Seeker of Truth

लेना और देना

देने' के भावसे समाजमें एकता, प्रेम उत्पन्न होता है और 'लेने' के भावसे संघर्ष उत्पन्न होता है।

साधक संजीवनी ३ । २१··

देने' का भाव उद्धार करनेवाला और 'लेने' का भाव पतन करनेवाला होता है।

साधक संजीवनी ३ । २१··

लेने की इच्छासे जोड़ा गया सम्बन्ध बाँधनेवाला होता है और देनेकी इच्छासे जोड़ा गया सम्बन्ध मुक्त करनेवाला होता है।

साधन-सुधा-सिन्धु १८२··

लेनेका भाव जड़ता है और देनेका भाव चेतनता है। लेनेकी भावनासे अशुभ कर्म और देनेकी भावनासे शुभ कर्म होते हैं। लेनेकी इच्छावालोंके लिये स्वर्ग है और देनेकी इच्छावालोंके लिये मोक्ष है। कारण कि लेनेका भाव बाँधनेवाला और देनेका भाव मुक्त करनेवाला होता है।

साधक संजीवनी ११ । २९ परि०··

जो केवल लेता ही लेता है, वह जड़ (जगत्) है। अगर वह पशु, पक्षी, वृक्ष, पहाड़ आदि हो तो भी जड़ है और मनुष्य हो तो भी जड़ है। जो लेता भी है और देता भी है, वह 'जीव' ( चिज्जग्रन्थि) है। जो लेना बन्द करके देना शुरू कर देता है, वह 'साधक' है। जो किसीसे कुछ नहीं लेता, वह 'साधक' है। जो किसीसे कुछ नहीं लेता, न जगत्से लेता है, न भगवान्से, वह 'सिद्ध' है। जो केवल देता ही देता है, वह 'भगवान्' है।

अमरताकी ओर ८३- ८४··

जब लेना कुछ होगा ही नहीं, तब देनेका राग त्यागमें बदल जायगा । देने ही देनेमात्र से शुद्ध प्रेम मिलता है। भक्त भगवान्‌को भी देनेवाला होता है।

रहस्यमयी वार्ता २०१··

लेनेका राग तब मिटेगा, जब देनेमें प्रेम होगा। मुझे कुछ चाहिये - यही अशुद्धि है । भगवान्‌को भी सुख देना है, दुनियाको भी सुख देना है, पर अपने लिये कुछ नहीं चाहना है। हमें यही चाहिये कि कुछ नहीं चाहिये।

रहस्यमयी वार्ता २०१··

जिसमें लेनेकी इच्छा नहीं है, उसके द्वारा स्वाभाविक ही देना होता है। भगवान् और उनके भक्त लेते हैं तो देते हैं, देते हैं तो देते हैं। पर सांसारिक लोग देते हैं तो लेते हैं, लेते हैं तो लेते हैं।

सागरके मोती ७५··

मेरी बात रह जाय – यह लेना है। जबतक 'मेरा' कुछ है, तबतक लेना पड़ेगा।

सागरके मोती ७५··

जिससे ऊँचा उठना है, उस संसारकी सेवा करनी है; उसको देना है, लेना कुछ नहीं है। जिस परमात्माको प्राप्त करना है, उसे अपने-आपको देना है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १०२··

लेनेकी इच्छा छोड़ते ही साधन शुरू हो जायगा।

स्वातिकी बूँदें ४३··

सुख लेना पाप है, सुख देना पुण्य है। सुख लेना बन्धन है, सुख देना मुक्ति है।

स्वातिकी बूँदें ४६··

लेनेसे ऋण चढ़ता है और देनेसे ऋण उतरता है । संसारी मनुष्य लेता है तो लेता है, देता है तो भी लेता है। साधक देता है तो देता है, लेता है तो भी देता है। सन्त महात्मा देते हैं तो भी कृपा करते हैं, लेते हैं तो भी कृपा करते हैं।

स्वातिकी बूँदें ७२··

मानवशरीर लेनेके लिये नहीं है, देनेके लिये है। हमपर सभी प्राणियोंका ऋण है; क्योंकि सभीसे हमारा उपकार होता है। इसलिये सबकी सेवा करो।

सत्संगके फूल १५··

लेनेकी इच्छावाला दूसरोंका हित नहीं करता, प्रत्युत व्यापार करता है । दूसरोंका हित चाहनेवालेमें भोग व संग्रहकी इच्छा नहीं होती।

सत्संगके फूल ८७··

जिसको लेना - ही लेना आता है, उसको देना नहीं आता । परन्तु जिसको देना आता है, उसको लेना भी आता है और देना भी।

स्वातिकी बूँदें ७५··

सेवा करनेके लिये तो सब अपने हैं, पर लेनेके लिये कोई अपना नहीं है । संसारकी तो बात ही क्या है, भगवान् भी लेनेके लिये अपने नहीं हैं अर्थात् भगवान्से भी कुछ नहीं लेना है, प्रत्युत अपने-आपको ही भगवान्‌के समर्पित करना है। कारण कि जो वस्तु हमें चाहिये और हमारे हितकी है, वह भगवान्ने हमें पहलेसे ही बिना माँगे दे रखी है; और ज्यादा दे रखी है, कम नहीं।

साधक संजीवनी ४।१४··

लेनेका भाव ही बाँधनेवाला है। लेनेका भाव रखनेसे कल्याणप्राप्तिमें बाधा लगनेके साथ ही सांसारिक पदार्थोंकी प्राप्तिमें भी बाधा उपस्थित हो जाती है । प्रायः सभीका अनुभव है कि संसारमें लेनेका भाव रखनेवालेको कोई देना नहीं चाहता।

साधक संजीवनी ३ । १०··

मुझे कुछ लेना है ही नहीं - केवल इतनी बातसे मुक्ति हो जायगी।

अमृत-बिन्दु ३४५··

इस संसार - समुद्रसे जो लेना चाहता है, वह डूब जाता है और जो देना चाहता है, वह तर जाता है।

अमृत-बिन्दु ५७९··

सुख लेनेके लिये शरीर भी अपना नहीं है और सुख देने ( सेवा करने) के लिये पूरा संसार अपना है।

अमृत-बिन्दु ५८७··

लेनेकी इच्छासे मनुष्य दास हो जाता है और केवल देनेकी इच्छासे मालिक हो जाता है।

अमृत-बिन्दु ५८८··