प्रेम - रासलीला
रास है - रसका समूह, रसबाहुल्य अर्थात् प्रतिक्षण वर्धमान रस । सांसारिक सुखका तो ह्रास होता है और अपना पतन तथा भोग्य वस्तुका नाश होता है, पर प्रेममें ऐसा नहीं है। प्रेममें ह्रास अथवा नाश नहीं होता, प्रत्युत वृद्धि होती है। उस वृद्धिका नाम 'रास' है। प्यास बुझती नहीं, पेट भरता नहीं, जल घटता नहीं।
श्रीजीकी मात्र चेष्टा भगवान्को प्रसन्न करनेकी और भगवान्की मात्र चेष्टा श्रीजीको प्रसन्न करने की होती है। इसका नाम 'रासलीला' है। रास अर्थात् प्रेमके रसका समूह 'रासलीला' है।
रासलीलामें जो शरीर थे, वे हमारे शरीर जैसे गुणोंवाले नहीं थे, प्रत्युत भगवान्के शरीर-जैसे तीनों गुणोंसे रहित अर्थात् दिव्यातिदिव्य थे।
भगवान् एकसे अनेक किसलिये हुए ? केवल प्रेमके लिये। एक भगवान् कृष्ण ही राधा और कृष्णरूपसे दो किसलिये बने ? केवल प्रेमके लिये नहीं तो एकसे दो होनेकी क्या आवश्यकता थी ?
जैसे, प्रेमकी वृद्धिके लिये भगवान् राधा और कृष्ण हो गये। राधा - कृष्णका प्रेम स्त्री- पुरुषका प्रेम (काम) नहीं है। इसलिये रासलीलाके समय गोपियोंने अपने-आपको सजाया नहीं, प्रत्युत जैसी थीं, वैसी ही चली गयीं। वे शृंगार करके कृष्णके पास गयी हों - यह कहीं नहीं आता । प्रेम और काममें यह कितना फर्क है।
राधा - कृष्णको मनुष्योंकी तरह स्त्री - पुरुष नहीं समझना चाहिये। राधाजी प्रेमस्वरूपा हैं। इसलिये जहाँ प्रेम होता है, वहाँ भगवान् स्वतः आते हैं, उनको आना पड़ता है। जिनके हृदयमें राधाजीके प्रति पूज्यभाव है, प्रेमभाव है, वहाँ भगवान् अपने-आप आते हैं । भगवान् भक्तोंके वशमें हैं। भक्तोंके जो प्रेमी होते हैं, वे भगवान्के असली प्रेमी होते हैं । भगवान्के प्रेमी भक्तोंसे आप प्रेम करो तो भगवान्में स्वाभाविक प्रेम होगा।
श्रीजीका रागात्मिका प्रेम सभी प्राणियोंको प्राप्त हो सकता है।
भगवान्में अनन्यप्रेमका नाम राधातत्त्व है। जबतक संसारमें आकर्षण रहता है, तबतक राधातत्त्व अनुभवमें नहीं आता।