Seeker of Truth

प्रारब्ध

जो होता है, वह प्रारब्धके अनुसार ही होता है। प्रारब्धसे इधर-उधर होता ही नहीं। आप कितना ही उद्योग करें, जो होनेवाला है, वह होगा ही यह सिद्धान्त है । परन्तु अपना उद्योग कभी छोड़ना नहीं चाहिये। अच्छे कामके लिये अपना उद्योग करते रहना चाहिये, पर चिन्ता नहीं करनी चाहिये। जो होनेवाला है, वैसा ही होगा- यह जो प्रारब्धकी बात कही जाती है, यह चिन्ता दूर करनेके लिये है, अपना उद्योग छोड़नेके लिये नहीं।

अनन्तकी ओर ५१··

करना (कर्म) और होना (फल) – दोनों अलग-अलग हैं। 'करना' हमारे हाथमें है, 'होना' भगवान्‌के हाथमें है। यदि 'करना' भी भगवान्‌के हाथमें हो तो फिर मनुष्य और पशुमें क्या फर्क हुआ ? मनुष्य 'करने' में स्वतन्त्र है, तभी मनुष्यजन्मकी महिमा है।

स्वातिकी बूँदें १११··

करनेमें सावधान और होनेमें प्रसन्न' – यह छोटी-सी बात आप मान लो तो निहाल हो जाओगे, आपकी चिन्ता मिट जायगी। इसको लिख लो, याद कर लो। जो होनेवाला है, वह होकर ही रहेगा, फिर चिन्ता करनेसे क्या लाभ?

अनन्तकी ओर ५१··

एक किसान खेती करता है, पर पहलेका धान न होनेसे भूखा मरता है, और एक किसान खेती करता ही नहीं, पर पहलेका धान होनेसे खाता है। पहलेका बोया हुआ अभी खाता है, और अभीका बोया हुआ आगे खायेगा। ऐसे ही अभी जो तिरस्कार, अपमान मिलता है, यह पहलेका प्रारब्ध हैं। अभी जो अच्छा काम करते हैं, उसका फल आगे मिलेगा।

अनन्तकी ओर ५३··

हमें प्रारब्धके अनुसार धन मिलनेवाला है तो समयपर धन मिल जायगा, पर उस धनको ग्रहण करनेमें अथवा उसका त्याग करनेमें तथा सदुपयोग अथवा दुरुपयोग करनेमें हम स्वतन्त्र हैं।

प्रश्नोत्तरमणिमाला १४५··

जीव उसीके यहाँ जन्म लेता है, जिसके साथ उसका कोई कर्म सम्बन्ध (ऋणानुबन्ध) होता है । अतः पुत्र-पौत्र एक प्रकारसे अपने ही कर्मोंका भोग करते हैं अर्थात् उनको वंश-परम्परासे वही रोग मिलता है, जिसका भोग उनके प्रारब्धमें है।

प्रश्नोत्तरमणिमाला १५०··

धनको खर्च करना, कंजूस होना अथवा उदार होना नया कर्म है, प्रारब्ध नहीं।

प्रश्नोत्तरमणिमाला १५२··

जैसे किसी व्यक्तिको कैद होती है तो वह जुर्माना (रुपये) देकर कैदकी अवधि कम करा सकता है अथवा कैदसे छूट भी सकता है, ऐसे ही मनुष्य मन्त्र आदि उपाय करके प्रारब्धके भोगको क्षीण कर सकता है।

प्रश्नोत्तरमणिमाला १५३··

भगवत्कृपासे प्रारब्धका नाश हो सकता है। इसलिये आर्तभावसे प्रार्थना करनेपर परिस्थिति बदल जाती है, कष्ट दूर हो जाता है।

प्रश्नोत्तरमणिमाला १५४··

आप सच्चे हृदयसे भगवान्में लग जाओ तो आपका प्रारब्ध, भाग्य बदल जायगा।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ २४··

पुण्यकर्मसे जो प्रारब्ध बनता है, उससे भी बढ़िया प्रारब्ध त्यागसे बनता है।

प्रश्नोत्तरमणिमाला १५६··

अगर दुष्ट लोगोंकी चाहना पूरी हो जाती, उनका वश चलता तो वे संसारमें किसीको सुखी नहीं रहने देते। परन्तु उनका वश उसीपर चलता है, जिसका प्रारब्ध खराब आया हो।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ४०··

भजन - जैसी चीजको प्रारब्धमें लगाना महान् मूर्खता है। संसारी आदमी भी पैदल चल लेगा, पर पैसे खर्च नहीं करेगा। भजन क्या पैसेसे भी कम कीमती है ? प्रारब्ध तो भोगनेसे ही नष्ट हो जाता है, उसमें भजनको क्यों लगायें ? उसमें भजनको लगाना भजनका महान् तिरस्कार है।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ ७५··

कृपाका अथवा प्रारब्धका यह अर्थ है ही नहीं कि अपनी तरफसे कुछ न करे । इसका अर्थ है कि चिन्ताको छोड़ दो। अपना कर्तव्य छोड़नेमें इसका अर्थ कभी है ही नहीं। अपनी तरफसे खूब उत्साहसे, तत्परतासे उद्योग करो, पर होगा भगवान्‌की कृपासे । चिन्ता मत करो । प्रारब्धका भी यही तात्पर्य है कि अपना उद्योग पूरा करो, पर चिन्ता मत करो।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ ९८··

प्रारब्धका फल भुगतानेवाले भगवान् हैं, इसलिये प्रारब्ध बढ़िया ही होता है, बुरा होता ही नहीं- 'क्रोधोऽपि देवस्य वरेण तुल्यः' (पाण्डवगीता २३) । खराब से खराब प्रारब्ध भी बढ़िया होता है; आपके पापोंका नाश करनेवाला, कल्याण करनेवाला होता है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १३६··

कामना, ममता, आसक्ति न रखनेसे नया प्रारब्ध बन जाता है।

स्वातिकी बूँदें ४८··

कुपथ्यजन्य रोग दवाईसे मिट सकता है; परन्तु प्रारब्धजन्य रोग दवाईसे नहीं मिटता । महामृत्युञ्जय आदिका जप और यज्ञ-यागादि अनुष्ठान करनेसे प्रारब्धजन्य रोग भी कट सकता है, अगर अनुष्ठान प्रबल हो तो।

साधक संजीवनी १८ । १२ वि०··

भगवान्का भजन करना नया कर्म है, प्रारब्ध नहीं। यदि कोई रात-दिन भजनमें लग जाय तो (नया कर्म होनेसे) उसे खाने, पहनने, रहने आदि किसी प्रकारकी कमी नहीं रहेगी।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ६८··

मनुष्य प्रारब्धके अनुसार पाप-पुण्य नहीं करता; क्योंकि कर्मका फल कर्म नहीं होता, प्रत्युत भोग होता है।

अमृत-बिन्दु २८४··

प्रारब्ध नया कर्म (पाप या पुण्य) नहीं कराता । प्रारब्ध और क्रियमाणमें परस्पर विरोध नहीं है। दुःखी करना प्रारब्धका फल नहीं है, तभी जीवन्मुक्ति होनेपर प्रारब्ध तो रहता है, पर दुःख नहीं रहता।

सागरके मोती ३८··

शास्त्रनिषिद्ध कर्म प्रारब्धसे नहीं होता, प्रत्युत 'काम' (कामना) - से होता है। प्रारब्धसे ( फलभोगके लिये) कर्म करनेकी वृत्ति तो हो जायगी, पर निषिद्ध कर्म नहीं होगा; क्योंकि प्रारब्धका फल भोगने के लिये निषिद्ध आचरणकी जरूरत ही नहीं है।

साधक संजीवनी ३ । ३७ परि०··

अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष- इन चारोंमें 'अर्थ' (धन) और 'काम' (भोग) की प्राप्तिमें प्रारब्धकी मुख्यता और पुरुषार्थकी गौणता है तथा 'धर्म' और 'मोक्ष' में पुरुषार्थकी मुख्यता और प्रारब्धकी गौणता है।

साधक संजीवनी १८ । १२ वि०··

वास्तवमें धन प्राप्त करना और भोग भोगना – इन दोनोंमें ही प्रारब्धकी प्रधानता है । परन्तु इन दोनोंमें भी किसीका धन प्राप्तिका प्रारब्ध होता है, भोगका नहीं और किसीका भोगका प्रारब्ध होता है, धन प्राप्तिका नहीं तथा किसीका धन और भोग दोनोंका ही प्रारब्ध होता है।

साधक संजीवनी १८ । १२ वि०··

जो अपने पास एक कौड़ीका भी संग्रह नहीं करते, ऐसे विरक्त संतोंको भी प्रारब्धके अनुसार आवश्यकतासे अधिक चीजें मिल जाती हैं। अतः जीवन निर्वाह चीजोंके अधीन नहीं है।

साधक संजीवनी १६ । ११··