निर्मम होना प्रत्येक साधकके लिये बहुत आवश्यक है; क्योंकि ममताको मिटाये बिना साधककी उन्नति नहीं हो सकती। इतना ही नहीं, जिसमें ममता की जाती है, वह वस्तु भी अशुद्ध हो जाती है और उसकी उन्नतिमें बाधा लग जाती है।
||श्रीहरि:||
निर्मम होना प्रत्येक साधकके लिये बहुत आवश्यक है; क्योंकि ममताको मिटाये बिना साधककी उन्नति नहीं हो सकती। इतना ही नहीं, जिसमें ममता की जाती है, वह वस्तु भी अशुद्ध हो जाती है और उसकी उन्नतिमें बाधा लग जाती है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये ३४
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मानवमात्रके कल्याणके लिये ३४··
अगर हम शरीरकी ममता सर्वथा छोड़ दें तो शरीर प्रायः बीमार नहीं होगा । इन्द्रियोंकी ममता छोड़ दें तो इन्द्रियोंमें बुराई नहीं रहेगी। मनकी ममता छोड़ दें तो मनमें बुराई नहीं रहेगी। बुद्धिकी ममता छोड़ दें तो बुद्धिमें बुराई नहीं रहेगी। ऐसे ही मैं-पनके साथ जो ममता (अपनापन ) है, उसका त्याग कर दें तो कोई बुराई नहीं रहेगी।
||श्रीहरि:||
अगर हम शरीरकी ममता सर्वथा छोड़ दें तो शरीर प्रायः बीमार नहीं होगा । इन्द्रियोंकी ममता छोड़ दें तो इन्द्रियोंमें बुराई नहीं रहेगी। मनकी ममता छोड़ दें तो मनमें बुराई नहीं रहेगी। बुद्धिकी ममता छोड़ दें तो बुद्धिमें बुराई नहीं रहेगी। ऐसे ही मैं-पनके साथ जो ममता (अपनापन ) है, उसका त्याग कर दें तो कोई बुराई नहीं रहेगी।- साधन-सुधा-सिन्धु ३९
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साधन-सुधा-सिन्धु ३९··
उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंकी तरफ आकृष्ट होते ही आसक्ति ममतारूप मलिनता आने लगती है, जिससे मनुष्यका शरीर और शरीरकी हड्डियाँतक अधिक अपवित्र हो जाती हैं।
||श्रीहरि:||
उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंकी तरफ आकृष्ट होते ही आसक्ति ममतारूप मलिनता आने लगती है, जिससे मनुष्यका शरीर और शरीरकी हड्डियाँतक अधिक अपवित्र हो जाती हैं।- साधक संजीवनी १८ । २७
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साधक संजीवनी १८ । २७··
न प्रकृति अशुद्ध है, न पुरुष अशुद्ध है। अशुद्धि सम्बन्ध जोड़नेसे, ममतासे आती है।
||श्रीहरि:||
न प्रकृति अशुद्ध है, न पुरुष अशुद्ध है। अशुद्धि सम्बन्ध जोड़नेसे, ममतासे आती है।- ज्ञानके दीप जले ३८
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ज्ञानके दीप जले ३८··
जिन वस्तुओं, क्रियाओं आदिमें ममता हो जाती है, वे सभी चीजें अपवित्र हो जानेसे पूजा- सामग्री नहीं रहतीं (अपवित्र फल, फूल आदि भगवान्पर नहीं चढ़ते ) |
||श्रीहरि:||
जिन वस्तुओं, क्रियाओं आदिमें ममता हो जाती है, वे सभी चीजें अपवित्र हो जानेसे पूजा- सामग्री नहीं रहतीं (अपवित्र फल, फूल आदि भगवान्पर नहीं चढ़ते ) |- साधक संजीवनी १८ । ४६
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साधक संजीवनी १८ । ४६··
जबतक मनुष्यकी स्त्री, पुत्र आदिमें ममता रहेगी, तबतक उसके द्वारा स्त्री, पुत्र आदिका सुधार होना असम्भव है; क्योंकि ममता ही मूल अशुद्धि है।
||श्रीहरि:||
जबतक मनुष्यकी स्त्री, पुत्र आदिमें ममता रहेगी, तबतक उसके द्वारा स्त्री, पुत्र आदिका सुधार होना असम्भव है; क्योंकि ममता ही मूल अशुद्धि है।- अमृत-बिन्दु ५२७
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अमृत-बिन्दु ५२७··
यदि हम निर्मम हो जायँ तो निष्काम होनेकी शक्ति आ जायगी और निष्काम होनेसे असंग होनेकी शक्ति आ जायगी। जब निर्ममता, निष्कामता और असंगता आ जाती है, तब निर्विकारता, शान्ति और स्वाधीनता स्वतः आ जाती है।
||श्रीहरि:||
यदि हम निर्मम हो जायँ तो निष्काम होनेकी शक्ति आ जायगी और निष्काम होनेसे असंग होनेकी शक्ति आ जायगी। जब निर्ममता, निष्कामता और असंगता आ जाती है, तब निर्विकारता, शान्ति और स्वाधीनता स्वतः आ जाती है।- साधक संजीवनी ३ । ३७ वि०
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साधक संजीवनी ३ । ३७ वि०··
विचारपूर्वक देखा जाय तो शरीरादि पदार्थ किसी भी दृष्टिसे अपने नहीं हैं। मालिककी दृष्टिसे देखें तो ये भगवान्के हैं, कारणकी दृष्टिसे देखें तो ये प्रकृतिके हैं और कार्यकी दृष्टिसे देखें तो ये संसारके (संसारसे अभिन्न) हैं। इस प्रकार किसी भी दृष्टिसे इनको अपना मानना, इनमें ममता रखना भूल है।
||श्रीहरि:||
विचारपूर्वक देखा जाय तो शरीरादि पदार्थ किसी भी दृष्टिसे अपने नहीं हैं। मालिककी दृष्टिसे देखें तो ये भगवान्के हैं, कारणकी दृष्टिसे देखें तो ये प्रकृतिके हैं और कार्यकी दृष्टिसे देखें तो ये संसारके (संसारसे अभिन्न) हैं। इस प्रकार किसी भी दृष्टिसे इनको अपना मानना, इनमें ममता रखना भूल है।- साधक संजीवनी ५। ११
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साधक संजीवनी ५। ११··
जैसे लड़की से विवाह होनेपर अर्थात् सम्बन्ध जुड़नेपर सास, ससुर आदि ससुराल के सभी सम्बन्धियोंसे अपने-आप सम्बन्ध जुड़ जाता है, ऐसे ही संसारकी किसी भी वस्तु (शरीरादि ) - से सम्बन्ध जुड़नेपर अर्थात् उसे अपनी माननेपर पूरे संसारसे अपने-आप सम्बन्ध जुड़ जाता है।
||श्रीहरि:||
जैसे लड़की से विवाह होनेपर अर्थात् सम्बन्ध जुड़नेपर सास, ससुर आदि ससुराल के सभी सम्बन्धियोंसे अपने-आप सम्बन्ध जुड़ जाता है, ऐसे ही संसारकी किसी भी वस्तु (शरीरादि ) - से सम्बन्ध जुड़नेपर अर्थात् उसे अपनी माननेपर पूरे संसारसे अपने-आप सम्बन्ध जुड़ जाता है।- साधक संजीवनी ५। ११
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साधक संजीवनी ५। ११··
साधारणतः मल, विक्षेप और आवरण-दोषके दूर होनेको अन्तः करणकी शुद्धि माना जाता है। परन्तु वास्तवमें अन्तःकरणकी शुद्धि है - शरीर इन्द्रियाँ - मन-बुद्धिसे ममताका सर्वथा मिट जाना।
||श्रीहरि:||
साधारणतः मल, विक्षेप और आवरण-दोषके दूर होनेको अन्तः करणकी शुद्धि माना जाता है। परन्तु वास्तवमें अन्तःकरणकी शुद्धि है - शरीर इन्द्रियाँ - मन-बुद्धिसे ममताका सर्वथा मिट जाना।- साधक संजीवनी ५। ११
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साधक संजीवनी ५। ११··
सम्पूर्ण सृष्टिके एकमात्र स्वामी भगवान् ही हैं, फिर कोई ईमानदार व्यक्ति सृष्टिकी किसी भी वस्तुको अपनी कैसे मान सकता है ? मनुष्य जबतक शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदिको अपने मानता है, तबतक भगवान्को सारे संसारका स्वामी कहना अपने-आपको धोखा देना ही है।
||श्रीहरि:||
सम्पूर्ण सृष्टिके एकमात्र स्वामी भगवान् ही हैं, फिर कोई ईमानदार व्यक्ति सृष्टिकी किसी भी वस्तुको अपनी कैसे मान सकता है ? मनुष्य जबतक शरीर, इन्द्रियाँ, मन आदिको अपने मानता है, तबतक भगवान्को सारे संसारका स्वामी कहना अपने-आपको धोखा देना ही है।- साधक संजीवनी ५। २९
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साधक संजीवनी ५। २९··
साधकसे भूल यह होती है कि वह प्राणियों और पदार्थोंसे तो ममताको हटानेकी चेष्टा करता है, पर अपने शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियोंसे ममता हटानेकी ओर विशेष ध्यान नहीं देता । इसीलिये वह सर्वथा निर्मम नहीं हो पाता।
||श्रीहरि:||
साधकसे भूल यह होती है कि वह प्राणियों और पदार्थोंसे तो ममताको हटानेकी चेष्टा करता है, पर अपने शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियोंसे ममता हटानेकी ओर विशेष ध्यान नहीं देता । इसीलिये वह सर्वथा निर्मम नहीं हो पाता।- साधक संजीवनी १२ । १३
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साधक संजीवनी १२ । १३··
अपनी तरफसे छोड़े बिना शरीरादिमें ममताका सम्बन्ध मरनेपर भी नहीं छूटता। इसलिये मृत शरीरकी हड्डियोंको गंगाजीमें डालनेसे उस जीवकी आगे गति होती है। इस माने हुए सम्बन्धको छोड़ने में हम सर्वथा स्वतन्त्र तथा सबल हैं। यदि शरीरके रहते हुए ही हम उससे अपनापन हटा दें, तो जीते जी ही मुक्त हो जायँ।
||श्रीहरि:||
अपनी तरफसे छोड़े बिना शरीरादिमें ममताका सम्बन्ध मरनेपर भी नहीं छूटता। इसलिये मृत शरीरकी हड्डियोंको गंगाजीमें डालनेसे उस जीवकी आगे गति होती है। इस माने हुए सम्बन्धको छोड़ने में हम सर्वथा स्वतन्त्र तथा सबल हैं। यदि शरीरके रहते हुए ही हम उससे अपनापन हटा दें, तो जीते जी ही मुक्त हो जायँ।- साधक संजीवनी १५ । ८
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साधक संजीवनी १५ । ८··
केवल सांसारिक व्यवहारके लिये वस्तुओंमें अपनापन करना दोषी नहीं है, प्रत्युत उनको सदाके लिये अपना मान लेना दोषी है।
||श्रीहरि:||
केवल सांसारिक व्यवहारके लिये वस्तुओंमें अपनापन करना दोषी नहीं है, प्रत्युत उनको सदाके लिये अपना मान लेना दोषी है।- साधक संजीवनी १८ । ५१-५३ टि०
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साधक संजीवनी १८ । ५१-५३ टि०··
मेरा कुछ नहीं है' - यह होनेपर 'मेरेको कुछ नहीं चाहिये' - यह अपने आप हो जायगा । मेरी कोई चीज मानते ही 'चाहिये' पैदा हो जायगी। शरीर मेरा है तो रोटी भी चाहिये, कपड़ा भी चाहिये, मकान भी चाहिये, औषध भी चाहिये। 'चाहिये चाहिये' की लाइन लग जायगी । जब मेरी वस्तु कोई है ही नहीं तो फिर मेरेको क्या चाहिये ? मेरा कुछ नहीं है तो फिर मौज हो जायगी।
||श्रीहरि:||
मेरा कुछ नहीं है' - यह होनेपर 'मेरेको कुछ नहीं चाहिये' - यह अपने आप हो जायगा । मेरी कोई चीज मानते ही 'चाहिये' पैदा हो जायगी। शरीर मेरा है तो रोटी भी चाहिये, कपड़ा भी चाहिये, मकान भी चाहिये, औषध भी चाहिये। 'चाहिये चाहिये' की लाइन लग जायगी । जब मेरी वस्तु कोई है ही नहीं तो फिर मेरेको क्या चाहिये ? मेरा कुछ नहीं है तो फिर मौज हो जायगी।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १९६
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १९६··
जैसे, तालाब में डुबकी लगाते हैं तो सैकड़ों मन जल ऊपर आ जाता है, पर भार होता ही नहीं। पर बाहर निकलनेपर एक घड़ा भी उठा लें तो भार हो जाता है। जहाँ ममता की और भार हुआ। ममता नहीं की तो भार नहीं हुआ। ममता न हो तो सब संसार होते हुए भी कोई बाधा नहीं है। मेरा मान लिया तो फँस गये।
||श्रीहरि:||
जैसे, तालाब में डुबकी लगाते हैं तो सैकड़ों मन जल ऊपर आ जाता है, पर भार होता ही नहीं। पर बाहर निकलनेपर एक घड़ा भी उठा लें तो भार हो जाता है। जहाँ ममता की और भार हुआ। ममता नहीं की तो भार नहीं हुआ। ममता न हो तो सब संसार होते हुए भी कोई बाधा नहीं है। मेरा मान लिया तो फँस गये।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १९७
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बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १९७··
हम जिससे अपने मनकी बात मनवाते हैं, उससे ममता नहीं छूटती । अतः जिससे ममता छोड़नी हो, उससे अपने मनकी बात मत करवाओ, प्रत्युत उसके मनकी बात करो। हाँ, उसके मनकी बात शास्त्र, लोक- मर्यादा, धर्मके अनुसार हो और हमारी सामर्थ्यके अनुकूल हो।
||श्रीहरि:||
हम जिससे अपने मनकी बात मनवाते हैं, उससे ममता नहीं छूटती । अतः जिससे ममता छोड़नी हो, उससे अपने मनकी बात मत करवाओ, प्रत्युत उसके मनकी बात करो। हाँ, उसके मनकी बात शास्त्र, लोक- मर्यादा, धर्मके अनुसार हो और हमारी सामर्थ्यके अनुकूल हो।- स्वातिकी बूँदें १२६ - १२७
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स्वातिकी बूँदें १२६ - १२७··
ममतासे वस्तुओंकी गुलामी आती है।
||श्रीहरि:||
ममतासे वस्तुओंकी गुलामी आती है।- सन्त समागम २४
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सन्त समागम २४··
सांसारिक पदार्थों एवं व्यक्तियोंको रख नहीं सकते, केवल ममता करके फँस सकते हैं।
||श्रीहरि:||
सांसारिक पदार्थों एवं व्यक्तियोंको रख नहीं सकते, केवल ममता करके फँस सकते हैं।- स्वातिकी बूँदें १७५
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स्वातिकी बूँदें १७५··
ममता - कामना मिटानेके लिये किसी श्रमसाध्य साधनकी आवश्यकता नहीं है, प्रत्युत विचारकी आवश्यकता है। मिलने और बिछुड़नेवाली वस्तु अपनी नहीं होती - यह विचार करना चाहिये।
||श्रीहरि:||
ममता - कामना मिटानेके लिये किसी श्रमसाध्य साधनकी आवश्यकता नहीं है, प्रत्युत विचारकी आवश्यकता है। मिलने और बिछुड़नेवाली वस्तु अपनी नहीं होती - यह विचार करना चाहिये।- प्रश्नोत्तरमणिमाला ११३
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प्रश्नोत्तरमणिमाला ११३··
जो हमारा कहना नहीं मानता, उसमें ममता, अपनापन छोड़ दो तो वह शुद्ध हो जायगा । अशुद्धि ममतासे आती है। ममता छोडनेसे आपको शान्ति मिलेगी और उसका सुधार होगा।
||श्रीहरि:||
जो हमारा कहना नहीं मानता, उसमें ममता, अपनापन छोड़ दो तो वह शुद्ध हो जायगा । अशुद्धि ममतासे आती है। ममता छोडनेसे आपको शान्ति मिलेगी और उसका सुधार होगा।- सत्संगके फूल ३०
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सत्संगके फूल ३०··
हम घरमें रहनेसे नहीं फँसते, प्रत्युत घरको अपना माननेसे फँसते हैं।
||श्रीहरि:||
हम घरमें रहनेसे नहीं फँसते, प्रत्युत घरको अपना माननेसे फँसते हैं।- अमृत-बिन्दु ५३२
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अमृत-बिन्दु ५३२··
संसारको अपना मानोगे तो रोना छूटेगा नहीं और अपना नहीं मानोगे तो रोना पड़ेगा नहीं।
||श्रीहरि:||
संसारको अपना मानोगे तो रोना छूटेगा नहीं और अपना नहीं मानोगे तो रोना पड़ेगा नहीं।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १९१
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १९१··
आज जितना दुःख हो रहा है, वह सब दूसरेको अपना माननेसे, दूसरेसे सम्बन्ध जोड़नेसे ही हो रहा है। कोई वस्तु अपनी नहीं है - ऐसा मान लो तो आज ही सब झंझट मिट जाय । वस्तुको अपना माना कि फँसे, मुफ्त में । वस्तुको अपनी मानते ही आफत शुरू हो जाती है।
||श्रीहरि:||
आज जितना दुःख हो रहा है, वह सब दूसरेको अपना माननेसे, दूसरेसे सम्बन्ध जोड़नेसे ही हो रहा है। कोई वस्तु अपनी नहीं है - ऐसा मान लो तो आज ही सब झंझट मिट जाय । वस्तुको अपना माना कि फँसे, मुफ्त में । वस्तुको अपनी मानते ही आफत शुरू हो जाती है।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १३४
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सीमाके भीतर असीम प्रकाश १३४··
मिली हुई वस्तुको अपनी माननेवाला न संसारके कामका है, न अपने कामका है और न भगवान्के कामका है।
||श्रीहरि:||
मिली हुई वस्तुको अपनी माननेवाला न संसारके कामका है, न अपने कामका है और न भगवान्के कामका है।- अमृत-बिन्दु ५३७
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अमृत-बिन्दु ५३७··
ममतारहित पुरुष दुनियाका जितना भला कर सकता है, उतना ममतावाला कर ही नहीं सकता।
||श्रीहरि:||
ममतारहित पुरुष दुनियाका जितना भला कर सकता है, उतना ममतावाला कर ही नहीं सकता।- अमृत-बिन्दु ५३८
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अमृत-बिन्दु ५३८··
जो मिलता है और बिछुड़ता है, वह अपना नहीं होता। जो आता है और जाता है, वह अपना नहीं होता। जिसका आरम्भ होता है और अन्त होता है, वह अपना नहीं होता। जिसकी उत्पत्ति होती है और विनाश होता है, वह अपना नहीं होता।
||श्रीहरि:||
जो मिलता है और बिछुड़ता है, वह अपना नहीं होता। जो आता है और जाता है, वह अपना नहीं होता। जिसका आरम्भ होता है और अन्त होता है, वह अपना नहीं होता। जिसकी उत्पत्ति होती है और विनाश होता है, वह अपना नहीं होता।- परम प्रभु अपने ही महुँ पायो १४४ - १४५