Seeker of Truth

ऋण (कर्जा)

इस संसारमें ऋणानुबन्धसे अर्थात् किसीका ऋण चुकानेके लिये और किसीसे ऋण वसूल करने के लिये ही जीवका जन्म होता है। माता, पिता, स्त्री, पुत्र, भाई, मित्र, सेवक आदि सब लोग अपने अपने ऋणानुबन्धसे ही इस पृथ्वीपर जन्म लेकर हमें प्राप्त होते हैं। केवल मनुष्य ही नहीं, पशु-पक्षी भी ऋणानुबन्धसे ही प्राप्त होते हैं।

साधन-सुधा-सिन्धु ८२१··

प्रत्येक मनुष्यका जीवन निर्वाह दूसरोंके आश्रित है। अतः हरेक मनुष्यपर दूसरोंका ऋण है, जिसे उतारनेके लिये यथाशक्ति दूसरोंकी निःस्वार्थभावसे सेवा (हित) करना आवश्यक है। अपने कहलानेवाले शरीरादि सम्पूर्ण पदार्थोंको किंचिन्मात्र भी अपना और अपने लिये न माननेसे मनुष्य ऋणसे मुक्त हो जाता है।

साधक संजीवनी ३ । २० मा०··

संसारमें किसीका ऋण चुकानेके लिये और किसीसे ऋण वसूल करनेके लिये ही जन्म होता है; क्योंकि जीवने अनेक लोगोंसे लिया है और अनेक लोगोंको दिया है। लेन-देनका यह व्यवहार अनेक जन्मोंसे चला आ रहा है और इसको बंद किये बिना जन्म-मरणसे छुटकारा नहीं मिल सकता।

साधन-सुधा-सिन्धु ८२२··

पापी आदमीकी तो मुक्ति हो सकती है, पर ऋणी आदमीकी मुक्ति नहीं हो सकती। पापी आदमी अपने पापका प्रायश्चित्त कर लेगा अथवा उसका फल भोग लेगा तो वह पापसे मुक्त हो जायगा । परन्तु दूसरेसे ऋण लेनेवाले अथवा दूसरेका अपराध करनेवालेकी मुक्ति तभी होगी जब दूसरा उसे माफ कर दे।

साधन-सुधा-सिन्धु १७९··

ऋणी और अपराधीकी जल्दी मुक्ति नहीं होती। फल भोगसे अथवा दान-पुण्यादि शुभकर्मोंसे पाप तो नष्ट हो जाते हैं, पर ऋण और अपराध नष्ट नहीं होते। जिस व्यक्तिसे ऋण लिया है अथवा जिस व्यक्तिका अपराध किया है, वे माफ कर दें तभी ऋण और अपराधसे मुक्ति होती है। मूलमें संसारको अपना माननेसे ही मनुष्य ऋणी, गुलाम, अनाथ, तुच्छ तथा पतित होता है। जो संसारमें कुछ भी अपना नहीं मानता, वह किसीका ऋणी और अपराधी बनता ही नहीं; क्योंकि जब आधार ही नहीं रहेगा तो फिर ऋण, अपराध आदि कहाँ टिकेंगे - 'मूलाभावे कुतः शाखा' ?

साधन-सुधा-सिन्धु ३८०-३८१··

जबतक हम संसारके ऋणी रहेंगे तबतक हमारी मुक्ति नहीं होगी। जिनसे हमने सेवा ली है और जो हमारेसे सेवा चाहते हैं, उनकी निष्कामभावसे सेवा कर दें तो हम उऋण हो जायँगे।

साधन-सुधा-सिन्धु १७९··

जिस-किसीका भी कर्जा हो, जल्दी-जल्दी चुका दो। देरी मत करो। अभी चुकाओगे तो थोड़े में ही चुक जायगा, देरी करोगे तो बड़ी मुश्किल होगी ।

अनन्तकी ओर ४··

कर्जदार व्यक्तिको दान-पुण्य करनेका अधिकार नहीं है। इसलिये पहले कर्जा चुकाना चाहिये । हाँ, यदि दान-पुण्य करना ही हो तो अपने रोटी कपड़ेके खर्चेमेंसे निकालकर करना चाहिये ।

प्रश्नोत्तरमणिमाला १०२··

व्यापारमें इतना ध्यान रखो कि कभी घाटा लगे तो कर्जा न हो। इतना खर्च नहीं करना चाहिये, जिससे सिरपर कर्जा हो जाय। कर्जा बहुत खराब चीज है। रूखी रोटी खा ले, पर कर्जा मत करे। इससे जीवन सुखी रहेगा। परन्तु कर्जा करनेवाला दुःखी होगा ही ।

अनन्तकी ओर ५२··

दहेज लेनेकी जो इच्छा है, वह नरकोंमें ले जानेवाली है। पुराने जमानेमें दहेजमें बेटेके ससुरालसे आया हुआ धन बाहर ही वितरित कर दिया करते थे, अपने घरमें नहीं रखते थे और 'दूसरोंकी कन्या दानमें ली है' इसके लिये प्रायश्चित्त-रूपसे यज्ञ, दान, ब्राह्मण भोजन आदि किया करते थे। कारण कि दूसरोंकी कन्या दानमें लेना बड़ा भारी कर्जा (ऋण) है।

साधन-सुधा-सिन्धु ९५२··

अगर साधुने पहले गृहस्थाश्रममें किसीसे कर्जा लिया हो तो उसको पहले कर्जा चुकाकर ही साधु बनना चाहिये। हाँ, अगर वह सच्चे हृदयसे साधु बन गया है तो भगवान् कर्जा चुकायेंगे । परन्तु कोई सच्चे भावसे साधु नहीं बने, साधु बनकर भी साधुपना नहीं रखे तो उसको ज्यादा दण्ड होगा । कर्जा लेनेका भी दण्ड होगा और साधुपना न रखनेका भी दण्ड होगा ।

बन गये आप अकेले सब कुछ १८६··

लेनेसे ऋण चढ़ता है और देनेसे ऋण उतरता है।

स्वातिकी बूँदें ७२··

दूसरेकी वस्तु, प्रतिग्रह लेनेसे कर्जा चढ़ता है, परमात्मप्राप्तिमें देरी होती है।

स्वातिकी बूँदें १६९··

माँका ऋण उतार नहीं सकते। माँके चरणोंमें प्रातः सायं प्रणाम करें और उसके हाथका बना भोजन करें तो वह प्रसन्न हो जायगी। प्रसन्न होनेसे ऋण माफ हो जाता है।

सत्संगके फूल १८२··

माँका ऋण सबसे बड़ा होता है। परन्तु पुत्र भगवान्‌का भक्त हो जाय तो माँका ऋण नहीं रहता और माँका कल्याण भी हो जाता है।

साधन-सुधा-सिन्धु ७३८··

हमारे जितने भी सांसारिक सम्बन्धी - माता-पिता, स्त्री-पुत्र, भाई- भौजाई आदि हैं, उन सबकी हमें सेवा करनी है। अपना सुख लेनेके लिये ये सम्बन्ध नहीं हैं। हमारा जिनसे जैसा सम्बन्ध है, उसीके अनुसार उनकी सेवा करना, मर्यादाके अनुसार उन्हें सुख पहुँचाना हमारा कर्तव्य है। उनसे कोई आशा रखना और उनपर अपना अधिकार मानना बहुत बड़ी भूल है। हम उनके ऋणी हैं और ऋण उतारनेके लिये उनके यहाँ हमारा जन्म हुआ है। अतः निःस्वार्थभावसे उन सम्बन्धियोंकी सेवा करके हम अपना ऋण चुका दें- यह हमारा सर्वप्रथम आवश्यक कर्तव्य है।

साधक संजीवनी ३ । ११··

देवता, ऋषि, पितर, पशु-पक्षी, वृक्ष-लता आदि सभीका स्वभाव ही परोपकार करनेका है। मनुष्य सदा इनसे सहयोग पानेके कारण इनका ऋणी है। इस ऋणसे मुक्त होनेके लिये ही पंचमहायज्ञ- (ऋषियज्ञ, देवयज्ञ, भूतयज्ञ, पितृयज्ञ और मनुष्ययज्ञ ) का विधान है।

साधक संजीवनी ३ । १२ वि०··

संसारसे प्राप्त सामग्री ( शरीरादि) से हमने अभीतक अपने लिये ही कर्म किये हैं । उसको अपने ही सुखभोग और संग्रहमें लगाया है। इसलिये संसारका हमारेपर ऋण है, जिसे उतारनेके लिये केवल संसारके हितके लिये कर्म करना आवश्यक है। अपने लिये (फलकी कामना रखकर ) कर्म करनेसे पुराना ऋण तो समाप्त होता नहीं, नया ऋण और उत्पन्न हो जाता है। ऋणसे मुक्त होनेके लिये बार-बार संसारमें आना पड़ता है। केवल दूसरोंके हितके लिये सब कर्म करनेसे पुराना ऋण समाप्त हो जाता है और अपने लिये कुछ न करने तथा कुछ न चाहनेसे नया ऋण उत्पन्न नहीं होता। इस तरह जब पुराना ॠण समाप्त हो जाता है और नया ऋण उत्पन्न नहीं होता, तब बन्धनका कोई कारण न रहनेसे मनुष्य स्वतः मुक्त हो जाता है।

साधक संजीवनी ३ । १९··

जीवका जन्म कर्मोंके अनुबन्धसे होता है। जैसे, जिस परिवारमें जन्म लिया है, उस परिवारके लोगोंसे ऋणानुबन्ध है अर्थात् किसीका ऋण चुकाना है और किसीसे ऋण वसूल करना है। कारण कि अनेक जन्मोंमें अनेक लोगोंसे लिया है और अनेक लोगोंको दिया है। यह लेन- देनका व्यवहार अनेक जन्मोंसे चला आ रहा है। इसको बंद किये बिना जन्म-मरणसे छुटकारा नहीं मिल सकता। इसको बंद करनेका उपाय है-आगेसे लेना बंद कर दें अर्थात् अपने अधिकारका त्याग कर दें और हमारेपर जिनका अधिकार है, उनकी सेवा करनी आरम्भ कर दें। इस प्रकार नया ऋण लें नहीं और पुराना ऋण (दूसरोंके लिये कर्म करके) चुका दें, तो ऋणानुबन्ध (लेन- देनका व्यवहार) समाप्त हो जायगा अर्थात् जन्म-मरण बन्द हो जायगा ।

साधक संजीवनी ४। १८··

जीव साक्षात् परमात्माका अंश है—'ममैवांशो जीवलोके' (गीता १५ । ७) । यदि वह केवल अपने अंशी परमात्माकी ही तरफ चलता है तो उसपर देव, ऋषि, प्राणी, माता-पिता आदि आप्तजन और दादा परदादा आदि पितरोंका भी कोई ऋण नहीं रहता।

साधक संजीवनी १८ । ५८··

भोगी व्यक्ति तो कइयोंका ऋणी होता है, पर योगी किसीका भी ऋणी नहीं होता।

अमृत-बिन्दु ५६९··

भक्तिसे, तत्त्वज्ञान होनेसे और कर्मयोगसे तीनोंसे मनुष्यपर कोई ऋण नहीं रहता। तीनों ऋणमुक्त हो जाते हैं।

ज्ञानके दीप जले १८२··

दूसरेका हित करनेका तात्पर्य है— ऋण चुकाना । (सत्संगके० ५८ ) २४. प्रतिकूलतामें हमारा कर्जा उतरता है, पाप फल भुगताकर नष्ट होता है ।

सागरके मोती १४०··

संसारका सम्बन्ध 'ऋणानुबन्ध' है। इस ऋणानुबन्धसे मुक्त होनेका उपाय है-सबकी सेवा करना और किसीसे कुछ न चाहना।

अमृत-बिन्दु ८३५··

जीव साक्षात् परमात्माका अंश है (गीता १५ । ७) । यदि वह केवल अपने अंशी परमात्माकी ही तरफ चलता है तो उसपर देव, ऋषि, प्राणी, माता-पिता आदि आप्तजन और दादा परदादा आदि पितरोंका भी कोई ऋण नहीं रहता; क्योंकि शुद्ध चेतन अंशने इनसे कभी कुछ लिया ही नहीं।2

साधक संजीवनी १८।५८··