Seeker of Truth

पाप-पुण्य

अपने स्वार्थके लिये जो कर्म किया जाय, वह पाप है और दूसरेके हितके लिये जो कर्म किया जाय, वह पुण्य है।

स्वातिकी बूँदें १९५ - १९६··

कुआँ खोदनेवाला और मकान बनानेवाला- दोनों आदमी पहले समान स्थल (भूमि) पर रहते हैं। कुआँ खोदनेवाला खोदते खोदते पचास हाथ नीचे चला जाता है, और मकान बनानेवाला ईंट जोड़ते - जोड़ते पचास हाथ ऊँचा चला जाता है। इसलिये आप दूसरोंके हितके लिये काम करो तो आप ऊँचे चले जाओगे । पाप करोगे, दूसरोंको दुःख दोगे तो अधोगतिमें चले जाओगे- इसमें सन्देह नहीं है।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ १५२··

जैसे, बिजली कितनी खर्च हुई - इसका पता मीटरसे लग जाता है। कोई व्यक्ति कभी भी, किसी भी समय बिजली खर्च करे और कितना ही छिपकर बिजली खर्च करे, पर मीटरमें सब अंकित हो जाता है। ऐसे ही पाप-पुण्यको अंकित करनेवाला विलक्षण मीटर अन्तःकरणमें है।

प्रश्नोत्तरमणिमाला १३१··

पापकर्म 'फौजदारी' की तरह हैं और पुण्यकर्म 'दीवानी' की तरह हैं। दोनोंका विभाग अलग- अलग है। पापोंका और पुण्योंका अलग-अलग संग्रह होता है। इसलिये स्वाभाविक रूपसे ये दोनों एक-दूसरेसे कटते नहीं अर्थात् पापोंसे पुण्य नहीं कटते और पुण्योंसे पाप नहीं कटते । परन्तु मनुष्य पाप काटनेके उद्देश्यसे प्रायश्चित्त कर्म करे तो उसके पाप कट सकते हैं; जैसे- जुर्माना देकर मनुष्य जेलसे छूट सकता है।

प्रश्नोत्तरमणिमाला १३३··

पाप राग-द्वेषमें भरे हैं, क्रियामें नहीं।

ज्ञानके दीप जले २४··

सरकारको टैक्स न देनेसे पाप नहीं लगता, प्रत्युत (टैक्ससे बचनेके लिये) झूठ बोलनेसे पाप लगता है। कम-से-कम अन्न और वस्त्र तो शुद्ध कमाईका ही लेना चाहिये।

ज्ञानके दीप जले १३६··

पाप करके फिर प्रायश्चित्त कर लूँगा - इस प्रकार प्रायश्चित्तके सहारे जो पाप करता है, उसका पाप वज्रलेप हो जाता है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ४०··

पाप करनेवालेकी अपेक्षा ज्यादा पाप उसको लगता है, जो पापका प्रचार करता है, पापकी प्रेरणा करता है।

सागरके मोती १५५··

पुण्यकर्म ऊँचे लोक, ऊँचे भोग तो दे सकते हैं, पर भगवान्‌के दर्शन करानेकी उनमें सामर्थ्य नहीं है।

साधक संजीवनी ११ । ५२··

पाप कर्म तो बन्धनकारक होते ही हैं, सकामभावसे किये गये पुण्य कर्म भी ( फलजनक होनेसे ) बन्धनकारक होते हैं।

साधक संजीवनी ३ । १३··

भोग और संग्रहकी इच्छा ही समस्त पापोंका मूल है, जिसके न रहनेपर पाप होते ही नहीं।

साधक संजीवनी ३ । ३६··

पुराने पाप उतने बाधक नहीं होते, जितने वर्तमानके पाप बाधक होते हैं। अगर मनुष्य वर्तमानमें पाप करना छोड़ दे और निश्चय कर ले कि अब मैं कभी पाप नहीं करूँगा और केवल तत्त्वज्ञानको प्राप्त करूँगा, तो उसके पापोंका नाश होते देरी नहीं लगती।

साधक संजीवनी ४ । ३६··

जो हमारेसे अलग है, उस संसारको अपना मानना सबसे बड़ा दुष्कृत अर्थात् पाप है और जो हमारेसे अभिन्न है, उस भगवान्‌को अपना मानना सबसे बड़ा सुकृत अर्थात् पुण्य है।

साधक संजीवनी ७। १६ परि०··

सन्तोंने कहा है कि डेढ़ ही पाप है और डेढ़ ही पुण्य है। भगवान् से विमुख होना पूरा पाप है और दुर्गुण- दुराचारोंमें लगना आधा पाप है। ऐसे ही भगवान्‌के सम्मुख होना पूरा पुण्य है। और सद्गुण- सदाचारोंमें लगना आधा पुण्य है। तात्पर्य यह हुआ कि जब मनुष्य भगवान् के सर्वथा शरण हो जाता है, तब उसके पापोंका अन्त हो जाता है।

साधक संजीवनी ७।२८··

भगवान्का लक्ष्य होनेपर सब पाप नष्ट हो जाते हैं । भगवान्‌का लक्ष्य होनेपर पुराने किसी संस्कारसे पाप हो भी जायगा, तो भी वह रहेगा नहीं; क्योंकि हृदयमें विराजमान भगवान् उस पापको नष्ट कर देते हैं।

साधक संजीवनी ७। २८··

मनुष्यको कभी भी ऐसा नहीं मानना चाहिये कि पुराने पापोंके कारण मेरेसे भजन नहीं हो रहा है; क्योंकि पुराने पाप केवल प्रतिकूल परिस्थितिरूप फल देनेके लिये होते हैं, भजनमें बाधा देनेके लिये नहीं। प्रतिकूल परिस्थिति देकर वे पाप नष्ट हो जाते हैं।

साधक संजीवनी ७ । २८ वि०··

भोग भोगना 'काम' है। संग्रह करना 'लोभ' है। भोग और संग्रहमें बाधा देनेवालेपर 'क्रोध' आता है। ये तीनों आसुरी-सम्पत्तिके मूल हैं। सब पाप इन तीनोंसे ही होते हैं।

साधक संजीवनी १६ । २१ परि०··

जबतक पुराने पुण्य प्रबल रहते हैं, तबतक उग्र पापका फल भी तत्काल नहीं मिलता। जब पुराने पुण्य खत्म होते हैं, तब उस पापकी बारी आती है। पापका फल ( दण्ड) तो भोगना ही पड़ता है, चाहे इस जन्ममें भोगना पड़े या जन्मान्तरमें।

साधक संजीवनी १८ । १२ टि०··

जिन पापकर्मोंका फल यहीं कैद, जुर्माना, अपमान, निन्दा आदिके रूपमें भोग लिया गया है, उन पापोंका फल मरनेके बाद भोगना नहीं पड़ेगा।.........उन पापोंका फल यहाँ जितने अंशमें कम भोगा गया है, उतना इस जन्ममें या मरनेके बाद भोगना ही पड़ेगा।

साधक संजीवनी १८ । १२ टि०··

इस लोकमें जो दण्ड भोग लिया जाता है, उसका थोड़ेमें ही छुटकारा हो जाता है, थोड़ेमें ही शुद्धि हो जाती है, नहीं तो परलोकमें बड़ा भयंकर (ब्याजसहित) दण्ड भोगना पड़ता है।

साधक संजीवनी १८ । १२ टि०··

यह सर्वज्ञ, सर्वसुहृद्, सर्वसमर्थ भगवान्‌का विधान है कि पापसे अधिक दण्ड कोई नहीं भोगता और जो दण्ड मिलता है, वह किसी-न-किसी पापका ही फल होता है।

साधक संजीवनी १८ । १२ वि०··

अभी पुण्यात्मा जो दुःख पा रहा है, यह पूर्वके किसी जन्ममें किये हुए पापका फल है, अभी किये हुए पुण्यका नहीं। ऐसे ही अभी पापात्मा जो सुख भोग रहा है, यह भी पूर्वके किसी जन्ममें किये हुए पुण्यका फल है, अभी किये हुए पापका नहीं।

साधक संजीवनी १८ । १२ वि०··

दोष लगना या न लगना कर्ताकी नीयतपर निर्भर है; जैसे- डॉक्टरकी नीयत ठीक हो, पैसोंका उद्देश्य न होकर सेवाका उद्देश्य हो तो आपरेशनमें रोगीका अंग काटनेपर भी उसको दोष नहीं लगता, प्रत्युत निःस्वार्थभाव और हितकी दृष्टि होनेसे पुण्य होता है।

साधक संजीवनी १८ । ४८ परि०··

खराब से खराब आचरण करनेवाला, पापी से पापी व्यक्ति भी आर्त होकर भगवान्‌को पुकारता है, रोता है, तो भगवान् उसको अपनी गोदमें ले लेते हैं, उससे प्यार करते हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि स्वयंके भगवान्‌की ओर लगनेपर जब इस जन्मके पाप भी बाधा नहीं दे सकते, तो फिर पुराने पाप बाधा कैसे दे सकते हैं? कारण कि पुराने पाप कर्मोंका फल जन्म और भोगरूप प्रतिकूल परिस्थिति है, अतः वे भगवान्‌की ओर चलनेमें बाधा नहीं दे सकते।

साधक संजीवनी ९।३२··

किसीका पूजन करना, किसीको अन्न-जल देना, किसीको मार्ग बताना आदि जितने भी शुभ कर्म हैं, उन सबका भोक्ता भगवान्‌को ही मानना चाहिये। लक्ष्य भगवान्पर ही रहना चाहिये, प्राणीपर नहीं।

साधक संजीवनी ५।२९··

भगवान्‌के सम्मुख होनेका जैसा माहात्म्य है, वैसा माहात्म्य सकामभावपूर्वक किये गये यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत आदि शुभ कर्मोंका भी नहीं है।

साधक संजीवनी ७।१५ वि०··

हम जो कुछ करते हैं, ईश्वरकी मरजीसे करते हैं - यह सर्वथा असत्य बात है। इसमें केश जितनी भी सत्यता नहीं है। सूर्यके प्रकाशमें हम सब कर्म करते हैं, पर सूर्य कर्म नहीं करवाता। जो पहले पाप कराये, फिर उसका दण्ड दे- ऐसा राजा भी नहीं होता, फिर भगवान् कैसे होंगे ?

स्वातिकी बूँदें १११··

संसारकी सब वस्तुएँ समष्टिकी हैं । उनको व्यक्तिगत माननेसे ही पाप होते हैं।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १११··

भगवान्‌का नाम लेते हैं, गंगास्नान करते हैं, सत्संग करते हैं तो हमारे पाप नहीं रहे, हम शुद्ध हो गये। अगर अपनेको अशुद्ध मानते हैं तो नामका, गंगास्नानका, सत्संगका, गीतापाठका तिरस्कार होता है। अगर आप कृपा करके यह बात स्वीकार कर लें तो बहुत ही उत्तम बात है। अब आगेसे सावधान रहो कि हमारे द्वारा कोई पाप, अन्याय न हो जाय।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १४१··

कठिनता सहकर जो पुण्य कार्य किया जाता है, उसका अधिक माहात्म्य होता है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ४१··

दूसरेका दुःख देखकर दयासे हृदय द्रवित होनेसे जितना पुण्य होता है, उतना लाखों रुपयोंके दानसे भी पुण्य नहीं होता।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ८८··

पाप करते समय जितनी खुशी हुई है, उससे डेढ़-दो गुना अधिक दुःख (पश्चात्ताप ) हो जाय तो उससे पाप मिट जायगा।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ९२··

जो तत्परता से साधन करता है, जिसकी परमात्मप्राप्तिकी नीयत है, उसके सब पाप चुप, स्थगित हो जाते हैं; जैसे- कोई कर्जदार आदमी किसी बड़े सेठ, राजा-महाराजाके शरण हो जाय तो सब लेनदार चुप हो जाते हैं कि अब यह सब चुका देगा। 'हे नाथ। हे मेरे नाथ।' कहकर भगवान्‌के चरणोंकी शरण हो जायँ तो सब पाप स्थगित हो जायँगे।

अनन्तकी ओर ७१··

पापोंसे भी ज्यादा पतन करनेवाली चीज है- पापोंकी रुचि । यह रुचि पापका बीज है।

स्वातिकी बूँदें ६४··

दूसरेको भगवान्में लगानेके समान कोई पुण्य नहीं है। दूसरेको भोजन दोगे तो उसे पुनः भूख लग जायगी, पर भगवान्‌में लगा दोगे तो अनन्त जन्मोंकी भूख मिट जायगी।

स्वातिकी बूँदें १४६··

पुण्य करनेसे मनुष्य पवित्र होता है, पर पाप न करनेसे जो पवित्रता होती है, वह पुण्य करनेकी अपेक्षा विशेष होती है । परन्तु भगवान्‌का चिन्तन-भजन करनेसे मनुष्यमें असीम पवित्रता आती है। दान-पुण्य, जप-तप, तीर्थ व्रत आदि करनेसे तो सीमित पवित्रता आती है, पर भगवान्‌को याद करनेसे असीम पवित्रता आती है। जो भगवान्‌के भजनमें तल्लीन रहते हैं, उनके संगसे तीर्थ भी पवित्र हो जाते हैं— 'तीर्थीकुर्वन्ति तीर्थानि स्वान्तःस्थेन गदाभृता' ( श्रीमद्भा० १ । १३ । १०)।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ १२९··

अगर सुखकी इच्छा है तो पाप करना न चाहते हुए भी पाप होगा। सुखकी इच्छा ही पाप करना सिखाती है। अतः पापोंसे छूटना हो तो सुखकी इच्छाका त्याग करो।

अमृत-बिन्दु २६०··

छिपानेसे पाप और पुण्य - दोनों विशेष फल देनेवाले हो जाते हैं। इसलिये अपने पाप तो प्रकट कर देने चाहिये, पर पुण्य प्रकट नहीं करने चाहिये।

अमृत-बिन्दु २६२··

सच्चे हृदयसे उम्रभर परमात्मामें लग जाय तो दूसरे प्रायश्चित्तकी जरूरत ही नहीं है। भगवान्‌के भजनमें लग जाओ तो सब काम ठीक हो जायगा। दूसरी बात, जो गलती पहले हो गयी, उसको दुहराओ मत तो प्रायश्चित्त हो गया । बुराईको दुहराओ मत तो आप भले हो ही जाओगे, इसमें सन्देह नहीं।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश २०२··

पहली बात, यह स्वीकार करे कि मेरे द्वारा गलती हुई है। दूसरी बात, हृदयमें दुःख हो कि मैंने बहुत बड़ी गलती की। तीसरी बात, यह निश्चय करे कि अब आगे पुनः मैं यह गलती नहीं करूँगा। ये तीन बातें होनेपर सब पापोंका प्रायश्चित्त हो जाता है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ४०··