Seeker of Truth

कामना

जबतक कामना रहती है, तबतक मनुष्य पराधीन रहता है। पराधीन मनुष्य न तो त्याग कर सकता है, न सेवा कर सकता है और न प्रेम ही कर सकता है। वह न तो ज्ञानयोगी बन सकता है, न कर्मयोगी बन सकता है और न भक्तियोगी ही बन सकता है।

मानवमात्रके कल्याणके लिये ३७··

मुझे सुख कैसे मिले ?' - केवल इसी चाहनाके कारण मनुष्य कर्तव्यच्युत और पतित हो जाता है।

साधक संजीवनी ३ । १२··

संसारके सम्पूर्ण पापों, दुःखों, नरकों आदिके मूलमें एक कामना ही है। इस लोक और परलोकमें जहाँ कहीं कोई दुःख पा रहा है, उसमें असत्की कामना ही कारण है। कामनासे सब प्रकारके दुःख होते हैं और सुख कोई सा भी नहीं होता।

साधक संजीवनी ३ । ३७··

निष्काम होनेपर साधक संसारपर विजय प्राप्त कर लेता है। कारण कि कामनावाले मनुष्यको कइयोंके अधीन होना पड़ता है, पर जिसको कुछ नहीं चाहिये, उसको किसीके अधीन नहीं होना पड़ता । उसका मूल्य संसारसे अधिक हो जाता है।

मानवमात्रके कल्याणके लिये ३७··

हमारा जीवन कामना - पूर्तिके अधीन नहीं है। क्या जन्म लेनेके बाद माँका दूध कामना करनेसे मिला था ? जीवन - निर्वाह कामना करनेसे नहीं होता, प्रत्युत किसी विधानसे होता है।

मानवमात्रके कल्याणके लिये १२२··

अनन्त ब्रह्माण्डोंमें ऐसी एक भी वस्तु नहीं है, जो मेरी और मेरे लिये हो - इस वास्तविकताको स्वीकार करनेसे कामना स्वतः मिट जाती है; क्योंकि जब मेरा और मेरे लिये कुछ है ही नहीं, तो फिर हम किसकी कामना करें और क्यों करें ?

मानवमात्रके कल्याणके लिये १२३··

मनुष्य जो चाहता है, वह संसारके पास है ही नहीं।

साधक संजीवनी न०नि०··

मनुष्य अगर सर्वथा कामना - रहित हो जाय तो वह जीते-जी अमर हो जायगा।

मानवमात्रके कल्याणके लिये १२३··

मनुष्य जिस वस्तुकी इच्छा करता है, उसीके पराधीन हो जाता है। इच्छा करनेवाला तो छोटा हो जाता है, पर इच्छित वस्तु बड़ी हो जाती है।

सत्संग-मुक्ताहार ४७-४८··

जो कामनाओंको छोड़ना चाहता है, उसके लिये सबसे पहले यह मानना जरूरी है कि 'संसारमें मेरा कुछ नहीं है'। जबतक हम शरीरको अथवा किसी भी वस्तुको अपना मानेंगे, तबतक कामनाका सर्वथा त्याग कठिन है।

सत्यकी खोज ३··

कोई भी कामना नहीं करनी चाहिये । दुःख मिट जाय - यह कामना करेंगे तो सुखका भोग होगा । बन्धन मिट जाय—यह कामना करेंगे तो मुक्तिका भोग होगा। जड़तासे सम्बन्ध-विच्छेद भी अपने लिये नहीं हो, नहीं तो सूक्ष्म अहम् रह जायगा। तात्पर्य है कि हमें कुछ लेना है ही नहीं । साधक जितना ही भगवान्पर निर्भर होता है, उतना ही वह आगे बढ़ता चला जाता है। वह अपनी कोई इच्छा न रखे, सब भगवान्पर छोड़ दे तो बड़ी विलक्षणता आ जाती है और समग्रकी प्राप्ति हो जाती है।

प्रश्नोत्तरमणिमाला ३५··

लोग तो वह इच्छा करते हैं, जिससे परिणाममें दुःख पाना पड़े । इसलिये भगवान् उनकी इच्छा पूरी नहीं करते कि बस, इतना ही दुःख काफी है, और दुःख क्यों चाहते हो । कल्पवृक्ष और देवता तो दुकानदारके समान हैं, पर भगवान् पिताके समान हैं।

प्रश्नोत्तरमणिमाला ३६··

जो भक्त नहीं है, वह केवल कामनाकी पूर्तिके लिये भगवान्‌का भजन करता है, उसका कल्याण नहीं हो सकता। कारण कि उसने भगवान्‌को भगवान् ( साध्य ) नहीं माना है, प्रत्युत कामनापूर्तिका एक साधन माना है।

प्रश्नोत्तरमणिमाला ४०··

सम्पूर्ण दुःख, सन्ताप, अनिष्ट आदि भोगेच्छाके कारण ही हैं। भोगेच्छा सर्वथा मिटनेपर मोक्ष ही है।

प्रश्नोत्तरमणिमाला ४९··

प्राणशक्ति नष्ट होनेपर भी इच्छाशक्ति रहती है, तभी आगे जन्म होता है । इच्छाशक्ति न रहे तो दुबारा जन्म नहीं होता।

सत्संगके फूल १०··

संसारकी इच्छा करोगे तो नयी-नयी विपत्ति आयेगी । इच्छा छोड़ दो तो संसारकी चीजें स्वतः आयेंगी। चाहना छोड़ दें तो आवश्यक वस्तु स्वतः आ जायगी। या तो केवल एक परमात्माकी इच्छा करो, या कोई भी इच्छा मत करो, न संसारकी, न परमात्माकी।

सत्संगके फूल २०-२१··

चाहरहित मनुष्यका हृदय कोमल होता है। चाहवालेका हृदय कठोर होता है।

सत्संगके फूल १४१··

जैसे करोड़पतिका लड़का पितासे दस-पन्द्रह हजार रुपये माँगता है तो वह अलग होना चाहता है, ऐसे ही भगवान् से कुछ माँगना उनसे अलग होना है।

सत्संगके फूल १४१··

कामनाके रहते हुए मनकी चंचलता मिटनी कठिन नहीं है, पर बुद्धिकी स्थिरता होनी कठिन है। कामनाके रहते हुए भी मन निश्चल हो सकता है, तभी योगदर्शनमें 'विभूतिपाद' आया है। मनमें कामना रहते हुए चंचलता मिटती है तो सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं।

सागरके मोती ६८··

यज्ञ, दान, तप आदि शुभ कर्म यदि सकामभावसे किये जायँ तो उनका नाशवान् फल ( धन- सम्पत्ति एवं स्वर्गादिकी प्राप्ति) होता है और यदि निष्कामभावसे किये जायँ तो उनका अविनाशी फल (मोक्ष) होता है।

साधक संजीवनी २।४०··

जैसे कोई खेतीमें निष्कामभावसे बीज बोये, तो क्या खेतीमें अनाज नहीं होगा ? बोया है तो पैदा अवश्य होगा। ऐसे ही कोई निष्कामभावपूर्वक कर्म करता है, तो उसको कर्मका फल तो मिलेगा ही, पर वह बन्धनकारक नहीं होगा।

साधक संजीवनी २।५१··

वस्तुओंकी कामना भी न हो और निर्वाहमात्रकी कामना ( शरीरकी आवश्यकता ) भी न हो । कारण कि निर्वाहमात्रकी कामना भी सुखभोग ही है। इतना ही नहीं, शान्ति, मुक्ति, तत्त्वज्ञानको प्राप्त करनेकी इच्छा भी कामना है। अतः निष्कामभावमें मुक्तितककी कामना भी नहीं होनी चाहिये।

साधक संजीवनी २ । ७१ परि०··

अपनी कामनाका त्याग करनेसे संसारमात्रका हित होता है।

साधक संजीवनी ३ | ११··

कामना उत्पन्न होनेपर अपनेमें अभावका तथा काम्य वस्तुके मिलनेपर अपनेमें पराधीनताका अनुभव होता है। अतः कामनावाला मनुष्य सदा दुःखी रहता है।

साधक संजीवनी ३ । १७··

निष्काम होनेमें कठिनाई क्या है ? हम निर्मम ( ममता-रहित ) नहीं होते, यही कठिनाई है। यदि हम निर्मम हो जायँ तो निष्काम होनेकी शक्ति आ जायगी और निष्काम होनेसे असंग होनेकी शक्ति आ जायगी।

साधक संजीवनी ३।३७··

कामना केवल वर्तमानमें ही दुःख नहीं देती, प्रत्युत भावी जन्ममें कारण होनेसे भविष्य में भी दुःख देती है।

साधक संजीवनी ३ । ३७ वि०··

नाशवान् पदार्थोंकी इच्छा ही कामना कहलाती है। अविनाशी परमात्माकी इच्छा कामनाके समान प्रतीत होती हुई भी वास्तवमें 'कामना' नहीं है।

साधक संजीवनी ३ । ३७ वि०··

ये तीन इच्छाएँ (बाँधनेवाली न होनेके कारण ) 'कामना' नहीं कहलातीं - ( १ ) भगवद्दर्शन या भगवत्प्रेमकी कामना, (२) स्वरूप - बोधकी कामना और (३) सेवा करनेकी कामना।

साधक संजीवनी १५ । २··

गृहस्थ जीवन ठीक नहीं, साधु हो जायँ, एकान्तमें चले जायँ - ऐसा विचार करके मनुष्य कार्यको तो बदलना चाहता है, पर कारण 'कामना' को नहीं छोड़ता उसे छोड़नेका विचार ही नहीं करता। यदि वह कामनाको छोड़ दे तो उसके सब काम अपने-आप ठीक हो जायँ।

साधक संजीवनी ३ । ४१··

इच्छाका सर्वथा अभाव होनेपर मनुष्य मुक्त हो जाता है। कारण कि वस्तुओंकी और जीनेकी इच्छासे ही मनुष्य जन्म-मरण-रूप बन्धनमें पड़ता है। साधकको गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिये कि क्या वस्तुओंकी इच्छासे वस्तुएँ मिल जाती हैं? और क्या जीनेकी इच्छासे मृत्युसे बच जाते हैं ?

साधक संजीवनी ५। २८··

यदि वस्तु मिलनेवाली है तो इच्छा किये बिना भी मिलेगी और यदि वस्तु नहीं मिलनेवाली है तो इच्छा करनेपर भी नहीं मिलेगी। अतः वस्तुका मिलना या न मिलना इच्छाके अधीन नहीं है, प्रत्युत किसी विधानके अधीन है। जो वस्तु इच्छाके अधीन नहीं है, उसकी इच्छाको छोड़नेमें क्या कठिनाई है ?

साधक संजीवनी ५। २८··

यदि वस्तुओंकी इच्छा न रहे तो जीवन आनन्दमय हो जाता है और यदि जीनेकी इच्छा न रहे तो मृत्यु भी आनन्दमयी हो जाती है। जीवन तभी कष्टमय होता है, जब वस्तुओंकी इच्छा करते हैं, और मृत्यु तभी कष्टमयी होती है, जब जीनेकी इच्छा करते हैं।

साधक संजीवनी ५। २८··

जैसे किसी राजाका बेटा दूसरोंसे भीख माँगने लगे तो वह राजाको नहीं सुहाता ऐसे ही सत्- चित्-आनन्दरूप भगवान्‌का अंश जीव जब असत् - जड़ - दुःखरूप संसारसे कुछ आशा रखता है, तब वह भगवान्‌को नहीं सुहाता, प्यारा नहीं लगता; क्योंकि इसमें जीवका महान् अहित है।

साधक संजीवनी १२।१३-१४ परि०··

इच्छा करनेसे तो आवश्यक वस्तुओंकी प्राप्तिमें बाधा ही आती है। अगर मनुष्य किसी वस्तुको अपने लिये अत्यन्त आवश्यक समझकर 'वह वस्तु कैसे मिले? कहाँ मिले? कब मिले ? - ऐसी प्रबल इच्छाको अपने अन्तःकरणमें पकड़े रहता है, तो उसकी उस इच्छाका विस्तार नहीं हो पाता अर्थात् उसकी वह इच्छा दूसरे लोगोंके अन्तःकरणतक नहीं पहुँच पाती। इस कारण दूसरे लोगोंके अन्तःकरणमें उस आवश्यक वस्तुको देनेकी इच्छा या प्रेरणा नहीं होती ....... इच्छा न करनेसे जीवन निर्वाहकी आवश्यक वस्तुएँ बिना माँगे स्वतः मिलती हैं।

साधक संजीवनी १२ । १६··

धर्मका पालन कामनापूर्ति के लिये किया जाय तो वह धर्म भी कामनापूर्ति करके नष्ट हो जाता है और अर्थको कामनापूर्ति में लगाया जाय तो वह अर्थ भी कामनापूर्ति करके नष्ट हो जाता है। तात्पर्य है कि कामना धर्म और अर्थ दोनोंको खा जाती है।

साधक संजीवनी १८ । १२ वि०··

कुछ भी चाहनेसे कुछ (अन्तवाला) ही मिलता है, पर कुछ भी न चाहनेसे सब कुछ (अनन्त) मिलता है।

साधक संजीवनी १८ । ६६ परि०··

अनुकूलताकी इच्छा जितनी ज्यादा होगी, उतनी ही प्रतिकूल अवस्था भयंकर होगी।

साधक संजीवनी १८ । ७०··

भगवान्‌की उपासना करनेवालोंकी सभी कामनाएँ पूरी हो जायँ, यह नियम नहीं है। भगवान् उचित समझें तो पूरी कर भी दें और न भी करें अर्थात् उनका हित होता हो तो पूरी कर देते हैं और अहित होता हो तो कितना ही पुकारनेपर तथा रोनेपर भी पूरी नहीं करते।

साधक संजीवनी ७/२३··

यदि मनमें कामना है तो वस्तु पासमें हो तो बन्धन और पासमें न हो तो बन्धन । यदि मनमें कामना नहीं है तो वस्तु पासमें हो तो मुक्ति और पासमें न हो तो मुक्ति।

साधक संजीवनी १८ । ३०··

भोग भोगनेकी इच्छा और रुपयोंका संग्रह करनेकी इच्छा- इन दो इच्छाओंसे मनुष्यका पतन होता है। ऐसे मनुष्यको परमात्माकी प्राप्ति नहीं हो सकती। उनका संसारमें भी अच्छा यश नहीं होता।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ५३··

हम किसी वस्तुके गुलाम क्यों बनें? मिल जाय तो ठीक, नहीं मिले तो नहीं सही। यह 'नहीं सही' बहुत बढ़िया मन्त्र है। कोई इच्छा नहीं रहे तो जीयें तो भी मौज, मरें तो भी मौज । मरनेसे पहले ही आपको तत्त्वज्ञान हो जायगा।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ११९··

वही सन्त है, वही महात्मा है, वही ऊँचा भक्त है, जिसके मनमें कोई इच्छा है ही नहीं।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १४९··

मान, बड़ाई आदिकी इच्छासे और दूसरेका अनिष्ट चाहनेसे आध्यात्मिक उन्नतिमें बहुत बड़ी बाधा होती है । सुखकी इच्छा होते ही भीतरकी अच्छी-अच्छी भावनाएँ अचानक लुप्त हो जाती हैं । हमें तो यही बात मालूम देती है कि केवल सुखभोगकी इच्छाके कारण ही पारमार्थिक उन्नतिसे वंचित हो रहे हैं।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १९०··

जैसे बुखारको कोई नहीं चाहता, फिर भी बुखार आ जाता है, ऐसे ही मिलनेवाली चीज अपने-आप मिलती है। जब बुखार बिना चाहे आता है तो क्या पदार्थ बिना चाहे नहीं आयेंगे ?

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ २१३··

अगर आप मुक्ति चाहते हो तो कामना छोड़नी पड़ेगी।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ २१५··

कामनाका त्याग करनेसे नया प्रारब्ध बनता है। जीनेकी इच्छा नहीं करनेसे उम्र बढ़ती है। किसी भी चीजकी इच्छा न रखनेसे सब चीजें आती हैं। इच्छा रखनेवाले दुःख पाते हैं और इच्छा न रखनेवाले मौजसे रहते हैं।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ २१६··

मैं पोथीकी पढ़ी हुई बात नहीं कहता हूँ, अपने अनुभवकी बात कहता हूँ । इच्छा करोगे तो वस्तु कठिनता से मिलेगी, और इच्छा नहीं करोगे तो वस्तु सुगमतासे मिलेगी, अपने-आप मिलेगी, बढ़िया मिलेगी। उसकी गुलामी नहीं करनी पड़ेगी।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ४४··

भोग और संग्रहकी इच्छा सर्वथा मिट जाय तो इस अविनाशी आनन्दकी प्राप्ति हो जायगी । शरीर- घर - स्त्री- पुत्रका त्याग करनेकी, जंगलमें जानेकी, बाबाजी बननेकी जरूरत नहीं है, प्रत्युत केवल भोग और संग्रहकी इच्छा छोड़नेकी जरूरत है। केवल इस इच्छाको छोड़नेसे काम हो जायगा।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १०८··

कुछ भी इच्छा न करें तो जीवन निर्वाह बढ़िया होता है; जो मिलता है, पथ्य ही मिलता है, कुपथ्य मिलता ही नहीं।

ज्ञानके दीप जले २७··

चाहना होनेपर वस्तु बड़ी तंगीसे, कठिनतासे मिलती है। चाहना न हो तो वस्तु खुली मिलती है । मनमें लेनेकी इच्छा होती है तो ताला लग जाता है। चोरोंके लिये ताला लगता है, सन्तोंके लिये नहीं।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ४१··

इच्छा करनेसे वस्तु नहीं मिलती, पर इच्छाका त्याग करनेसे वस्तु जबर्दस्ती आती है। जिस वस्तुकी इच्छा करते हैं, वह वस्तु (धन आदि) आनेसे डरती है, घबराती है । इच्छा करना छोड़ दें तो वस्तु प्रसन्नता से आती है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १०९··

आपमें जितनी - जितनी कामना अधिक होगी, उतना उतना आप अपना भी नुकसान करोगे और दूसरोंका भी । परन्तु जितनी जितनी कामना कम होगी, उतनी उतनी आपको भी शान्ति मिलेगी, दूसरोंको भी।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १११··

संसारके पदार्थ आपके पास खुले आनेको तैयार हैं, बस, आप चाहना छोड़ दो। एकदम पक्की सच्ची बात है। इच्छा छोड़ दो तो वस्तुएँ अपने-आप आती हैं। इतना नफा किसी व्यापारमें नहीं है। त्यागरूपी व्यापारमें बड़ा भारी नफा है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १२९··

अशुद्ध आचरण, बुरे कर्म भगवान् नहीं कराते, प्रत्युत कामना कराती है।....... कामना न हो तो पाप होता ही नहीं - यह निश्चित किया हुआ पक्का सिद्धान्त है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १७३··

कामनावाले आदमीसे अच्छे काम ( यज्ञ, दान, तप, व्रत, तीर्थ आदि) नहीं होते, यदि होते हैं तो वे बन्धनकारक होते हैं।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १७४··

कामना छोड़ दो तो आपकी उन्नति हो जायगी, आप सन्त महात्मा हो जाओगे, आपको किसी चीजकी कमी नहीं रहेगी, बिना प्रारब्धके चीज मिलेगी। कामना रखनेसे प्रारब्धवाली चीज भी कठिनतासे मिलेगी।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १७४ ५७.··

परमात्माकी इच्छा करेंगे तो उसके पेटमें सम्पूर्ण संसारकी इच्छाएँ आ जायँगी, सब इच्छाएँ मिट जायँगी।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ २०··

सभी मनुष्य सुख, शान्ति, आनन्द चाहते हैं, दुःख नहीं चाहते, तो यह क्या है? यह मूलमें भगवान्की चाहना है। कोई भी चाहना पैदा होती है तो उसके मूलमें भगवान्‌को चाहना है । सब चाहनाओंके भीतर भगवान्‌की चाहना है । कोई मनुष्य कसाई है, क्रूर है, उसके भीतर भी भगवान्‌की चाहना है। भगवान् से विमुख होनेपर ही दूसरी चाहनाएँ पैदा हुई हैं।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ २१··

मैं सदा जीता रहूँ, कभी मरूँ नहीं - यह 'सत्' की इच्छा है; मैं सब कुछ जान लूँ, कभी अज्ञानी न रहूँ- यह 'चित्' की इच्छा है और मैं सदा सुखी रहूँ, कभी दुःखी न होऊँ — यह 'आनन्द' की इच्छा है। इस प्रकार सत्-चित्-आनन्दस्वरूप परमात्माकी इच्छा जीवमात्रमें रहती है । परन्तु जसे सम्बन्ध माननेके कारण उससे भूल यह होती है कि वह इन इच्छाओंको नाशवान् संसारसे ही पूरी करना चाहता है; जैसे- वह शरीरको लेकर जीना चाहता है, बुद्धिको लेकर जानकार बनना चाहता है और इन्द्रियोंको लेकर सुखी होना चाहता है।

साधन-सुधा-सिन्धु १४६··

जो भगवान्से कुछ भी चाहते हैं, वे भगवान्‌को साधन मानते हैं, साध्य नहीं मानते। अगर भगवान्‌को साध्य मानें, इष्टदेव मानें तो कामना नहीं कर सकते।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ ३२··

जो आपसे कुछ भी चाहता है, वह आपको कुछ नहीं दे सकता।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ ४८··

जहाँ प्रेम होता है, वहाँ कामना नहीं होती। जहाँ कामना होती है, वहाँ प्रेम नहीं होता। जो आपसे कुछ भी लेना चाहता है, वह आपसे प्रेम नहीं कर सकता, और सेवा भी नहीं कर सकता।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ ५३··

धन आदिकी चाहना करोगे तो केवल परमात्मप्राप्तिमें बाधाके सिवाय और कुछ नहीं होगा । चाहना करनेसे धन तो मिलेगा नहीं, पर परमात्मप्राप्तिमें बाधा लग जायगी । जैसे काँटेको निकालनेके लिये लोहेके काँटेकी जरूरत पड़ती है, ऐसे ही सांसारिक इच्छाओंको मिटानेके लिये परमात्माकी इच्छा करनेकी जरूरत है, नहीं तो परमात्माकी इच्छा करनेकी भी जरूरत नहीं।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ ५४-५५··

अगर आप अपना कल्याण चाहते हो तो सकामभावका खाता ही उठा दो। यह सकामभाव आपके कल्याणमें बड़ी भारी बाधा है।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ ७६··

परमात्माका बोध और प्रेम सबके लिये खुले हैं। परन्तु भोग और संग्रहकी इच्छा रहनेके कारण इनकी प्राप्ति नहीं होती।

नये रास्ते, नयी दिशाएँ १६७··

जैसे किसी वृक्षके कोटरमें आग लगी हुई हो तो वह हरा नहीं हो सकता, ऐसे ही जिसके भीतर कामना है, वह सुखी नहीं हो सकता। जो दुःख पा रहा है, वह कामनाके कारण ही दुःख पा रहा है। कामना न हो तो दुःख है ही नहीं। केवल कामना छोड़नेसे संसारका दुःख मिट जाय।

अनन्तकी ओर १४४··

भोगोंकी इच्छाका त्याग करनेके लिये मुक्तिकी इच्छा जरूरी है, पर मुक्तिके लिये मुक्तिकी इच्छा करना बाधक है।

स्वातिकी बूँदें ९··

भोगोंकी चाहसे परमात्मा नहीं मिलते, पर परमात्माकी चाहसे भोग और मोक्ष दोनों मिलते हैं।

स्वातिकी बूँदें २२··

यदि शरीरके साथ सम्बन्ध न जोड़ें तो न कामना पैदा होगी, न आवश्यकता । नाशवान्‌को स्वीकार करनेसे ही इच्छा और आवश्यकता पैदा होती है।

स्वातिकी बूँदें ५०··

संसारसे कुछ लेनेकी इच्छा होते ही कुसंग शुरू हो जाता है।

स्वातिकी बूँदें ७३··

पाप करनेकी इच्छा न हो भी भोगोंकी कामना तो है ही। जैसे भोजन भूखके कारण अच्छा लगता है, ऐसे ही कामनाके कारण भोग अच्छे लगते हैं, अन्यथा भोगोंमें अच्छा लगनेकी ताकत ही नहीं है। बिना दोषके भोग अच्छे लगते ही नहीं। लोभरूपी दोषके कारण ही धन अच्छा लगता है।

स्वातिकी बूँदें ११५ - ११६··

जिसमें इच्छा नहीं होती, उसे कोई कमी नहीं रहती । परन्तु इच्छावालेको सदा घाटा ही रहता है।

स्वातिकी बूँदें १५१··

न संसारकी इच्छा हो, न परमात्माकी । सर्वथा इच्छा मत रखो तो सहजावस्था हो जायगी।

स्वातिकी बूँदें १६४··

मुझे कुछ नहीं चाहिये - ऐसा भाव होनेपर भगवान् अपने-आप आवश्यकताकी पूर्ति करते हैं। भगवान्‌के भरोसे जितना बढ़िया काम होगा, उतना अपनी बुद्धिके सहारे नहीं कर सकते।

सागरके मोती २४··

निष्कामभाव और भगवद्बुद्धि होनेसे कोई निषिद्ध क्रिया हो ही नहीं सकती; क्योंकि कामनाके कारण ही निषिद्ध क्रिया होती है (गीता ३ । ३६-३७ ) |

साधक संजीवनी ९ । २५ परि०··

अगर कुछ न चाहें तो भगवान्‌के सिवाय कहाँ स्थिति होगी और क्यों होगी ? इसी तरह किसी वस्तुको अपनी मानते हैं तो आपकी स्थिति उस वस्तुमें है। कोई भी वस्तु अपनी नहीं है तो परमात्मामें स्थिति है और कुछ भी नहीं चाहिये तो परमात्मामें स्थिति है।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १९८··

भगवान् हमारी इच्छा पूरी करेंगे- ऐसा भाव है तो भगवान् साधन हुए, साध्य नहीं हुए। इसके सिवाय भगवान्की क्या इज्जत रही ? भगवान्‌की भगवत्ता नष्ट हो गयी। अगर आप भगवान्से कामनापूर्ति चाहते हो तो भगवान् मशीनकी तरह हुए । क्या नाशवान् वस्तु भगवान् से ज्यादा कीमती है ?

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ २१५··

जो हमारे मनके प्रतिकूल होता है, वह भगवान्‌के मनके अनुकूल होता है।

स्वातिकी बूँदें १०६··

जो मिलती है और बिछुड़ जाती है, वह चीज अपनी नहीं होती - इस एक बातका आप ख्याल रखो। यह बहुत दामी बात है। मुझे तो यह बात बहुत बढ़िया लगती है। इसकी जितनी महिमा कही जाय, थोड़ी है।....... कामना छोड़ना बड़ा कठिन मालूम देता है, पर इस बातको मान लें तो निष्कामभाव अपने-आप होगा।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ १९७··

संसारकी कामनासे पशुताका और भगवान्‌की कामनासे मनुष्यताका आरम्भ होता है।

अमृत-बिन्दु ९०··

अपने लिये भोग और संग्रहकी इच्छा करनेसे मनुष्य पशुओंसे भी नीचे गिर जाता है तथा इसकी इच्छाका त्याग करनेसे देवताओंसे भी ऊँचे उठ जाता है।

अमृत-बिन्दु ११५··

शरीरमें अपनी स्थिति माननेसे ही नाशवान्‌की इच्छा होती है और इच्छा होनेसे ही शरीरमें अपनी स्थिति दृढ़ होती है।

अमृत-बिन्दु ११९··

विचार करें, कामनाकी पूर्ति होनेपर भी हम वही रहते हैं और अपूर्ति होनेपर भी हम वही रहते हैं, फिर कामनाकी पूर्तिसे हमें क्या मिला और अपूर्तिसे हमारी क्या हानि हुई ? हमारेमें क्या फर्क पड़ा ?

अमृत-बिन्दु १४३··

निन्दा इसलिये बुरी लगती है कि हम प्रशंसा चाहते हैं। हम प्रशंसा चाहते हैं तो वास्तवमें हम प्रशंसाके योग्य नहीं हैं; क्योंकि जो प्रशंसाके योग्य होता है, उसमें प्रशंसाकी चाहना नहीं रहती।

अमृत-बिन्दु १२१··

विचार करो, जिससे आप सुख चाहते हैं, क्या वह सर्वथा सुखी है ? क्या वह दु:खी नहीं है ? दुःखी व्यक्ति आपको सुखी कैसे बना देगा ?

अमृत-बिन्दु १२५··

वस्तुके न मिलनेसे हम अभागे नहीं हैं, प्रत्युत भगवान्‌के अंश होकर भी हम नाशवान् वस्तुकी इच्छा करते हैं - यही हमारा अभागापन है।

अमृत-बिन्दु १४०··

हमें अपने लिये कुछ नहीं चाहिये; क्योंकि स्वरूपमें अभाव नहीं है और शरीरको जो चाहिये, वह प्रारब्धके अनुसार पहलेसे ही निश्चित है, फिर चिन्ता किस बातकी ?

अमृत-बिन्दु १५९··

संसारमें जो वस्तु आपके हक (अधिकार) - की और प्राप्त है, वह भी सदा आपके साथ नहीं रहेगी, फिर जो वस्तु बिना हककी और अप्राप्त है, उसकी आशा करनेसे क्या लाभ?

अमृत-बिन्दु ९३१··