Seeker of Truth

मत और सम्प्रदाय

यद्यपि सभी मत-मतान्तर परमात्माकी तरफ ले जानेवाले हैं, तथापि मतका आग्रह तत्त्वको प्राप्त नहीं होने देता। अतः मतका आग्रह नहीं चाहिये, अनुष्ठान चाहिये। अपने मतको भी ठीक तरहसे समझनेवाले बहुत कम हैं।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १८५··

जीव ईश्वरका अंश है, इसलिये वह जिस मतको पकड़ लेता है, वही उसको सत्य दीखने लग जाता है। अतः साधकको चाहिये कि वह अपने मतका अनुसरण तो करे, पर उसको पकड़े नहीं अर्थात् उसका आग्रह न रखे। साधकको जबतक अपनेमें दार्शनिक मतभेद दीखे, सम्पूर्ण मतोंमें समान आदरभाव न दीखे तबतक उसको सन्तोष नहीं करना चाहिये। अपनेमें मतभेद दीखने पर वह साधन - तत्त्वतक तो पहुँच सकता है, पर साध्यतक नहीं पहुँच सकता। साध्यतक पहुँचनेपर अपने मतका आग्रह नहीं रहता और सभी मत समान दीखते हैं।

मानवमात्रके कल्याणके लिये १२९ - १३०··

असली गुरु अथवा जानकार पुरुष वही होते हैं, जिनमें द्वैत-अद्वैत आदिका कोई मतभेद नहीं होता।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश २८··

मत सर्वोपरि नहीं होता, प्रत्युत व्यक्तिगत होता है। हरेक व्यक्ति अपना-अपना मत प्रकट कर सकता है; परन्तु सिद्धान्त सर्वोपरि होता है, जो सबको मानना पड़ता है। इसलिये गुरु-शिष्यमें भी मतभेद तो हो सकता है, पर सिद्धान्तभेद नहीं हो सकता।

साधक संजीवनी ३ । ३१ परि०··

साधकको मतवादी न बनकर तत्त्ववादी बनना चाहिये।

अमृत-बिन्दु ७१९··

आचार्योंमें जो मतभेद है, वह समयके अनुसार है और भगवान्‌की इच्छासे है। परन्तु 'वासुदेवः सर्वम्' में आते ही वह मतभेद नहीं रहता।

स्वातिकी बूँदें १२८··

प्रत्येक सम्प्रदायमें निन्दा - अंश त्याज्य है और विधि - अंश ग्राह्य है।

सत्संगके फूल ६५··

आपसमें मतभेद होना और अपने मतके अनुसार साधन करके जीवन बनाना दोष नहीं है, प्रत्युत दूसरोंका मत बुरा लगना, उनके मतका खण्डन करना, उनके मतसे घृणा करना ही दोष है।

साधक संजीवनी १८ । ६७ टि०··

सम्प्रदायोंमें खटपट तत्त्वको जाननेवालोंमें नहीं होती, प्रत्युत 'जय' बोलनेवालोंमें होती है। सम्प्रदायोंमें अनन्यभाव संसारसे हटकर परमात्मामें लगनेके लिये है, एक-दूसरेकी निन्दा करने अथवा दूसरेको नीचा दिखानेके लिये नहीं । साम्प्रदायिक भेद करनेवाले वास्तवमें श्रेष्ठ पुरुष नहीं हैं, प्रत्युत राग- द्वेष करनेवाले हैं।

स्वातिकी बूँदें ३०-३१··

सम्प्रदायोंमें परस्पर जो राग-द्वेष, खटपट देखी जाती है, उसका कारण बेसमझी है। एक अनुयायी होता है और एक पक्षपाती ( जय बोलनेवाला) होता है। अनुयायी तो अपने सम्प्रदायके सिद्धान्तोंका पालन करता है, पर पक्षपाती सिद्धान्तोंके पालनका खयाल नहीं करता । खटपट पक्षपातीके द्वारा ही होती है, अनुयायीके द्वारा नहीं।

साधन-सुधा-सिन्धु ८३२··

साधनोंका भेद भले ही हो, पर प्रीतिका भेद नहीं होना चाहिये। प्रीतिका भेद होना बड़ी गलती है। आपसमें मतभेद होनेसे द्वेष पैदा होता है और हम साध्यकी प्राप्तिसे वंचित हो जाते हैं। इसलिये सम्प्रदायका भेद हो, पर प्रेमका भेद न हो। प्रेमकी एकता होनेपर साधनकी सिद्धि जल्दी होगी। साधन, सम्प्रदाय, गुरुका भेद दोष नहीं है, प्रीतिकी भिन्नता दोषी है। किसी भी साधकके साथ लेशमात्र भी द्वेषभाव न हो। दूसरे साधकके प्रति द्वेषवृत्ति अपने साधनकी सिद्धिमें बाधक है।

स्वातिकी बूँदें १२४-१२५··

अपनी एक उपासना करनी चाहिये। दूसरी उपासनाको साथ मिलाना संकरदोष है। प्रत्येक स्त्रीका अपना-अपना पति परमेश्वर है, वह दूसरेके पतिको परमेश्वर क्यों माने ?

स्वातिकी बूँदें ३१··

तत्त्वको चाहनेवाले साधकके लिये साम्प्रदायिकताका पक्षपात बहुत बाधक है। सम्प्रदायका मोहपूर्वक आग्रह मनुष्यको बाँधता है।

साधक संजीवनी १२ । ७··

साधक किसी भी सम्प्रदायका हो, उसका ऐसा दृढ़ निश्चय रहना चाहिये कि भगवान्‌के जितने भी रूप हैं, वे सब तत्त्वसे एक ही हैं। रूप दूसरा है, पर तत्त्व दूसरा नहीं है। अगर वह ऐसा दृढ़ निश्चय न कर सके तो वह अपने इष्ट रूपको सर्वोपरि मानकर दूसरे रूपोंको उसका अनुयायी माने। जैसे, उसका इष्ट विष्णु है तो वह ऐसा माने कि सूर्य, शिव आदि सभी देवता विष्णुके उपासक हैं, अनुयायी हैं। ऐसा भी निश्चय न बैठे तो सम्पूर्ण देश, काल, क्रिया, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति, अवस्था आदिमें एक ही परमात्मतत्त्व सत्ता रूपसे विद्यमान है - ऐसा मानकर बाहर-भीतरसे चुप ( चिन्तनरहित ) हो जाय।

साधन-सुधा-सिन्धु ८३२··

साधकको अपने मत, सम्प्रदाय आदिका आग्रह नहीं रखना चाहिये, प्रत्युत उसका अनुसरण करना चाहिये। अपने मतका आग्रह रखनेसे उसका दूसरे मतसे द्वेष हो जायगा, जिससे वह दूसरे मतकी बातोंको निष्पक्ष होकर नहीं सुन सकेगा। सभी मत, सम्प्रदाय आदिमें अच्छे-अच्छे सन्त-महापुरुष हुए हैं। अपने मतका आग्रह रहनेसे साधक उन सन्त- महापुरुषोंकी अच्छी-अच्छी बातोंसे वञ्चित रह जायगा।

साधन-सुधा-सिन्धु ८३७··

जबतक 'अहम्' रहता है, तभीतक दार्शनिक भेद तथा अपने - अपने सम्प्रदायका पक्षपात रहता है। 'अहम्' का सर्वथा अभाव होनेपर दार्शनिक और साम्प्रदायिक भेद नहीं रहता प्रत्युत एक तत्त्व रहता है। जहाँ तत्त्व है, वहाँ भेद नहीं है और जहाँ भेद है, वहाँ तत्त्व नहीं है।

साधन-सुधा-सिन्धु ८३२··

सब कुछ भगवान् ही हैं - इस प्रकार समग्रका ज्ञान 'परमात्मज्ञान' है। आत्मज्ञानसे मुक्ति तो हो जाती है, पर सूक्ष्म अहम्की गन्ध रह जाती है, जिससे दार्शनिकोंमें और उनके दर्शनोंमें मतभेद रहता है। अगर सूक्ष्म अहम्की गन्ध न हो तो फिर मतभेद कहाँसे आया? परन्तु परमात्मज्ञानसे सूक्ष्म अहम्की गन्ध भी नहीं रहती और उससे पैदा होनेवाले सम्पूर्ण दार्शनिक मतभेद समाप्त हो जाते हैं।

साधक संजीवनी ४। ३५ परि०··