Seeker of Truth

कर्तव्य-कर्म

कर्तव्य उसे कहते हैं, जिसको कर सकते हैं और जिसको अवश्य करना चाहिये। दूसरे शब्दों में कर्तव्यका अर्थ होता है— अपने स्वार्थका त्याग करके दूसरोंका हित करना अर्थात् दूसरोंकी उस शास्त्रविहित न्याययुक्त माँगको पूरा करना, जिसे पूरा करनेकी सामर्थ्य हमारेमें है । इस प्रकार कर्तव्यका सम्बन्ध परहितसे है।

साधक संजीवनी ३ । १९··

जो दूसरेका अधिकार होता है, वही हमारा कर्तव्य होता है। जैसे, माता-पिताकी सेवा करना पुत्रका कर्तव्य है और माता-पिताका अधिकार है। अपना अधिकार चाहनेवाला मनुष्य अपने कर्तव्यका पालन नहीं कर सकता।

मानवमात्रके कल्याणके लिये ४४··

केवल दूसरोंके हितके लिये किया जानेवाला कर्म ही कर्तव्य होता है। जो कर्म अपने लिये किया जाता है, वह कर्तव्य नहीं होता, प्रत्युत कर्ममात्र होता है, जिससे मनुष्य बँधता है।

साधक संजीवनी ४ | ३१··

निष्कामभावसे कर्म करना 'कर्तव्य' है और सकामभावसे कर्म करना 'अकर्तव्य' है। अकर्तव्यका मूल कारण है – संयोगजन्य सुखकी कामना।

मानवमात्रके कल्याणके लिये १२१··

मनुष्यका प्रथम कर्तव्य है कि वह जिसको बुराई जानता है, उसको दूसरेके साथ न करे, और यदि कर चुका है तो उसको दुहराये नहीं।

ज्ञानकी पगडण्डियाँ ५··

कर्तव्यका पालन सबसे सुगम है। अकर्तव्यकी आसक्तिके कारण ही कर्तव्य पालन कठिन दीखता है।

प्रश्नोत्तरमणिमाला २०··

जो अपने धर्म, कर्तव्यका पालन करता है, वही श्रेष्ठ है, चाहे गृहस्थ हो या साधु।

स्वातिकी बूँदें १०३··

वही वर्ण और आश्रम श्रेष्ठ है, जो अपने कर्तव्यका पालन करता है। जो अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता, वह छोटा हो जाता है।

प्रश्नोत्तरमणिमाला ४१७··

मनुष्य केवल अपने कर्तव्यका पालन करे तो अन्य कोई साधन किये बिना कल्याण हो जायगा।

सत्संगके फूल ३२··

जिसमें अपने सुखकी इच्छाका त्याग करके दूसरेको सुख पहुँचाया जाय और जिसमें अपना भी हित हो तथा दूसरेका भी हित हो, वह 'कर्तव्य' कहलाता है । कर्तव्यका पालन करनेसे 'योग' की प्राप्ति अपने आप हो जाती है।

साधक संजीवनी २ । ३९ परि०··

वर्तमान समयमें घरोंमें, समाजमें जो अशान्ति, कलह, संघर्ष देखनेमें आ रहा है, उसमें मूल कारण यही है कि लोग अपने अधिकारकी माँग तो करते हैं, पर अपने कर्तव्यका पालन नहीं करते।

साधक संजीवनी ३।१०-११ मा०··

जिस तरह गतिशील बैलगाड़ीका कोई एक पहिया भी खण्डित हो जाय तो उससे पूरी बैलगाड़ीको झटका लगता है, इसी तरह गतिशील सृष्टि चक्रमें यदि एक व्यक्ति भी कर्तव्यच्युत होता है तो उसका विपरीत प्रभाव सम्पूर्ण सृष्टिपर पड़ता है। इसके विपरीत जैसे शरीरका एक भी पीड़ित (रोगी) अंग ठीक होनेपर सम्पूर्ण शरीरका स्वतः हित होता है, ऐसे ही अपने कर्तव्यका ठीक- ठीक पालन करनेवाले मनुष्यके द्वारा सम्पूर्ण सृष्टिका स्वतः हित होता है।

साधक संजीवनी ३ । १२ वि०··

अपनेमें कर्तृत्वाभिमान होनेसे ही दूसरोंके कर्तव्यपर दृष्टि जाती है और दूसरोंके कर्तव्यपर दृष्टि जाते ही मनुष्य अपने कर्तव्यसे गिर जाता है; क्योंकि दूसरेका कर्तव्य देखना अपना कर्तव्य नहीं है।

साधक संजीवनी ३ । १९··

कोई भी कर्तव्य कर्म छोटा या बड़ा नहीं होता। छोटे-से-छोटा और बड़े से बड़ा कर्म कर्तव्यमात्र समझकर (सेवाभावसे) करनेपर समान ही है। देश, काल, परिस्थिति, अवसर, वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिके अनुसार जो कर्तव्यकर्म सामने आ जाय, वही कर्म बड़ा होता है।

साधक संजीवनी ३ । २० मा०··

एकमात्र अपने कल्याणका उद्देश्य होगा तो शास्त्र पढ़े बिना भी अपने कर्तव्यका ज्ञान हो जायगा । परन्तु अपने कल्याणका उद्देश्य न हो तो शास्त्र पढ़नेपर भी कर्तव्यका ज्ञान नहीं होगा, उलटे अज्ञान बढ़ेगा कि हम अधिक जानते हैं।

साधक संजीवनी १६ । २४ परि०··

मनुष्यके मनमें ऐसा आता है कि मैं कर्तव्यका पालन करनेमें और सद्गुणोंको लानेमें असमर्थ हूँ। परन्तु वास्तवमें वह असमर्थ नहीं है । सांसारिक भोगोंकी आदत और पदार्थोंके संग्रहकी रुचि होनेसे ही असमर्थताका अनुभव होता है।

साधक संजीवनी १८।४७ वि०··

साधक अगर जगत्‌को जगत्रूपसे देखे तो उसकी 'सेवा' करे और भगवद्रूपसे देखे तो उसका 'पूजन' करे। अपने लिये कुछ न करे। मात्र कर्म अपने लिये करना बन्धन है, संसारके लिये करना सेवा है और भगवान्के लिये करना पूजन है।

साधक संजीवनी १८ । ४६ परि०··

अपने सुखके लिये किया गया कर्म तो बन्धनकारक है ही, अपने व्यक्तिगत हितके लिये किया गया कर्म भी बन्धनकारक है। केवल अपने हितकी तरफ दृष्टि रखनेसे व्यक्तित्व बना रहता है। इसलिये और तो क्या, जप, चिन्तन, ध्यान, समाधि भी केवल लोकहितके लिये ही करे।

साधक संजीवनी ३।९··

अपने लिये' कर्म करनेवाला मनुष्य अपने कर्तव्यसे च्युत हो जाता है और अपने कर्तव्यसे च्युत होनेपर ही राष्ट्रमें अकाल, महामारी, मृत्यु आदि महान् कष्ट होते हैं।

साधक संजीवनी ३ । १३··

अपने लाभके लिये करना 'आसुरी सम्पत्ति' है। दूसरोंके हितके लिये करना 'दैवी सम्पत्ति' है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ६५··

जिस काममें अपने स्वार्थका त्याग और दूसरेका हित हो, वह काम आँख मीचकर करो; क्योंकि वही सबसे बढ़िया काम है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ७१··

हरेक काममें 'मेरेको क्या लाभ होगा' – इसको छोड़कर यह सोचो कि इससे दूसरोंको क्या लाभ होगा ?

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १७३··

जो मनमें आये, वही करना पागलका काम है, पशुका काम है, मनुष्यका काम नहीं है। कार्य शास्त्र, गुरु आदिके आज्ञानुसार होता है। अपनी इच्छाके अनुसार ( मनमाना ) कार्य करनेवाला सन्त कैसे बन सकता है ? वह तो साधक भी नहीं बन सकता।

स्वातिकी बूँदें ११२··

कर्तव्यमात्र समझकर कर्म किया जाय तो कर्म तथा कर्मफलसे स्वतः सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है । परन्तु साधन कर्तव्यमात्र समझकर करेंगे तो कभी प्रेम जाग्रत् नहीं होगा ।

स्वातिकी बूँदें १७०··

किसी भी कार्यके आरम्भमें मनमें जितना अधिक उत्साह (हर्ष) होता है, वह उत्साह उस कार्यको उतना ही सिद्ध करनेवाला होता है । परन्तु अगर कार्यके आरम्भ में ही उत्साह भंग हो जाता है, मनमें संकल्प-विकल्प ठीक नहीं होते, तो उस कार्यका परिणाम अच्छा नहीं होता ।

साधक संजीवनी १।३१··

अपने लिये करनेसे सभी दुःखी हो जायँगे और दूसरेके लिये करनेसे सभी सुखी हो जायँगे।

स्वातिकी बूँदें ५९··

जो निष्काम होता है, वही तत्परतापूर्वक अपने कर्तव्यका पालन कर सकता है।

अमृत-बिन्दु ६७७··

अपने कर्तव्य (धर्म) का ठीक पालन करनेसे वैराग्य हो जाता है- 'धर्म तें बिरति' (मानस, अरण्य० १६ । १) । यदि वैराग्य न हो तो समझना चाहिये कि हमने अपने कर्तव्यका ठीक पालन नहीं किया।

अमृत-बिन्दु ७१··

मनुष्यको वह काम करना चाहिये, जिससे उसका भी हित हो और दुनियाका भी हित हो, अभी भी हित हो और परिणाममें भी हित हो।

अमृत-बिन्दु ८६४··