Seeker of Truth

मनुष्य

किसी आकृति-विशेषका नाम मनुष्य नहीं है, प्रत्युत मनुष्य वह है, जिसमें सत् और असत् तथा कर्तव्य और अकर्तव्यका विवेक हो।

मानवमात्रके कल्याणके लिये ३०··

मिले हुए और बिछुड़नेवाले शरीरका नाम मनुष्य नहीं है। शरीर तो केवल कर्म - सामग्री है, जिसका उपयोग केवल दूसरोंकी सेवा करनेमें ही है।

मानवमात्रके कल्याणके लिये ३०··

मनुष्योंमें भगवान्‌की कृपासे वह विवेक शक्ति जाग्रत् है, जिससे वह अपना कल्याण कर सकता है, प्राणिमात्रकी सेवा कर सकता है, परमात्माकी प्राप्ति कर सकता है।

साधक संजीवनी २।६९··

जो मनुष्य अपने विवेकको महत्त्व नहीं देते, वे वास्तवमें जन्तु अर्थात् पशु ही हैं; क्योंकि उनके और पशुओंके ज्ञानमें कोई अन्तर नहीं है। आकृतिमात्रसे कोई मनुष्य नहीं होता। मनुष्य वही है, जो अपने विवेकको महत्त्व देता है।

साधक संजीवनी ५ | १५··

मनुष्य और साधक पर्याय हैं। जो साधक नहीं है, वह वास्तवमें मनुष्य भी नहीं है।

मानवमात्रके कल्याणके लिये १३१··

मनुष्ययोनि उन लोगोंके लिये 'कर्मयोनि' है, जिनको भटकना है। जिनको भटकना नहीं है, उनके लिये यह 'साधनयोनि' है।

सत्संगके फूल १२२··

भगवान्का संकल्प मनुष्यमात्रके उद्धारके लिये बना है; अतः मनुष्यमात्र भगवान्‌की प्राप्तिका अधिकारी है। तात्पर्य है कि उस संकल्पमें भगवान्ने मनुष्यको अपने उद्धारकी स्वतन्त्रता दी है, जो कि अन्य प्राणियोंको नहीं मिलती; क्योंकि वे भोगयोनियाँ हैं और यह मानवशरीर कर्मयोनि है। वास्तवमें केवल भगवत्प्राप्तिके लिये ही होनेके कारण मानवशरीरको साधनयोनि ही मानना चाहिये।

साधक संजीवनी ७ /१६··

मनुष्यको भगवान्ने ऐसा बनाया है कि वह स्वयं अपना कल्याण कर ले। उसे किसीकी सहायताकी जरूरत नहीं। मनुष्यशरीर दिया है तो साथमें साधन-सामग्री भी दी है।

स्वातिकी बूँदें ११··

संसार तो कर्मोंका फल है, पर मानवशरीर कृपाका फल है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १७८··

मनुष्यशरीर बड़ा दुर्लभ है। परन्तु जब दुर्लभ चीज मिल जाती है, तब उसकी दुर्लभताका ज्ञान नहीं होता।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ ८४··

भगवान्ने भोग और मोक्ष तो मनुष्यके लिये बनाये हैं, पर मनुष्यको अपने लिये बनाया है कि वह मेरेसे प्रेम करे, मैं उससे प्रेम करूँ। भगवान्ने भोगके लिये क्रिया-शक्ति दी है, मोक्षके लिये विवेक दिया है और अपने लिये प्रेम दिया है।

सत्यकी खोज १५··

जब मनुष्यकी दृष्टि भगवान्पर हो जाती है, वह भगवान्‌के सम्मुख हो जाता है, भजनमें लग जाता है, तब वह साधारण मनुष्य नहीं रहता।

ज्ञानके दीप जले १३०··

वास्तवमें कोई भी मनुष्य अनाथ नहीं है। सब के सब मनुष्य सनाथ हैं । संसारमें प्रत्येक वस्तुका कोई-न-कोई मालिक होता है, फिर मनुष्यका कोई मालिक न हो - यह कैसे हो सकता है ? जो सबके मालिक हैं, वे भगवान् हमारे भी मालिक हैं।

साधन-सुधा-सिन्धु ३८०··

संसारका मालिक परमात्मा है और शरीरका मालिक मैं हूँ - ऐसा मानना गलती है। जो संसारका मालिक है, वही शरीरका भी मालिक है।

अमृत-बिन्दु ९२७··

मनुष्यशरीर विवेकप्रधान है। अतः 'मैं शरीर नहीं हूँ' - यह विवेक मनुष्यशरीरमें ही हो सकता है। शरीरको मैं - मेरा मानना मनुष्यबुद्धि नहीं है, प्रत्युत पशुबुद्धि है।

साधक संजीवनी २।११ परि०··

यह मनुष्ययोनि सुख - दुःख भोगनेके लिये नहीं मिली है, प्रत्युत सुख - दुःखसे ऊँचा उठकर महान् आनन्द, परम शान्तिकी प्राप्तिके लिये मिली है, जिस आनन्द, सुख-शान्ति प्राप्त होनेके बाद और कुछ प्राप्त करना बाकी नहीं रहता ( गीता ६ । २२)।

साधक संजीवनी २।१५··

परमदयालु प्रभुने कृपा करके इस मनुष्यशरीरमें एक ऐसी विलक्षण विवेकशक्ति दी है, जिससे वह सुख-दुःखसे ऊँचा उठ जाय, अपना उद्धार कर ले, सबकी सेवा करके भगवान्तकको अपने वशमें कर ले। इसीमें मनुष्यशरीरकी सार्थकता है।

साधक संजीवनी २।४४··

मनुष्यशरीरमें दो बातें हैं- पुराने कर्मोंका फलभोग और नया पुरुषार्थ । दूसरी योनियोंमें केवल पुराने कर्मोंका फलभोग है।....... मनुष्य कर्म करनेमें स्वतन्त्र और फल प्राप्तिमें परतन्त्र है । परन्तु अनुकूल- प्रतिकूलरूपसे प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग करके मनुष्य उसको अपने उद्धारकी साधन-सामग्री बना सकता है; क्योंकि यह मनुष्यशरीर अपने उद्धारके लिये ही मिला है।.......तात्पर्य यह हुआ कि पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि योनियोंके लिये पुराने कर्मोंका फल और नया कर्म - ये दोनों ही भोगरूपमें हैं, और मनुष्यके लिये पुराने कर्मोंका फल और नया कर्म (पुरुषार्थ) – ये दोनों ही उद्धारके साधन हैं।

साधक संजीवनी २।४७··

देवता आदि तो अपने कर्तव्यका पालन करते ही हैं। यदि मनुष्य अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता तो देवताओंमें ही नहीं, प्रत्युत त्रिलोकीभरमें हलचल उत्पन्न हो जाती है और परिणामस्वरूप अतिवृष्टि, अनावृष्टि, भूकम्प, दुर्भिक्ष आदि प्राकृतिक प्रकोप होने लगते हैं।

साधक संजीवनी ३।१२··

मनुष्यको अपने कर्मोंका फल स्वयं भोगना पड़ता है; परन्तु उसके द्वारा किये गये कर्मोंका प्रभाव सम्पूर्ण संसारपर पड़ता है। 'अपने लिये' कर्म करनेवाला मनुष्य अपने कर्तव्यसे च्युत हो जाता है, और अपने कर्तव्यसे च्युत होनेपर ही राष्ट्रमें अकाल, महामारी, मृत्यु आदि महान् कष्ट होते हैं। अतः मनुष्यके लिये उचित है कि वह अपने लिये कुछ भी न करे, अपना कुछ भी न माने तथा अपने लिये कुछ भी न चाहे।

साधक संजीवनी ३।१३··

अपने सुख के लिये कर्म करना मनुष्यपना नहीं है, प्रत्युत राक्षसपना है, असुरपना है। वास्तवमें मनुष्य वही है, जो दूसरोंके हितके लिये कर्म करता है।

साधक संजीवनी ३ । १३ परि०)··

पशु, पक्षी, जड़ी बूटी, वृक्ष, लता आदि जितने भी जंगम-स्थावर प्राणी हैं, उन सभीमें दैवी और आसुरी - सम्पत्तिवाले प्राणी होते हैं। मनुष्यको उन सबकी रक्षा करनी ही चाहिये; क्योंकि सबकी रक्षाके लिये, सबका प्रबन्ध करनेके लिये ही यह मनुष्य बनाया गया है। जो सात्त्विक पशु, पक्षी, जड़ी बूटी आदि हैं, उनकी तो विशेषतासे रक्षा करनी चाहिये; क्योंकि उनकी रक्षासे हमारेमें दैवी - सम्पत्ति बढ़ती है।

साधक संजीवनी १६ / ६··

जीव इस मनुष्यजन्ममें ही अपने उद्धारके लिये मिले हुए अवसरका दुरुपयोग करके अर्थात् पाप, अन्याय करके अशुद्ध होता है । स्वर्ग, नरक तथा अन्य योनियोंमें इस प्राणीकी शुद्धि-ही-शुद्धि होती है, अशुद्धि होती ही नहीं।

साधक संजीवनी ६ । ४५ टि०··

यह मनुष्यजन्म सम्पूर्ण जन्मोंका आदि जन्म भी है और अन्तिम जन्म भी है ...... भगवान्ने मनुष्यको पूरा अधिकार दिया है अर्थात् मनुष्यके उद्धारके लिये भगवान् ने अपनी तरफसे यह अन्तिम जन्म दिया है। अब इसके आगे यह नये जन्मकी तैयारी कर ले अथवा अपना उद्धार कर ले - इसमें यह सर्वथा स्वतन्त्र है।

साधक संजीवनी ७/१९··

सकाम पुण्यकर्मोंकी मुख्यता होनेसे जीव स्वर्गमें जाते हैं और पापकर्मोंकी मुख्यता होनेसे नरकों में जाते हैं। परन्तु भगवान् विशेष कृपा करके पापों और पुण्योंका पूरा फल - भोग न होनेपर भी अर्थात् चौरासी लाख योनियोंके बीचमें ही जीवको मनुष्यशरीर दे देते हैं।

साधक संजीवनी ७। २८ वि०··

यह मनुष्यशरीरकी महत्ता है कि वह जो चाहे वही पा सकता है। ऐसा कोई दुर्लभ पद नहीं है, जो मनुष्यको न मिल सके। जिसमें लाभ (सुख) का तो कोई अन्त न हो और दुःखका लेश भी न हो, ऐसा पद मनुष्य प्राप्त कर सकता है (गीता ६ । २२)।

साधक संजीवनी ८ । ६ परि०··

सन्त, भक्त आदिके दर्शन, सम्भाषण, चिन्तन आदिका माहात्म्य इस मृत्युलोकके मनुष्योंके लिये ही है।

साधक संजीवनी ८।१६··

मनुष्य इसी जन्ममें मुक्त हो सकता है और मुक्तिसे भी बढ़कर प्रेम ( भक्ति) प्राप्त कर सकता है।

साधक संजीवनी ९ । ३ परि०··

मनुष्यमें जो भी विशेषता, विलक्षणता आती हैं, वह सब वास्तवमें भगवान्‌से ही आती है। अगर भगवान्‌में विशेषता, विलक्षणता न होती तो वह मनुष्यमें कैसे आती? जो चीज अंशीमें नहीं है, वह अंशमें कैसे आ सकती है ?

साधक संजीवनी १० । ४१ परि०··

अच्छे काम करनेवाला मनुष्य यदि अन्तसमयमें तमोगुणकी तात्कालिक वृत्तिके बढ़नेपर मूढयोनियोंमें भी चला जाय, तो वहाँ भी उसके गुण, आचरण अच्छे ही होंगे, उसका स्वभाव अच्छे काम करनेका ही होगा।

साधक संजीवनी १४ । १५··

मनुष्ययोनिमें किये हुए पाप-पुण्योंका फल भोगनेके लिये ही मनुष्यको दूसरी योनियोंमें जाना पड़ता है। नये पाप-पुण्य करनेका अथवा पाप-पुण्यसे रहित होकर मुक्त होनेका अधिकार और अवसर मनुष्यशरीरमें ही है।

साधक संजीवनी १५ । २··

जीवमात्र परमात्माका अंश है। इसलिये किसी मनुष्यमें रजोगुण- तमोगुणकी प्रधानता देखकर उसे नीचा नहीं मान लेना चाहिये; क्योंकि कौन-सा मनुष्य किस समय समुन्नत हो जाय इसका कुछ पता नहीं है।

साधक संजीवनी १७ । ३ मा०··

प्रारब्धके अनुसार जो स्फुरणा होती है, वह ( फल भोग करानेके लिये) मनुष्यको कर्म करने के लिये बाध्य करती है; परन्तु वह विहित कर्म करनेके लिये ही बाध्य करती है, निषिद्ध कर्म करनेके लिये नहीं । कारण कि विवेकप्रधान मनुष्यशरीर निषिद्ध कर्म करनेके लिये नहीं है। अतः अपनी विवेकशक्तिको प्रबल करके निषिद्धका त्याग करनेकी जिम्मेवारी मनुष्यपर है और ऐसा करनेमें वह स्वतन्त्र है।

साधक संजीवनी १८ । १२ वि०··

सबका पालन करनेवाले भगवान्‌की असीम कृपासे जीवन निर्वाहकी सामग्री समस्त प्राणियोंको समानरूपसे मिली हुई है।........ चाहे प्रारब्धसे मानो, चाहे भगवत्कृपासे, मनुष्य के जीवन-निर्वाहकी सामग्री उसको मिलती ही है।

साधक संजीवनी ३ | १२··

यह नियम है कि जहाँसे बन्धन होता है, वहाँसे खोलनेपर ही (बन्धनसे) छुटकारा हो सकता है । अतः मनुष्यशरीरसे ही बन्धन होता है और मनुष्यशरीरके द्वारा ही बन्धनसे मुक्ति हो सकती है। अगर मनुष्यका अपने शरीरके साथ किसी प्रकारका भी अहंता - ममतारूप सम्बन्ध न रहे, तो वह मात्र संसारसे मुक्त ही है।

साधक संजीवनी १३ । १··

जैसे आपने बड़ी मेहनतसे कुआँ खोदा, पर उसमेंसे पानी निकला ही नहीं तो अब उस कुएँको आप किस काम में लोगे ? पानीके बिना कुआँ कोई कामका नहीं होता, ऐसे ही भगवान्‌के भजनके बिना मनुष्यशरीर कोई कामका नहीं है।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १३१ - १३२··

जैसे आकाशमें कोई वृक्ष कितना ही ऊँचा बढ़े, उसकी कोई सीमा नहीं है, ऐसे ही मनुष्यकी उन्नतिकी कोई सीमा नहीं है। मरनेके बाद हरेक आदमीका शरीर यहीं पड़ा रहता है, पर मीराबाई इतनी ऊँची बढ़ीं कि उनका शरीर भी यहाँ नहीं रहा, भगवान्‌की मूर्तिमें ही लीन हो गया । उनका जड़ शरीर भी चिन्मय हो गया।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १३७··

ऐसी कोई लौकिक अथवा पारलौकिक उन्नति नहीं है, जो मनुष्यजन्ममें न हो सके।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ४९··

दुःख भोगनेके लिये चौरासी लाख योनियाँ हैं, सुख भोगनेके लिये स्वर्गादि लोकोंकी योनियाँ हैं और कल्याण करने ( सदाके लिये सुखी होने) के लिये मनुष्ययोनि है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ६१··

मनुष्यशरीरके सिवाय अन्य किसी जगह कल्याणका, भगवत्प्रासिका मौका नहीं है। जैसे रसोईमें भोजन तैयार है और आप जाकर बैठ गये तो आपका मुख्य काम भोजन करना है। रसोई में जाकर भोजन नहीं करोगे तो क्या काम करोगे ? ऐसे ही मनुष्यशरीरमें आकर अपना कल्याण नहीं करोगे तो क्या काम करोगे ?

अनन्तकी ओर ४३··

आपको कल्याणके योग्य समझकर ही भगवान्ने मनुष्यशरीर दिया है।...... संसारमें कोई अफसर किसी मनुष्यको किसी कार्यपर नियुक्त करता है तो उसकी योग्यता देखकर करता है। क्या अपढ़ आदमीको कोई हेडमास्टर बना देगा? जब मनुष्योंमें भी योग्यता देखकर ही पद दिया जाता है तो क्या भगवान् बिना योग्यताके मनुष्यजन्म दे देंगे?

अनन्तकी ओर ७९··

पैसा कमाना और भोग भोगना – इन दो कारणोंसे जो मनुष्यशरीर मुक्तिके लिये मिला है, वह बन्धनके लिये हो जायगा । मुक्तिकी सामग्री नरकोंकी सामग्री हो जायगी । जो उन्नति करनेके लिये मिला है, वह अधोगतिका कारण हो जायगा।

परम प्रभु अपने ही महुँ पायो २५··

यह सिद्धान्त है कि नौकर अच्छा हो, पर मालिक तिरस्कारपूर्वक उसे निकाल दे तो फिर उसे अच्छा नौकर नहीं मिलेगा। ऐसे ही मालिक अच्छा हो, पर नौकर उसका तिरस्कार कर दे तो फिर उसे अच्छा मालिक नहीं मिलेगा। इसी प्रकार मनुष्य परमात्मप्राप्ति किये बिना शरीरको सांसारिक भोग और संग्रहमें ही खो देता है तो फिर उसे मनुष्यशरीर नहीं मिलेगा।

साधक संजीवनी ३ | ४०··

कर्जदार आदमीकी कर्जा चुकानेकी नीयत होती है तो साहूकार उसको कैद नहीं कराता । ऐसे ही जिसकी नीयत ठीक होती है, उसको भगवान् कृपा करके पुनः अवसर (मनुष्यशरीर) देते हैं। अगर आप भजन - स्मरण करो, अपनी नीयत ठीक रखो तो आप योगभ्रष्ट हो जाओगे, आपको फिर मनुष्यजन्म मिलेगा।

अनन्तकी ओर १२९··

मनुष्यजन्म दूसरोंके हितके लिये है। दूसरोंके हितसे अपना हित स्वतः होता है।

स्वातिकी बूँदें १३४··

कैदीका लक्षण क्या है ? काम करे अपनी मरजीसे और उसका फल ( दुःख) भोगे दूसरेकी मरजीसे । जबतक तत्त्वज्ञान न हो, तबतक सब मनुष्य कैदी हैं।

सागरके मोती ८५-८६··

जैसे बचपनमें पढ़ाई नहीं की तो फिर वैसा मौका पुनः नहीं मिलता, ऐसे ही इस मनुष्यजीवनमें अपना कल्याण नहीं किया तो फिर ऐसा मौका मिलेगा नहीं। न तो मनुष्यशरीर बार-बार मिलेगा और न सत्संग ही बार - बार मिलेगा।

स्वातिकी बूँदें ९७··

मनुष्यमें अगर मनुष्यता नहीं है तो मनुष्य पशुसे भी नीचा है। कारण कि पशु तो अपने पूर्वकृत् पापकर्मोंका फल भोगकर मनुष्यताकी तैसारी कर रहा है, पर मनुष्य नये पापकर्म करके नरकोंकी, पशुताकी तैयारी कर रहा है।

अमृत-बिन्दु ५१२··

मनुष्यशरीर केवल सुनने-सीखनेके लिये नहीं है, प्रत्युत तत्त्वका अनुभव करनेके लिये है। सुनना- सीखना तो पशु-पक्षियोंमें भी होता है, जिससे वे सर्कसमें काम करते हैं।

अमृत-बिन्दु ५१७··

संसारमें सबसे श्रेष्ठ मनुष्य वह है, जिसके द्वारा किसीका अहित नहीं होता।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश २३०··

जिसका अहम् सर्वथा मिट गया है अर्थात् जिसको 'वासुदेवः सर्वम्' का अनुभव हो गया है, वह सर्वश्रेष्ठ मनुष्य है।

प्रश्नोत्तरमणिमाला ४९७··