कर्मयोग मुक्तिका, कल्याणप्राप्तिका स्वतन्त्र साधन है। कर्मयोगसे संसारकी निवृत्ति और परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति- दोनों हो जाते हैं।
||श्रीहरि:||
कर्मयोग मुक्तिका, कल्याणप्राप्तिका स्वतन्त्र साधन है। कर्मयोगसे संसारकी निवृत्ति और परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति- दोनों हो जाते हैं।- साधक संजीवनी २। ५१ परि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी २। ५१ परि०··
अपनेमें कल्याणकी इच्छा हो, स्वभावमें उदारता हो और हृदयमें करुणा हो अर्थात् दूसरेके सुखसे सुखी (प्रसन्न) और दुःखसे दुःखी ( करुणित) हो जाय – ये तीन बातें होनेपर मनुष्य कर्मयोगका अधिकारी हो जाता है। कर्मयोगका अधिकारी होनेपर कर्मयोग सुगमतासे होने लगता है।
||श्रीहरि:||
अपनेमें कल्याणकी इच्छा हो, स्वभावमें उदारता हो और हृदयमें करुणा हो अर्थात् दूसरेके सुखसे सुखी (प्रसन्न) और दुःखसे दुःखी ( करुणित) हो जाय – ये तीन बातें होनेपर मनुष्य कर्मयोगका अधिकारी हो जाता है। कर्मयोगका अधिकारी होनेपर कर्मयोग सुगमतासे होने लगता है।- साधक संजीवनी ३।७ परि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ३।७ परि०··
कर्मयोगमें सभी कर्म केवल दूसरोंके लिये किये जाते हैं, अपने लिये कदापि नहीं । दूसरे कौन- कौन हैं? इसे समझना भी बहुत जरूरी है। अपने शरीरके सिवाय दूसरे प्राणी- पदार्थ तो दूसरे हैं ही, पर ये अपने कहलानेवाले स्थूलशरीर, सूक्ष्मशरीर (इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण) और कारणशरीर (जिसमें माना हुआ अहम् है) भी स्वयंसे दूसरे ही हैं।
||श्रीहरि:||
कर्मयोगमें सभी कर्म केवल दूसरोंके लिये किये जाते हैं, अपने लिये कदापि नहीं । दूसरे कौन- कौन हैं? इसे समझना भी बहुत जरूरी है। अपने शरीरके सिवाय दूसरे प्राणी- पदार्थ तो दूसरे हैं ही, पर ये अपने कहलानेवाले स्थूलशरीर, सूक्ष्मशरीर (इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, प्राण) और कारणशरीर (जिसमें माना हुआ अहम् है) भी स्वयंसे दूसरे ही हैं।- साधक संजीवनी ३ । ९
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ३ । ९··
कर्मयोगमें 'कर्म' करणसापेक्ष है, पर 'योग' करणनिरपेक्ष है। योगकी प्राप्ति कर्मसे नहीं होती, प्रत्युत सेवा, त्यागसे होती है। अतः कर्मयोग कर्म नहीं है।
||श्रीहरि:||
कर्मयोगमें 'कर्म' करणसापेक्ष है, पर 'योग' करणनिरपेक्ष है। योगकी प्राप्ति कर्मसे नहीं होती, प्रत्युत सेवा, त्यागसे होती है। अतः कर्मयोग कर्म नहीं है।- साधक संजीवनी २ । ४९ परि. ०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी २ । ४९ परि. ०··
कर्मयोगमें मुख्य बात है - अपने कर्तव्यके द्वारा दूसरेके अधिकारकी रक्षा करना और कर्मफलका अर्थात् अपने अधिकारका त्याग करना।
||श्रीहरि:||
कर्मयोगमें मुख्य बात है - अपने कर्तव्यके द्वारा दूसरेके अधिकारकी रक्षा करना और कर्मफलका अर्थात् अपने अधिकारका त्याग करना।- साधक संजीवनी २ । ४७ परि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी २ । ४७ परि०··
कर्मयोगमें बुद्धिकी स्थिरता ही मुख्य है। अगर मनकी स्थिरता होगी तो कर्मयोगी कर्तव्य-कर्म कैसे करेगा? कारण कि मन स्थिर होनेपर बाहरी क्रियाएँ रुक जाती हैं।
||श्रीहरि:||
कर्मयोगमें बुद्धिकी स्थिरता ही मुख्य है। अगर मनकी स्थिरता होगी तो कर्मयोगी कर्तव्य-कर्म कैसे करेगा? कारण कि मन स्थिर होनेपर बाहरी क्रियाएँ रुक जाती हैं।- साधक संजीवनी २। ५५ परि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी २। ५५ परि०··
किसीको बुरा न समझे, किसीका बुरा न चाहे और किसीका बुरा न करे तो 'कर्मयोग' आरम्भ हो जाता है ।
||श्रीहरि:||
किसीको बुरा न समझे, किसीका बुरा न चाहे और किसीका बुरा न करे तो 'कर्मयोग' आरम्भ हो जाता है ।- साधक संजीवनी ३ । ३ परि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ३ । ३ परि०··
कर्मयोगीकी वास्तविक महिमा आसक्तिरहित होनेमें ही है। कर्मोंसे प्राप्त होनेवाले किसी भी फलको न चाहना अर्थात् उससे सर्वथा असंग हो जाना ही आसक्तिरहित होना है।
||श्रीहरि:||
कर्मयोगीकी वास्तविक महिमा आसक्तिरहित होनेमें ही है। कर्मोंसे प्राप्त होनेवाले किसी भी फलको न चाहना अर्थात् उससे सर्वथा असंग हो जाना ही आसक्तिरहित होना है।- साधक संजीवनी ३ । ७
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ३ । ७··
कर्मयोगमें एक विभाग 'कर्म' (कर्तव्य) का है और एक विभाग 'योग' का है। प्राप्त वस्तु, सामर्थ्य और योग्यताका सदुपयोग करना और व्यक्तियोंकी सेवा करना - यह कर्तव्य है । कर्तव्यका पालन करनेसे संसारसे माने हुए संयोगका वियोग हो जाता है - यह योग है । कर्तव्यका सम्बन्ध संसारके साथ है और योगका सम्बन्ध परमात्माके साथ है।
||श्रीहरि:||
कर्मयोगमें एक विभाग 'कर्म' (कर्तव्य) का है और एक विभाग 'योग' का है। प्राप्त वस्तु, सामर्थ्य और योग्यताका सदुपयोग करना और व्यक्तियोंकी सेवा करना - यह कर्तव्य है । कर्तव्यका पालन करनेसे संसारसे माने हुए संयोगका वियोग हो जाता है - यह योग है । कर्तव्यका सम्बन्ध संसारके साथ है और योगका सम्बन्ध परमात्माके साथ है।- साधक संजीवनी ३ । ७ परि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ३ । ७ परि०··
कर्मयोगके सिद्धान्तमें प्राप्त सामग्री, सामर्थ्य, समय तथा समझदारीका सदुपयोग करनेका ही विधान है । प्राप्त सामग्री आदिसे अधिककी (नयी-नयी सामग्री आदिकी) कामना करना कर्मयोगके सिद्धान्तसे विरुद्ध है।
||श्रीहरि:||
कर्मयोगके सिद्धान्तमें प्राप्त सामग्री, सामर्थ्य, समय तथा समझदारीका सदुपयोग करनेका ही विधान है । प्राप्त सामग्री आदिसे अधिककी (नयी-नयी सामग्री आदिकी) कामना करना कर्मयोगके सिद्धान्तसे विरुद्ध है।- साधक संजीवनी ३ । १२ वि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ३ । १२ वि०··
एक बड़ी मार्मिक बात यह है कि कर्मयोगी अपने कल्याणके लिये भी कोई कर्म न करके संसारमात्रके कल्याणके उद्देश्यसे ही सब कर्म करता है। कारण कि सबके कल्याणसे अपना कल्याण अलग मानना भी व्यक्तित्व और विषमताको जन्म देना है, जो साधककी उन्नतिमें बाधक है।
||श्रीहरि:||
एक बड़ी मार्मिक बात यह है कि कर्मयोगी अपने कल्याणके लिये भी कोई कर्म न करके संसारमात्रके कल्याणके उद्देश्यसे ही सब कर्म करता है। कारण कि सबके कल्याणसे अपना कल्याण अलग मानना भी व्यक्तित्व और विषमताको जन्म देना है, जो साधककी उन्नतिमें बाधक है।- साधक संजीवनी ३ । १२ वि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ३ । १२ वि०··
कर्मयोगी जैसे कर्तृत्वको अपनेमें निरन्तर नहीं मानता, ऐसे ही माता-पिता, स्त्री-पुत्र, भाई- भौजाई आदिके साथ अपना सम्बन्ध भी निरन्तर नहीं मानता। केवल सेवा करते समय ही उनके साथ अपना सम्बन्ध (सेवा करनेके लिये ही ) मानता है।......दूसरा अपने कर्तव्यका पालन करता है या नहीं, उसकी ओर वह नहीं देखता।
||श्रीहरि:||
कर्मयोगी जैसे कर्तृत्वको अपनेमें निरन्तर नहीं मानता, ऐसे ही माता-पिता, स्त्री-पुत्र, भाई- भौजाई आदिके साथ अपना सम्बन्ध भी निरन्तर नहीं मानता। केवल सेवा करते समय ही उनके साथ अपना सम्बन्ध (सेवा करनेके लिये ही ) मानता है।......दूसरा अपने कर्तव्यका पालन करता है या नहीं, उसकी ओर वह नहीं देखता।- साधक संजीवनी ३ । १९
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ३ । १९··
संसारसे मिली वस्तुओंको संसारकी ही सेवामें लगा देनेसे सुगमतापूर्वक संसारसे सम्बन्ध विच्छेद होकर परमात्मप्राप्ति हो जाती है। इसलिये कर्मयोग परमात्मप्राप्तिका सुगम श्रेष्ठ और स्वतन्त्र साधन है - इसमें कोई सन्देह नहीं।
||श्रीहरि:||
संसारसे मिली वस्तुओंको संसारकी ही सेवामें लगा देनेसे सुगमतापूर्वक संसारसे सम्बन्ध विच्छेद होकर परमात्मप्राप्ति हो जाती है। इसलिये कर्मयोग परमात्मप्राप्तिका सुगम श्रेष्ठ और स्वतन्त्र साधन है - इसमें कोई सन्देह नहीं।- साधक संजीवनी ३ । २०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ३ । २०··
सांसारिक पदार्थोंको मूल्यवान् समझनेके कारण ही कर्मयोग (निष्काम भावपूर्वक कर्तव्य-कर्म ) - के पालनमें कठिनाई प्रतीत होती है। हमें दूसरोंसे कुछ न चाहकर केवल दूसरोंके हितके लिये सब कर्म करने हैं - इस बातको यदि स्वीकार कर लें तो आज ही कर्मयोगका पालन सुगम हो जाय।
||श्रीहरि:||
सांसारिक पदार्थोंको मूल्यवान् समझनेके कारण ही कर्मयोग (निष्काम भावपूर्वक कर्तव्य-कर्म ) - के पालनमें कठिनाई प्रतीत होती है। हमें दूसरोंसे कुछ न चाहकर केवल दूसरोंके हितके लिये सब कर्म करने हैं - इस बातको यदि स्वीकार कर लें तो आज ही कर्मयोगका पालन सुगम हो जाय।- साधक संजीवनी ३ । २५ वि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ३ । २५ वि०··
जैसे भक्त पदार्थोंको भगवान्का ही मानकर भगवान्के अर्पण करता है - ' त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये', ऐसे ही कर्मयोगी पदार्थोंको संसारका ही मानकर संसारके अर्पण करता है।
||श्रीहरि:||
जैसे भक्त पदार्थोंको भगवान्का ही मानकर भगवान्के अर्पण करता है - ' त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये', ऐसे ही कर्मयोगी पदार्थोंको संसारका ही मानकर संसारके अर्पण करता है।- साधक संजीवनी ३ । ३४
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ३ । ३४··
कर्मयोगी अपने लिये कुछ करता ही नहीं, अपने लिये कुछ चाहता ही नहीं और अपना कुछ मानता ही नहीं। इसलिये उसमें कामनाओंका नाश सुगमतापूर्वक हो जाता है।
||श्रीहरि:||
कर्मयोगी अपने लिये कुछ करता ही नहीं, अपने लिये कुछ चाहता ही नहीं और अपना कुछ मानता ही नहीं। इसलिये उसमें कामनाओंका नाश सुगमतापूर्वक हो जाता है।- साधक संजीवनी ३ | ४३
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ३ | ४३··
एक-दूसरेकी सहायतासे ही सबका जीवन चलता है । धनी - से- धनी व्यक्तिका जीवन भी दूसरेकी सहायता के बिना नहीं चल सकता। हमने किसीसे लिया है तो किसीको देना, किसीकी सहायता करना, सेवा करना हमारा भी परम कर्तव्य है । इसीका नाम कर्मयोग है।
||श्रीहरि:||
एक-दूसरेकी सहायतासे ही सबका जीवन चलता है । धनी - से- धनी व्यक्तिका जीवन भी दूसरेकी सहायता के बिना नहीं चल सकता। हमने किसीसे लिया है तो किसीको देना, किसीकी सहायता करना, सेवा करना हमारा भी परम कर्तव्य है । इसीका नाम कर्मयोग है।- साधक संजीवनी ४। १ वि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ४। १ वि०··
जो जान-बूझकर कार्यको खोज - खोजकर सेवा करता है, वह कर्म करता है, सेवा नहीं; क्योंकि ऐसा करनेसे उसका उद्देश्य पारमार्थिक न रहकर लौकिक हो जाता है। सेवा वह है, जो परिस्थितिके अनुरूप की जाय । कर्मयोगी न तो परिस्थिति बदलता है और न परिस्थिति ढूँढ़ता है। वह तो प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग करता है। प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग ही कर्मयोग है।
||श्रीहरि:||
जो जान-बूझकर कार्यको खोज - खोजकर सेवा करता है, वह कर्म करता है, सेवा नहीं; क्योंकि ऐसा करनेसे उसका उद्देश्य पारमार्थिक न रहकर लौकिक हो जाता है। सेवा वह है, जो परिस्थितिके अनुरूप की जाय । कर्मयोगी न तो परिस्थिति बदलता है और न परिस्थिति ढूँढ़ता है। वह तो प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग करता है। प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग ही कर्मयोग है।- साधक संजीवनी ४। १ वि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ४। १ वि०··
जब कर्मयोगी स्वार्थभावका त्याग करके केवल संसारमात्रके हितके भावसे ही समस्त कर्म करता है, तब भगवान्की सर्वव्यापी हितैषिणी शक्तिसे उसकी एकता हो जाती है और उसके कर्मोंमें विलक्षणता आ जाती है। भगवान्की शक्तिसे एकता होनेसे उसमें भगवान्की शक्ति ही काम करती है और उस शक्तिके द्वारा ही लोगोंका हित होता है । इसलिये कर्तव्य कर्म करनेमें न तो कोई बाधा लगती है और न परिश्रमका अनुभव ही होता है।
||श्रीहरि:||
जब कर्मयोगी स्वार्थभावका त्याग करके केवल संसारमात्रके हितके भावसे ही समस्त कर्म करता है, तब भगवान्की सर्वव्यापी हितैषिणी शक्तिसे उसकी एकता हो जाती है और उसके कर्मोंमें विलक्षणता आ जाती है। भगवान्की शक्तिसे एकता होनेसे उसमें भगवान्की शक्ति ही काम करती है और उस शक्तिके द्वारा ही लोगोंका हित होता है । इसलिये कर्तव्य कर्म करनेमें न तो कोई बाधा लगती है और न परिश्रमका अनुभव ही होता है।- साधक संजीवनी ४। १ वि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ४। १ वि०··
कर्मयोगका आचरण लुप्तप्राय होनेपर भी उसका सिद्धान्त ( अपने लिये कुछ न करना) सदैव रहता है; क्योंकि इस सिद्धान्तको अपनाये बिना किसी भी योग ( ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि) - का निरन्तर साधन नहीं हो सकता। ज्ञानयोगी और भक्तियोगीको कर्मयोगका सिद्धान्त तो अपनाना ही पड़ेगा; भले ही वे कर्मयोगका अनुष्ठान न करें।
||श्रीहरि:||
कर्मयोगका आचरण लुप्तप्राय होनेपर भी उसका सिद्धान्त ( अपने लिये कुछ न करना) सदैव रहता है; क्योंकि इस सिद्धान्तको अपनाये बिना किसी भी योग ( ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि) - का निरन्तर साधन नहीं हो सकता। ज्ञानयोगी और भक्तियोगीको कर्मयोगका सिद्धान्त तो अपनाना ही पड़ेगा; भले ही वे कर्मयोगका अनुष्ठान न करें।- साधक संजीवनी ४। २
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ४। २··
कर्मयोगका ठीक-ठीक पालन किया जाय तो यदि कर्मयोगीमें ज्ञानयोगके संस्कार हैं तो उसे ज्ञानकी प्राप्ति, और यदि भक्तिके संस्कार हैं तो उसे भक्तिकी प्राप्ति स्वत: हो जाती है।
||श्रीहरि:||
कर्मयोगका ठीक-ठीक पालन किया जाय तो यदि कर्मयोगीमें ज्ञानयोगके संस्कार हैं तो उसे ज्ञानकी प्राप्ति, और यदि भक्तिके संस्कार हैं तो उसे भक्तिकी प्राप्ति स्वत: हो जाती है।- साधक संजीवनी ४ । ३
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ४ । ३··
कर्मयोगका पालन करनेसे अपना ही नहीं, प्रत्युत संसारमात्रका भी परमहित होता है।
||श्रीहरि:||
कर्मयोगका पालन करनेसे अपना ही नहीं, प्रत्युत संसारमात्रका भी परमहित होता है।- साधक संजीवनी ४ । ३
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ४ । ३··
फलेच्छाका त्याग करके केवल दूसरोंके लिये कर्म करनेसे कर्तृत्व और भोक्तृत्व - दोनों ही नहीं रहते। कर्तृत्व-भोक्तृत्व ही संसार है। अतः इनके न रहनेसे मुक्ति स्वतःसिद्ध ही है।
||श्रीहरि:||
फलेच्छाका त्याग करके केवल दूसरोंके लिये कर्म करनेसे कर्तृत्व और भोक्तृत्व - दोनों ही नहीं रहते। कर्तृत्व-भोक्तृत्व ही संसार है। अतः इनके न रहनेसे मुक्ति स्वतःसिद्ध ही है।- साधक संजीवनी ४ । १४
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ४ । १४··
कर्मयोग कर्म नहीं है, प्रत्युत सेवा है। सेवामें त्यागकी मुख्यता होती है। सेवा और त्याग- ये दोनों ही कर्म नहीं हैं। इन दोनोंमें विवेककी ही प्रधानता है।
||श्रीहरि:||
कर्मयोग कर्म नहीं है, प्रत्युत सेवा है। सेवामें त्यागकी मुख्यता होती है। सेवा और त्याग- ये दोनों ही कर्म नहीं हैं। इन दोनोंमें विवेककी ही प्रधानता है।- साधक संजीवनी ४। १६
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ४। १६··
मिली हुई वस्तु अपनी नहीं है, दूसरोंकी और दूसरोंकी सेवामें लगानेके लिये ही है - यह विवेक है। इसलिये मूलतः कर्मयोग कर्म नहीं है, प्रत्युत विवेक है।
||श्रीहरि:||
मिली हुई वस्तु अपनी नहीं है, दूसरोंकी और दूसरोंकी सेवामें लगानेके लिये ही है - यह विवेक है। इसलिये मूलतः कर्मयोग कर्म नहीं है, प्रत्युत विवेक है।- साधक संजीवनी ४ । १६
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ४ । १६··
कर्मयोगी अगर संन्यासी है, तो वह सब प्रकारकी भोग- सामग्रीके संग्रहका स्वरूपसे त्याग कर देता है। अगर वह गृहस्थ है, तो वह भोगबुद्धिसे ( अपने सुखके लिये ) किसी भी सामग्रीका संग्रह नहीं करता।
||श्रीहरि:||
कर्मयोगी अगर संन्यासी है, तो वह सब प्रकारकी भोग- सामग्रीके संग्रहका स्वरूपसे त्याग कर देता है। अगर वह गृहस्थ है, तो वह भोगबुद्धिसे ( अपने सुखके लिये ) किसी भी सामग्रीका संग्रह नहीं करता।- साधक संजीवनी ४। २१
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ४। २१··
वास्तवमें देखा जाय तो कर्मयोगमें कर्म करना, अधिक करना, कम करना अथवा न करना बन्धन या मुक्तिका कारण नहीं है। इनके साथ जो लिप्तता (लगाव) है, वही बन्धनका कारण है और जो निर्लिप्तता है, वही मुक्तिका कारण है।
||श्रीहरि:||
वास्तवमें देखा जाय तो कर्मयोगमें कर्म करना, अधिक करना, कम करना अथवा न करना बन्धन या मुक्तिका कारण नहीं है। इनके साथ जो लिप्तता (लगाव) है, वही बन्धनका कारण है और जो निर्लिप्तता है, वही मुक्तिका कारण है।- साधक संजीवनी ४। २२
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ४। २२··
कर्मयोगीका 'अहम्' भी सेवामें लग जाता है। तात्पर्य है कि उसके भीतर 'मैं सेवक हूँ' यह भाव भी नहीं रहता।
||श्रीहरि:||
कर्मयोगीका 'अहम्' भी सेवामें लग जाता है। तात्पर्य है कि उसके भीतर 'मैं सेवक हूँ' यह भाव भी नहीं रहता।- साधक संजीवनी ४। २३
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ४। २३··
तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेके लिये कर्मयोगीको किसी गुरुकी, ग्रन्थकी या दूसरे किसी साधनकी अपेक्षा नहीं है। कर्मयोगकी विधिसे कर्तव्य कर्म करते हुए ही उसे अपने आप तत्त्वज्ञान प्राप्त हो जायगा।
||श्रीहरि:||
तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेके लिये कर्मयोगीको किसी गुरुकी, ग्रन्थकी या दूसरे किसी साधनकी अपेक्षा नहीं है। कर्मयोगकी विधिसे कर्तव्य कर्म करते हुए ही उसे अपने आप तत्त्वज्ञान प्राप्त हो जायगा।- साधक संजीवनी ४ । ३८
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ४ । ३८··
कर्मयोगका साधन प्रत्येक परिस्थितिमें और प्रत्येक व्यक्तिके द्वारा किया जा सकता है, चाहे वह किसी वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिका क्यों न हो।
||श्रीहरि:||
कर्मयोगका साधन प्रत्येक परिस्थितिमें और प्रत्येक व्यक्तिके द्वारा किया जा सकता है, चाहे वह किसी वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय आदिका क्यों न हो।- साधक संजीवनी ५। २
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ५। २··
प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग करना कर्मयोग है। युद्ध जैसी घोर परिस्थितिमें भी कर्मयोगका पालन किया जा सकता है। कर्मयोगका पालन करनेमें कोई भी मनुष्य किसी भी परिस्थितिमें असमर्थ और पराधीन नहीं है।
||श्रीहरि:||
प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग करना कर्मयोग है। युद्ध जैसी घोर परिस्थितिमें भी कर्मयोगका पालन किया जा सकता है। कर्मयोगका पालन करनेमें कोई भी मनुष्य किसी भी परिस्थितिमें असमर्थ और पराधीन नहीं है।- साधक संजीवनी ५। २
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ५। २··
कर्मयोगमें कर्ता निष्काम होता है, कर्म नहीं; क्योंकि जड़ होनेके कारण कर्म स्वयं निष्काम या सकाम नहीं हो सकते। कर्म कर्ताके अधीन होते हैं, इसलिये कर्मोंकी अभिव्यक्ति कर्तासे ही होती है। निष्काम कर्ताके द्वारा ही निष्काम कर्म होते हैं, जिसे 'कर्मयोग' कहते हैं। अत: चाहे 'कर्मयोग' कहें या 'निष्काम कर्म' – दोनोंका अर्थ एक ही होता है । सकाम कर्मयोग होता ही नहीं।
||श्रीहरि:||
कर्मयोगमें कर्ता निष्काम होता है, कर्म नहीं; क्योंकि जड़ होनेके कारण कर्म स्वयं निष्काम या सकाम नहीं हो सकते। कर्म कर्ताके अधीन होते हैं, इसलिये कर्मोंकी अभिव्यक्ति कर्तासे ही होती है। निष्काम कर्ताके द्वारा ही निष्काम कर्म होते हैं, जिसे 'कर्मयोग' कहते हैं। अत: चाहे 'कर्मयोग' कहें या 'निष्काम कर्म' – दोनोंका अर्थ एक ही होता है । सकाम कर्मयोग होता ही नहीं।- साधक संजीवनी ५/३
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ५/३··
कर्मयोग साधकको ज्ञानयोग अथवा भक्तियोगका अधिकारी भी बना देता है और स्वतन्त्रतासे कल्याण भी कर देता है। दूसरे शब्दोंमें, कर्मयोगसे साधन - ज्ञान अथवा साधन-भक्तिकी प्राप्ति भी हो सकती है और साध्य ज्ञान ( तत्त्वज्ञान) अथवा साध्य - भक्ति (परमप्रेम या पराभक्ति) की प्राप्ति भी हो सकती है।
||श्रीहरि:||
कर्मयोग साधकको ज्ञानयोग अथवा भक्तियोगका अधिकारी भी बना देता है और स्वतन्त्रतासे कल्याण भी कर देता है। दूसरे शब्दोंमें, कर्मयोगसे साधन - ज्ञान अथवा साधन-भक्तिकी प्राप्ति भी हो सकती है और साध्य ज्ञान ( तत्त्वज्ञान) अथवा साध्य - भक्ति (परमप्रेम या पराभक्ति) की प्राप्ति भी हो सकती है।- साधक संजीवनी ५। ५ परि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ५। ५ परि०··
इन्द्रियाँ वशमें हुए बिना कर्मयोगका साधन होना कठिन है।
||श्रीहरि:||
इन्द्रियाँ वशमें हुए बिना कर्मयोगका साधन होना कठिन है।- साधक संजीवनी ५। ७
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ५। ७··
जैसे शरीरके किसी एक अंगमें चोट लगनेसे दूसरा अंग उसकी सेवा करनेके लिये सहजभावसे, किसी अभिमानके बिना, कृतज्ञता चाहे बिना स्वतः लग जाता है, ऐसे ही कर्मयोगीके द्वारा दूसरोंको सुख पहुँचाने की चेष्टा सहजभावसे, किसी अभिमान या कामनाके बिना, कृतज्ञता चाहे बिना स्वतः होती है।
||श्रीहरि:||
जैसे शरीरके किसी एक अंगमें चोट लगनेसे दूसरा अंग उसकी सेवा करनेके लिये सहजभावसे, किसी अभिमानके बिना, कृतज्ञता चाहे बिना स्वतः लग जाता है, ऐसे ही कर्मयोगीके द्वारा दूसरोंको सुख पहुँचाने की चेष्टा सहजभावसे, किसी अभिमान या कामनाके बिना, कृतज्ञता चाहे बिना स्वतः होती है।- साधक संजीवनी ५। ७
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ५। ७··
कर्मयोगीके कर्म उद्देश्यहीन अर्थात् पागलके कर्मकी तरह नहीं होते, प्रत्युत परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिका महान् उद्देश्य रखकर ही वह लोकहितार्थ सब कर्म करता है।
||श्रीहरि:||
कर्मयोगीके कर्म उद्देश्यहीन अर्थात् पागलके कर्मकी तरह नहीं होते, प्रत्युत परमात्मतत्त्वकी प्राप्तिका महान् उद्देश्य रखकर ही वह लोकहितार्थ सब कर्म करता है।- साधक संजीवनी ५।१२
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ५।१२··
मनुष्योंमें कर्म करनेका एक वेग रहता है, जिसको कर्मयोगकी विधिसे कर्म करके ही मिटाया जा सकता है, अन्यथा वह शान्त नहीं होता ........ सकामभावसे अर्थात् अपने लिये कर्म करनेसे करनेका वेग बढ़ता है। यह वेग तभी शान्त होता है, जब साधक अपने लिये कभी किंचिन्मात्र भी कोई कर्म नहीं करता, प्रत्युत सम्पूर्ण कर्म केवल लोकहितार्थ ही करता है।
||श्रीहरि:||
मनुष्योंमें कर्म करनेका एक वेग रहता है, जिसको कर्मयोगकी विधिसे कर्म करके ही मिटाया जा सकता है, अन्यथा वह शान्त नहीं होता ........ सकामभावसे अर्थात् अपने लिये कर्म करनेसे करनेका वेग बढ़ता है। यह वेग तभी शान्त होता है, जब साधक अपने लिये कभी किंचिन्मात्र भी कोई कर्म नहीं करता, प्रत्युत सम्पूर्ण कर्म केवल लोकहितार्थ ही करता है।- साधक संजीवनी ६ । १
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी ६ । १··
कर्मयोगीके लिये अलगसे ध्यान लगानेकी जरूरत नहीं है। अगर वह ध्यान लगाना भी चाहे, तो कोई सांसारिक कामना न होनेके कारण वह सुगमतापूर्वक ध्यान लगा सकता है, जबकि सकामभावके कारण सामान्य साधकको ध्यान लगानेमें कठिनाई होती है।....... ध्यानकी अपेक्षा कर्मयोगका साधन श्रेष्ठ है।
||श्रीहरि:||
कर्मयोगीके लिये अलगसे ध्यान लगानेकी जरूरत नहीं है। अगर वह ध्यान लगाना भी चाहे, तो कोई सांसारिक कामना न होनेके कारण वह सुगमतापूर्वक ध्यान लगा सकता है, जबकि सकामभावके कारण सामान्य साधकको ध्यान लगानेमें कठिनाई होती है।....... ध्यानकी अपेक्षा कर्मयोगका साधन श्रेष्ठ है।- साधक संजीवनी १२/१२
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी १२/१२··
अपना कुछ नहीं, अपने लिये कुछ नहीं चाहिये और अपने लिये कुछ नहीं करना है - यही कर्मयोगका मूल महामन्त्र है, जिसके कारण यह सब साधनोंसे विलक्षण हो जाता है—' कर्मयोगो विशिष्यते' ( गीता ५। २ )
||श्रीहरि:||
अपना कुछ नहीं, अपने लिये कुछ नहीं चाहिये और अपने लिये कुछ नहीं करना है - यही कर्मयोगका मूल महामन्त्र है, जिसके कारण यह सब साधनोंसे विलक्षण हो जाता है—' कर्मयोगो विशिष्यते' ( गीता ५। २ )- साधक संजीवनी १२ । १२
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी १२ । १२··
कर्मयोगी जो कुछ भी करे, वह केवल संसारके हितके लिये ही करे । यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत आदि जो कुछ भी करे, वह सब मात्र प्राणियोंके कल्याणके लिये ही करे, अपने लिये नहीं।
||श्रीहरि:||
कर्मयोगी जो कुछ भी करे, वह केवल संसारके हितके लिये ही करे । यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत आदि जो कुछ भी करे, वह सब मात्र प्राणियोंके कल्याणके लिये ही करे, अपने लिये नहीं।- साधक संजीवनी १३ । २४
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी १३ । २४··
कर्मयोगमें विधि-निषेधको लेकर 'अमुक काम करना है और अमुक काम नहीं करना है'- ऐसा विचार तो करना ही है; परन्तु 'अमुक काम बड़ा है और अमुक काम छोटा है'- ऐसा विचार नहीं करना है।....... कर्मका छोटा या बड़ा होना फलकी इच्छाके कारण ही दीखता है, जब कि कर्मयोगमें फलेच्छाका त्याग होता है।
||श्रीहरि:||
कर्मयोगमें विधि-निषेधको लेकर 'अमुक काम करना है और अमुक काम नहीं करना है'- ऐसा विचार तो करना ही है; परन्तु 'अमुक काम बड़ा है और अमुक काम छोटा है'- ऐसा विचार नहीं करना है।....... कर्मका छोटा या बड़ा होना फलकी इच्छाके कारण ही दीखता है, जब कि कर्मयोगमें फलेच्छाका त्याग होता है।- साधक संजीवनी १८ । ६
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी १८ । ६··
कर्मयोगमें स्थूलशरीरसे क्रिया, सूक्ष्मशरीरसे परहितचिन्तन और कारणशरीरसे स्थिरता ( एकाग्रता ) - ये तीनों ही संसारके हितार्थ होते हैं।
||श्रीहरि:||
कर्मयोगमें स्थूलशरीरसे क्रिया, सूक्ष्मशरीरसे परहितचिन्तन और कारणशरीरसे स्थिरता ( एकाग्रता ) - ये तीनों ही संसारके हितार्थ होते हैं।- साधक संजीवनी १८ । १३ टि०
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
साधक संजीवनी १८ । १३ टि०··
केवल किसीका बुरा न करनेमात्रसे आपके द्वारा 'कर्मयोग' का अनुष्ठान हो जायगा; आप कर्मयोगके आचार्य बन जाओगे, महात्मा बन जाओगे।
||श्रीहरि:||
केवल किसीका बुरा न करनेमात्रसे आपके द्वारा 'कर्मयोग' का अनुष्ठान हो जायगा; आप कर्मयोगके आचार्य बन जाओगे, महात्मा बन जाओगे।- सीमाके भीतर असीम प्रकाश १८९
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
सीमाके भीतर असीम प्रकाश १८९··
एक मार्मिक बात है कि जितनी भी क्रियाएँ हैं, सब कर्मयोगके लिये अर्थात् दूसरोंके हितके लिये ही हैं । शरीर-मन-वाणीसे जो कुछ भी करना है, वह केवल संसारके लिये है, अपने लिये कुछ नहीं है। अपने लिये कुछ भी करना भोग है, बन्धन है।
||श्रीहरि:||
एक मार्मिक बात है कि जितनी भी क्रियाएँ हैं, सब कर्मयोगके लिये अर्थात् दूसरोंके हितके लिये ही हैं । शरीर-मन-वाणीसे जो कुछ भी करना है, वह केवल संसारके लिये है, अपने लिये कुछ नहीं है। अपने लिये कुछ भी करना भोग है, बन्धन है।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ १९
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
नये रास्ते, नयी दिशाएँ १९··
जन्म-मरणको झूठा माननेसे ही कल्याण होगा, ऐसी बात नहीं है। यह केवल एक शास्त्रकी बात है। जन्म-मरणको सच्चा माननेपर भी आपका कल्याण हो जायगा, आप घबराओ मत। संसारको सच्चा माननेवालोंके लिये ही कर्मयोग है।
||श्रीहरि:||
जन्म-मरणको झूठा माननेसे ही कल्याण होगा, ऐसी बात नहीं है। यह केवल एक शास्त्रकी बात है। जन्म-मरणको सच्चा माननेपर भी आपका कल्याण हो जायगा, आप घबराओ मत। संसारको सच्चा माननेवालोंके लिये ही कर्मयोग है।- अनन्तकी ओर २३
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
अनन्तकी ओर २३··
कर्मयोग' का पालन उदार व्यक्ति कर सकता है, कृपण नहीं। उदार व्यक्तिमें दो चीजें होनी चाहिये - करुणा और सुहृत्ता।
||श्रीहरि:||
कर्मयोग' का पालन उदार व्यक्ति कर सकता है, कृपण नहीं। उदार व्यक्तिमें दो चीजें होनी चाहिये - करुणा और सुहृत्ता।- स्वातिकी बूँदें १४८
स्वामी श्रीरामसुखदासजी महाराजseekertruth.org
स्वातिकी बूँदें १४८··
लोगोंको कहनेकी जरूरत नहीं है, भीतरमें यह भावना बना लो कि सब सुखी हो जायँ, सबका कल्याण हो जाय, सबको परमपदकी प्राप्ति हो जाय, सबको तत्त्वज्ञान हो जाय, सब भगवान्के प्रेमी हो जायँ । भीतरमें उदारता आये बिना कल्याण नहीं होगा। उदारता आनेसे ही कर्मयोगका अनुष्ठान होता है।
||श्रीहरि:||
लोगोंको कहनेकी जरूरत नहीं है, भीतरमें यह भावना बना लो कि सब सुखी हो जायँ, सबका कल्याण हो जाय, सबको परमपदकी प्राप्ति हो जाय, सबको तत्त्वज्ञान हो जाय, सब भगवान्के प्रेमी हो जायँ । भीतरमें उदारता आये बिना कल्याण नहीं होगा। उदारता आनेसे ही कर्मयोगका अनुष्ठान होता है।- अनन्तकी ओर ८९