीं। किसी एकमें बँधनेसे वह दूसरेकी बात नहीं सुनेगा, उसका तिरस्कार करेगा।- ज्ञानके दीप जले ९५
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
ज्ञानके दीप जले ९५··
साधकको न तो सांसारिक मोहकी मुख्यता रखनी है और न शास्त्रीय ( दार्शनिक) मतभेदकी मुख्यता रखनी है अर्थात् किसी मत, सम्प्रदायका कोई आग्रह नहीं रखना है। ऐसा होनेपर वह योगका, मुक्तिका अथवा भक्तिका अधिकारी हो जाता है। इससे अधिक किसी अधिकार - विशेषकी जरूरत नहीं है।
||श्रीहरि:||
साधकको न तो सांसारिक मोहकी मुख्यता रखनी है और न शास्त्रीय ( दार्शनिक) मतभेदकी मुख्यता रखनी है अर्थात् किसी मत, सम्प्रदायका कोई आग्रह नहीं रखना है। ऐसा होनेपर वह योगका, मुक्तिका अथवा भक्तिका अधिकारी हो जाता है। इससे अधिक किसी अधिकार - विशेषकी जरूरत नहीं है।- साधक संजीवनी २।५३ परि०
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साधक संजीवनी २।५३ परि०··
जीव ईश्वरका अंश है, इसलिये वह जिस मतको पकड़ लेता है, वही उसको सत्य दीखने लग जाता है। अतः साधकको चाहिये कि वह अपने मतका अनुसरण तो करे, पर उसको पकड़े नहीं अर्थात् उसका आग्रह न रखे। साधकको जबतक अपनेमें दार्शनिक मतभेद दीखे, सम्पूर्ण मतोंमें समान आदरभाव न दीखे, तबतक उसको सन्तोष नहीं करना चाहिये। अपनेमें मतभेद दीखनेपर वह साधन-तत्त्वतक तो पहुँच सकता है, पर साध्यतक नहीं पहुँच सकता। साध्यतक पहुँचनेपर अपने मतका आग्रह नहीं रहता और सभी मत समान दीखते हैं।
||श्रीहरि:||
जीव ईश्वरका अंश है, इसलिये वह जिस मतको पकड़ लेता है, वही उसको सत्य दीखने लग जाता है। अतः साधकको चाहिये कि वह अपने मतका अनुसरण तो करे, पर उसको पकड़े नहीं अर्थात् उसका आग्रह न रखे। साधकको जबतक अपनेमें दार्शनिक मतभेद दीखे, सम्पूर्ण मतोंमें समान आदरभाव न दीखे, तबतक उसको सन्तोष नहीं करना चाहिये। अपनेमें मतभेद दीखनेपर वह साधन-तत्त्वतक तो पहुँच सकता है, पर साध्यतक नहीं पहुँच सकता। साध्यतक पहुँचनेपर अपने मतका आग्रह नहीं रहता और सभी मत समान दीखते हैं।- मानवमात्रके कल्याणके लिये १२९ - १३०
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मानवमात्रके कल्याणके लिये १२९ - १३०··
अन्तमें सभी साधकोंकी एक स्थिति होगी। इसमें सम्प्रदायके भेदसे अनेक तरहके भेद ( सालोक्य, सामीप्य आदि) बताये गये हैं। परन्तु परमात्मामें जो असली स्थिति है, वह सबकी एक ही होती है। साधक अपने-अपने सम्प्रदाय, पद्धति, ज्ञानके अनुसार मुक्त हो जाते हैं, फिर परमात्माकी तरफसे मुक्त होते हैं तो वहाँ सब के सब एक हो जाते हैं। वहाँ सम्प्रदायका भेद नहीं रहता । वह स्थिति हमारी स्वाभाविक है।....... पहले सबको अपनी अलग-अलग स्थिति दीखती है, पर वह बनावटी होती है। असली स्थिति सबकी एक होती है । परन्तु परमात्माके प्राप्त होनेपर ही यह भेद खुलता है।
||श्रीहरि:||
अन्तमें सभी साधकोंकी एक स्थिति होगी। इसमें सम्प्रदायके भेदसे अनेक तरहके भेद ( सालोक्य, सामीप्य आदि) बताये गये हैं। परन्तु परमात्मामें जो असली स्थिति है, वह सबकी एक ही होती है। साधक अपने-अपने सम्प्रदाय, पद्धति, ज्ञानके अनुसार मुक्त हो जाते हैं, फिर परमात्माकी तरफसे मुक्त होते हैं तो वहाँ सब के सब एक हो जाते हैं। वहाँ सम्प्रदायका भेद नहीं रहता । वह स्थिति हमारी स्वाभाविक है।....... पहले सबको अपनी अलग-अलग स्थिति दीखती है, पर वह बनावटी होती है। असली स्थिति सबकी एक होती है । परन्तु परमात्माके प्राप्त होनेपर ही यह भेद खुलता है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश २५-२६
आपके पास कुछ नहीं है, रोटी कहाँ मिलेगी - इसका भी पता नहीं, इससे जितनी उन्नति होगी, उतनी उन्नति रुपया पासमें ररखकर साधन करनेसे नहीं होगी। कारण कि रुपयोंका सहारा रहेगा ।......... जिनके भीतर यह भाव है कि रुपये जमा रखकर उनके ब्याजसे काम चलायेंगे, उनकी जल्दी उन्नति नहीं होगी। कारण कि भीतर रुपयोंका सहारा रहेगा, जो जल्दी उन्नति नहीं होने देगा। रुपयोंका सहारा रहेगा तो भगवान्में अनन्यभाव नहीं होगा।
||श्रीहरि:||
आपके पास कुछ नहीं है, रोटी कहाँ मिलेगी - इसका भी पता नहीं, इससे जितनी उन्नति होगी, उतनी उन्नति रुपया पासमें ररखकर साधन करनेसे नहीं होगी। कारण कि रुपयोंका सहारा रहेगा ।......... जिनके भीतर यह भाव है कि रुपये जमा रखकर उनके ब्याजसे काम चलायेंगे, उनकी जल्दी उन्नति नहीं होगी। कारण कि भीतर रुपयोंका सहारा रहेगा, जो जल्दी उन्नति नहीं होने देगा। रुपयोंका सहारा रहेगा तो भगवान्में अनन्यभाव नहीं होगा।- बन गये आप अकेले सब कुछ २९
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बन गये आप अकेले सब कुछ २९··
जबतक जड़तासे सम्बन्ध विच्छेद नहीं होता, तबतक परमात्मामें तल्लीनतासे होनेवाला सुख भी बाधक है; साधनकी ऊँची-से-ऊँची अवस्था होनेपर भी बन्धन रहेगा। इसलिये साधकमात्रको यह बात याद रखनी चाहिये कि किसीसे भी सम्बन्ध नहीं जोड़ना है। अगर वह अपना कल्याण चाहता है तो किसीके साथ भी बिलकुल सम्बन्ध न जोड़े। वास्तवमें न संसार बाधक है, न माया बाधक है, न अविद्या बाधक है, प्रत्युत सम्बन्ध ही बाधक है। किसीसे सम्बन्ध जोड़ना अपना पतन करना है। इसमें सन्देह नहीं है।
||श्रीहरि:||
जबतक जड़तासे सम्बन्ध विच्छेद नहीं होता, तबतक परमात्मामें तल्लीनतासे होनेवाला सुख भी बाधक है; साधनकी ऊँची-से-ऊँची अवस्था होनेपर भी बन्धन रहेगा। इसलिये साधकमात्रको यह बात याद रखनी चाहिये कि किसीसे भी सम्बन्ध नहीं जोड़ना है। अगर वह अपना कल्याण चाहता है तो किसीके साथ भी बिलकुल सम्बन्ध न जोड़े। वास्तवमें न संसार बाधक है, न माया बाधक है, न अविद्या बाधक है, प्रत्युत सम्बन्ध ही बाधक है। किसीसे सम्बन्ध जोड़ना अपना पतन करना है। इसमें सन्देह नहीं है।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ ३१
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ ३१··
साधकको चाहिये कि किसीके साथ सम्बन्ध न जोड़े। पहलेके जो सम्बन्ध हैं, वे भी टूटते नहीं, फिर नया सम्बन्ध क्यों जोड़ो ? संसारका सम्बन्ध ही बाधक है - यह बड़ी दुर्लभ बात है। अपना सम्बन्ध केवल भगवान् के साथ ही रखो, जिनके आप अंश हो।
||श्रीहरि:||
साधकको चाहिये कि किसीके साथ सम्बन्ध न जोड़े। पहलेके जो सम्बन्ध हैं, वे भी टूटते नहीं, फिर नया सम्बन्ध क्यों जोड़ो ? संसारका सम्बन्ध ही बाधक है - यह बड़ी दुर्लभ बात है। अपना सम्बन्ध केवल भगवान् के साथ ही रखो, जिनके आप अंश हो।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ ३८
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ ३८··
जबतक मनमें विकार आकाशकी लकीरकी तरह न हो जाय, तबतक साधकको अपने साधनमें भूलकर भी सन्तोष नहीं करना चाहिये। जबतक अन्तःकरणमें थोड़ा भी विकार हैं, तबतक भले ही कितनी ज्ञानकी बातें कर लो, तत्त्वज्ञान नहीं हुआ।
||श्रीहरि:||
जबतक मनमें विकार आकाशकी लकीरकी तरह न हो जाय, तबतक साधकको अपने साधनमें भूलकर भी सन्तोष नहीं करना चाहिये। जबतक अन्तःकरणमें थोड़ा भी विकार हैं, तबतक भले ही कितनी ज्ञानकी बातें कर लो, तत्त्वज्ञान नहीं हुआ।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ ५३
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ ५३··
साध्यकी प्राप्ति नहीं होती तो साधकपनेमें ही कमी है। मनमें विचार कर रखा है कि ऐसे जल्दी परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती। अरे, परमात्माकी प्राप्ति जल्दी नहीं होगी तो जल्दी क्या होगा ? अन्य कोई जल्दी होनेवाली चीज है ही नहीं।
||श्रीहरि:||
साध्यकी प्राप्ति नहीं होती तो साधकपनेमें ही कमी है। मनमें विचार कर रखा है कि ऐसे जल्दी परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती। अरे, परमात्माकी प्राप्ति जल्दी नहीं होगी तो जल्दी क्या होगा ? अन्य कोई जल्दी होनेवाली चीज है ही नहीं।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ ५४
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ ५४··
जो सच्चे हृदयसे भगवान्में लग जाता है, उसकी भगवान् सेवा करते हैं, दुनिया सेवा करती है । पशु-पक्षी भी उसकी सेवा करते हैं। उसपर भूत, भविष्य तथा वर्तमानमें होनेवाले सब- के-सब सन्त कृपा रखते हैं। काल उसके अनुकूल हो जाता है, समय अनुकूल हो जाता है, जनता अनुकूल हो जाती है। जड़-चेतन, स्थावर-जंगम सब उसके अनुकूल हो जाते हैं । पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश - ये पाँचों तत्त्व उसके अनुकूल हो जाते हैं।
||श्रीहरि:||
जो सच्चे हृदयसे भगवान्में लग जाता है, उसकी भगवान् सेवा करते हैं, दुनिया सेवा करती है । पशु-पक्षी भी उसकी सेवा करते हैं। उसपर भूत, भविष्य तथा वर्तमानमें होनेवाले सब- के-सब सन्त कृपा रखते हैं। काल उसके अनुकूल हो जाता है, समय अनुकूल हो जाता है, जनता अनुकूल हो जाती है। जड़-चेतन, स्थावर-जंगम सब उसके अनुकूल हो जाते हैं । पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश - ये पाँचों तत्त्व उसके अनुकूल हो जाते हैं।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ १६९
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ १६९··
सच्चे हृदयसे भगवान्में लगे हुएको अन्न-जल - वस्त्र आदिकी कमी नहीं रहती । उसको दूसरोंसे माँगना नहीं पड़ता। उसके लिये सब चीजें खुली हो जाती हैं, जबकि वह अपने पास रखता नहीं। दूसरोंके हृदयमें स्वतः - स्वाभाविक उसके प्रति उदारता पैदा होती है।
||श्रीहरि:||
सच्चे हृदयसे भगवान्में लगे हुएको अन्न-जल - वस्त्र आदिकी कमी नहीं रहती । उसको दूसरोंसे माँगना नहीं पड़ता। उसके लिये सब चीजें खुली हो जाती हैं, जबकि वह अपने पास रखता नहीं। दूसरोंके हृदयमें स्वतः - स्वाभाविक उसके प्रति उदारता पैदा होती है।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ १६९
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ १६९··
जो आदमी भगवान् के भजनमें लगा है, उसके लिये भोगोंमें आसक्त होनेकी और रुपयोंका लोभ करनेकी बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं है। आवश्यक वस्तु उसके पास अपने-आप आयेगी । हाँ, यह हो सकता है कि पहले ज्यादा आसक्ति करनेके कारण कुछ दिनोंके लिये आपको ज्यादा तंगी भोगनी पड़े, पर पीछे आपको इतनी वस्तुएँ मिलेंगी, जो कामना करनेवालोंको भी नहीं मिलतीं । रुपया चाहनेवालोंको जो रुपया नहीं मिलता, ऐसा रुपया मिलेगा । उल्टे आपको यह विचार होगा कि इन रुपयोंका करेंगे क्या।
||श्रीहरि:||
जो आदमी भगवान् के भजनमें लगा है, उसके लिये भोगोंमें आसक्त होनेकी और रुपयोंका लोभ करनेकी बिल्कुल भी आवश्यकता नहीं है। आवश्यक वस्तु उसके पास अपने-आप आयेगी । हाँ, यह हो सकता है कि पहले ज्यादा आसक्ति करनेके कारण कुछ दिनोंके लिये आपको ज्यादा तंगी भोगनी पड़े, पर पीछे आपको इतनी वस्तुएँ मिलेंगी, जो कामना करनेवालोंको भी नहीं मिलतीं । रुपया चाहनेवालोंको जो रुपया नहीं मिलता, ऐसा रुपया मिलेगा । उल्टे आपको यह विचार होगा कि इन रुपयोंका करेंगे क्या।- अनन्तकी ओर ५६
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अनन्तकी ओर ५६··
साधारण मनुष्य-समुदायमें प्रीति रुचि न हो अर्थात् कहाँ क्या हो रहा है, कब क्या होगा, कैसे होगा आदि-आदि सांसारिक बातोंको सुननेकी कोई भी इच्छा न हो तथा समाचार सुनानेवाले लोगोंसे मिलें, कुछ समाचार प्राप्त करें - ऐसी किंचिन्मात्र भी इच्छा, प्रीति न हो।
||श्रीहरि:||
साधारण मनुष्य-समुदायमें प्रीति रुचि न हो अर्थात् कहाँ क्या हो रहा है, कब क्या होगा, कैसे होगा आदि-आदि सांसारिक बातोंको सुननेकी कोई भी इच्छा न हो तथा समाचार सुनानेवाले लोगोंसे मिलें, कुछ समाचार प्राप्त करें - ऐसी किंचिन्मात्र भी इच्छा, प्रीति न हो।- साधक संजीवनी १३ । १०
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साधक संजीवनी १३ । १०··
यहाँतक देखा जाता है कि साधक भी सम्प्रदाय - विशेष और सन्त- विशेषमें अनुकूल-प्रतिकूल भावना करके राग-द्वेषके शिकार बन जाते हैं, जिससे वे संसार-समुद्रसे जल्दी पार नहीं हो पाते। तत्त्वको चाहनेवाले साधकके लिये साम्प्रदायिकताका पक्षपात बहुत बाधक है। सम्प्रदायका मोहपूर्वक आग्रह मनुष्यको बाँधता है।
||श्रीहरि:||
यहाँतक देखा जाता है कि साधक भी सम्प्रदाय - विशेष और सन्त- विशेषमें अनुकूल-प्रतिकूल भावना करके राग-द्वेषके शिकार बन जाते हैं, जिससे वे संसार-समुद्रसे जल्दी पार नहीं हो पाते। तत्त्वको चाहनेवाले साधकके लिये साम्प्रदायिकताका पक्षपात बहुत बाधक है। सम्प्रदायका मोहपूर्वक आग्रह मनुष्यको बाँधता है।- साधक संजीवनी १२/७
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साधक संजीवनी १२/७··
साधकको मत, वाद, सम्प्रदायके पचड़े में नहीं पड़ना चाहिये। अपने मतके अनुसार आचरण करो, पर दूसरेके मतकी निन्दा या खण्डन मत करो। निन्दा या या खण्डन करनेसे साधनमें बाधा लगेगी, कल्याण नहीं होगा।
||श्रीहरि:||
साधकको मत, वाद, सम्प्रदायके पचड़े में नहीं पड़ना चाहिये। अपने मतके अनुसार आचरण करो, पर दूसरेके मतकी निन्दा या खण्डन मत करो। निन्दा या या खण्डन करनेसे साधनमें बाधा लगेगी, कल्याण नहीं होगा।- स्वातिकी बूँदें २१
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स्वातिकी बूँदें २१··
दूसरोंकी निन्दा, तिरस्कार करनेवाला वास्तवमें अपने ही साधनमें बाधा लगाता है । संसारकी भी निन्दा न करे, प्रत्युत उसका त्याग ( सम्बन्ध-विच्छेद) करे।
||श्रीहरि:||
दूसरोंकी निन्दा, तिरस्कार करनेवाला वास्तवमें अपने ही साधनमें बाधा लगाता है । संसारकी भी निन्दा न करे, प्रत्युत उसका त्याग ( सम्बन्ध-विच्छेद) करे।- ज्ञानके दीप जले ११५
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ज्ञानके दीप जले ११५··
साधककी प्रसिद्धि होना बहुत बड़ा विघ्न है। अतः साधकको प्रसिद्धिसे बचना चाहिये।
||श्रीहरि:||
साधककी प्रसिद्धि होना बहुत बड़ा विघ्न है। अतः साधकको प्रसिद्धिसे बचना चाहिये।- स्वातिकी बूँदें १८९
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स्वातिकी बूँदें १८९··
मूलमें साधककी भूखकी कमी है। साधक ईश्वर, समय, भाग्य आदिकी कमी देखता है, अपनी कमी नहीं देखता और निराश हो जाता है। सच्ची भूख हो तो मार्ग अवश्य मिलता है, परमात्मा अवश्य मिलते हैं। अतः मेरा कल्याण कैसे हो इस भूखको बढ़ाओ । तभी उलझनें मिटेंगी।
||श्रीहरि:||
मूलमें साधककी भूखकी कमी है। साधक ईश्वर, समय, भाग्य आदिकी कमी देखता है, अपनी कमी नहीं देखता और निराश हो जाता है। सच्ची भूख हो तो मार्ग अवश्य मिलता है, परमात्मा अवश्य मिलते हैं। अतः मेरा कल्याण कैसे हो इस भूखको बढ़ाओ । तभी उलझनें मिटेंगी।- स्वातिकी बूँदें ३४
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स्वातिकी बूँदें ३४··
यदि काम-क्रोधादि अपनेमें दीखें तो साधकको विचार करना चाहिये कि पहले जितने काम- क्रोध आते थे, उतने ही अब भी आते हैं या कम हुए हैं। यदि काम-क्रोध आते हैं तो बढ़ जाते । यदि कम हुए हैं तो फिर वे आते नहीं हैं, प्रत्युत जाते हैं।
||श्रीहरि:||
यदि काम-क्रोधादि अपनेमें दीखें तो साधकको विचार करना चाहिये कि पहले जितने काम- क्रोध आते थे, उतने ही अब भी आते हैं या कम हुए हैं। यदि काम-क्रोध आते हैं तो बढ़ जाते । यदि कम हुए हैं तो फिर वे आते नहीं हैं, प्रत्युत जाते हैं।- स्वातिकी बूँदें १८५
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स्वातिकी बूँदें १८५··
सच्चा जिज्ञासु कहीं अटक नहीं सकता । अटक जाय तो सच्ची लगन नहीं है।
||श्रीहरि:||
सच्चा जिज्ञासु कहीं अटक नहीं सकता । अटक जाय तो सच्ची लगन नहीं है।- स्वातिकी बूँदें ६४
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स्वातिकी बूँदें ६४··
आप अपनी योग्यता, अधिकार, पात्रता आदिकी तरफ मत देखो। केवल भगवान्की कृपाकी तरफ ही देखो। मेरा मन ऐसा नहीं है, मेरी बुद्धि ऐसी नहीं है, मेरा विचार ऐसा नहीं है आदि बातोंको आप याद करते हो, तब भगवान्को भी ये बातें याद आती हैं। आप किसी बातकी तरफ मत देखो तो जल्दी काम बन जायगा; और काम बना, भगवान्ने दर्शन दिये तो उसके बाद सब अपने-आप ठीक हो जायगा । अतः केवल भगवान्की तरफ ही वृत्ति रहे। मैं कैसा हूँ – यह भूल ही जाय। आप भूल जाओ तो भगवान् भी भूल जायँगे।
||श्रीहरि:||
आप अपनी योग्यता, अधिकार, पात्रता आदिकी तरफ मत देखो। केवल भगवान्की कृपाकी तरफ ही देखो। मेरा मन ऐसा नहीं है, मेरी बुद्धि ऐसी नहीं है, मेरा विचार ऐसा नहीं है आदि बातोंको आप याद करते हो, तब भगवान्को भी ये बातें याद आती हैं। आप किसी बातकी तरफ मत देखो तो जल्दी काम बन जायगा; और काम बना, भगवान्ने दर्शन दिये तो उसके बाद सब अपने-आप ठीक हो जायगा । अतः केवल भगवान्की तरफ ही वृत्ति रहे। मैं कैसा हूँ – यह भूल ही जाय। आप भूल जाओ तो भगवान् भी भूल जायँगे।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १५८
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १५८··
पारमार्थिक साधन करनेवालोंका व्यवहार भी बड़ा शुद्ध होता है। कारण कि स्वार्थ और अभिमानसे रहित होनेपर व्यवहार अच्छा हो जाता है।
||श्रीहरि:||
पारमार्थिक साधन करनेवालोंका व्यवहार भी बड़ा शुद्ध होता है। कारण कि स्वार्थ और अभिमानसे रहित होनेपर व्यवहार अच्छा हो जाता है।- ज्ञानके दीप जले ७७
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ज्ञानके दीप जले ७७··
अपने-आपको भगवान्का माननेसे मनुष्य सब काम भगवान् के लिये ही करेगा। वह संसारका काम कर्तव्यरूपसे करेगा । उसका व्यवहार भी परमार्थ हो जायगा । परन्तु अपनेको संसारका माननेसे परमार्थका काम भी व्यवहारके लिये ( सकामभावसे) होगा।
||श्रीहरि:||
अपने-आपको भगवान्का माननेसे मनुष्य सब काम भगवान् के लिये ही करेगा। वह संसारका काम कर्तव्यरूपसे करेगा । उसका व्यवहार भी परमार्थ हो जायगा । परन्तु अपनेको संसारका माननेसे परमार्थका काम भी व्यवहारके लिये ( सकामभावसे) होगा।- ज्ञानके दीप जले ७४
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ज्ञानके दीप जले ७४··
परमात्मामें लगे हुएके द्वारा संसारका अहित नहीं होता और संसारमें लगे हुएको परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती। जो परमात्मप्राप्तिमें लग जाता है, उसके द्वारा संसारकी सेवा होती है, संसारका हित होता है, संसारको लाभ होता है, और अपना कल्याण तो होता ही है। दोनोंको लाभ होता है । परन्तु संसारमें लगनेसे अपनेको भी लाभ नहीं होता और संसारको भी लाभ नहीं होता।
||श्रीहरि:||
परमात्मामें लगे हुएके द्वारा संसारका अहित नहीं होता और संसारमें लगे हुएको परमात्मा की प्राप्ति नहीं होती। जो परमात्मप्राप्तिमें लग जाता है, उसके द्वारा संसारकी सेवा होती है, संसारका हित होता है, संसारको लाभ होता है, और अपना कल्याण तो होता ही है। दोनोंको लाभ होता है । परन्तु संसारमें लगनेसे अपनेको भी लाभ नहीं होता और संसारको भी लाभ नहीं होता।- मैं नहीं, मेरा नहीं १८१
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मैं नहीं, मेरा नहीं १८१··
साधकको विचार करना चाहिये कि अगर मेरे द्वारा किसीको लाभ नहीं हुआ, किसीका हित नहीं हुआ, किसीकी सेवा नहीं हुई तो मैं साधक क्या हुआ ?
||श्रीहरि:||
साधकको विचार करना चाहिये कि अगर मेरे द्वारा किसीको लाभ नहीं हुआ, किसीका हित नहीं हुआ, किसीकी सेवा नहीं हुई तो मैं साधक क्या हुआ ?- अमृत-बिन्दु ७१३
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अमृत-बिन्दु ७१३··
साधक उसीको कहते हैं, जो निरन्तर सावधान रहता है।
||श्रीहरि:||
साधक उसीको कहते हैं, जो निरन्तर सावधान रहता है।- साधक संजीवनी ३।९
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साधक संजीवनी ३।९··
जबतक अपने व्यक्तित्वका भान हो, तबतक साधकको सन्तोष नहीं करना चाहिये।
||श्रीहरि:||
जबतक अपने व्यक्तित्वका भान हो, तबतक साधकको सन्तोष नहीं करना चाहिये।- अमृत-बिन्दु ७१५
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अमृत-बिन्दु ७१५··
जो दूसरोंको दुःख पहुँचाता है, वह साधन नहीं कर सकता।
||श्रीहरि:||
जो दूसरोंको दुःख पहुँचाता है, वह साधन नहीं कर सकता।- मेरे तो गिरधर गोपाल ३४
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मेरे तो गिरधर गोपाल ३४··
मेरी किसी भी क्रियासे दूसरेको दुःख न पहुँचे- ऐसी सावधानी साधकको हर समय रखनी चाहिये। दूसरेको दुःख देनेसे वर्षोंतक साधन करनेपर भी शान्ति नहीं मिलती।
||श्रीहरि:||
मेरी किसी भी क्रियासे दूसरेको दुःख न पहुँचे- ऐसी सावधानी साधकको हर समय रखनी चाहिये। दूसरेको दुःख देनेसे वर्षोंतक साधन करनेपर भी शान्ति नहीं मिलती।- अमृत-बिन्दु ७२५
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अमृत-बिन्दु ७२५··
दूसरेको दुःख दोगे तो भजनमें मन नहीं लगेगा, और सुख दोगे तो भजनमें मन लगेगा। दूसरेको दुःख देनेसे हृदय कठोर होता है, और सुख देनेसे हृदय पिघलता है। पिघले हुए हृदयमें पारमार्थिक बातें जम जाती हैं।
||श्रीहरि:||
दूसरेको दुःख दोगे तो भजनमें मन नहीं लगेगा, और सुख दोगे तो भजनमें मन लगेगा। दूसरेको दुःख देनेसे हृदय कठोर होता है, और सुख देनेसे हृदय पिघलता है। पिघले हुए हृदयमें पारमार्थिक बातें जम जाती हैं।- सागरके मोती ६९
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सागरके मोती ६९··
साधक जितना जानता है, उतना मानकर उसका पालन करना आरम्भ कर दे तो आगेकी आवश्यक जानकारी उसको स्वतः प्राप्त हो जाती है।
||श्रीहरि:||
साधक जितना जानता है, उतना मानकर उसका पालन करना आरम्भ कर दे तो आगेकी आवश्यक जानकारी उसको स्वतः प्राप्त हो जाती है।- अमृत-बिन्दु ७२६
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अमृत-बिन्दु ७२६··
साधकको चाहिये कि वह 'क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये' – इसको शास्त्रपर रखे तथा 'क्या होना चाहिये और क्या नहीं होना चाहिये' – इसको भगवान्पर छोड़ दे।
||श्रीहरि:||
साधकको चाहिये कि वह 'क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये' – इसको शास्त्रपर रखे तथा 'क्या होना चाहिये और क्या नहीं होना चाहिये' – इसको भगवान्पर छोड़ दे।- अमृत-बिन्दु ७२८
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
अमृत-बिन्दु ७२८··
अपनेको कभी सिद्ध नहीं मानना चाहिये, प्रत्युत सदा साधक ही मानना चाहिये। सिद्ध मानने से धोखा ही होता है।
||श्रीहरि:||
अपनेको कभी सिद्ध नहीं मानना चाहिये, प्रत्युत सदा साधक ही मानना चाहिये। सिद्ध मानने से धोखा ही होता है।- अमृत-बिन्दु ७२९
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
अमृत-बिन्दु ७२९··
साधकका उद्देश्य बातें सीखनेका नहीं होना चाहिये, प्रत्युत अनुभव करनेका होना चाहिये। सीखे हुए ज्ञानसे वह विद्वान्, वक्ता, लेखक तो हो सकता है, पर तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त, भगवत्प्रेमी नहीं हो सकता।
||श्रीहरि:||
साधकका उद्देश्य बातें सीखनेका नहीं होना चाहिये, प्रत्युत अनुभव करनेका होना चाहिये। सीखे हुए ज्ञानसे वह विद्वान्, वक्ता, लेखक तो हो सकता है, पर तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त, भगवत्प्रेमी नहीं हो सकता।- अमृत-बिन्दु ७३३
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
अमृत-बिन्दु ७३३··
जो बात आचरणमें नहीं आयी, उसे सीखा है, समझा नहीं है। यदि समझमें आ जाय तो बेईमानी कैसे रहेगी ? वस्तुओंमें खिंचाव कैसे होगा ? हम समझते हैं - यह महान् बेसमझी है। सुनी हुई और सीखी हुई बात काममें नहीं आती। साँपको समझ लें तो क्या उसे पकड़ लेंगे ? समझ तभी मानी जायगी, जब संसारमें अपनापन छूट जाय। समझनेपर चाल बदल जाती है, अवस्था दूसरी हो जाती है।
||श्रीहरि:||
जो बात आचरणमें नहीं आयी, उसे सीखा है, समझा नहीं है। यदि समझमें आ जाय तो बेईमानी कैसे रहेगी ? वस्तुओंमें खिंचाव कैसे होगा ? हम समझते हैं - यह महान् बेसमझी है। सुनी हुई और सीखी हुई बात काममें नहीं आती। साँपको समझ लें तो क्या उसे पकड़ लेंगे ? समझ तभी मानी जायगी, जब संसारमें अपनापन छूट जाय। समझनेपर चाल बदल जाती है, अवस्था दूसरी हो जाती है।- स्वातिकी बूँदें १८०
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स्वातिकी बूँदें १८०··
मैं साधक हूँ'– यह यदि अभिमानको लेकर है तो बाधक है और यदि स्वाभिमान (कर्तव्य) - को लेकर है तो सहायक है। मैं साधक हूँ, दूसरा असाधक है - यह अभिमान है, और मैं साधनविरुद्ध कार्य कैसे कर सकता हूँ- यह स्वाभिमान है।
||श्रीहरि:||
मैं साधक हूँ'– यह यदि अभिमानको लेकर है तो बाधक है और यदि स्वाभिमान (कर्तव्य) - को लेकर है तो सहायक है। मैं साधक हूँ, दूसरा असाधक है - यह अभिमान है, और मैं साधनविरुद्ध कार्य कैसे कर सकता हूँ- यह स्वाभिमान है।- अमृत-बिन्दु ७३५
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अमृत-बिन्दु ७३५··
साधक वही होता है, जिसको भगवान्की जरूरत होती है कि भगवान् कैसे मिलें ? भगवान्की जरूरत होगी तो स्वाभाविक भगवान्की याद आयेगी। अगर भगवान्को याद करते हैं और संसारकी याद आती है तो हमारा खास सम्बन्ध संसारके साथ है, भगवान् के साथ नहीं। अगर भगवान्की याद करनी पड़ती है तो वह साधक क्या हुआ ? अगर स्वतः भगवान्की याद आती है तो वह साधक है। अगर भगवान्को याद करता है तो वह साधक नहीं, संसारी है।
||श्रीहरि:||
साधक वही होता है, जिसको भगवान्की जरूरत होती है कि भगवान् कैसे मिलें ? भगवान्की जरूरत होगी तो स्वाभाविक भगवान्की याद आयेगी। अगर भगवान्को याद करते हैं और संसारकी याद आती है तो हमारा खास सम्बन्ध संसारके साथ है, भगवान् के साथ नहीं। अगर भगवान्की याद करनी पड़ती है तो वह साधक क्या हुआ ? अगर स्वतः भगवान्की याद आती है तो वह साधक है। अगर भगवान्को याद करता है तो वह साधक नहीं, संसारी है।- मामेकं शरणं व्रज २८
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मामेकं शरणं व्रज २८··
आप सबसे कहना है कि कभी अपनी आध्यात्मिक स्थितिमें सन्तोष न करें, आगे बढ़ते ही चले जायँ । जीवन्मुक्ति हो जाय, तत्त्वज्ञान हो जाय, सातवीं भूमिका हो जाय तो भी सन्तोष न करें। ज्ञान, कर्म, भक्ति, किसी भी योगमें सन्तोष न करें। जबतक एक भी जीव बन्धनमें है, तबतक पूरा काम कैसे हुआ ?
||श्रीहरि:||
आप सबसे कहना है कि कभी अपनी आध्यात्मिक स्थितिमें सन्तोष न करें, आगे बढ़ते ही चले जायँ । जीवन्मुक्ति हो जाय, तत्त्वज्ञान हो जाय, सातवीं भूमिका हो जाय तो भी सन्तोष न करें। ज्ञान, कर्म, भक्ति, किसी भी योगमें सन्तोष न करें। जबतक एक भी जीव बन्धनमें है, तबतक पूरा काम कैसे हुआ ?- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १३८