अपना कल्याण करनेमें मनुष्यमात्र सर्वथा स्वतन्त्र है, समर्थ है, योग्य है, अधिकारी है।
||श्रीहरि:||
अपना कल्याण करनेमें मनुष्यमात्र सर्वथा स्वतन्त्र है, समर्थ है, योग्य है, अधिकारी है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये ६९
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मानवमात्रके कल्याणके लिये ६९··
जो मनुष्य अपना कल्याण चाहता है, उसके लिये सबसे पहले यह जानना आवश्यक है कि 'मैं शरीर नहीं हूँ'।
||श्रीहरि:||
जो मनुष्य अपना कल्याण चाहता है, उसके लिये सबसे पहले यह जानना आवश्यक है कि 'मैं शरीर नहीं हूँ'।- मानवमात्रके कल्याणके लिये ११
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मानवमात्रके कल्याणके लिये ११··
जबतक 'मैं देह हूँ' – यह भाव रहेगा, तबतक कितना ही उपदेश सुनते रहें, सुनाते रहें और साधन भी करते रहें, कल्याण नहीं होगा।
||श्रीहरि:||
जबतक 'मैं देह हूँ' – यह भाव रहेगा, तबतक कितना ही उपदेश सुनते रहें, सुनाते रहें और साधन भी करते रहें, कल्याण नहीं होगा।- साधक संजीवनी २ । ११ परि०
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साधक संजीवनी २ । ११ परि०··
शरीर-संसारकी सहायतासे कोई भी मनुष्य बन्धनसे मुक्त नहीं हो सकता। शरीरके द्वारा होनेवाली क्रियाएँ शरीर - संसारके ही काम आती हैं। उसका सम्बन्ध विच्छेद ही स्वयंके काम आता है।
||श्रीहरि:||
शरीर-संसारकी सहायतासे कोई भी मनुष्य बन्धनसे मुक्त नहीं हो सकता। शरीरके द्वारा होनेवाली क्रियाएँ शरीर - संसारके ही काम आती हैं। उसका सम्बन्ध विच्छेद ही स्वयंके काम आता है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये ५४
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मानवमात्रके कल्याणके लिये ५४··
अगर आप कल्याण चाहते हो तो किसी भी व्यक्तिके साथ सम्बन्ध मत जोड़ो। मेरे मनमें आती है कि आप गुरुके साथ भी सम्बन्ध मत जोड़ो।
||श्रीहरि:||
अगर आप कल्याण चाहते हो तो किसी भी व्यक्तिके साथ सम्बन्ध मत जोड़ो। मेरे मनमें आती है कि आप गुरुके साथ भी सम्बन्ध मत जोड़ो।- अनन्तकी ओर ८८
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अनन्तकी ओर ८८··
वास्तवमें कल्याण न गुरुसे होता है और न ईश्वरसे ही होता है, प्रत्युत हमारी सच्ची लगनसे होता है। खुदकी लगनके बिना भगवान् भी कल्याण नहीं कर सकते। अगर कर देते तो हम आजतक कल्याणसे वंचित क्यों रहते ?
||श्रीहरि:||
वास्तवमें कल्याण न गुरुसे होता है और न ईश्वरसे ही होता है, प्रत्युत हमारी सच्ची लगनसे होता है। खुदकी लगनके बिना भगवान् भी कल्याण नहीं कर सकते। अगर कर देते तो हम आजतक कल्याणसे वंचित क्यों रहते ?- क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ? ३०
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क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ? ३०··
भगवान्ने मनुष्यशरीर दिया है तो अपने कल्याणकी सामग्री भी पूरी दी है। इसलिये अपने कल्याणके लिये दूसरेकी जरूरत नहीं है।
||श्रीहरि:||
भगवान्ने मनुष्यशरीर दिया है तो अपने कल्याणकी सामग्री भी पूरी दी है। इसलिये अपने कल्याणके लिये दूसरेकी जरूरत नहीं है।- साधक संजीवनी ६ । ५ परि०
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साधक संजीवनी ६ । ५ परि०··
साधकको आज ही, इसी समय यह स्वीकार कर लेना चाहिये कि हमारा सम्बन्ध तो केवल परमात्माके साथ ही है । हम साक्षात् परमात्माके अंश हैं और परमात्मामें ही रहते हैं। फिर मुक्त होने में कोई सन्देह नहीं है; क्योंकि हमने असली बात पकड़ ली।
||श्रीहरि:||
साधकको आज ही, इसी समय यह स्वीकार कर लेना चाहिये कि हमारा सम्बन्ध तो केवल परमात्माके साथ ही है । हम साक्षात् परमात्माके अंश हैं और परमात्मामें ही रहते हैं। फिर मुक्त होने में कोई सन्देह नहीं है; क्योंकि हमने असली बात पकड़ ली।- सत्यकी खोज ६१
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सत्यकी खोज ६१··
माँ कितनी ही दयालु क्यों न हो, पर आपकी भूख नहीं हो तो वह भोजन कैसे करायेगी ? ऐसे ही आपमें अपने कल्याणकी उत्कण्ठा न हो तो भगवान् परम दयालु होते हुए भी क्या करेंगे?
||श्रीहरि:||
माँ कितनी ही दयालु क्यों न हो, पर आपकी भूख नहीं हो तो वह भोजन कैसे करायेगी ? ऐसे ही आपमें अपने कल्याणकी उत्कण्ठा न हो तो भगवान् परम दयालु होते हुए भी क्या करेंगे?- क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ? ३२
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क्या गुरु बिना मुक्ति नहीं ? ३२··
कल्याणकी प्राप्तिमें केवल जिज्ञासा या लालसा मुख्य है। अपनी जिज्ञासा अथवा लालसा होगी तो कल्याणकी सब सामग्री मिल जायगी । सत्संग भी मिल जायगा, गुरु भी मिल जायगा, अच्छे सन्त महात्मा भी मिल जायँगे, अच्छे ग्रन्थ भी मिल जायँगे। कहाँ मिलेंगे, कैसे मिलेंगे- इसका पता नहीं, पर सच्ची जिज्ञासा या लालसा होगी तो जरूर मिलेंगे।
||श्रीहरि:||
कल्याणकी प्राप्तिमें केवल जिज्ञासा या लालसा मुख्य है। अपनी जिज्ञासा अथवा लालसा होगी तो कल्याणकी सब सामग्री मिल जायगी । सत्संग भी मिल जायगा, गुरु भी मिल जायगा, अच्छे सन्त महात्मा भी मिल जायँगे, अच्छे ग्रन्थ भी मिल जायँगे। कहाँ मिलेंगे, कैसे मिलेंगे- इसका पता नहीं, पर सच्ची जिज्ञासा या लालसा होगी तो जरूर मिलेंगे।- मेरे तो गिरधर गोपाल १४
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मेरे तो गिरधर गोपाल १४··
भगवान् हैं, वे मिलते हैं और वे मेरेको मिलेंगे- ऐसा विश्वास हो जाय तो जल्दी कल्याण हो जाय।
||श्रीहरि:||
भगवान् हैं, वे मिलते हैं और वे मेरेको मिलेंगे- ऐसा विश्वास हो जाय तो जल्दी कल्याण हो जाय।- ज्ञानके दीप जले १८४
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ज्ञानके दीप जले १८४··
कल्याण एकनिष्ठ होनेपर होता है। वह निष्ठा चाहे गुरुमें करें, चाहे नाममें करें, चाहे धाम, लीला आदिमें करें।
||श्रीहरि:||
कल्याण एकनिष्ठ होनेपर होता है। वह निष्ठा चाहे गुरुमें करें, चाहे नाममें करें, चाहे धाम, लीला आदिमें करें।- ज्ञानके दीप जले १९१
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ज्ञानके दीप जले १९१··
भगवान्ने कल्याणके लिये मनुष्यशरीर दिया है तो कल्याणके लिये योग्यता भी दी है। अतः यहाँ कल्याणके लिये योग्यता सम्पादन करनेकी जरूरत नहीं है, प्रत्युत प्राप्त योग्यताका सदुपयोग करनेकी जरूरत है।
||श्रीहरि:||
भगवान्ने कल्याणके लिये मनुष्यशरीर दिया है तो कल्याणके लिये योग्यता भी दी है। अतः यहाँ कल्याणके लिये योग्यता सम्पादन करनेकी जरूरत नहीं है, प्रत्युत प्राप्त योग्यताका सदुपयोग करनेकी जरूरत है।- सत्संगके फूल १५०
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सत्संगके फूल १५०··
जब कभी कल्याण होगा, भगवान्की कृपासे ही होगा। हम अपने सब कर्मोंका फल भोगकर कल्याण कर लेंगे - यह सम्भव नहीं है। भगवान् माफ करते हैं, तभी कल्याण होता है।
||श्रीहरि:||
जब कभी कल्याण होगा, भगवान्की कृपासे ही होगा। हम अपने सब कर्मोंका फल भोगकर कल्याण कर लेंगे - यह सम्भव नहीं है। भगवान् माफ करते हैं, तभी कल्याण होता है।- सागरके मोती ५९
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सागरके मोती ५९··
किसीका भी कल्याण होता है तो उसके मूलमें किसी सन्तकी अथवा भगवान्की कृपा होती है।
||श्रीहरि:||
किसीका भी कल्याण होता है तो उसके मूलमें किसी सन्तकी अथवा भगवान्की कृपा होती है।- अमृत-बिन्दु ८६
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अमृत-बिन्दु ८६··
अनादिकालसे सन्त होते आये हैं, भगवान्के अवतार भी अनेक हुए हैं, फिर भी आपका उद्धार क्यों नहीं हुआ ? क्योंकि आप उनके सम्मुख नहीं हुए, आपने उन्हें स्वीकार नहीं किया।
||श्रीहरि:||
अनादिकालसे सन्त होते आये हैं, भगवान्के अवतार भी अनेक हुए हैं, फिर भी आपका उद्धार क्यों नहीं हुआ ? क्योंकि आप उनके सम्मुख नहीं हुए, आपने उन्हें स्वीकार नहीं किया।- सागरके मोती ९६
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सागरके मोती ९६··
भगवान्, सन्त-महात्मा आदिके रहते हुए हमारा उद्धार नहीं हुआ है तो इसमें उद्धारकी सामग्रीकी कमी नहीं रही है अथवा हम अपना उद्धार करनेमें असमर्थ नहीं हुए हैं। हम अपना उद्धार करनेके लिये तैयार नहीं हुए, इसीसे वे सब मिलकर भी हमारा उद्धार करनेमें समर्थ नहीं हुए । अगर हम अपना उद्धार करनेके लिये तैयार हो जायँ, सम्मुख हो जायँ तो मनुष्यजन्म- जैसी सामग्री और कलियुग जैसा मौका प्राप्त करके हम कई बार अपना उद्धार कर सकते हैं। पर यह तब होगा, जब हम स्वयं अपना उद्धार करना चाहेंगे।
||श्रीहरि:||
भगवान्, सन्त-महात्मा आदिके रहते हुए हमारा उद्धार नहीं हुआ है तो इसमें उद्धारकी सामग्रीकी कमी नहीं रही है अथवा हम अपना उद्धार करनेमें असमर्थ नहीं हुए हैं। हम अपना उद्धार करनेके लिये तैयार नहीं हुए, इसीसे वे सब मिलकर भी हमारा उद्धार करनेमें समर्थ नहीं हुए । अगर हम अपना उद्धार करनेके लिये तैयार हो जायँ, सम्मुख हो जायँ तो मनुष्यजन्म- जैसी सामग्री और कलियुग जैसा मौका प्राप्त करके हम कई बार अपना उद्धार कर सकते हैं। पर यह तब होगा, जब हम स्वयं अपना उद्धार करना चाहेंगे।- साधक संजीवनी ६ । ५ वि०
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साधक संजीवनी ६ । ५ वि०··
भगवान्ने मनुष्यको कल्याणकी सामग्री कम नहीं दी है, प्रत्युत बहुत ज्यादा दी है। उम्र भी बहुत ज्यादा दी है। कल्याण मिनटोंमें हो सकता है, पर उसके लिये वर्षोंकी उम्र दी है। थोड़े-से विचारसे कल्याण हो सकता है, पर विचार करनेकी शक्ति बहुत दी है। सब सामग्री इतनी ज्यादा दी है कि मनुष्य अपना कल्याण कई बार कर ले । जबकि वास्तवमें एक बार कल्याण करनेके बाद दूसरी बार कल्याण करनेकी जरूरत ही नहीं रहती।
||श्रीहरि:||
भगवान्ने मनुष्यको कल्याणकी सामग्री कम नहीं दी है, प्रत्युत बहुत ज्यादा दी है। उम्र भी बहुत ज्यादा दी है। कल्याण मिनटोंमें हो सकता है, पर उसके लिये वर्षोंकी उम्र दी है। थोड़े-से विचारसे कल्याण हो सकता है, पर विचार करनेकी शक्ति बहुत दी है। सब सामग्री इतनी ज्यादा दी है कि मनुष्य अपना कल्याण कई बार कर ले । जबकि वास्तवमें एक बार कल्याण करनेके बाद दूसरी बार कल्याण करनेकी जरूरत ही नहीं रहती।- साधन-सुधा-सिन्धु १४
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साधन-सुधा-सिन्धु १४··
अपने कल्याणमें अगर कोई बाधा है तो वह है- भोग और ऐश्वर्य (संग्रह) की इच्छा।
||श्रीहरि:||
अपने कल्याणमें अगर कोई बाधा है तो वह है- भोग और ऐश्वर्य (संग्रह) की इच्छा।- साधक संजीवनी २ । ४४ परि०
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साधक संजीवनी २ । ४४ परि०··
भोगोंकी इच्छाका त्याग करनेके लिये मुक्तिकी इच्छा करना आवश्यक है । परन्तु मुक्ति पानेके लिये मुक्तिकी इच्छा करना बाधक है।
||श्रीहरि:||
भोगोंकी इच्छाका त्याग करनेके लिये मुक्तिकी इच्छा करना आवश्यक है । परन्तु मुक्ति पानेके लिये मुक्तिकी इच्छा करना बाधक है।- अमृत-बिन्दु ३३८
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अमृत-बिन्दु ३३८··
यह सिद्धान्त है कि जबतक मनुष्य अपने लिये कर्म करता है, तबतक उसके कर्मकी समाप्ति नहीं होती और वह कर्मोंसे बँधता ही जाता है। कृतकृत्य वही होता है, जो अपने लिये कभी कुछ नहीं करता।
||श्रीहरि:||
यह सिद्धान्त है कि जबतक मनुष्य अपने लिये कर्म करता है, तबतक उसके कर्मकी समाप्ति नहीं होती और वह कर्मोंसे बँधता ही जाता है। कृतकृत्य वही होता है, जो अपने लिये कभी कुछ नहीं करता।- साधक संजीवनी ३ । १२
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साधक संजीवनी ३ । १२··
कल्याणके लिये नया काम करनेकी जरूरत नहीं है, प्रत्युत जो काम करते हैं, उसीको स्वार्थ, अभिमान और फलेच्छाका त्याग करके दूसरोंके हितके लिये करें तो कल्याण हो जायगा।
||श्रीहरि:||
कल्याणके लिये नया काम करनेकी जरूरत नहीं है, प्रत्युत जो काम करते हैं, उसीको स्वार्थ, अभिमान और फलेच्छाका त्याग करके दूसरोंके हितके लिये करें तो कल्याण हो जायगा।- साधक संजीवनी ३ । ११ परि०
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साधक संजीवनी ३ । ११ परि०··
हमारेमें जो कुछ भी विशेषता है, वह दूसरोंके लिये है, अपने लिये नहीं। अगर सभी मनुष्य ऐसा करने लगें तो कोई भी बद्ध नहीं रहेगा, सब जीवन्मुक्त हो जायँगे। मिली हुई वस्तुको दूसरोंकी सेवामें लगा दिया तो अपने घरका क्या खर्च हुआ ? मुफ्तमें कल्याण होगा। इसके सिवाय मुक्ति के लिये और कुछ करनेकी जरूरत ही नहीं है।
||श्रीहरि:||
हमारेमें जो कुछ भी विशेषता है, वह दूसरोंके लिये है, अपने लिये नहीं। अगर सभी मनुष्य ऐसा करने लगें तो कोई भी बद्ध नहीं रहेगा, सब जीवन्मुक्त हो जायँगे। मिली हुई वस्तुको दूसरोंकी सेवामें लगा दिया तो अपने घरका क्या खर्च हुआ ? मुफ्तमें कल्याण होगा। इसके सिवाय मुक्ति के लिये और कुछ करनेकी जरूरत ही नहीं है।- साधक संजीवनी ३ । १३ परि०
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साधक संजीवनी ३ । १३ परि०··
केवल दूसरोंके हितके लिये सब कर्म करनेसे पुराना ऋण समाप्त हो जाता है और अपने लिये कुछ न करने तथा कुछ न चाहनेसे नया ऋण उत्पन्न नहीं होता। इस तरह जब पुराना ऋण समाप्त हो जाता है और नया ऋण उत्पन्न नहीं होता, तब बन्धनका कोई कारण न रहने से मनुष्य स्वतः मुक्त हो जाता है।
||श्रीहरि:||
केवल दूसरोंके हितके लिये सब कर्म करनेसे पुराना ऋण समाप्त हो जाता है और अपने लिये कुछ न करने तथा कुछ न चाहनेसे नया ऋण उत्पन्न नहीं होता। इस तरह जब पुराना ऋण समाप्त हो जाता है और नया ऋण उत्पन्न नहीं होता, तब बन्धनका कोई कारण न रहने से मनुष्य स्वतः मुक्त हो जाता है।- साधक संजीवनी ३ । १९
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साधक संजीवनी ३ । १९··
पापी - से- पापी मनुष्य भी यदि चाहे तो इसी जन्ममें अभी अपना कल्याण कर सकता है। पुराने पाप उतने बाधक नहीं होते, जितने वर्तमानके पाप बाधक होते हैं। अगर मनुष्य वर्तमानमें पाप करना छोड़ दे और निश्चय कर ले कि अब मैं कभी पाप नहीं करूँगा और केवल तत्त्वज्ञानको प्राप्त करूँगा, तो उसके पापोंका नाश होते देरी नही लगती।
||श्रीहरि:||
पापी - से- पापी मनुष्य भी यदि चाहे तो इसी जन्ममें अभी अपना कल्याण कर सकता है। पुराने पाप उतने बाधक नहीं होते, जितने वर्तमानके पाप बाधक होते हैं। अगर मनुष्य वर्तमानमें पाप करना छोड़ दे और निश्चय कर ले कि अब मैं कभी पाप नहीं करूँगा और केवल तत्त्वज्ञानको प्राप्त करूँगा, तो उसके पापोंका नाश होते देरी नही लगती।- साधक संजीवनी ४ । ३६
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साधक संजीवनी ४ । ३६··
यदि साधकका यह दृढ़ निश्चय हो जाय कि मुझे एक परमात्मप्राप्तिके सिवाय कुछ नहीं चाहिये, तो वह वर्तमानमें ही मुक्त हो सकता है।....मुक्त होनेके लिये इच्छारहित होना आवश्यक है ।.......जिसने वस्तुओंकी और जीनेकी इच्छाका सर्वथा त्याग कर दिया है, वह जीते-जी मुक्त हो जाता है, अमर हो जाता है।
||श्रीहरि:||
यदि साधकका यह दृढ़ निश्चय हो जाय कि मुझे एक परमात्मप्राप्तिके सिवाय कुछ नहीं चाहिये, तो वह वर्तमानमें ही मुक्त हो सकता है।....मुक्त होनेके लिये इच्छारहित होना आवश्यक है ।.......जिसने वस्तुओंकी और जीनेकी इच्छाका सर्वथा त्याग कर दिया है, वह जीते-जी मुक्त हो जाता है, अमर हो जाता है।- साधक संजीवनी ५। २८
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साधक संजीवनी ५। २८··
कामनाएँ, देवता, मनुष्य और नियम - ये सभी अनेक हुआ करते हैं। अगर अनेक कामनाएँ होनेपर भी उपास्यदेव एक परमात्मा हों तो वे उपासकका उद्धार कर देंगे। परन्तु कामनाएँ भी अनेक हों और उपास्यदेव भी अनेक हों तो उद्धार कौन करेगा?
||श्रीहरि:||
कामनाएँ, देवता, मनुष्य और नियम - ये सभी अनेक हुआ करते हैं। अगर अनेक कामनाएँ होनेपर भी उपास्यदेव एक परमात्मा हों तो वे उपासकका उद्धार कर देंगे। परन्तु कामनाएँ भी अनेक हों और उपास्यदेव भी अनेक हों तो उद्धार कौन करेगा?- साधक संजीवनी ७ २० परि०
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साधक संजीवनी ७ २० परि०··
बौद्ध, जैन आदि सम्प्रदायोंमें चलनेवाले जितने मनुष्य हैं, जो कि ईश्वरको नहीं मानते, वे भी अपने-अपने सम्प्रदायके सिद्धान्तोंके अनुसार साधन करके असत् जड़रूप संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करके मुक्त हो जाते हैं। परन्तु जो संसारसे विमुख होकर भगवान्का आश्रय लेकर यत्न करते हैं, उनको भगवान् के समग्ररूपका बोध होकर भगवत्प्रेमकी प्राप्ति हो जाती है।
||श्रीहरि:||
बौद्ध, जैन आदि सम्प्रदायोंमें चलनेवाले जितने मनुष्य हैं, जो कि ईश्वरको नहीं मानते, वे भी अपने-अपने सम्प्रदायके सिद्धान्तोंके अनुसार साधन करके असत् जड़रूप संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करके मुक्त हो जाते हैं। परन्तु जो संसारसे विमुख होकर भगवान्का आश्रय लेकर यत्न करते हैं, उनको भगवान् के समग्ररूपका बोध होकर भगवत्प्रेमकी प्राप्ति हो जाती है।- साधक संजीवनी ७। २९
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ७। २९··
मनुष्य खुद अपने कल्याणमें लग जाय तो इसमें धर्म ग्रन्थ, महात्मा, संसार, भगवान् सब सहायता करते हैं।
||श्रीहरि:||
मनुष्य खुद अपने कल्याणमें लग जाय तो इसमें धर्म ग्रन्थ, महात्मा, संसार, भगवान् सब सहायता करते हैं।- साधक संजीवनी ९ । ३ परि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ९ । ३ परि०··
वास्तवमें सब कुछ भगवान्का ही रूप है । परन्तु जो भगवान्के सिवाय दूसरी कोई भी स्वतन्त्र सत्ता मानता है, उसका उद्धार नहीं होता। वह ऊँचे से ऊँचे लोकोंमें भी चला जाय तो भी उसको लौटकर संसारमें आना ही पड़ता है (गीता ८। १६) ।
||श्रीहरि:||
वास्तवमें सब कुछ भगवान्का ही रूप है । परन्तु जो भगवान्के सिवाय दूसरी कोई भी स्वतन्त्र सत्ता मानता है, उसका उद्धार नहीं होता। वह ऊँचे से ऊँचे लोकोंमें भी चला जाय तो भी उसको लौटकर संसारमें आना ही पड़ता है (गीता ८। १६) ।- साधक संजीवनी ९।२५ परि०
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साधक संजीवनी ९।२५ परि०··
बन्धन, नरकोंकी प्राप्ति, चौरासी लाख योनियोंकी प्राप्ति - ये सभी कृतिसाध्य हैं और मुक्ति, कल्याण, भगवत्प्राप्ति, भगवत्प्रेम आदि सभी स्वत: सिद्ध हैं ।
||श्रीहरि:||
बन्धन, नरकोंकी प्राप्ति, चौरासी लाख योनियोंकी प्राप्ति - ये सभी कृतिसाध्य हैं और मुक्ति, कल्याण, भगवत्प्राप्ति, भगवत्प्रेम आदि सभी स्वत: सिद्ध हैं ।- साधक संजीवनी ११ । ३३
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ११ । ३३··
एकान्तके बिना, कर्मोंको छोड़े बिना, वस्तुओंका त्याग किये बिना, स्वजनोंके त्यागके बिना - प्रत्येक परिस्थितिमें मनुष्य अपना कल्याण कर सकता है।
||श्रीहरि:||
एकान्तके बिना, कर्मोंको छोड़े बिना, वस्तुओंका त्याग किये बिना, स्वजनोंके त्यागके बिना - प्रत्येक परिस्थितिमें मनुष्य अपना कल्याण कर सकता है।- साधक संजीवनी १२ । १२ वि०
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साधक संजीवनी १२ । १२ वि०··
फलासक्तिका त्याग कर देनेपर न तो कोई नये कर्म करने पड़ते हैं, न आश्रम, देश आदिका परिवर्तन ही करना पड़ता है, प्रत्युत साधक जहाँ है, जो करता है, जैसी परिस्थितिमें है, उसीमें (फलासक्तिके त्यागसे) बहुत सुगमतासे अपना कल्याण कर सकता है।
||श्रीहरि:||
फलासक्तिका त्याग कर देनेपर न तो कोई नये कर्म करने पड़ते हैं, न आश्रम, देश आदिका परिवर्तन ही करना पड़ता है, प्रत्युत साधक जहाँ है, जो करता है, जैसी परिस्थितिमें है, उसीमें (फलासक्तिके त्यागसे) बहुत सुगमतासे अपना कल्याण कर सकता है।- साधक संजीवनी १२ । १२ वि०
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साधक संजीवनी १२ । १२ वि०··
प्रेम और बोध—दोनोंमें ही गुणोंका संग नहीं रहता। दोनोंमें अन्तर यह है कि बोधमें तो जन्म- मरणसे मुक्ति होती है, पर प्रेममें मुक्तिके साथ - साथ भगवान् से अभिन्नता होती है।
||श्रीहरि:||
प्रेम और बोध—दोनोंमें ही गुणोंका संग नहीं रहता। दोनोंमें अन्तर यह है कि बोधमें तो जन्म- मरणसे मुक्ति होती है, पर प्रेममें मुक्तिके साथ - साथ भगवान् से अभिन्नता होती है।- साधक संजीवनी १९३ । २३ परि०
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साधक संजीवनी १९३ । २३ परि०··
संसारकी चीज संसारको दे दे और परमात्माकी चीज परमात्माको दे दे - यह ईमानदारी है। इस ईमानदारीका नाम ही 'मुक्ति' है। जिसकी चीज है, उसको न दे; संसारकी चीज भी ले ले और परमात्माकी चीज भी ले ले - यह बेईमानी है। इस बेईमानीका नाम ही 'बन्धन' है।
||श्रीहरि:||
संसारकी चीज संसारको दे दे और परमात्माकी चीज परमात्माको दे दे - यह ईमानदारी है। इस ईमानदारीका नाम ही 'मुक्ति' है। जिसकी चीज है, उसको न दे; संसारकी चीज भी ले ले और परमात्माकी चीज भी ले ले - यह बेईमानी है। इस बेईमानीका नाम ही 'बन्धन' है।- साधक संजीवनी १५ । ७ वि०
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साधक संजीवनी १५ । ७ वि०··
संसारमें लाखों-करोड़ों घर हैं, अरबों आदमी हैं, अनगिनत रुपये हैं, पर उनकी चिन्ता नहीं होती; क्योंकि उनको वह अपना नहीं मानता। जिनको अपना नहीं मानता, उनसे तो मुक्त है ही । अतः ज्यादा मुक्ति तो हो चुकी है, थोड़ी-सी ही मुक्ति बाकी है।
||श्रीहरि:||
संसारमें लाखों-करोड़ों घर हैं, अरबों आदमी हैं, अनगिनत रुपये हैं, पर उनकी चिन्ता नहीं होती; क्योंकि उनको वह अपना नहीं मानता। जिनको अपना नहीं मानता, उनसे तो मुक्त है ही । अतः ज्यादा मुक्ति तो हो चुकी है, थोड़ी-सी ही मुक्ति बाकी है।- साधक संजीवनी १५ । ७ वि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी १५ । ७ वि०··
शास्त्रोंमें प्रायः ऐसी बात आती है कि संसारकी निवृत्ति करनेसे ही मनुष्य पारमार्थिक मार्गपर चल सकता है और उसका कल्याण हो सकता है। मनुष्योंमें भी प्राय: ऐसी ही धारणा बैठी हुई है कि घर, कुटुम्ब आदिको छोड़कर साधु-संन्यासी होनेसे ही कल्याण होता है । परन्तु गीता कहती है कि कोई भी परिस्थिति, अवस्था, घटना, देश, काल आदि क्यों न हो, उसीके सदुपयोगसे मनुष्यका कल्याण हो सकता है।
||श्रीहरि:||
शास्त्रोंमें प्रायः ऐसी बात आती है कि संसारकी निवृत्ति करनेसे ही मनुष्य पारमार्थिक मार्गपर चल सकता है और उसका कल्याण हो सकता है। मनुष्योंमें भी प्राय: ऐसी ही धारणा बैठी हुई है कि घर, कुटुम्ब आदिको छोड़कर साधु-संन्यासी होनेसे ही कल्याण होता है । परन्तु गीता कहती है कि कोई भी परिस्थिति, अवस्था, घटना, देश, काल आदि क्यों न हो, उसीके सदुपयोगसे मनुष्यका कल्याण हो सकता है।- साधक संजीवनी १८ । ७४
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साधक संजीवनी १८ । ७४··
वास्तवमें जो बद्ध होता है, वह मुक्त नहीं होता और जो मुक्त होता है, वह मुक्त क्या होगा ? क्योंकि वह तो मुक्त ही है। तो फिर मुक्त होना क्या है ? वास्तवमें मुक्त होते हुए भी जिस बन्धनको स्वीकार किया है, उस बन्धनसे छूटनेका नाम ही मुक्त होना है।
||श्रीहरि:||
वास्तवमें जो बद्ध होता है, वह मुक्त नहीं होता और जो मुक्त होता है, वह मुक्त क्या होगा ? क्योंकि वह तो मुक्त ही है। तो फिर मुक्त होना क्या है ? वास्तवमें मुक्त होते हुए भी जिस बन्धनको स्वीकार किया है, उस बन्धनसे छूटनेका नाम ही मुक्त होना है।- साधक संजीवनी १८ । ७४ टि०
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साधक संजीवनी १८ । ७४ टि०··
कल्याण शरीरका नहीं होता, प्रत्युत जीवात्माका होता है। जीवात्मा न ब्रह्मचारी है, न गृहस्थ है, न वानप्रस्थ है, न संन्यासी है। वह न ब्राह्मण है, न क्षत्रिय है, न वैश्य है, न शूद्र है। वह न हिन्दू है, न मुसलमान है, न ईसाई है, न यहूदी है, न पारसी है। जीवात्मा तो परमात्माका अंश है।
||श्रीहरि:||
कल्याण शरीरका नहीं होता, प्रत्युत जीवात्माका होता है। जीवात्मा न ब्रह्मचारी है, न गृहस्थ है, न वानप्रस्थ है, न संन्यासी है। वह न ब्राह्मण है, न क्षत्रिय है, न वैश्य है, न शूद्र है। वह न हिन्दू है, न मुसलमान है, न ईसाई है, न यहूदी है, न पारसी है। जीवात्मा तो परमात्माका अंश है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १००
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १००··
अगर अपना कल्याण चाहते हो तो रात-दिन भगवान् के नामका जप करो और यह पुकारो कि 'हे नाथ। हे प्रभो । हे स्वामिन्। मैं आपको भूलूँ नहीं। आपके चरणोंमें मेरा चित्त लग जाय '।
||श्रीहरि:||
अगर अपना कल्याण चाहते हो तो रात-दिन भगवान् के नामका जप करो और यह पुकारो कि 'हे नाथ। हे प्रभो । हे स्वामिन्। मैं आपको भूलूँ नहीं। आपके चरणोंमें मेरा चित्त लग जाय '।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १३४
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १३४··
मुक्ति स्वाभाविक है, बन्धन कृत्रिम है। मूलमें सब शुद्ध हैं, अशुद्धि आयी हुई है। कितना ही पापी हो, उसमें शुद्धि हरदम रहती है, अशुद्धि हरदम नहीं रहती । अतः हम सब-के-सब मुक्त हो सकते हैं, इसमें आश्चर्यकी बात नहीं है।
||श्रीहरि:||
मुक्ति स्वाभाविक है, बन्धन कृत्रिम है। मूलमें सब शुद्ध हैं, अशुद्धि आयी हुई है। कितना ही पापी हो, उसमें शुद्धि हरदम रहती है, अशुद्धि हरदम नहीं रहती । अतः हम सब-के-सब मुक्त हो सकते हैं, इसमें आश्चर्यकी बात नहीं है।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १४६
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १४६··
सब-के-सब भाई-बहन तीन बातोंका खूब मनन करें - १) हम अपने साथ कुछ लाये नहीं थे, २) हम अपने साथ कुछ नहीं ले जा सकेंगे, और ३) जो चीज मिलती है और बिछुड़ जाती है, वह अपनी नहीं होती। अगर आप कल्याण चाहते हो तो चलते-फिरते, उठते-बैठते इन तीन बातोंका मनन करो। इससे बहुत लाभ होगा।
||श्रीहरि:||
सब-के-सब भाई-बहन तीन बातोंका खूब मनन करें - १) हम अपने साथ कुछ लाये नहीं थे, २) हम अपने साथ कुछ नहीं ले जा सकेंगे, और ३) जो चीज मिलती है और बिछुड़ जाती है, वह अपनी नहीं होती। अगर आप कल्याण चाहते हो तो चलते-फिरते, उठते-बैठते इन तीन बातोंका मनन करो। इससे बहुत लाभ होगा।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १८०
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १८०··
आप एक बात दृढ़तासे पकड़ लें कि हमारी चीज कोई नहीं है। जब कोई चीज हमारी नहीं है तो फिर हमें क्या चाहिये ? 'मेरा कुछ नहीं है ' - यह बात समझनेके बाद 'मेरेको कुछ भी नहीं चाहिये' – यह बात समझमें आ जायगी। यह समझमें आते ही 'मैं कुछ नहीं है' – यह समझमें आ जायगा और पूर्णता हो जायगी, कुछ बाकी नहीं रहेगा। श्रवण, मनन, निदिध्यासन आदि किसीकी जरूरत नहीं है, केवल इतनेसे काम हो जायगा।
||श्रीहरि:||
आप एक बात दृढ़तासे पकड़ लें कि हमारी चीज कोई नहीं है। जब कोई चीज हमारी नहीं है तो फिर हमें क्या चाहिये ? 'मेरा कुछ नहीं है ' - यह बात समझनेके बाद 'मेरेको कुछ भी नहीं चाहिये' – यह बात समझमें आ जायगी। यह समझमें आते ही 'मैं कुछ नहीं है' – यह समझमें आ जायगा और पूर्णता हो जायगी, कुछ बाकी नहीं रहेगा। श्रवण, मनन, निदिध्यासन आदि किसीकी जरूरत नहीं है, केवल इतनेसे काम हो जायगा।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १८७ - १८८
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १८७ - १८८··
जो सबका कल्याण चाहता है, उसका कल्याण सुगमतासे होता है।
||श्रीहरि:||
जो सबका कल्याण चाहता है, उसका कल्याण सुगमतासे होता है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ३३
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश ३३··
अपना कल्याण करना हो तो किसीके साथ वैर मत रखो, विधर्मीके साथ भी नहीं।
||श्रीहरि:||
अपना कल्याण करना हो तो किसीके साथ वैर मत रखो, विधर्मीके साथ भी नहीं।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश २१४
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश २१४··
जो संसारसे मर जाता है, वह मुक्त हो जाता है अर्थात् जीते-जी अमर हो जाता है। अगर आप सदाके लिये जीना चाहते हो तो संसारसे मरना पड़ेगा। संसारसे मरना क्या है ? यह शरीर हमारा हैं, ये रुपये हमारे हैं, यह जमीन हमारी है, यह कुटुम्ब हमारा है - इसको छोड़ दो, यही जीते- जी मरना है। जो मर जाता है, वह किसी वस्तुको अपनी कहता है क्या? जैसे मरा हुआ आदमी किसीको अपना नहीं कहता, ऐसे ही आप जीते हुए ही किसीको अपना मत मानो।
||श्रीहरि:||
जो संसारसे मर जाता है, वह मुक्त हो जाता है अर्थात् जीते-जी अमर हो जाता है। अगर आप सदाके लिये जीना चाहते हो तो संसारसे मरना पड़ेगा। संसारसे मरना क्या है ? यह शरीर हमारा हैं, ये रुपये हमारे हैं, यह जमीन हमारी है, यह कुटुम्ब हमारा है - इसको छोड़ दो, यही जीते- जी मरना है। जो मर जाता है, वह किसी वस्तुको अपनी कहता है क्या? जैसे मरा हुआ आदमी किसीको अपना नहीं कहता, ऐसे ही आप जीते हुए ही किसीको अपना मत मानो।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ४२
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश ४२··
मनुष्यशरीरमें अन्तकालतक मुक्तिका दरवाजा खुला है, कभी भी लग जाओ।
||श्रीहरि:||
मनुष्यशरीरमें अन्तकालतक मुक्तिका दरवाजा खुला है, कभी भी लग जाओ।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ७७
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश ७७··
आपको अधिकार इतना बड़ा मिला हुआ है कि लाखोंका उद्धार कर सकते हैं, पर अपना भी उद्धार नहीं कर सके, यह कितनी शर्मकी बात है। अपना कल्याण करो या पतन करो, इसके लिये ये ही दिन हैं, नये दिन नहीं आयेंगे।
||श्रीहरि:||
आपको अधिकार इतना बड़ा मिला हुआ है कि लाखोंका उद्धार कर सकते हैं, पर अपना भी उद्धार नहीं कर सके, यह कितनी शर्मकी बात है। अपना कल्याण करो या पतन करो, इसके लिये ये ही दिन हैं, नये दिन नहीं आयेंगे।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ८२
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश ८२··
मुक्ति होती नहीं, प्रत्युत मुक्ति है। जो होती है, वह मुक्ति नहीं होती।
||श्रीहरि:||
मुक्ति होती नहीं, प्रत्युत मुक्ति है। जो होती है, वह मुक्ति नहीं होती।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १३१
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १३१··
वास्तवमें मुक्त ही मुक्त होता है, बद्ध मुक्त नहीं होता।
||श्रीहरि:||
वास्तवमें मुक्त ही मुक्त होता है, बद्ध मुक्त नहीं होता।- अमृत-बिन्दु ३४७
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अमृत-बिन्दु ३४७··
मुक्ति स्वर्गादि लोकोंकी तरह एक स्थानविशेषमें नहीं है। मुक्त आप हैं ही। मिटनेवालेसे अलग हो जाओ तो मुक्ति स्वतः सिद्ध है।
||श्रीहरि:||
मुक्ति स्वर्गादि लोकोंकी तरह एक स्थानविशेषमें नहीं है। मुक्त आप हैं ही। मिटनेवालेसे अलग हो जाओ तो मुक्ति स्वतः सिद्ध है।- स्वातिकी बूँदें २७
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स्वातिकी बूँदें २७··
आपको कोई प्रयत्न करनेकी जरूरत नहीं । केवल अपनी चाह छोड़ दो। कोई भी चाह मत करो, न संसारको छोड़नेकी, न परमात्माको पकड़नेकी । न जीनेकी, न मरनेकी । चाह छोड़ते ही सर्वथा मुक्त हो जाओगे।
||श्रीहरि:||
आपको कोई प्रयत्न करनेकी जरूरत नहीं । केवल अपनी चाह छोड़ दो। कोई भी चाह मत करो, न संसारको छोड़नेकी, न परमात्माको पकड़नेकी । न जीनेकी, न मरनेकी । चाह छोड़ते ही सर्वथा मुक्त हो जाओगे।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १३७
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १३७··
जबतक आपके भीतर भोग और संग्रहकी इच्छा है, तबतक भले ही संसारमें आपकी महिमा, प्रशंसा, प्रसिद्धि, वाह-वाह हो जाय, जलूस निकाला जाय, मरनेके बाद आपका मन्दिर बनाया जाय, पर मुक्ति नहीं होगी।
||श्रीहरि:||
जबतक आपके भीतर भोग और संग्रहकी इच्छा है, तबतक भले ही संसारमें आपकी महिमा, प्रशंसा, प्रसिद्धि, वाह-वाह हो जाय, जलूस निकाला जाय, मरनेके बाद आपका मन्दिर बनाया जाय, पर मुक्ति नहीं होगी।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १४१
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १४१··
जो अपना उद्धार कर लेता है, उसको दुनियामात्रका उद्धार करनेका फल मिलता है।
||श्रीहरि:||
जो अपना उद्धार कर लेता है, उसको दुनियामात्रका उद्धार करनेका फल मिलता है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १७२
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १७२··
कल्याण करना आपके हककी, अधिकारकी चीज है। इसपर आपका पूरा हक लगता है। आप तो बिना हककी (दूसरोंके हककी) चीज भी ले लेते हो, फिर अपने हककी चीज लेनेमें क्या बाधा है ?
||श्रीहरि:||
कल्याण करना आपके हककी, अधिकारकी चीज है। इसपर आपका पूरा हक लगता है। आप तो बिना हककी (दूसरोंके हककी) चीज भी ले लेते हो, फिर अपने हककी चीज लेनेमें क्या बाधा है ?- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १९९
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १९९··
आपने बहुत बातें सीख लीं, पर कल्याण नहीं हुआ तो क्या फायदा? और कल्याण हो जाय तो बहुत-सी बातें नहीं जाननेसे नुकसान क्या हुआ ?
||श्रीहरि:||
आपने बहुत बातें सीख लीं, पर कल्याण नहीं हुआ तो क्या फायदा? और कल्याण हो जाय तो बहुत-सी बातें नहीं जाननेसे नुकसान क्या हुआ ?- नये रास्ते, नयी दिशाएँ ५१-५२
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ ५१-५२··
जबतक रुपयोंका और भोगोंका महत्त्व चित्तमें जमा हुआ है, तबतक कितनी ही बातें बनाओ, मुक्ति नहीं होगी, कल्याण नहीं होगा।
||श्रीहरि:||
जबतक रुपयोंका और भोगोंका महत्त्व चित्तमें जमा हुआ है, तबतक कितनी ही बातें बनाओ, मुक्ति नहीं होगी, कल्याण नहीं होगा।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ १०५
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ १०५··
मुक्ति जीते-जी, शरीरके रहते-रहते हो सकती है। राम, कृष्ण, विष्णु आदिके दर्शन भी जीते - जी हो सकते हैं।
||श्रीहरि:||
मुक्ति जीते-जी, शरीरके रहते-रहते हो सकती है। राम, कृष्ण, विष्णु आदिके दर्शन भी जीते - जी हो सकते हैं।- अनन्तकी ओर २५
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अनन्तकी ओर २५··
अगर आप परमात्माकी प्राप्ति चाहते हैं, अपना कल्याण चाहते हैं तो एक सिद्धान्तकी बात है कि स्थूल, सूक्ष्म और कारण - ये तीनों शरीर केवल सेवाके लिये हैं। इन शरीरोंके द्वारा परमात्मप्राप्ति अथवा आध्यात्मिक उन्नति कभी नहीं होगी। जबतक मनमें इनका भरोसा है, तबतक कल्याण नहीं होगा।
||श्रीहरि:||
अगर आप परमात्माकी प्राप्ति चाहते हैं, अपना कल्याण चाहते हैं तो एक सिद्धान्तकी बात है कि स्थूल, सूक्ष्म और कारण - ये तीनों शरीर केवल सेवाके लिये हैं। इन शरीरोंके द्वारा परमात्मप्राप्ति अथवा आध्यात्मिक उन्नति कभी नहीं होगी। जबतक मनमें इनका भरोसा है, तबतक कल्याण नहीं होगा।- अनन्तकी ओर १५८
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
अनन्तकी ओर १५८··
दूसरे काम बाकी रह जायँगे तो उन्हें अन्य लोग पूरा कर देंगे, पर आपका कल्याण कौन करेगा ? जैसे भोजन तो हमें खुदको ही करना पड़ता है, ऐसे ही अपना कल्याण भी खुदको ही करना पड़ेगा। जब पेट भी दूसरेके भोजन करनेसे नहीं भरता, फिर कल्याण दूसरे कैसे करेंगे ?
||श्रीहरि:||
दूसरे काम बाकी रह जायँगे तो उन्हें अन्य लोग पूरा कर देंगे, पर आपका कल्याण कौन करेगा ? जैसे भोजन तो हमें खुदको ही करना पड़ता है, ऐसे ही अपना कल्याण भी खुदको ही करना पड़ेगा। जब पेट भी दूसरेके भोजन करनेसे नहीं भरता, फिर कल्याण दूसरे कैसे करेंगे ?- स्वातिकी बूँदें ९
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
स्वातिकी बूँदें ९··
कल्याण जितना सुगम है, उतना सुगम नरक, स्वर्ग, भोग आदि नहीं है। आपका स्वरूप खुदका है, उसे जानना कठिन है तो फिर सुगम क्या है ?
||श्रीहरि:||
कल्याण जितना सुगम है, उतना सुगम नरक, स्वर्ग, भोग आदि नहीं है। आपका स्वरूप खुदका है, उसे जानना कठिन है तो फिर सुगम क्या है ?- स्वातिकी बूँदें १४
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
स्वातिकी बूँदें १४··
जो कहीं है, कहीं नहीं है, वह कहीं भी नहीं है- यह तात्त्विक बात है। जो किसी जगह नहीं है, उसका कहीं भाव दीखते हुए भी अभाव ही है। तात्पर्य यह कि एक परमात्मतत्त्व ही है, संसार है ही नहीं । असत्की सत्ता है ही नहीं। मनुष्य असत्से ही मुक्त होता है। जब असत् है ही नहीं तो फिर मुक्ति स्वत: सिद्ध है। मात्र संसारका वियोग नित्य है तथा परमात्माका योग नित्य है; अतः जीवन्मुक्ति स्वत: है।
||श्रीहरि:||
जो कहीं है, कहीं नहीं है, वह कहीं भी नहीं है- यह तात्त्विक बात है। जो किसी जगह नहीं है, उसका कहीं भाव दीखते हुए भी अभाव ही है। तात्पर्य यह कि एक परमात्मतत्त्व ही है, संसार है ही नहीं । असत्की सत्ता है ही नहीं। मनुष्य असत्से ही मुक्त होता है। जब असत् है ही नहीं तो फिर मुक्ति स्वत: सिद्ध है। मात्र संसारका वियोग नित्य है तथा परमात्माका योग नित्य है; अतः जीवन्मुक्ति स्वत: है।- स्वातिकी बूँदें ४५
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स्वातिकी बूँदें ४५··
अगर भीतरमें राग-द्वेष हैं तो साधु बननेपर, संन्यास लेनेपर भी मुक्ति नहीं होगी। मुक्तिके लिये राग-द्वेषका त्याग करनेकी जरूरत है, साधु बनने, कपड़ोंका रंग बदलनेकी जरूरत नहीं।
||श्रीहरि:||
अगर भीतरमें राग-द्वेष हैं तो साधु बननेपर, संन्यास लेनेपर भी मुक्ति नहीं होगी। मुक्तिके लिये राग-द्वेषका त्याग करनेकी जरूरत है, साधु बनने, कपड़ोंका रंग बदलनेकी जरूरत नहीं।- स्वातिकी बूँदें ९०
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स्वातिकी बूँदें ९०··
अधिक धनी, अधिक विद्वान्, अधिक दरिद्र और अधिक रोगी - इनका कल्याण होना कठिन है। कारण कि अधिक धनीमें धनकी अधिक आसक्ति रहती है, अधिक विद्वानमें विद्याकी अधिक आसक्ति रहती है, अधिक दरिद्रमें धनकी अधिक आसक्ति रहती है और अधिक रोगीमें शरीरकी अधिक आसक्ति रहती है। यह आसक्ति ही उनके कल्याणमें बाधक होती है। आसक्ति अधिक होनेके कारण ये जल्दी भगवान्में नहीं लगते। यदि आसक्ति न रहे तो इनका भी कल्याण हो सकता है।
||श्रीहरि:||
अधिक धनी, अधिक विद्वान्, अधिक दरिद्र और अधिक रोगी - इनका कल्याण होना कठिन है। कारण कि अधिक धनीमें धनकी अधिक आसक्ति रहती है, अधिक विद्वानमें विद्याकी अधिक आसक्ति रहती है, अधिक दरिद्रमें धनकी अधिक आसक्ति रहती है और अधिक रोगीमें शरीरकी अधिक आसक्ति रहती है। यह आसक्ति ही उनके कल्याणमें बाधक होती है। आसक्ति अधिक होनेके कारण ये जल्दी भगवान्में नहीं लगते। यदि आसक्ति न रहे तो इनका भी कल्याण हो सकता है।- प्रश्नोत्तरमणिमाला २६६
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प्रश्नोत्तरमणिमाला २६६··
कल्याण क्रियासे नहीं होता, प्रत्युत भाव और विवेकसे होता है।
||श्रीहरि:||
कल्याण क्रियासे नहीं होता, प्रत्युत भाव और विवेकसे होता है।- अमृत-बिन्दु ८२
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अमृत-बिन्दु ८२··
कल्याण कलकी बात नहीं है, आजकी बात है।
||श्रीहरि:||
कल्याण कलकी बात नहीं है, आजकी बात है।- स्वातिकी बूँदें १२०
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स्वातिकी बूँदें १२०··
मुक्तिकी इच्छा रहनेसे शरीरके रहनेकी इच्छा नहीं होती, अगर होती है तो मुक्तिकी इच्छा है ही नहीं ।
||श्रीहरि:||
मुक्तिकी इच्छा रहनेसे शरीरके रहनेकी इच्छा नहीं होती, अगर होती है तो मुक्तिकी इच्छा है ही नहीं ।- अमृत-बिन्दु ३२९
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अमृत-बिन्दु ३२९··
मुक्ति स्वयंकी होती है, शरीरकी नहीं। अतः मुक्त होनेपर शरीर संसारसे अलग नहीं होता, प्रत्युत स्वयं शरीर-संसारसे अलग होता है।
||श्रीहरि:||
मुक्ति स्वयंकी होती है, शरीरकी नहीं। अतः मुक्त होनेपर शरीर संसारसे अलग नहीं होता, प्रत्युत स्वयं शरीर-संसारसे अलग होता है।- अमृत-बिन्दु ३४३
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अमृत-बिन्दु ३४३··
‘फिर करेंगे'–यह महान् पतन करनेवाली बात है । ऐसे स्वभाववाले व्यक्तिका कल्याण होना कठिन है।
||श्रीहरि:||
‘फिर करेंगे'–यह महान् पतन करनेवाली बात है । ऐसे स्वभाववाले व्यक्तिका कल्याण होना कठिन है।- अमृत-बिन्दु ८९०