प्रेम सम्पूर्ण साधनोंका अन्तिम फल अर्थात् साध्य है। प्रत्येक साधकको अपने-अपने साधनके द्वारा इसी साध्यकी प्राप्ति करनी है।
||श्रीहरि:||
प्रेम सम्पूर्ण साधनोंका अन्तिम फल अर्थात् साध्य है। प्रत्येक साधकको अपने-अपने साधनके द्वारा इसी साध्यकी प्राप्ति करनी है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये १३१
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
मानवमात्रके कल्याणके लिये १३१··
प्रेम मुक्ति, तत्त्वज्ञान, स्वरूप-बोध, आत्मसाक्षात्कार, कैवल्यसे भी आगेकी चीज है।
||श्रीहरि:||
प्रेम मुक्ति, तत्त्वज्ञान, स्वरूप-बोध, आत्मसाक्षात्कार, कैवल्यसे भी आगेकी चीज है।- साधक संजीवनी १२ । २ परि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी १२ । २ परि०··
सम्पूर्ण जीव परमात्माके अंश हैं, इसलिये प्रेमकी इच्छा सम्पूर्ण जीवोंकी अन्तिम तथा सार्वभौम इच्छा है। मुक्ति तो साधन है, पर प्रेम साध्य है। जैसे समुद्रसे सूर्य किरणोंके द्वारा जल उठता है तो उसकी यात्रा तबतक पूरी नहीं होती, जबतक वह समुद्रमें मिल नहीं जाता, ऐसे ही परमात्माका अंश जीवात्मा जबतक परम प्रेमकी प्राप्ति नहीं कर लेता, तबतक उसकी यात्रा पूरी नहीं होती । परम प्रेमका उदय होनेपर मनुष्यजीवन पूर्ण हो जाता है, फिर कुछ बाकी नहीं रहता।
||श्रीहरि:||
सम्पूर्ण जीव परमात्माके अंश हैं, इसलिये प्रेमकी इच्छा सम्पूर्ण जीवोंकी अन्तिम तथा सार्वभौम इच्छा है। मुक्ति तो साधन है, पर प्रेम साध्य है। जैसे समुद्रसे सूर्य किरणोंके द्वारा जल उठता है तो उसकी यात्रा तबतक पूरी नहीं होती, जबतक वह समुद्रमें मिल नहीं जाता, ऐसे ही परमात्माका अंश जीवात्मा जबतक परम प्रेमकी प्राप्ति नहीं कर लेता, तबतक उसकी यात्रा पूरी नहीं होती । परम प्रेमका उदय होनेपर मनुष्यजीवन पूर्ण हो जाता है, फिर कुछ बाकी नहीं रहता।- मानवमात्रके कल्याणके लिये २९
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
मानवमात्रके कल्याणके लिये २९··
एक प्रेम होता है, एक आसक्ति होती है। प्रेम उद्धार करनेवाला है, आसक्ति पतन करनेवाली है । परन्तु प्रेम जल्दी समझमें नहीं आता। लोग स्त्री-पुरुषमें प्रेम मानते हैं, पर वह महान् आसक्ति है, प्रेम नहीं है। उसमें प्रेमका नामोनिशान ही नहीं है। प्रेममें देना ही देना होता है और आसक्तिमें लेना ही लेना होता है। आसक्ति अपने सुखके लिये होती है।
||श्रीहरि:||
एक प्रेम होता है, एक आसक्ति होती है। प्रेम उद्धार करनेवाला है, आसक्ति पतन करनेवाली है । परन्तु प्रेम जल्दी समझमें नहीं आता। लोग स्त्री-पुरुषमें प्रेम मानते हैं, पर वह महान् आसक्ति है, प्रेम नहीं है। उसमें प्रेमका नामोनिशान ही नहीं है। प्रेममें देना ही देना होता है और आसक्तिमें लेना ही लेना होता है। आसक्ति अपने सुखके लिये होती है।- अनन्तकी ओर १००
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
अनन्तकी ओर १००··
वास्तवमें मनुष्यशरीर कर्मयोनि अथवा भोगयोनि नहीं है, प्रत्युत साधनयोनि अथवा प्रेमयोनि है; क्योंकि भगवान्ने मनुष्यको प्रेमके लिये ही बनाया है- 'एकाकी न रमते ' । इसलिये प्रेमकी प्राप्ति मनुष्यजन्ममें ही हो सकती है। सम्पूर्ण योनियोंमें एक मनुष्य ही ऐसा है, जो भगवान्को अपना मान सकता है, भगवान् से कह सकता है कि मैं तेरा हूँ, तू मेरा है अथवा केवल तू ही तू है।
||श्रीहरि:||
वास्तवमें मनुष्यशरीर कर्मयोनि अथवा भोगयोनि नहीं है, प्रत्युत साधनयोनि अथवा प्रेमयोनि है; क्योंकि भगवान्ने मनुष्यको प्रेमके लिये ही बनाया है- 'एकाकी न रमते ' । इसलिये प्रेमकी प्राप्ति मनुष्यजन्ममें ही हो सकती है। सम्पूर्ण योनियोंमें एक मनुष्य ही ऐसा है, जो भगवान्को अपना मान सकता है, भगवान् से कह सकता है कि मैं तेरा हूँ, तू मेरा है अथवा केवल तू ही तू है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये १८०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
मानवमात्रके कल्याणके लिये १८०··
शुद्ध स्वरूपमें अपने अंशी परमात्माकी ओर स्वतः एक आकर्षण या रुचि विद्यमान रहती है, जिसको 'प्रेम' कहते हैं। जब वह संसारके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है, तब वह 'प्रेम' दब जाता है और 'काम' उत्पन्न हो जाता है। जबतक 'काम' रहता है, तबतक 'प्रेम' जाग्रत् नहीं होता। जबतक 'प्रेम' जाग्रत् नहीं होता, तबतक 'काम' का सर्वथा नाश नहीं होता।
||श्रीहरि:||
शुद्ध स्वरूपमें अपने अंशी परमात्माकी ओर स्वतः एक आकर्षण या रुचि विद्यमान रहती है, जिसको 'प्रेम' कहते हैं। जब वह संसारके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है, तब वह 'प्रेम' दब जाता है और 'काम' उत्पन्न हो जाता है। जबतक 'काम' रहता है, तबतक 'प्रेम' जाग्रत् नहीं होता। जबतक 'प्रेम' जाग्रत् नहीं होता, तबतक 'काम' का सर्वथा नाश नहीं होता।- साधक संजीवनी ३ । ४२ मा०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ३ । ४२ मा०··
किसीको अपना माननेके लिये उसे देखनेकी जरूरत नहीं है, प्रत्युत अपना स्वीकार करने की जरूरत है। हम प्रतिदिन अनेक मनुष्योंको देखते हैं तो क्या उन सबसे अपनेपनका सम्बन्ध हो जाता है? उन सबसे मित्रता हो जाती है ? प्रेम हो जाता है? जिसको अपना स्वीकार करते हैं, उसीसे प्रेम होता है।
||श्रीहरि:||
किसीको अपना माननेके लिये उसे देखनेकी जरूरत नहीं है, प्रत्युत अपना स्वीकार करने की जरूरत है। हम प्रतिदिन अनेक मनुष्योंको देखते हैं तो क्या उन सबसे अपनेपनका सम्बन्ध हो जाता है? उन सबसे मित्रता हो जाती है ? प्रेम हो जाता है? जिसको अपना स्वीकार करते हैं, उसीसे प्रेम होता है।- सागरके मोती
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सागरके मोती··
साधक जिसको अपना मान लेता है, उसमें उसकी प्रियता स्वतः हो जाती है । परन्तु वास्तविक अपनापन उस वस्तुमें होता है, जिसमें ये चार बातें हों - १. जिससे हमारी सधर्मता अर्थात् स्वरूपगत एकता हो । २. जिसके साथ हमारा सम्बन्ध नित्य रहनेवाला हो। ३. जिससे हम कभी कुछ न चाहें। ४. हमारे पास जो कुछ है, वह सब जिसको समर्पित कर दें। ये चारों बातें भगवान्में ही लग सकती हैं।
||श्रीहरि:||
साधक जिसको अपना मान लेता है, उसमें उसकी प्रियता स्वतः हो जाती है । परन्तु वास्तविक अपनापन उस वस्तुमें होता है, जिसमें ये चार बातें हों - १. जिससे हमारी सधर्मता अर्थात् स्वरूपगत एकता हो । २. जिसके साथ हमारा सम्बन्ध नित्य रहनेवाला हो। ३. जिससे हम कभी कुछ न चाहें। ४. हमारे पास जो कुछ है, वह सब जिसको समर्पित कर दें। ये चारों बातें भगवान्में ही लग सकती हैं।- साधक संजीवनी २। ३० परि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी २। ३० परि०··
भगवान् को अपना मान लो तो जरूर प्रेम हो जायगा; क्योंकि 'प्रेम' भजन, ध्यान, जप, त्याग, तपस्या आदिसे नहीं होता, प्रत्युत अपनेपनसे होता है। अपनी फटी जूती, फटा कपड़ा भी अच्छा लगता है। माँको काला कलूटा बालक भी अपना अच्छा लगता है।
||श्रीहरि:||
भगवान् को अपना मान लो तो जरूर प्रेम हो जायगा; क्योंकि 'प्रेम' भजन, ध्यान, जप, त्याग, तपस्या आदिसे नहीं होता, प्रत्युत अपनेपनसे होता है। अपनी फटी जूती, फटा कपड़ा भी अच्छा लगता है। माँको काला कलूटा बालक भी अपना अच्छा लगता है।- अनन्तकी ओर १०४
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
अनन्तकी ओर १०४··
भगवान्के साथ सम्बन्ध केवल प्रेमकी प्राप्तिके लिये ही होना चाहिये । प्रेम प्राप्त करनेका एकमात्र उपाय है - भगवान्में अपनापन।
||श्रीहरि:||
भगवान्के साथ सम्बन्ध केवल प्रेमकी प्राप्तिके लिये ही होना चाहिये । प्रेम प्राप्त करनेका एकमात्र उपाय है - भगवान्में अपनापन।- मानवमात्रके कल्याणके लिये ५१
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
मानवमात्रके कल्याणके लिये ५१··
विश्वास और प्रेम-दोनोंमें कोई एक भी हो जाय तो दोनों स्वतः हो जायँगे। विश्वास दृढ़ हो जाय तो प्रेम अपने-आप हो जायगा । अगर प्रेम नहीं होता तो समझना चाहिये कि विश्वासमें कमी है अर्थात् साध्य ( परमात्मा ) के विश्वासके साथ संसारका विश्वास भी है।
||श्रीहरि:||
विश्वास और प्रेम-दोनोंमें कोई एक भी हो जाय तो दोनों स्वतः हो जायँगे। विश्वास दृढ़ हो जाय तो प्रेम अपने-आप हो जायगा । अगर प्रेम नहीं होता तो समझना चाहिये कि विश्वासमें कमी है अर्थात् साध्य ( परमात्मा ) के विश्वासके साथ संसारका विश्वास भी है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये १०६ - १०७
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
मानवमात्रके कल्याणके लिये १०६ - १०७··
प्रेमकी प्राप्ति होनेपर 'सब कुछ भगवान् ही हैं' – ऐसे भगवान् के समग्ररूपका साक्षात् अनुभव हो जाता है।
||श्रीहरि:||
प्रेमकी प्राप्ति होनेपर 'सब कुछ भगवान् ही हैं' – ऐसे भगवान् के समग्ररूपका साक्षात् अनुभव हो जाता है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये १३१
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
मानवमात्रके कल्याणके लिये १३१··
जिनमें मुक्तिकी इच्छा है और जो मुक्तिको ही सर्वोपरि मानते हैं, ऐसे साधक प्रेम ( भक्ति) - की प्राप्ति तो दूर रही, प्रेमकी बातको भी समझ नहीं सकते।
||श्रीहरि:||
जिनमें मुक्तिकी इच्छा है और जो मुक्तिको ही सर्वोपरि मानते हैं, ऐसे साधक प्रेम ( भक्ति) - की प्राप्ति तो दूर रही, प्रेमकी बातको भी समझ नहीं सकते।- सत्संग-मुक्ताहार ५५
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सत्संग-मुक्ताहार ५५··
प्रेमकी बातको वही समझ सकता है, जिसके भीतर भक्तिके संस्कार हैं, भगवान्पर दृढ़ विश्वास है, भगवान्की कृपाका आश्रय है और जो भक्ति, भक्त और भगवान्का तिरस्कार नहीं करता, ऐसा साधक अगर मुक्त हो जाय तो उसको मुक्तिमें सन्तोष नहीं होता । अतः भगवान् कृपापूर्वक उसके मुक्तिके अखण्डरसको फीका करके प्रेमका अनन्तरस प्रदान कर देते हैं। अगर वह पहले से ही भगवान्पर दृढ़ विश्वास करके अपनापन कर ले तो भगवान् कृपापूर्वक उसको मुक्ति और भक्ति (प्रेम) - दोनों प्रदान कर देते हैं।
||श्रीहरि:||
प्रेमकी बातको वही समझ सकता है, जिसके भीतर भक्तिके संस्कार हैं, भगवान्पर दृढ़ विश्वास है, भगवान्की कृपाका आश्रय है और जो भक्ति, भक्त और भगवान्का तिरस्कार नहीं करता, ऐसा साधक अगर मुक्त हो जाय तो उसको मुक्तिमें सन्तोष नहीं होता । अतः भगवान् कृपापूर्वक उसके मुक्तिके अखण्डरसको फीका करके प्रेमका अनन्तरस प्रदान कर देते हैं। अगर वह पहले से ही भगवान्पर दृढ़ विश्वास करके अपनापन कर ले तो भगवान् कृपापूर्वक उसको मुक्ति और भक्ति (प्रेम) - दोनों प्रदान कर देते हैं।- सत्संग-मुक्ताहार ५६
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सत्संग-मुक्ताहार ५६··
प्रेमकी भूख भगवान्में भी है- 'एकाकी न रमते । प्रेम भगवान्को भी तृप्त करनेवाला है। इसलिये प्रेम सबसे ऊँची चीज है । प्रेमसे आगे कुछ नहीं है।
||श्रीहरि:||
प्रेमकी भूख भगवान्में भी है- 'एकाकी न रमते । प्रेम भगवान्को भी तृप्त करनेवाला है। इसलिये प्रेम सबसे ऊँची चीज है । प्रेमसे आगे कुछ नहीं है।- सत्यकी खोज १५
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सत्यकी खोज १५··
भगवान्के सिवाय दूसरेको अपना माननेसे ही प्रेम प्रकट नहीं हो रहा है; क्योंकि अनन्यता नहीं हुई।
||श्रीहरि:||
भगवान्के सिवाय दूसरेको अपना माननेसे ही प्रेम प्रकट नहीं हो रहा है; क्योंकि अनन्यता नहीं हुई।- सत्यकी खोज ३७
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सत्यकी खोज ३७··
प्रेम तो जीवमात्रमें पहलेसे ही विद्यमान है, पर संसारमें राग होनेके कारण वह प्रेम प्रकट नहीं होता । सत्संगसे जितना राग मिटता है, उतना ही प्रेम प्रकट होता है और जितना प्रेम प्रकट होता है, उतना ही राग मिटता है।
||श्रीहरि:||
प्रेम तो जीवमात्रमें पहलेसे ही विद्यमान है, पर संसारमें राग होनेके कारण वह प्रेम प्रकट नहीं होता । सत्संगसे जितना राग मिटता है, उतना ही प्रेम प्रकट होता है और जितना प्रेम प्रकट होता है, उतना ही राग मिटता है।- प्रश्नोत्तरमणिमाला १६०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
प्रश्नोत्तरमणिमाला १६०··
जिसके भीतर किंचिन्मात्र भी अपने सुखकी आसक्ति है, वह प्रेम-तत्त्वको नहीं समझ सकता।
||श्रीहरि:||
जिसके भीतर किंचिन्मात्र भी अपने सुखकी आसक्ति है, वह प्रेम-तत्त्वको नहीं समझ सकता।- प्रश्नोत्तरमणिमाला १६१
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
प्रश्नोत्तरमणिमाला १६१··
प्रेमी भक्तको ज्ञानकी आवश्यकता रहती ही नहीं; क्योंकि प्रेममें कोरा ज्ञान ही ज्ञान है। एक प्रेमास्पद (परमात्मा) - के सिवाय और कुछ है ही नहीं - यही वास्तविक ज्ञान है।
||श्रीहरि:||
प्रेमी भक्तको ज्ञानकी आवश्यकता रहती ही नहीं; क्योंकि प्रेममें कोरा ज्ञान ही ज्ञान है। एक प्रेमास्पद (परमात्मा) - के सिवाय और कुछ है ही नहीं - यही वास्तविक ज्ञान है।- प्रश्नोत्तरमणिमाला १७३
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
प्रश्नोत्तरमणिमाला १७३··
जबतक अपनेमें थोड़ा भी संसारका आकर्षण है, तबतक प्रेम प्राप्त नहीं हुआ है; क्योंकि प्रेमकी जगह कामने ले ली। प्रेम प्राप्त होनेपर संसारमें किंचिन्मात्र भी आकर्षण नहीं रहता।
||श्रीहरि:||
जबतक अपनेमें थोड़ा भी संसारका आकर्षण है, तबतक प्रेम प्राप्त नहीं हुआ है; क्योंकि प्रेमकी जगह कामने ले ली। प्रेम प्राप्त होनेपर संसारमें किंचिन्मात्र भी आकर्षण नहीं रहता।- मेरे तो गिरधर गोपाल ११२
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
मेरे तो गिरधर गोपाल ११२··
जैसे सांसारिक दृष्टिसे लोभरूप आकर्षणके बिना धनका विशेष महत्त्व नहीं है, ऐसे ही प्रेमके बिना ज्ञानका विशेष महत्त्व नहीं है, उसमें शून्यवाद आ सकता है।
||श्रीहरि:||
जैसे सांसारिक दृष्टिसे लोभरूप आकर्षणके बिना धनका विशेष महत्त्व नहीं है, ऐसे ही प्रेमके बिना ज्ञानका विशेष महत्त्व नहीं है, उसमें शून्यवाद आ सकता है।- अमृत-बिन्दु ३१५
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
अमृत-बिन्दु ३१५··
बोधके बिना प्रेम आसक्ति है अर्थात् संसारका बोध नहीं है, संसारको सच्चा मानते हैं और संसारकी तरफ खिंचाव है तो यह 'आसक्ति' है। प्रेमके बिना बोध शून्य है अर्थात् संसारका अभाव करते- करते अन्तमें 'शून्य' (अभाव) ही शेष रह जाता है।
||श्रीहरि:||
बोधके बिना प्रेम आसक्ति है अर्थात् संसारका बोध नहीं है, संसारको सच्चा मानते हैं और संसारकी तरफ खिंचाव है तो यह 'आसक्ति' है। प्रेमके बिना बोध शून्य है अर्थात् संसारका अभाव करते- करते अन्तमें 'शून्य' (अभाव) ही शेष रह जाता है।- रहस्यमयी वार्ता १७३
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
रहस्यमयी वार्ता १७३··
अपने मतका आग्रह और दूसरे मतकी उपेक्षा, खण्डन, अनादर न करनेसे मुक्तिके बाद भक्ति (प्रेम) - की प्राप्ति स्वतः होती है।
||श्रीहरि:||
अपने मतका आग्रह और दूसरे मतकी उपेक्षा, खण्डन, अनादर न करनेसे मुक्तिके बाद भक्ति (प्रेम) - की प्राप्ति स्वतः होती है।- अमृत-बिन्दु ३१२
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
अमृत-बिन्दु ३१२··
भगवत्प्रेममें रोनेमें जो आनन्द है, वह संसारमें हँसनेमें नहीं है।
||श्रीहरि:||
भगवत्प्रेममें रोनेमें जो आनन्द है, वह संसारमें हँसनेमें नहीं है।- ज्ञानके दीप जले २०७
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
ज्ञानके दीप जले २०७··
जैसे संसारके भोगोंके लिये मनुष्य रुपये खर्च कर देते हैं, ऐसे ही भक्त भगवत्प्रेमके लिये मुक्ति भी खर्च कर देते हैं। जो रस प्रेममें है, वह पूर्णतामें नहीं है।
||श्रीहरि:||
जैसे संसारके भोगोंके लिये मनुष्य रुपये खर्च कर देते हैं, ऐसे ही भक्त भगवत्प्रेमके लिये मुक्ति भी खर्च कर देते हैं। जो रस प्रेममें है, वह पूर्णतामें नहीं है।- ज्ञानके दीप जले २०७
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
ज्ञानके दीप जले २०७··
प्रेमीजन भगवान्के प्रभावसे आकृष्ट नहीं होते, प्रत्युत अपनेपनसे आकृष्ट होते हैं।
||श्रीहरि:||
प्रेमीजन भगवान्के प्रभावसे आकृष्ट नहीं होते, प्रत्युत अपनेपनसे आकृष्ट होते हैं।- ज्ञानके दीप जले २०९
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
ज्ञानके दीप जले २०९··
ज्ञान बहुत बड़ी पूँजी है, पर प्रेम (आकर्षण ) - के बिना वह पूँजी किस कामकी ? कंकड़-पत्थर है। रुपयोंके आकर्षण (लोभ) - में जो रस है, वह रुपयोंके ज्ञानमें नहीं है।
||श्रीहरि:||
ज्ञान बहुत बड़ी पूँजी है, पर प्रेम (आकर्षण ) - के बिना वह पूँजी किस कामकी ? कंकड़-पत्थर है। रुपयोंके आकर्षण (लोभ) - में जो रस है, वह रुपयोंके ज्ञानमें नहीं है।- सागरके मोती ५६
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सागरके मोती ५६··
संसारके किसी एक विषयमें 'राग' होनेसे दूसरे विषयमें द्वेष होता है, पर भगवान्में 'प्रेम' होनेसे संसारसे वैराग्य होता है।
||श्रीहरि:||
संसारके किसी एक विषयमें 'राग' होनेसे दूसरे विषयमें द्वेष होता है, पर भगवान्में 'प्रेम' होनेसे संसारसे वैराग्य होता है।- साधक संजीवनी ३ | ३४
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ३ | ३४··
अहंकाररहित होकर निःस्वार्थभावसे कहीं भी प्रेम किया जाय, तो वह प्रेम स्वतः प्रेममय भगवान्की तरफ चला जाता है। कारण कि अपना अहंकार और स्वार्थ ही भगवत्प्रेममें बाधा लगाता है। इन दोनोंके कारण मनुष्यका प्रेमभाव सीमित हो जाता है और इनका त्याग करनेपर उसका प्रेमभाव व्यापक हो जाता है।
||श्रीहरि:||
अहंकाररहित होकर निःस्वार्थभावसे कहीं भी प्रेम किया जाय, तो वह प्रेम स्वतः प्रेममय भगवान्की तरफ चला जाता है। कारण कि अपना अहंकार और स्वार्थ ही भगवत्प्रेममें बाधा लगाता है। इन दोनोंके कारण मनुष्यका प्रेमभाव सीमित हो जाता है और इनका त्याग करनेपर उसका प्रेमभाव व्यापक हो जाता है।- साधक संजीवनी ४। ११ वि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ४। ११ वि०··
एकमात्र प्रेम ही ऐसी चीज है, जिसमें कोई भेद नहीं रहता। प्रेमका भेद नहीं कर सकते। प्रेममें सब एक हो जाते हैं । ज्ञानमें तत्त्वभेद तो नहीं रहता, पर मतभेद रहता है । प्रेममें मतभेद भी नहीं रहता। अतः प्रेमसे आगे कुछ भी नहीं है । प्रेमसे त्रिलोकीनाथ भगवान् भी वशमें हो जाते हैं।
||श्रीहरि:||
एकमात्र प्रेम ही ऐसी चीज है, जिसमें कोई भेद नहीं रहता। प्रेमका भेद नहीं कर सकते। प्रेममें सब एक हो जाते हैं । ज्ञानमें तत्त्वभेद तो नहीं रहता, पर मतभेद रहता है । प्रेममें मतभेद भी नहीं रहता। अतः प्रेमसे आगे कुछ भी नहीं है । प्रेमसे त्रिलोकीनाथ भगवान् भी वशमें हो जाते हैं।- साधक संजीवनी ७। १० परि० टि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ७। १० परि० टि०··
ज्ञानमार्गका जो अद्वैतभाव है, वह नित्य निरन्तर अखण्डरूपसे शान्त, सम रहता है। परन्तु प्रेमका जो अद्वैतभाव है, वह एक-दूसरेकी अभिन्नताका अनुभव कराता हुआ प्रतिक्षण वर्धमान रहता है। प्रेमका अद्वैतभाव एक होते हुए भी दो है और दो होते हुए भी एक है। इसलिये प्रेम - तत्त्व अनिर्वचनीय है।
||श्रीहरि:||
ज्ञानमार्गका जो अद्वैतभाव है, वह नित्य निरन्तर अखण्डरूपसे शान्त, सम रहता है। परन्तु प्रेमका जो अद्वैतभाव है, वह एक-दूसरेकी अभिन्नताका अनुभव कराता हुआ प्रतिक्षण वर्धमान रहता है। प्रेमका अद्वैतभाव एक होते हुए भी दो है और दो होते हुए भी एक है। इसलिये प्रेम - तत्त्व अनिर्वचनीय है।- साधक संजीवनी ७ १८
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ७ १८··
प्रेमीका प्रेमास्पदकी तरफ और प्रेमास्पदका प्रेमीकी तरफ प्रेमका एक विलक्षण प्रवाह चलता रहता है । उनका नित्ययोगमें वियोग और वियोगमें नित्ययोग — इस प्रकार प्रेमकी एक विलक्षण लीला अनन्तरूपसे अनन्तकालतक चलती रहती है। उसमें कौन प्रेमास्पद हैं और कौन प्रेमी है - इसका खयाल नहीं रहता। वहाँ दोनों ही प्रेमास्पद हैं और दोनों ही प्रेमी हैं।
||श्रीहरि:||
प्रेमीका प्रेमास्पदकी तरफ और प्रेमास्पदका प्रेमीकी तरफ प्रेमका एक विलक्षण प्रवाह चलता रहता है । उनका नित्ययोगमें वियोग और वियोगमें नित्ययोग — इस प्रकार प्रेमकी एक विलक्षण लीला अनन्तरूपसे अनन्तकालतक चलती रहती है। उसमें कौन प्रेमास्पद हैं और कौन प्रेमी है - इसका खयाल नहीं रहता। वहाँ दोनों ही प्रेमास्पद हैं और दोनों ही प्रेमी हैं।- साधक संजीवनी ७ । १८
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ७ । १८··
प्रेमी भक्तकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रही, प्रत्युत केवल भगवान् ही रहे अर्थात् प्रेमीके रूपमें साक्षात् भगवान् ही हैं - 'तस्मितज्जने भेदाभावात्' (नारदभक्तिसूत्र ४१ )|
||श्रीहरि:||
प्रेमी भक्तकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रही, प्रत्युत केवल भगवान् ही रहे अर्थात् प्रेमीके रूपमें साक्षात् भगवान् ही हैं - 'तस्मितज्जने भेदाभावात्' (नारदभक्तिसूत्र ४१ )|- साधक संजीवनी ७ । १८ परि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ७ । १८ परि०··
भगवान् ही मेरे हैं और मेरे लिये हैं- इस प्रकार भगवान्में अपनापन होनेसे स्वतः भगवान्में प्रेम होता है और जिसमें प्रेम होता है, उसका स्मरण अपने-आप और नित्य निरन्तर होता है।
||श्रीहरि:||
भगवान् ही मेरे हैं और मेरे लिये हैं- इस प्रकार भगवान्में अपनापन होनेसे स्वतः भगवान्में प्रेम होता है और जिसमें प्रेम होता है, उसका स्मरण अपने-आप और नित्य निरन्तर होता है।- साधक संजीवनी ८ । १४ परि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ८ । १४ परि०··
जैसे लोभी व्यक्तिको जितना धन मिलता है, उतना ही उसको थोड़ा मालूम देता है और उसकी धनकी भूख उत्तरोत्तर बढ़ती रहती है, ऐसे ही अपने अंशी भगवान्को पहचान लेनेपर भक्तमें प्रेमकी भूख बढ़ती रहती है, उसको प्रतिक्षण वर्धमान, असीम, अगाध, अनन्त प्रेमकी प्राप्ति हो जाती है। यह प्रेम भक्तिकी अन्तिम सिद्धि है। इसके समान दूसरी कोई सिद्धि है ही नहीं।
||श्रीहरि:||
जैसे लोभी व्यक्तिको जितना धन मिलता है, उतना ही उसको थोड़ा मालूम देता है और उसकी धनकी भूख उत्तरोत्तर बढ़ती रहती है, ऐसे ही अपने अंशी भगवान्को पहचान लेनेपर भक्तमें प्रेमकी भूख बढ़ती रहती है, उसको प्रतिक्षण वर्धमान, असीम, अगाध, अनन्त प्रेमकी प्राप्ति हो जाती है। यह प्रेम भक्तिकी अन्तिम सिद्धि है। इसके समान दूसरी कोई सिद्धि है ही नहीं।- साधक संजीवनी ८ । १५
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ८ । १५··
सबसे विलक्षण शक्ति भगवत्प्रेममें है । परन्तु मुक्ति (स्वाधीनता) - में सन्तोष करनेसे वह प्रेम प्रकट नहीं होता। जड़ता सम्बन्धसे ही परवशता होती है और मुक्त होनेपर वह परवशता सर्वथा मिट जाती है और जीव स्वाधीन हो जाता है । परन्तु प्रेम इस स्वाधीनतासे भी विलक्षण है । स्वाधीनता (मुक्ति) में अखण्ड आनन्द है, पर प्रेममें अनन्त आनन्द है।
||श्रीहरि:||
सबसे विलक्षण शक्ति भगवत्प्रेममें है । परन्तु मुक्ति (स्वाधीनता) - में सन्तोष करनेसे वह प्रेम प्रकट नहीं होता। जड़ता सम्बन्धसे ही परवशता होती है और मुक्त होनेपर वह परवशता सर्वथा मिट जाती है और जीव स्वाधीन हो जाता है । परन्तु प्रेम इस स्वाधीनतासे भी विलक्षण है । स्वाधीनता (मुक्ति) में अखण्ड आनन्द है, पर प्रेममें अनन्त आनन्द है।- साधक संजीवनी ८ । १९ परि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ८ । १९ परि०··
प्रेम (भक्ति) ज्ञानसे भी विलक्षण है। ज्ञान भगवान्तक नहीं पहुँचता पर प्रेम भगवान्तक पहुँचता है। ज्ञानका अनुभव करनेवाला तो स्वयं होता है, पर प्रेमका अनुभव करनेवाले और ज्ञाता भगवान् होते हैं। भगवान् ज्ञानके भूखे नहीं हैं, प्रत्युत प्रेमके भूखे हैं। मुक्त होनेपर तो ज्ञानयोगी सन्तुष्ट, तृप्त हो जाता है (गीता ३ । १७ ), पर प्रेम प्राप्त होनेपर भक्त सन्तुष्ट नहीं होता, प्रत्युत उसका आनन्द उत्तरोत्तर बढ़ता रहता है। अतः आखिरी तत्त्व प्रेम है, मुक्ति नहीं।
||श्रीहरि:||
प्रेम (भक्ति) ज्ञानसे भी विलक्षण है। ज्ञान भगवान्तक नहीं पहुँचता पर प्रेम भगवान्तक पहुँचता है। ज्ञानका अनुभव करनेवाला तो स्वयं होता है, पर प्रेमका अनुभव करनेवाले और ज्ञाता भगवान् होते हैं। भगवान् ज्ञानके भूखे नहीं हैं, प्रत्युत प्रेमके भूखे हैं। मुक्त होनेपर तो ज्ञानयोगी सन्तुष्ट, तृप्त हो जाता है (गीता ३ । १७ ), पर प्रेम प्राप्त होनेपर भक्त सन्तुष्ट नहीं होता, प्रत्युत उसका आनन्द उत्तरोत्तर बढ़ता रहता है। अतः आखिरी तत्त्व प्रेम है, मुक्ति नहीं।- साधक संजीवनी १२ । २ परि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी १२ । २ परि०··
मुक्त होनेपर संसारकी कामना तो मिट जाती है, पर प्रेमकी भूख नहीं मिटती।
||श्रीहरि:||
मुक्त होनेपर संसारकी कामना तो मिट जाती है, पर प्रेमकी भूख नहीं मिटती।- साधक संजीवनी १५ । ४ परि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी १५ । ४ परि०··
परमात्माको अपना माननेके सिवाय प्रेम प्राप्तिका और कोई उपाय है ही नहीं। प्रेम यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत आदि बड़े- बड़े पुण्यकर्मोंसे नहीं मिलता, प्रत्युत भगवान्को अपना मानने से मिलता है।
||श्रीहरि:||
परमात्माको अपना माननेके सिवाय प्रेम प्राप्तिका और कोई उपाय है ही नहीं। प्रेम यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत आदि बड़े- बड़े पुण्यकर्मोंसे नहीं मिलता, प्रत्युत भगवान्को अपना मानने से मिलता है।- साधक संजीवनी १५ | २० अ० सा०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी १५ | २० अ० सा०··
विवेकपूर्वक जड़ताका त्याग करनेपर त्याज्य वस्तुका संस्कार शेष रह सकता है, जिससे दार्शनिक मतभेद पैदा होते हैं। परन्तु प्रेमकी प्राप्ति होनेपर त्याज्य वस्तुका संस्कार नहीं रहता; क्योंकि भक्त त्याग नहीं करता, प्रत्युत सबको भगवान्का स्वरूप मानता है - 'सदसच्चाहम्' ( गीता ९ । १९)।
||श्रीहरि:||
विवेकपूर्वक जड़ताका त्याग करनेपर त्याज्य वस्तुका संस्कार शेष रह सकता है, जिससे दार्शनिक मतभेद पैदा होते हैं। परन्तु प्रेमकी प्राप्ति होनेपर त्याज्य वस्तुका संस्कार नहीं रहता; क्योंकि भक्त त्याग नहीं करता, प्रत्युत सबको भगवान्का स्वरूप मानता है - 'सदसच्चाहम्' ( गीता ९ । १९)।- साधक संजीवनी १८ । ५४ परि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी १८ । ५४ परि०··
प्रेमकी प्राप्ति विवेकसाध्य नहीं है, प्रत्युत विश्वाससाध्य है। विश्वासमें केवल भगवत्कृपाका ही भरोसा है। इसलिये जिसके भीतर भक्तिके संस्कार होते हैं। उसको भगवत्कृपा मुक्तिमें सन्तुष्ट नहीं होने देती, प्रत्युत मुक्तिके रस (अखण्डरस ) - को फीका करके प्रेमका रस (अनन्तरस) प्रदान कर देती है।
||श्रीहरि:||
प्रेमकी प्राप्ति विवेकसाध्य नहीं है, प्रत्युत विश्वाससाध्य है। विश्वासमें केवल भगवत्कृपाका ही भरोसा है। इसलिये जिसके भीतर भक्तिके संस्कार होते हैं। उसको भगवत्कृपा मुक्तिमें सन्तुष्ट नहीं होने देती, प्रत्युत मुक्तिके रस (अखण्डरस ) - को फीका करके प्रेमका रस (अनन्तरस) प्रदान कर देती है।- साधक संजीवनी १८ । ५४ परि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी १८ । ५४ परि०··
प्रेमके अधिकारी जीवन्मुक्त महापुरुष ही होते हैं।
||श्रीहरि:||
प्रेमके अधिकारी जीवन्मुक्त महापुरुष ही होते हैं।- साधक संजीवनी १८ । ५७ वि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी १८ । ५७ वि०··
प्रेम ऐसी चीज है, जो जड़तामें भी चेतनता ले आती है।
||श्रीहरि:||
प्रेम ऐसी चीज है, जो जड़तामें भी चेतनता ले आती है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १८
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १८··
अगर आपका भगवान् में प्रेम होगा तो गृहस्थमें भी मौजसे रहोगे, और संसारमें प्रेम होगा तो रोना पड़ेगा ही, रोये बिना रह सकते नहीं।
||श्रीहरि:||
अगर आपका भगवान् में प्रेम होगा तो गृहस्थमें भी मौजसे रहोगे, और संसारमें प्रेम होगा तो रोना पड़ेगा ही, रोये बिना रह सकते नहीं।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ४२
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ४२··
प्रेमकी लड़ाईमें जिसमें प्रेम अधिक होता है, वह हार जाता है।
||श्रीहरि:||
प्रेमकी लड़ाईमें जिसमें प्रेम अधिक होता है, वह हार जाता है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये ८६
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
मानवमात्रके कल्याणके लिये ८६··
जैसे पैसोंका लोभी आदमी कूड़े-कचरे में, मैलेमें पड़े हुए पैसेको भी उठा लेता है, ऐसे ही भगवान् प्रेमके लोभी हैं।
||श्रीहरि:||
जैसे पैसोंका लोभी आदमी कूड़े-कचरे में, मैलेमें पड़े हुए पैसेको भी उठा लेता है, ऐसे ही भगवान् प्रेमके लोभी हैं।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ५७
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ५७··
जिसका भगवान्में प्रेम है, उसका माता-पिता आदिमें, पशु-पक्षियोंमें, सब प्राणियोंमें प्रेम होगा ही।
||श्रीहरि:||
जिसका भगवान्में प्रेम है, उसका माता-पिता आदिमें, पशु-पक्षियोंमें, सब प्राणियोंमें प्रेम होगा ही।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ २१
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ २१··
जिनको सन्त महात्मा तथा भगवान् प्यारे लगते हैं, उनको दुनिया प्यारी लगती है। उनका किसीसे भी द्वेष नहीं होता; क्योंकि उनकी दृष्टिमें सब हमारे प्रभुके हैं। इतना ही नहीं, उनको वृक्ष, ईंट, पत्थर आदि भी प्यारे लगते हैं कि ये भी हमारे प्रभुके हैं।
||श्रीहरि:||
जिनको सन्त महात्मा तथा भगवान् प्यारे लगते हैं, उनको दुनिया प्यारी लगती है। उनका किसीसे भी द्वेष नहीं होता; क्योंकि उनकी दृष्टिमें सब हमारे प्रभुके हैं। इतना ही नहीं, उनको वृक्ष, ईंट, पत्थर आदि भी प्यारे लगते हैं कि ये भी हमारे प्रभुके हैं।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ १७
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
नये रास्ते, नयी दिशाएँ १७··
भगवान् प्यारे लगेंगे तो उनकी हर चीज स्वाभाविक प्यारी लगेगी। उनका नाम भी प्यारा लगेगा, उनका रूप भी प्यारा लगेगा, उनकी लीला भी प्यारी लगेगी, उनका धाम भी प्यारा लगेगा, उनके चरणोंसे निकली हुई गंगाजी भी प्यारी लगेंगी। कोई भगवान्के नामका उच्चारण करेगा तो सुनते ही मन उधर खिंचेगा। भगवान् से सम्बन्ध रखनेवाली कोई भी चीज प्यारी लगेगी ही । अगर प्यारी नहीं लगती है तो भगवान्में प्रेम नहीं है।
||श्रीहरि:||
भगवान् प्यारे लगेंगे तो उनकी हर चीज स्वाभाविक प्यारी लगेगी। उनका नाम भी प्यारा लगेगा, उनका रूप भी प्यारा लगेगा, उनकी लीला भी प्यारी लगेगी, उनका धाम भी प्यारा लगेगा, उनके चरणोंसे निकली हुई गंगाजी भी प्यारी लगेंगी। कोई भगवान्के नामका उच्चारण करेगा तो सुनते ही मन उधर खिंचेगा। भगवान् से सम्बन्ध रखनेवाली कोई भी चीज प्यारी लगेगी ही । अगर प्यारी नहीं लगती है तो भगवान्में प्रेम नहीं है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १०२
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १०२··
आप निष्कामभावसे, निःस्वार्थभावसे किसीसे भी प्रेम करो तो वह भगवान् के साथ हो जायगा, भले ही कुत्ते, गधे, सूअर, ऊँटके साथ कर लो । प्रेमास्पद भगवान् ही हैं। अगर भगवान्में प्रेम नहीं हुआ है तो आपने वास्तवमें प्रेम नहीं किया है, प्रत्युत आसक्ति की है, ममता की है, मोह किया है। आसक्तिसे प्रेम नहीं होता। प्रेमसे उद्धार होता है और आसक्तिसे पतन होता है।
||श्रीहरि:||
आप निष्कामभावसे, निःस्वार्थभावसे किसीसे भी प्रेम करो तो वह भगवान् के साथ हो जायगा, भले ही कुत्ते, गधे, सूअर, ऊँटके साथ कर लो । प्रेमास्पद भगवान् ही हैं। अगर भगवान्में प्रेम नहीं हुआ है तो आपने वास्तवमें प्रेम नहीं किया है, प्रत्युत आसक्ति की है, ममता की है, मोह किया है। आसक्तिसे प्रेम नहीं होता। प्रेमसे उद्धार होता है और आसक्तिसे पतन होता है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १५४
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १५४··
अनेक बड़े-बड़े सन्त हुए हैं, जिन्होंने भगवान् के दर्शनकी अपेक्षा प्रेमको श्रेष्ठ माना है। कारण कि दर्शन तो कभी हों, कभी नहीं हों, पर प्रेम हरदम रहता है। दर्शन होनेसे प्रेम हो जाय - यह नियम नहीं है, पर प्रेम होनेसे भगवान्को दर्शन देने ही पड़ते हैं। परन्तु भक्त प्रेमके सिवाय कुछ नहीं चाहता और भगवान्से माँगता भी यही है- 'सबु करि मागहिं एक फलु राम चरन रति होउ' (मानस, अयोध्या० १२९)।
||श्रीहरि:||
अनेक बड़े-बड़े सन्त हुए हैं, जिन्होंने भगवान् के दर्शनकी अपेक्षा प्रेमको श्रेष्ठ माना है। कारण कि दर्शन तो कभी हों, कभी नहीं हों, पर प्रेम हरदम रहता है। दर्शन होनेसे प्रेम हो जाय - यह नियम नहीं है, पर प्रेम होनेसे भगवान्को दर्शन देने ही पड़ते हैं। परन्तु भक्त प्रेमके सिवाय कुछ नहीं चाहता और भगवान्से माँगता भी यही है- 'सबु करि मागहिं एक फलु राम चरन रति होउ' (मानस, अयोध्या० १२९)।- अनन्तकी ओर १७३
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
अनन्तकी ओर १७३··
दर्शनसे भी प्रेमका विशेष मूल्य है। जहाँ प्रेम होता है, वहाँ भगवान् बिना बुलाये आते हैं। प्रेम न हो तो भगवान्के मिलनेपर भी उनको पहचान नहीं सकेंगे।
||श्रीहरि:||
दर्शनसे भी प्रेमका विशेष मूल्य है। जहाँ प्रेम होता है, वहाँ भगवान् बिना बुलाये आते हैं। प्रेम न हो तो भगवान्के मिलनेपर भी उनको पहचान नहीं सकेंगे।- पायो परम बिश्रामु ९६
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
पायो परम बिश्रामु ९६··
भगवान् प्यारे लगें, मीठे लगें - यह तत्त्वज्ञानसे भी बढ़कर है। प्रेम होनेपर तत्त्वज्ञान बाकी नहीं रहेगा। आपका जीवन सफल हो जायगा । भगवान् प्रेमसे बहुत राजी होते हैं। प्रेम भगवान्की खुराक है। भगवान् प्रेमके लोभी हैं। वे प्रेमसे खिंच जाते हैं। प्रेम करनेमें भगवान्की कमी नहीं है, हमारी कमी है।
||श्रीहरि:||
भगवान् प्यारे लगें, मीठे लगें - यह तत्त्वज्ञानसे भी बढ़कर है। प्रेम होनेपर तत्त्वज्ञान बाकी नहीं रहेगा। आपका जीवन सफल हो जायगा । भगवान् प्रेमसे बहुत राजी होते हैं। प्रेम भगवान्की खुराक है। भगवान् प्रेमके लोभी हैं। वे प्रेमसे खिंच जाते हैं। प्रेम करनेमें भगवान्की कमी नहीं है, हमारी कमी है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १८४
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १८४··
संसारमें प्रसिद्धि यह है कि प्रेम द्वैतमें होता है; परन्तु तत्त्वमें गहरा उतरनेपर प्रेम द्वैतमें नहीं होता, प्रत्युत अद्वैतमें होता है। अद्वैतमें भेद और अभेद दोनों होते रहते हैं, जिससे प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान होता है। उस प्रेमका वर्णन वाणीके द्वारा नहीं किया जा सकता।
||श्रीहरि:||
संसारमें प्रसिद्धि यह है कि प्रेम द्वैतमें होता है; परन्तु तत्त्वमें गहरा उतरनेपर प्रेम द्वैतमें नहीं होता, प्रत्युत अद्वैतमें होता है। अद्वैतमें भेद और अभेद दोनों होते रहते हैं, जिससे प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान होता है। उस प्रेमका वर्णन वाणीके द्वारा नहीं किया जा सकता।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १८५
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १८५··
ज्ञानमें परमात्मासे दूरी और भेद तो मिट जाते हैं, पर अभिन्नता (मिलन) नहीं होती। परन्तु प्रेममें दूरी, भेद और अभिन्नता - तीनों ही मिट जाते हैं। इसलिये वास्तविक अद्वैत प्रेममें ही है।
||श्रीहरि:||
ज्ञानमें परमात्मासे दूरी और भेद तो मिट जाते हैं, पर अभिन्नता (मिलन) नहीं होती। परन्तु प्रेममें दूरी, भेद और अभिन्नता - तीनों ही मिट जाते हैं। इसलिये वास्तविक अद्वैत प्रेममें ही है।- साधक संजीवनी १२ । २ परि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी १२ । २ परि०··
भीतर जो कनक कामिनीकी महत्ता बैठी हुई है, वह प्रेम-भक्तिके बिना मिटेगी नहीं। ज्ञानसे भी मिटती है, पर प्रेम-भक्तिसे जैसी मिटती है, वैसी नहीं मिटती। आपको विश्वास हो चाहे न हो, पर बात ऐसी ही है ।...... भक्तिके बिना भीतरका सूक्ष्म राग, आसक्ति, रसबुद्धि मिटती नहीं और उसके मिटे बिना पूर्णता होती नहीं।
||श्रीहरि:||
भीतर जो कनक कामिनीकी महत्ता बैठी हुई है, वह प्रेम-भक्तिके बिना मिटेगी नहीं। ज्ञानसे भी मिटती है, पर प्रेम-भक्तिसे जैसी मिटती है, वैसी नहीं मिटती। आपको विश्वास हो चाहे न हो, पर बात ऐसी ही है ।...... भक्तिके बिना भीतरका सूक्ष्म राग, आसक्ति, रसबुद्धि मिटती नहीं और उसके मिटे बिना पूर्णता होती नहीं।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १९५-१९६
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १९५-१९६··
अनुकूलता आये या प्रतिकूलता आये, सब परिस्थितियोंमें भगवान् अच्छे लगें, प्यारे लगें। आपको रुपये प्यारे लगते हैं, तो क्या प्रतिकूलतामें रुपये प्यारे नहीं लगते?
||श्रीहरि:||
अनुकूलता आये या प्रतिकूलता आये, सब परिस्थितियोंमें भगवान् अच्छे लगें, प्यारे लगें। आपको रुपये प्यारे लगते हैं, तो क्या प्रतिकूलतामें रुपये प्यारे नहीं लगते?- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ४६
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सीमाके भीतर असीम प्रकाश ४६··
जिसके भीतर भक्तिके संस्कार हैं, उसको जबतक प्रेमकी प्राप्ति नहीं होती, तबतक भगवान् तत्त्वज्ञानमें, जीवन्मुक्ति में भी सन्तोष नहीं करने देते, उसमें टिकने नहीं देते।
||श्रीहरि:||
जिसके भीतर भक्तिके संस्कार हैं, उसको जबतक प्रेमकी प्राप्ति नहीं होती, तबतक भगवान् तत्त्वज्ञानमें, जीवन्मुक्ति में भी सन्तोष नहीं करने देते, उसमें टिकने नहीं देते।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १३८
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सीमाके भीतर असीम प्रकाश १३८··
भगवान् प्रेमके भूखे हैं, ज्ञानके भूखे नहीं। प्रेमके जाग्रत् होनेमें भगवान्की कृपा मुख्य है, अपना उद्योग अथवा पुरुषार्थ मुख्य नहीं है। तत्त्वज्ञान भगवान्को न माननेपर भी हो सकता है, पर प्रेम नहीं हो सकता। तत्त्वज्ञान होना भी उन्नति है, पर प्रेम होना सार्वभौम उन्नति है।
||श्रीहरि:||
भगवान् प्रेमके भूखे हैं, ज्ञानके भूखे नहीं। प्रेमके जाग्रत् होनेमें भगवान्की कृपा मुख्य है, अपना उद्योग अथवा पुरुषार्थ मुख्य नहीं है। तत्त्वज्ञान भगवान्को न माननेपर भी हो सकता है, पर प्रेम नहीं हो सकता। तत्त्वज्ञान होना भी उन्नति है, पर प्रेम होना सार्वभौम उन्नति है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १४२
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सीमाके भीतर असीम प्रकाश १४२··
हरेक परिस्थितिमें भगवान्की कृपाको माने, तब प्रेम प्रकट होता है।
||श्रीहरि:||
हरेक परिस्थितिमें भगवान्की कृपाको माने, तब प्रेम प्रकट होता है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १४२
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सीमाके भीतर असीम प्रकाश १४२··
जब भक्त भगवान्की तरफ देखता है, तब 'एक भगवान् के सिवाय कुछ नहीं है', ऐसा दीखता है – यह अद्वैत हो गया। जब वह अपनी तरफ देखता है, तब 'मैं दास हूँ, प्रभु मालिक हैं', ऐसा दीखता है - यह द्वैत हो गया। इस प्रकार बार-बार द्वैत-अद्वैत होते रहना प्रेमका प्रतिक्षण वर्धमान होना है।
||श्रीहरि:||
जब भक्त भगवान्की तरफ देखता है, तब 'एक भगवान् के सिवाय कुछ नहीं है', ऐसा दीखता है – यह अद्वैत हो गया। जब वह अपनी तरफ देखता है, तब 'मैं दास हूँ, प्रभु मालिक हैं', ऐसा दीखता है - यह द्वैत हो गया। इस प्रकार बार-बार द्वैत-अद्वैत होते रहना प्रेमका प्रतिक्षण वर्धमान होना है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १४८
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सीमाके भीतर असीम प्रकाश १४८··
प्रेममें जब जीव अपनी तरफ देखता है, तब भेद दीखता है और जब भगवान्की तरफ देखता है, तब अभेद दीखता है। ये दो चीज होनेपर भी अद्वैत मिटता नहीं, ज्यों-का-त्यों रहता है। वह अपनी तरफ देखता है तो अपनेमें कमी मानता है, और भगवान्की तरफ देखता है तो चुप हो जाता है। ये दो होनेसे प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान होता है।
||श्रीहरि:||
प्रेममें जब जीव अपनी तरफ देखता है, तब भेद दीखता है और जब भगवान्की तरफ देखता है, तब अभेद दीखता है। ये दो चीज होनेपर भी अद्वैत मिटता नहीं, ज्यों-का-त्यों रहता है। वह अपनी तरफ देखता है तो अपनेमें कमी मानता है, और भगवान्की तरफ देखता है तो चुप हो जाता है। ये दो होनेसे प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान होता है।- अनन्तकी ओर १००
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
अनन्तकी ओर १००··
प्रेम एक अलौकिक तत्त्व है, जो देनेसे कभी घटता नहीं और पानेसे कभी तृप्ति नहीं होती । संसार कर्तव्य (सेवा) - से तृप्त होता है, प्रेमसे नहीं। इसलिये कर्तव्य संसारके लिये है और प्रेम भगवान् के लिये है।
||श्रीहरि:||
प्रेम एक अलौकिक तत्त्व है, जो देनेसे कभी घटता नहीं और पानेसे कभी तृप्ति नहीं होती । संसार कर्तव्य (सेवा) - से तृप्त होता है, प्रेमसे नहीं। इसलिये कर्तव्य संसारके लिये है और प्रेम भगवान् के लिये है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १६०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सीमाके भीतर असीम प्रकाश १६०··
भगवान् प्रेमको जाननेवाले हैं। भगवान्के जैसा प्रेमको जाननेवाला, पहचाननेवाला कोई नहीं है। भगवान्को प्रेम प्रदान करनेवाला मनुष्य है। मनुष्यके सिवाय भगवान् से प्रेम करनेकी शक्ति किसी में नहीं है, देवताओंमें भी नहीं । मनुष्य प्रेम प्रदान करता है और भगवान् प्रेमका पान करते हैं।
||श्रीहरि:||
भगवान् प्रेमको जाननेवाले हैं। भगवान्के जैसा प्रेमको जाननेवाला, पहचाननेवाला कोई नहीं है। भगवान्को प्रेम प्रदान करनेवाला मनुष्य है। मनुष्यके सिवाय भगवान् से प्रेम करनेकी शक्ति किसी में नहीं है, देवताओंमें भी नहीं । मनुष्य प्रेम प्रदान करता है और भगवान् प्रेमका पान करते हैं।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ १३४
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
नये रास्ते, नयी दिशाएँ १३४··
प्रेमाभक्तिमें बिना इच्छाके, जबर्दस्ती ज्ञान आता है- 'अनइच्छित आवइ बरिआईं ' (मानस, उत्तर० ११९ । २ ) । परन्तु भक्त उसकी परवाह नहीं करता। उसमें स्वतः - स्वाभाविक अखण्ड ज्ञान रहता है। अगर वह ज्ञानका विशेष आदर करेगा तो ज्ञान रहेगा, प्रेम नहीं बढ़ेगा। जब भक्त ज्ञानकी, मुक्तिकी परवाह नहीं करता, इनको ठुकरा देता है, तब प्रेम प्राप्त होता है।
||श्रीहरि:||
प्रेमाभक्तिमें बिना इच्छाके, जबर्दस्ती ज्ञान आता है- 'अनइच्छित आवइ बरिआईं ' (मानस, उत्तर० ११९ । २ ) । परन्तु भक्त उसकी परवाह नहीं करता। उसमें स्वतः - स्वाभाविक अखण्ड ज्ञान रहता है। अगर वह ज्ञानका विशेष आदर करेगा तो ज्ञान रहेगा, प्रेम नहीं बढ़ेगा। जब भक्त ज्ञानकी, मुक्तिकी परवाह नहीं करता, इनको ठुकरा देता है, तब प्रेम प्राप्त होता है।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ १६६ - १६७
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
नये रास्ते, नयी दिशाएँ १६६ - १६७··
कामनावाला मनुष्य किसीसे प्रेम नहीं कर सकता।
||श्रीहरि:||
कामनावाला मनुष्य किसीसे प्रेम नहीं कर सकता।- मानवमात्रके कल्याणके लिये ३७
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
मानवमात्रके कल्याणके लिये ३७··
जो भगवान्का प्रेमी होता है, वह सम्पूर्ण संसारकी सेवा करनेवाला होता है; क्योंकि सबके मूलमें परमात्मा ही हैं। कोई आदमी कितना ही अच्छा हो, पर भगवान्का प्रेमी नहीं है तो कोई कामका नहीं है।
||श्रीहरि:||
जो भगवान्का प्रेमी होता है, वह सम्पूर्ण संसारकी सेवा करनेवाला होता है; क्योंकि सबके मूलमें परमात्मा ही हैं। कोई आदमी कितना ही अच्छा हो, पर भगवान्का प्रेमी नहीं है तो कोई कामका नहीं है।- पायो परम बिश्रामु ९६-९७
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
पायो परम बिश्रामु ९६-९७··
जबतक साधक अपने मनकी बात पूरी करना चाहेगा, तबतक उसका न सगुणमें प्रेम होगा, न निर्गुणमें।
||श्रीहरि:||
जबतक साधक अपने मनकी बात पूरी करना चाहेगा, तबतक उसका न सगुणमें प्रेम होगा, न निर्गुणमें।- अमृत-बिन्दु २९८
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
अमृत-बिन्दु २९८··
भगवान् मीठे लगें, भगवान्का नाम अच्छा लगे, भगवान्की लीला अच्छी लगे, भगवान्का तत्त्व प्रिय लगे, भगवान्का रहस्य अच्छा लगे। गंगाजी दीखे तो प्रसन्न हो जाय कि यह भगवान्के चरणोंका जल है। भगवान् से सम्बन्धित कोई बात दीखे तो आनन्दित हो जाय। यह प्रेम है।
||श्रीहरि:||
भगवान् मीठे लगें, भगवान्का नाम अच्छा लगे, भगवान्की लीला अच्छी लगे, भगवान्का तत्त्व प्रिय लगे, भगवान्का रहस्य अच्छा लगे। गंगाजी दीखे तो प्रसन्न हो जाय कि यह भगवान्के चरणोंका जल है। भगवान् से सम्बन्धित कोई बात दीखे तो आनन्दित हो जाय। यह प्रेम है।- अनन्तकी ओर १७३
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
अनन्तकी ओर १७३··
सब ज्ञानी प्रेमी हों - यह नियम नहीं है, पर सब प्रेमी ज्ञानी होंगे - यह नियम है।
||श्रीहरि:||
सब ज्ञानी प्रेमी हों - यह नियम नहीं है, पर सब प्रेमी ज्ञानी होंगे - यह नियम है।- स्वातिकी बूँदें १८७
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
स्वातिकी बूँदें १८७··
भगवान्के सिवाय किसी औरसे सम्बन्ध मत जोड़ो। औरसे सम्बन्ध जोड़ते हैं तो भगवान्का प्रेम मिलता नहीं। दूसरेकी जरूरत तभीतक है, जबतक आप भगवान्में नहीं लगते। भगवान्में लगनेपर दूसरेकी जरूरत नहीं है। दूसरेकी जरूरत भीतरसे उठा दो।
||श्रीहरि:||
भगवान्के सिवाय किसी औरसे सम्बन्ध मत जोड़ो। औरसे सम्बन्ध जोड़ते हैं तो भगवान्का प्रेम मिलता नहीं। दूसरेकी जरूरत तभीतक है, जबतक आप भगवान्में नहीं लगते। भगवान्में लगनेपर दूसरेकी जरूरत नहीं है। दूसरेकी जरूरत भीतरसे उठा दो।- ईसवर अंस जीव अबिनासी १६३
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
ईसवर अंस जीव अबिनासी १६३··
मुक्त महापुरुषमें भी प्रेमकी एक माँग (भूख) रहती है। इसलिये जो मुक्तिमें भी सन्तुष्ट नहीं होता, उसको भगवान् अपना प्रेम प्रदान करते हैं। इस दृष्टिसे मुक्ति भी साधन है और प्रेम साध्य है। प्रेमकी प्राप्तिके बिना साधनकी पूर्णता नहीं होती।
||श्रीहरि:||
मुक्त महापुरुषमें भी प्रेमकी एक माँग (भूख) रहती है। इसलिये जो मुक्तिमें भी सन्तुष्ट नहीं होता, उसको भगवान् अपना प्रेम प्रदान करते हैं। इस दृष्टिसे मुक्ति भी साधन है और प्रेम साध्य है। प्रेमकी प्राप्तिके बिना साधनकी पूर्णता नहीं होती।- मानवमात्रके कल्याणके लिये ५१
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
मानवमात्रके कल्याणके लिये ५१··
जिसके भीतर भक्तिके संस्कार हैं और कृपाका आश्रय है, उसको मुक्तिमें सन्तोष नहीं होता। भगवान् की कृपा उसकी मुक्तिके रसको फीका करके प्रेमका अनन्तरस प्रदान कर देती है।
||श्रीहरि:||
जिसके भीतर भक्तिके संस्कार हैं और कृपाका आश्रय है, उसको मुक्तिमें सन्तोष नहीं होता। भगवान् की कृपा उसकी मुक्तिके रसको फीका करके प्रेमका अनन्तरस प्रदान कर देती है।- अमृत-बिन्दु ३११
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
अमृत-बिन्दु ३११··
भगवान्की कृपासे स्वाधीन अर्थात् मुक्त होनेसे पहले भी प्रेमकी प्राप्ति हो सकती है।
||श्रीहरि:||
भगवान्की कृपासे स्वाधीन अर्थात् मुक्त होनेसे पहले भी प्रेमकी प्राप्ति हो सकती है।- सत्संग-मुक्ताहार ५५
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सत्संग-मुक्ताहार ५५··
संसारमें तो आकर्षण और विकर्षण ( रुचि अरुचि ) दोनों होते हैं, पर परमात्मामें आकर्षण-ही- आकर्षण होता है, विकर्षण होता ही नहीं, यदि होता है तो वास्तवमें आकर्षण हुआ ही नहीं।
||श्रीहरि:||
संसारमें तो आकर्षण और विकर्षण ( रुचि अरुचि ) दोनों होते हैं, पर परमात्मामें आकर्षण-ही- आकर्षण होता है, विकर्षण होता ही नहीं, यदि होता है तो वास्तवमें आकर्षण हुआ ही नहीं।- अमृत-बिन्दु ३१४