मन अपना है ही नहीं, एकाग्र करके क्या करोगे ?- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १३१
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १३१··
आप खुद भगवान् के अंश हैं। आपके और भगवान् के बीचमें मन नहीं है।
||श्रीहरि:||
आप खुद भगवान् के अंश हैं। आपके और भगवान् के बीचमें मन नहीं है।- अनन्तकी ओर १२२
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अनन्तकी ओर १२२··
मनकी चंचलता ध्यानमें बाधक है, परमात्मप्राप्तिमें नहीं। परमात्मप्राप्तिमें अपनी चाहनाकी कमी बाधक है।
||श्रीहरि:||
मनकी चंचलता ध्यानमें बाधक है, परमात्मप्राप्तिमें नहीं। परमात्मप्राप्तिमें अपनी चाहनाकी कमी बाधक है।- ज्ञानके दीप जले ९४
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ज्ञानके दीप जले ९४··
मन एकाग्र हो न हो, उसे छोड़ दो तो यह गीताका 'योग' है।
||श्रीहरि:||
मन एकाग्र हो न हो, उसे छोड़ दो तो यह गीताका 'योग' है।- सत्संगके फूल ४४
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सत्संगके फूल ४४··
मन एकाग्र होनेसे सिद्धियाँ तो प्राप्त हो जाती हैं, पर कल्याण नहीं होता।
||श्रीहरि:||
मन एकाग्र होनेसे सिद्धियाँ तो प्राप्त हो जाती हैं, पर कल्याण नहीं होता।- साधक संजीवनी २ । ४० वि०
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साधक संजीवनी २ । ४० वि०··
कल्याणप्राप्तिमें मनकी स्थिरताका उतना महत्त्व नहीं है, जितना बुद्धिकी स्थिरताका महत्त्व है। मनकी स्थिरतासे लौकिक सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, पर बुद्धिकी स्थिरतासे पारमार्थिक सिद्धि (कल्याणप्राप्ति) होती है।
||श्रीहरि:||
कल्याणप्राप्तिमें मनकी स्थिरताका उतना महत्त्व नहीं है, जितना बुद्धिकी स्थिरताका महत्त्व है। मनकी स्थिरतासे लौकिक सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, पर बुद्धिकी स्थिरतासे पारमार्थिक सिद्धि (कल्याणप्राप्ति) होती है।- साधक संजीवनी २ । ५५ परि०
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साधक संजीवनी २ । ५५ परि०··
योगकी सिद्धिमें मनका वशमें न होना जितना बाधक है, उतनी मनकी चंचलता बाधक नहीं है। जैसे, पतिव्रता स्त्री मनको वशमें तो रखती है, पर उसे एकाग्र नहीं करती।
||श्रीहरि:||
योगकी सिद्धिमें मनका वशमें न होना जितना बाधक है, उतनी मनकी चंचलता बाधक नहीं है। जैसे, पतिव्रता स्त्री मनको वशमें तो रखती है, पर उसे एकाग्र नहीं करती।- साधक संजीवनी ६ । ३६
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साधक संजीवनी ६ । ३६··
मन लगनेका सबसे बढ़िया उपाय है- उपेक्षा, उदासीनता । न विरोध करें, न समर्थन करें। एकाग्रता करना चाहोगे तो मन एकाग्र नहीं होगा।
||श्रीहरि:||
मन लगनेका सबसे बढ़िया उपाय है- उपेक्षा, उदासीनता । न विरोध करें, न समर्थन करें। एकाग्रता करना चाहोगे तो मन एकाग्र नहीं होगा।- सत्संगके फूल ७
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सत्संगके फूल ७··
मन मेरा है, तो फिर मन कभी शुद्ध नहीं होगा। अपनापन हटाते नहीं और शुद्ध कर सकते नहीं - यह गुत्थी है । मनको मेरा मत मानो तो वह शुद्ध हो जायगा।
||श्रीहरि:||
मन मेरा है, तो फिर मन कभी शुद्ध नहीं होगा। अपनापन हटाते नहीं और शुद्ध कर सकते नहीं - यह गुत्थी है । मनको मेरा मत मानो तो वह शुद्ध हो जायगा।- सत्संगके फूल ४४
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सत्संगके फूल ४४··
जो भी काम करें, मन लगाकर करें। रसोई बनायें तो मन लगाकर बनायें, भोजन करें तो मन लगाकर करें, शौच - स्नान आदि करें तो मन लगाकर करें। ऐसा करनेसे प्रत्येक काम मन लगाकर करनेका स्वभाव पड़ जायगा । वह स्वभाव पारमार्थिक मार्गमें भी काम आयेगा, जिससे सत्सङ्ग, भजन, ध्यान आदिमें मन लगने लगेगा। इसलिये ऐसा न समझें कि केवल भजन- ध्यान ही मन लगाकर करने हैं, दूसरे काम मन लगाकर नहीं करने हैं। प्रत्येक काम मन लगाकर करना है, जिससे काम भी बढ़िया होगा और स्वभाव भी सुधरेगा।
||श्रीहरि:||
जो भी काम करें, मन लगाकर करें। रसोई बनायें तो मन लगाकर बनायें, भोजन करें तो मन लगाकर करें, शौच - स्नान आदि करें तो मन लगाकर करें। ऐसा करनेसे प्रत्येक काम मन लगाकर करनेका स्वभाव पड़ जायगा । वह स्वभाव पारमार्थिक मार्गमें भी काम आयेगा, जिससे सत्सङ्ग, भजन, ध्यान आदिमें मन लगने लगेगा। इसलिये ऐसा न समझें कि केवल भजन- ध्यान ही मन लगाकर करने हैं, दूसरे काम मन लगाकर नहीं करने हैं। प्रत्येक काम मन लगाकर करना है, जिससे काम भी बढ़िया होगा और स्वभाव भी सुधरेगा।- साधन-सुधा-सिन्धु ८५७
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साधन-सुधा-सिन्धु ८५७··
वास्तवमें मनका न लगना उतना बाधक नहीं है, जितने बाधक राग-द्वेष हैं। इसलिये साधकको चाहिये कि वह मनकी एकाग्रताको महत्त्व न दे और जहाँ-जहाँ राग-द्वेष दिखायी दें, वहाँ- वहाँसे उनको तत्काल हटा दे। राग-द्वेष हटानेपर मन लगना भी सुगम हो जायगा।
||श्रीहरि:||
वास्तवमें मनका न लगना उतना बाधक नहीं है, जितने बाधक राग-द्वेष हैं। इसलिये साधकको चाहिये कि वह मनकी एकाग्रताको महत्त्व न दे और जहाँ-जहाँ राग-द्वेष दिखायी दें, वहाँ- वहाँसे उनको तत्काल हटा दे। राग-द्वेष हटानेपर मन लगना भी सुगम हो जायगा।- साधक संजीवनी ३ । ३४
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साधक संजीवनी ३ । ३४··
शुद्ध करनेसे अन्तःकरण शुद्ध नहीं होता; क्योंकि शुद्ध करनेसे अन्तः करणके साथ सम्बन्ध बना रहता है। जबतक 'मेरा अन्तःकरण शुद्ध हो जाय ' - यह भाव रहेगा, तबतक अन्तःकरणकी शुद्धि नहीं हो सकती; क्योंकि ममता ही खास अशुद्धि है।
||श्रीहरि:||
शुद्ध करनेसे अन्तःकरण शुद्ध नहीं होता; क्योंकि शुद्ध करनेसे अन्तः करणके साथ सम्बन्ध बना रहता है। जबतक 'मेरा अन्तःकरण शुद्ध हो जाय ' - यह भाव रहेगा, तबतक अन्तःकरणकी शुद्धि नहीं हो सकती; क्योंकि ममता ही खास अशुद्धि है।- साधक संजीवनी ५। ११ परि०
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साधक संजीवनी ५। ११ परि०··
साधककी यह शिकायत रहती है कि भगवान्में मन नहीं लगता, तो इसका कारण क्या है ? इसका कारण यह है कि साधक संसारसे सम्बन्ध तोड़कर ध्यान नहीं करता, प्रत्युत संसारसे सम्बन्ध जोड़कर करता है। अतः अपने सुख, सेवाके लिये भीतरसे किसीको भी अपना न माने अर्थात् किसीमें ममता न रखे; क्योंकि मन वहीं जायगा, जहाँ ममता होगी। इसलिये उद्देश्य केवल परमात्माका रहे और सबसे निर्लिप्त रहे तो भगवान् में मन लग सकता है।
||श्रीहरि:||
साधककी यह शिकायत रहती है कि भगवान्में मन नहीं लगता, तो इसका कारण क्या है ? इसका कारण यह है कि साधक संसारसे सम्बन्ध तोड़कर ध्यान नहीं करता, प्रत्युत संसारसे सम्बन्ध जोड़कर करता है। अतः अपने सुख, सेवाके लिये भीतरसे किसीको भी अपना न माने अर्थात् किसीमें ममता न रखे; क्योंकि मन वहीं जायगा, जहाँ ममता होगी। इसलिये उद्देश्य केवल परमात्माका रहे और सबसे निर्लिप्त रहे तो भगवान् में मन लग सकता है।- साधक संजीवनी ६ । १०
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साधक संजीवनी ६ । १०··
मैं भगवान्का हूँ' - ऐसा भाव रखना अपने-आपको भगवान्में लगाना है। साधकोंसे भूल यह होती है कि वे अपने-आपको भगवान्में न लगाकर मन-बुद्धिको भगवान्में लगानेकी कोशिश करते हैं। 'मैं भगवान्का हूँ' - इस वास्तविकताको भूलकर 'मैं ब्राह्मण हूँ; मैं साधु हूँ' आदि भी मानते रहें और मन-बुद्धिको भगवान्में लगाते रहें तो यह दुविधा कभी मिटेगी नहीं, और बहुत प्रयत्न करनेपर भी मन-बुद्धि जैसे भगवान्में लगने चाहिये, वैसे लगेंगे नहीं।
||श्रीहरि:||
मैं भगवान्का हूँ' - ऐसा भाव रखना अपने-आपको भगवान्में लगाना है। साधकोंसे भूल यह होती है कि वे अपने-आपको भगवान्में न लगाकर मन-बुद्धिको भगवान्में लगानेकी कोशिश करते हैं। 'मैं भगवान्का हूँ' - इस वास्तविकताको भूलकर 'मैं ब्राह्मण हूँ; मैं साधु हूँ' आदि भी मानते रहें और मन-बुद्धिको भगवान्में लगाते रहें तो यह दुविधा कभी मिटेगी नहीं, और बहुत प्रयत्न करनेपर भी मन-बुद्धि जैसे भगवान्में लगने चाहिये, वैसे लगेंगे नहीं।- साधक संजीवनी १५।७
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साधक संजीवनी १५।७··
मनकी चंचलता भी तभीतक बाधक होती है, जब तक स्वयंमें कुछ भी कामका अंश रहता है । कामका अंश सर्वथा निवृत्त होनेपर मनकी चंचलता किंचिन्मात्र भी बाधक नहीं होती।
||श्रीहरि:||
मनकी चंचलता भी तभीतक बाधक होती है, जब तक स्वयंमें कुछ भी कामका अंश रहता है । कामका अंश सर्वथा निवृत्त होनेपर मनकी चंचलता किंचिन्मात्र भी बाधक नहीं होती।- साधक संजीवनी ६ । ३४
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साधक संजीवनी ६ । ३४··
जब मन शुद्ध हो जाता है, तब वह स्वतः वशमें हो जाता है । मनमें उत्पत्ति - विनाशशील वस्तुओंका राग रहना ही मनकी अशुद्धि है । जब साधकका एक परमात्मप्राप्तिका दृढ़ उद्देश्य हो जाता है, तब उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंका राग हट जाता है और मन शुद्ध हो जाता है।
||श्रीहरि:||
जब मन शुद्ध हो जाता है, तब वह स्वतः वशमें हो जाता है । मनमें उत्पत्ति - विनाशशील वस्तुओंका राग रहना ही मनकी अशुद्धि है । जब साधकका एक परमात्मप्राप्तिका दृढ़ उद्देश्य हो जाता है, तब उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंका राग हट जाता है और मन शुद्ध हो जाता है।- साधक संजीवनी ६/३६
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साधक संजीवनी ६/३६··
व्यवहारमें साधक यह सावधानी रखे कि कभी किसी अंशमें पराया हक न आ जाय; क्योंकि पराया हक लेनेसे मन अशुद्ध हो जाता है।
||श्रीहरि:||
व्यवहारमें साधक यह सावधानी रखे कि कभी किसी अंशमें पराया हक न आ जाय; क्योंकि पराया हक लेनेसे मन अशुद्ध हो जाता है।- साधक संजीवनी ६ । ३६
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साधक संजीवनी ६ । ३६··
जहाँ स्वयं भगवान्में नहीं लगता, प्रत्युत 'मैं तो संसारी हूँ', 'मैं तो गृहस्थ हूँ' – इस प्रकार स्वयंको संसारमें लगाकर चित्तको भगवान्में लगाना चाहता है, उसका चित्त भगवान् में निरन्तर नहीं लगता। तात्पर्य है कि स्वयं तो संसारी बना रहे और चित्तको भगवान्में लगाना चाहे, तो भगवान्में चित्त लगना असम्भव - सा है।
||श्रीहरि:||
जहाँ स्वयं भगवान्में नहीं लगता, प्रत्युत 'मैं तो संसारी हूँ', 'मैं तो गृहस्थ हूँ' – इस प्रकार स्वयंको संसारमें लगाकर चित्तको भगवान्में लगाना चाहता है, उसका चित्त भगवान् में निरन्तर नहीं लगता। तात्पर्य है कि स्वयं तो संसारी बना रहे और चित्तको भगवान्में लगाना चाहे, तो भगवान्में चित्त लगना असम्भव - सा है।- साधक संजीवनी १०।९
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साधक संजीवनी १०।९··
एक स्वयंका भगवान्में लगना होता है और एक चित्तको भगवान्में लगाना होता है। जहाँ 'मैं भगवान्का हूँ' ऐसे स्वयं भगवान्में लग जाता है, वहाँ चित्त, बुद्धि आदि सब स्वतः भगवान्में लग जाते हैं..... कारण कि करण कर्ताके ही अधीन होते हैं। कर्ता स्वयं जहाँ लगता है, करण भी वहीं लगते हैं।
||श्रीहरि:||
एक स्वयंका भगवान्में लगना होता है और एक चित्तको भगवान्में लगाना होता है। जहाँ 'मैं भगवान्का हूँ' ऐसे स्वयं भगवान्में लग जाता है, वहाँ चित्त, बुद्धि आदि सब स्वतः भगवान्में लग जाते हैं..... कारण कि करण कर्ताके ही अधीन होते हैं। कर्ता स्वयं जहाँ लगता है, करण भी वहीं लगते हैं।- साधक संजीवनी १०।९
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साधक संजीवनी १०।९··
साधकसे भूल यह होती है कि वह स्वयं भगवान्में न लगकर अपने मन-बुद्धिको भगवान्में लगाने का अभ्यास करता है। स्वयं भगवान्में लगे बिना मन-बुद्धिको भगवान्में लगाना कठिन है । इसीलिये साधकोंकी यह व्यापक शिकायत रहती है कि मन-बुद्धि भगवान्में नहीं लगते। मन-बुद्धि एकाग्र होनेसे सिद्धि (समाधि आदि) तो हो सकती है, पर कल्याण स्वयंके भगवान्में लगनेसे ही होगा।
||श्रीहरि:||
साधकसे भूल यह होती है कि वह स्वयं भगवान्में न लगकर अपने मन-बुद्धिको भगवान्में लगाने का अभ्यास करता है। स्वयं भगवान्में लगे बिना मन-बुद्धिको भगवान्में लगाना कठिन है । इसीलिये साधकोंकी यह व्यापक शिकायत रहती है कि मन-बुद्धि भगवान्में नहीं लगते। मन-बुद्धि एकाग्र होनेसे सिद्धि (समाधि आदि) तो हो सकती है, पर कल्याण स्वयंके भगवान्में लगनेसे ही होगा।- साधक संजीवनी १२ । २
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साधक संजीवनी १२ । २··
जिन पुरुषोंका लक्ष्य भगवत्प्राप्ति नहीं है, उनके मन-बुद्धि भी, वे जिस विषयमें लगाना चाहेंगे, उस विषयमें लग सकते हैं। उस विषयमें मन-बुद्धि लग जानेपर उन्हें सिद्धियाँ तो प्राप्त हो सकती हैं, पर (भगवत्प्राप्तिका उद्देश्य न होनेसे) भगवत्प्राप्ति नही हो सकती।
||श्रीहरि:||
जिन पुरुषोंका लक्ष्य भगवत्प्राप्ति नहीं है, उनके मन-बुद्धि भी, वे जिस विषयमें लगाना चाहेंगे, उस विषयमें लग सकते हैं। उस विषयमें मन-बुद्धि लग जानेपर उन्हें सिद्धियाँ तो प्राप्त हो सकती हैं, पर (भगवत्प्राप्तिका उद्देश्य न होनेसे) भगवत्प्राप्ति नही हो सकती।- साधक संजीवनी १२।८
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साधक संजीवनी १२।८··
मन-बुद्धि प्रकृतिकी जातिके हैं अर्थात् वे प्रकृतिके अंश हैं, पर हम स्वयं भगवान्के अंश हैं। अतः स्वयं और मन-बुद्धिमें जातीय भिन्नता है। आकर्षण एवं मिलन सजातीयतामें ही होता है, विजातीयतामें नहीं - यह नियम है। इसलिये मन-बुद्धि भगवान्में नहीं लग सकते, प्रत्युत स्वयं ही भगवानमें लग सकता है।
||श्रीहरि:||
मन-बुद्धि प्रकृतिकी जातिके हैं अर्थात् वे प्रकृतिके अंश हैं, पर हम स्वयं भगवान्के अंश हैं। अतः स्वयं और मन-बुद्धिमें जातीय भिन्नता है। आकर्षण एवं मिलन सजातीयतामें ही होता है, विजातीयतामें नहीं - यह नियम है। इसलिये मन-बुद्धि भगवान्में नहीं लग सकते, प्रत्युत स्वयं ही भगवानमें लग सकता है।- साधक संजीवनी १२।८ परि०
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साधक संजीवनी १२।८ परि०··
जीवका स्वभाव है कि वह वहीं लगता है, जहाँ उसके मन-बुद्धि लगते हैं।...... जैसे सुनार सोनेको शुद्ध करनेके लिये उसको अग्निमें तपाता है तो सोनेमें मिला हुआ विजातीय पदार्थ (खोट) अलग हो जाता है और शुद्ध सोना रह जाता है, ऐसे ही भगवान्में लगानेसे मन-बुद्धि अलग हो जाते हैं और स्वयं भगवान्में मिल जाता है अर्थात् केवल भगवान् रह जाते हैं।....... भगवान्में लगानेसे मन-बुद्धि भगवान्में लगते नहीं, प्रत्युत लीन हो जाते हैं; क्योंकि मूलमें अपरा प्रकृति भगवान्का ही स्वभाव है।
||श्रीहरि:||
जीवका स्वभाव है कि वह वहीं लगता है, जहाँ उसके मन-बुद्धि लगते हैं।...... जैसे सुनार सोनेको शुद्ध करनेके लिये उसको अग्निमें तपाता है तो सोनेमें मिला हुआ विजातीय पदार्थ (खोट) अलग हो जाता है और शुद्ध सोना रह जाता है, ऐसे ही भगवान्में लगानेसे मन-बुद्धि अलग हो जाते हैं और स्वयं भगवान्में मिल जाता है अर्थात् केवल भगवान् रह जाते हैं।....... भगवान्में लगानेसे मन-बुद्धि भगवान्में लगते नहीं, प्रत्युत लीन हो जाते हैं; क्योंकि मूलमें अपरा प्रकृति भगवान्का ही स्वभाव है।- साधक संजीवनी १२।८ परि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी १२।८ परि०··
यह सबके अनुभवकी बात है कि जिसमें प्रेम होता है, जिसको हम बढ़िया समझते हैं, उसमें मन स्वतः लगता है। विचार करो कि आपको प्यारा संसार लगता है या भगवान् ? जो प्यारा लगता है, उसीमें मन लगेगा।
||श्रीहरि:||
यह सबके अनुभवकी बात है कि जिसमें प्रेम होता है, जिसको हम बढ़िया समझते हैं, उसमें मन स्वतः लगता है। विचार करो कि आपको प्यारा संसार लगता है या भगवान् ? जो प्यारा लगता है, उसीमें मन लगेगा।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १०७
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १०७··
जिस साधनसे मन स्वाभाविक भगवान्में लगता हो, वह करे। भक्त चरित्र पढ़नेमें मन लगे तो उसे पढ़ो। अपना इष्ट उसीको माने, जिसपर श्रद्धा-विश्वास हो और जिसमें स्वतः मन लगे । पहले मन लग जाय, पीछे भजन होगा- ऐसा नहीं होता। भजन करनेसे ही मन लगेगा।
||श्रीहरि:||
जिस साधनसे मन स्वाभाविक भगवान्में लगता हो, वह करे। भक्त चरित्र पढ़नेमें मन लगे तो उसे पढ़ो। अपना इष्ट उसीको माने, जिसपर श्रद्धा-विश्वास हो और जिसमें स्वतः मन लगे । पहले मन लग जाय, पीछे भजन होगा- ऐसा नहीं होता। भजन करनेसे ही मन लगेगा।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ४०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सीमाके भीतर असीम प्रकाश ४०··
मन तो एक कलमकी तरह एक करण है। कलम वही लिखती है, जो आप लिखते हो। अतः दोष आपका है, मनका नहीं। आप लग जाओ तो मन भी लग जायगा । आप जब रुपये गिनते हो, तब उसमें भूल नहीं होती; क्योंकि उस समय मन लग जाता है। मन तभी लगता है, जब आप लगते हो। मन कोई चीज नहीं है । संसारका आपपर असर पड़ा है, इसका नाम 'मन' है। परमात्माका असर पड़ जाय इसका नाम 'साधन' है।
||श्रीहरि:||
मन तो एक कलमकी तरह एक करण है। कलम वही लिखती है, जो आप लिखते हो। अतः दोष आपका है, मनका नहीं। आप लग जाओ तो मन भी लग जायगा । आप जब रुपये गिनते हो, तब उसमें भूल नहीं होती; क्योंकि उस समय मन लग जाता है। मन तभी लगता है, जब आप लगते हो। मन कोई चीज नहीं है । संसारका आपपर असर पड़ा है, इसका नाम 'मन' है। परमात्माका असर पड़ जाय इसका नाम 'साधन' है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश ६६
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश ६६··
आप अशुद्ध मत करो तो चित्त अपने-आप शुद्ध हो जायगा । चीज तो पहलेसे ही शुद्ध है। जंगल शुद्ध रहता है, पर जहाँ मनुष्य जाते हैं, वहाँ गन्दगी कर देते हैं । प्रकृति स्वतः शुद्ध कर रही है । आप अशुद्ध मत करो, इतनी कृपा करो।
||श्रीहरि:||
आप अशुद्ध मत करो तो चित्त अपने-आप शुद्ध हो जायगा । चीज तो पहलेसे ही शुद्ध है। जंगल शुद्ध रहता है, पर जहाँ मनुष्य जाते हैं, वहाँ गन्दगी कर देते हैं । प्रकृति स्वतः शुद्ध कर रही है । आप अशुद्ध मत करो, इतनी कृपा करो।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ ६२-६३
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
नये रास्ते, नयी दिशाएँ ६२-६३··
जैसे जहाँतक लाइन बिछी है, वहींतक रेलगाड़ी जाती है, ऐसे ही आपने जहाँ-जहाँ सम्बन्ध जोड़ा है, वहाँ-वहाँ ही मन जाता है। पहले आप सम्बन्ध जोड़ते हैं, फिर वहाँ मन जाता है। अतः मन दोषी नहीं है, प्रत्युत कर्ता अर्थात् आप दोषी हैं। मन खराब नहीं है, आप खराब हो।
||श्रीहरि:||
जैसे जहाँतक लाइन बिछी है, वहींतक रेलगाड़ी जाती है, ऐसे ही आपने जहाँ-जहाँ सम्बन्ध जोड़ा है, वहाँ-वहाँ ही मन जाता है। पहले आप सम्बन्ध जोड़ते हैं, फिर वहाँ मन जाता है। अतः मन दोषी नहीं है, प्रत्युत कर्ता अर्थात् आप दोषी हैं। मन खराब नहीं है, आप खराब हो।- अनन्तकी ओर ५८
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अनन्तकी ओर ५८··
मन लगानेकी अपेक्षा सीधे भगवान्में लगनेकी ज्यादा महिमा है। इसमें साधक योगभ्रष्ट नहीं होता। कारण कि योगसे मन चलित होनेपर ही योगभ्रष्ट होता है - 'योगाच्चलितमानसः' ( गीता ६ । ३७) । भगवान् से अपनापन करनेपर मन लगाना नहीं पड़ता, प्रत्युत मन स्वतः भगवान्में लगता है।
||श्रीहरि:||
मन लगानेकी अपेक्षा सीधे भगवान्में लगनेकी ज्यादा महिमा है। इसमें साधक योगभ्रष्ट नहीं होता। कारण कि योगसे मन चलित होनेपर ही योगभ्रष्ट होता है - 'योगाच्चलितमानसः' ( गीता ६ । ३७) । भगवान् से अपनापन करनेपर मन लगाना नहीं पड़ता, प्रत्युत मन स्वतः भगवान्में लगता है।- अनन्तकी ओर १२२
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अनन्तकी ओर १२२··
सबका भला चाहो और भगवान्को याद रखो - ये दो बातें करो तो आपका चित्त स्वतः प्रसन्न रहेगा।
||श्रीहरि:||
सबका भला चाहो और भगवान्को याद रखो - ये दो बातें करो तो आपका चित्त स्वतः प्रसन्न रहेगा।- अनन्तकी ओर ८२
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अनन्तकी ओर ८२··
मनकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । संसारका जो प्रभाव पड़ा है, उसीका नाम 'मन' है।
||श्रीहरि:||
मनकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है । संसारका जो प्रभाव पड़ा है, उसीका नाम 'मन' है।- स्वातिकी बूँदें १६८
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स्वातिकी बूँदें १६८··
भगवान्में अपने-आपको लगाओ, मनको नहीं । मनको संसारकी सेवामें लगाओ। शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, अहम् — सबको संसारकी सेवामें लगाओ। मन आपका नहीं है, फिर 'मन भगवान्में नहीं लगता' - यह चिन्ता क्यों करते हो ?
||श्रीहरि:||
भगवान्में अपने-आपको लगाओ, मनको नहीं । मनको संसारकी सेवामें लगाओ। शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, अहम् — सबको संसारकी सेवामें लगाओ। मन आपका नहीं है, फिर 'मन भगवान्में नहीं लगता' - यह चिन्ता क्यों करते हो ?- स्वातिकी बूँदें १५४
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स्वातिकी बूँदें १५४··
विचार करें, आप स्वयं मन हैं या आप मनके हैं या मन आपका है? मन आपका है तो क्या आपके लगे बिना मन लग जायगा ? हम लगे नहीं, हमारा हाथ लग जाय - यह कैसे होगा?
||श्रीहरि:||
विचार करें, आप स्वयं मन हैं या आप मनके हैं या मन आपका है? मन आपका है तो क्या आपके लगे बिना मन लग जायगा ? हम लगे नहीं, हमारा हाथ लग जाय - यह कैसे होगा?- स्वातिकी बूँदें १६८
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स्वातिकी बूँदें १६८··
वृत्तिका निरोध करनेसे कुछ कालके लिये मनका निरोध होगा, फिर व्युत्थान हो जायगा। अगर दूसरी सत्ताकी मान्यता न रहे, तो फिर व्युत्थानका प्रश्न ही पैदा नहीं होगा। कारण कि दूसरी सत्ता न हो तो मन है ही नहीं।
||श्रीहरि:||
वृत्तिका निरोध करनेसे कुछ कालके लिये मनका निरोध होगा, फिर व्युत्थान हो जायगा। अगर दूसरी सत्ताकी मान्यता न रहे, तो फिर व्युत्थानका प्रश्न ही पैदा नहीं होगा। कारण कि दूसरी सत्ता न हो तो मन है ही नहीं।- साधक संजीवनी ६ । ३६ परि०
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साधक संजीवनी ६ । ३६ परि०··
जबतक साधक एक भगवान्की सत्ताके सिवाय दूसरी सत्ता मानेगा, तबतक उसका मन सर्वथा निरुद्ध नहीं हो सकता । कारण कि जबतक अपनेमें दूसरी सत्ताकी मान्यता है, तबतक रागका सर्वथा नाश नहीं हो सकता और रागका सर्वथा नाश हुए बिना मन सर्वथा निर्विषय नहीं हो सकता। रागके रहते हुए मनका सीमित निरोध होता है, जिससे लौकिक सिद्धियोंकी प्राप्ति होती है, वास्तविक तत्त्वकी प्राप्ति नहीं होती।
||श्रीहरि:||
जबतक साधक एक भगवान्की सत्ताके सिवाय दूसरी सत्ता मानेगा, तबतक उसका मन सर्वथा निरुद्ध नहीं हो सकता । कारण कि जबतक अपनेमें दूसरी सत्ताकी मान्यता है, तबतक रागका सर्वथा नाश नहीं हो सकता और रागका सर्वथा नाश हुए बिना मन सर्वथा निर्विषय नहीं हो सकता। रागके रहते हुए मनका सीमित निरोध होता है, जिससे लौकिक सिद्धियोंकी प्राप्ति होती है, वास्तविक तत्त्वकी प्राप्ति नहीं होती।- साधन-सुधा-सिन्धु ४८४
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साधन-सुधा-सिन्धु ४८४··
वास्तवमें मनकी चंचलता बाधक नहीं है, प्रत्युत सबमें भगवद्बुद्धि न होना और राग-द्वेष होना बाधक है। जबतक राग-द्वेष रहते हैं, तबतक सबमें भगवद्बुद्धि नहीं होती और जबतक सबमें भगवद्बुद्धि नहीं होती अर्थात् भगवान्के सिवाय दूसरी सत्ताकी मान्यता रहती है, तबतक मनका सर्वथा निरोध नहीं होता।
||श्रीहरि:||
वास्तवमें मनकी चंचलता बाधक नहीं है, प्रत्युत सबमें भगवद्बुद्धि न होना और राग-द्वेष होना बाधक है। जबतक राग-द्वेष रहते हैं, तबतक सबमें भगवद्बुद्धि नहीं होती और जबतक सबमें भगवद्बुद्धि नहीं होती अर्थात् भगवान्के सिवाय दूसरी सत्ताकी मान्यता रहती है, तबतक मनका सर्वथा निरोध नहीं होता।- साधक संजीवनी ६ । ३६ परि०
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साधक संजीवनी ६ । ३६ परि०··
मनको परमात्मामें लगानेका एक बहुत श्रेष्ठ साधन है कि मन जहाँ जहाँ जाय, वहाँ-वहाँ परमात्माको ही देखे अथवा मनमें जो-जो चिन्तन आये उसको परमात्माका ही स्वरूप समझे।
||श्रीहरि:||
मनको परमात्मामें लगानेका एक बहुत श्रेष्ठ साधन है कि मन जहाँ जहाँ जाय, वहाँ-वहाँ परमात्माको ही देखे अथवा मनमें जो-जो चिन्तन आये उसको परमात्माका ही स्वरूप समझे।- साधक संजीवनी ६ । २६ परि०
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साधक संजीवनी ६ । २६ परि०··
भक्तकी दृष्टिमें एक भगवान् के सिवाय अन्यकी सत्ता न होनेसे उसका मन अन्य जगह कैसे जायगा ? क्यों जायगा ? कहाँ जायगा ?
||श्रीहरि:||
भक्तकी दृष्टिमें एक भगवान् के सिवाय अन्यकी सत्ता न होनेसे उसका मन अन्य जगह कैसे जायगा ? क्यों जायगा ? कहाँ जायगा ?- साधक संजीवनी ८ । १४ परि०
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साधक संजीवनी ८ । १४ परि०··
सब जग ईस्वररूप है, भलो बुरो नहिं कोय - ऐसा भाव हो जाय तो यह शिकायत मिट जायगी कि मन भगवान्में लगता नहीं।
||श्रीहरि:||
सब जग ईस्वररूप है, भलो बुरो नहिं कोय - ऐसा भाव हो जाय तो यह शिकायत मिट जायगी कि मन भगवान्में लगता नहीं।- सत्संगके फूल १६०