क्षमा
कोई हमारे प्रति कितना ही बड़ा अपराध करे, अपनी सामर्थ्य रहते हुए भी उसे सह लेना और उस अपराधीको अपनी तथा ईश्वरकी तरफसे यहाँ और परलोकमें कहीं भी दण्ड न मिले- ऐसा विचार करनेका नाम 'क्षमा' है।
क्षमा माँगना भी दो रीतिसे होता है - (१) हमने किसीका अपकार किया, तो उसका दण्ड हमें न मिले - इस भयसे भी क्षमा माँगी जाती है; परन्तु इस क्षमामें स्वार्थका भाव रहनेसे यह ऊँचे दर्जेकी क्षमा नहीं है। (२) हमसे किसीका अपराध हुआ, तो अब यहाँसे आगे उम्रभर ऐसा अपराध फिर कभी नहीं करूँगा - इस भावसे जो क्षमा माँगी जाती है, वह अपने सुधारकी दृष्टिको लेकर होती है और ऐसी क्षमा माँगनेसे ही मनुष्यकी उन्नति होती है।
क्षमा माँगना और क्षमा कर देना- ये दो मामूली बात नहीं है, बहुत ऊँचे दर्जेकी बात है । 'क्षमा माँगना' असली तब होता है, जब जिस कसूरके लिये क्षमा माँगी है, वह कसूर फिर उम्रभर कभी किसीके प्रति न करे। ऐसे ही 'क्षमा करना' असली तब होता है, जब सदाके लिये ही क्षमा कर दे। क्षमा माँगना और क्षमा करना बड़े शूरवीरका काम है, मामूली आदमीका काम नहीं।
भूलसे अपने कारण किसीको दुःख हो भी जाय तो उससे क्षमा माँग लेनी चाहिये। वह क्षमा न करे तो भी कोई डर नहीं । कारण कि सच्चे हृदयसे क्षमा माँगनेवालेकी क्षमा भगवान्की ओरसे स्वतः होती है।
अपने प्रति न्याय करो और दूसरोंको क्षमा करो तो आपका जीवन शुद्ध, निर्मल हो जायगा। ज्ञान (समझ) अपने लिये है और प्राप्त परिस्थिति दूसरोंके हितके लिये है।
माफी सदा भगवान्से ही होती है। माफी माँगना और माफ करना- दोनोंकी ताकत हरेकमें नहीं होती। कोई सच्चे हृदयसे माफी माँगे तो भगवान् माफ करते हैं। माफी दण्डसे बचनेके लिये नहीं माँगनी है, प्रत्युत दूसरेके हृदयमें शान्ति हो, हलचल न रहे - इसलिये माँगनी है।