काल (भूत-भविष्य - वर्तमान)
सत्तामात्रमें भूत, भविष्य और वर्तमान- तीनोंका ही सर्वथा अभाव है। सत्ता कालसे अतीत है।
भूतकाल और भविष्यकालकी घटना जितनी दूर दीखती है, उतनी ही दूर वर्तमानमें भी है। जैसे भूत और भविष्यसे हमारा सम्बन्ध नहीं है, ऐसे ही वर्तमानसे भी हमारा सम्बन्ध नहीं है।
जैसे भूतकाल और भविष्यकाल अभी नहीं हैं, ऐसे ही वर्तमानकाल भी नहीं है। भूतकाल और भविष्यकालकी सन्धिको ही वर्तमानकाल कह देते हैं। पाणिनि व्याकरणका एक सूत्र है- 'वर्तमानसामीप्ये वर्तमानवद्वा’ (३ । ३ । १३१) अर्थात् वर्तमानसामीप्य भी वर्तमानकी तरह होता है ....... अगर वर्तमानकाल वास्तवमें होता तो वह कभी भूतकालमें परिणत नहीं होता । वास्तवमें काल वर्तमान नहीं है, प्रत्युत भगवान् ही वर्तमान हैं। तात्पर्य है कि जो प्रतिक्षण बदलता है, वह वर्तमान नहीं है, प्रत्युत जो कभी नहीं बदलता, वही वर्तमान है।
स्थूलदृष्टिसे देखें तो जैसे अभी भूतकालका अभाव है, ऐसे ही भूतकालमें किये गये कर्मोंका भी अभी प्रत्यक्ष अभाव है। सूक्ष्म दृष्टिसे देखें तो जैसे भूतकालमें वर्तमानका अभाव था, ऐसे ही भूतकालका भी अभाव था। इसी तरह वर्तमानमें जैसे भूतकालका अभाव है, ऐसे ही वर्तमानका भी अभाव है । परन्तु सत्ताका नित्य निरन्तर भाव है। अतः साधककी दृष्टि सत्तामात्रकी तरफ रहनी चाहिये।
मनुष्यको भूत और भविष्यकी चिन्ता बिल्कुल नहीं करनी है, वर्तमानको ठीक करना है। वर्तमान ठीक होगा तो भूत और भविष्य दोनों ठीक हो जायँगे। वर्तमान ही भूत बनता है और भविष्य वर्तमानमें ही आता है। एक वर्तमानको ठीक करो तो सब ठीक हो जायगा ।
वर्तमानको ठीक बनाओ। वर्तमान ठीक होगा तो भूत भी ठीक हो जायगा, भविष्य भी; क्योंकि भविष्य भी वर्तमानका फल ही है।