Seeker of Truth

जीवन्मुक्त महापुरुष

जिसको तत्त्वज्ञान हो गया है, ऐसा सिद्ध महापुरुष केवल सत्ता तथा ज्ञप्तिमात्र ( ' है ' ) - का ही अनुभव करता है – 'योऽवतिष्ठति नेङ्गते।' वह चिन्मय सत्ता ज्यों-की-त्यों परिपूर्ण है। क्रियाओं का तो अन्त हो जाता है, पर चिन्मय सत्ता ज्यों-की-त्यों रहती है। महापुरुषकी दृष्टि क्रियाओंपर न रहकर स्वतः एकमात्र चिन्मय सत्ता ( ' है ' ) पर ही रहती है।

साधक संजीवनी १४ । २३ परि०··

साधक अपनी बुद्धिसे सर्वत्र परमात्माको देखनेकी चेष्टा करता है, जबकि सिद्ध महापुरुषोंकी बुद्धिमें परमात्मा स्वाभाविकरूपसे इतनी घनतासे परिपूर्ण है कि उनके लिये परमात्माके सिवाय कुछ है ही नहीं । इसलिये उनकी बुद्धिका विषय परमात्मा नहीं हैं, प्रत्युत उनकी बुद्धि ही परमात्मासे परिपूर्ण है।

साधक संजीवनी १२ । ३-४··

गुणातीत पुरुषको निन्दा - स्तुति और मान-अपमानका ज्ञान तो होता है, पर गुणोंसे सम्बन्ध-विच्छेद होनेसे, नाम और शरीरके साथ तादात्म्य न रहनेसे वह सुखी - दुःखी नहीं होता। कारण कि वह जिस तत्त्वमें स्थित है, वहाँ ये विकार नहीं हैं।

साधक संजीवनी १४ । २५··

सिद्ध महापुरुषमें काम-क्रोधादि दोषोंकी गन्ध भी नहीं रहती।......उसके अनुभवमें अपने कहलानेवाले शरीर-अन्तःकरणसहित सम्पूर्ण संसारके साथ अपने सम्बन्धका सर्वथा अभाव हो जाता है; अतः उसमें काम-क्रोध आदि विकार कैसे उत्पन्न हो सकते हैं? यदि काम-क्रोध सूक्ष्मरूपसे भी हों तो अपनेको जीवन्मुक्त मान लेना भ्रम ही है।

साधक संजीवनी ५। २६··

राग-द्वेषसे सर्वथा रहित महापुरुषका अन्तःकरण इतना शुद्ध, निर्मल होता है कि उसमें स्वतः वेदोंका तात्पर्य प्रकट हो जाता है, चाहे वह पढ़ा-लिखा हो या न हो। उसके अन्तःकरणमें जो बात आती है, वह शास्त्रानुकूल ही होती है। राग-द्वेषका सर्वथा अभाव होनेके कारण उस महापुरुष द्वारा शास्त्रनिषिद्ध क्रियाएँ कभी होती ही नहीं उसका स्वभाव स्वतः शास्त्र के अनुसार बन जाता है।

साधक संजीवनी ३ । ३४··

गुणातीत हो जानेपर अर्थात् गुणोंसे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जानेपर विस्मृति और स्मृति- ऐसी दो अवस्थाएँ नहीं होतीं अर्थात् नींदमें भूल हो गयी और अब स्मृति आ गयी-ऐसा अनुभव नहीं होता, प्रत्युत नींद तो केवल अन्तःकरणमें आयी थी, अपनेमें नहीं, अपना स्वरूप तो ज्यों- का त्यों रहा- ऐसा अनुभव रहता है।

साधक संजीवनी १८ । ५५··

ज्ञानी महापुरुषमें 'तादात्म्यरूप अहम्' का सर्वथा अभाव होता है; अतः उसके कहलानेवाले शरीरके द्वारा होनेवाली समस्त क्रियाएँ प्रकृतिके 'धातुरूप अहम्' से ही होती हैं।

साधक संजीवनी ३ । ३३··

जीवन्मुक्तके द्वारा अहंकाररहित 'क्रिया' होती है, अहंकारयुक्त 'कर्म' नहीं होता।

सन्त समागम १०··

जीवन्मुक्त महापुरुषमें व्यष्टि अहंकार मिट जाता है, पर समष्टि अहंकार रहता है। व्यष्टि (चिज्जड़ग्रन्थिरूप) अहंकारके मिटनेसे ही मुक्ति होती है।

ज्ञानके दीप जले ९६··

मुझे बोध हो गया, मुझे बोध नहीं हुआ, पता नहीं कि मुझे बोध हुआ कि नहीं हुआ - ये तीनों ही बातें बोध होनेपर नहीं होती।

स्वातिकी बूँदें १७०··

संसारमें 'नहीं' - पना साधकको दीखता है। सिद्धको सब परमात्मा ही दीखते हैं।

स्वातिकी बूँदें १७१··

सबको अपने होनेपनका जो अनुभव होता है, उसमें जड़ (बुद्धि या अहम्) साथमें मिला हुआ रहता है। अत: वह वास्तवमें 'असत्का अनुभव' है । परन्तु तत्त्वज्ञानीको शुद्ध स्वरूपका अनुभव होता है, जिसके साथ जड़ मिला हुआ नहीं है।

प्रश्नोत्तरमणिमाला ४१०··

जैसे समुद्रके ऊपर बड़ी ऊँची-ऊँची लहरें उठती हैं, पर समुद्रके भीतर मील - आधा मील गहरा चले जायँ तो वहाँ कोई क्रिया नहीं है। ऐसे ही संसारमें बड़ी उथल-पुथल होती है, सृष्टि- प्रलय होते हैं, पर परमात्माके स्वरूपमें स्थित हो जाय तो वहाँ कोई हलचल नहीं है, पूर्ण शान्ति है। यह जीवन्मुक्त अवस्था है।

बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ९९··

मुक्त होनेपर कारणशरीर मिट जाता है और स्थूल तथा सूक्ष्मशरीरसे सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। इसलिये जीवन्मुक्त महापुरुष 'विदेह' कहलाता है।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश १२८··

जैसे हम अंगुलीसे शरीरके किसी अंगको खुजलाते हैं तो खुजली मिटनेपर अंगुलीमें कोई फर्क नहीं पड़ता, कोई विकृति नहीं आती, ऐसे ही इन्द्रियोंसे विषयोंका सेवन होनेपर भी तत्त्वज्ञके चित्तमें कोई विकार नहीं आता, वह ज्यों-का-त्यों निर्विकार रहता है।

साधक संजीवनी २।५९ परि०··

स्थितप्रज्ञ महापुरुषमें शरीर - निर्वाहमात्रकी आवश्यकताका तो कहना ही क्या, शरीरकी भी आवश्यकता नहीं रहती । कारण कि आवश्यकता ही मनुष्यको पराधीन बनाती है।

साधक संजीवनी २ । ७१ परि०··

ब्राह्मी स्थितिको प्राप्त होनेपर शरीरका कोई मालिक नहीं रहता अर्थात् शरीरको मैं मेरा कहनेवाला कोई नहीं रहता, व्यक्तित्व मिट जाता है।

साधक संजीवनी २ । ७२ परि०··

जैसे पलकोंका गिरना-उठना, श्वासोंका आना-जाना, भोजनका पचना आदि क्रियाएँ स्वतः (प्रकृतिमें) होती हैं, ऐसे ही उस महापुरुषके द्वारा सभी शास्त्रानुकूल आदर्शरूप क्रियाएँ भी ( कर्तृत्वाभिमान न होनेके कारण) स्वतः होती हैं।

साधक संजीवनी ३ । १७··

जैसे वृक्षके पत्ते हिलते हैं तो उनसे कोई फलजनक कर्म (पाप या पुण्य) नहीं होता, ऐसे ही कर्तृत्वाभिमान न होनेके कारण उसके द्वारा कोई शुभ - अशुभ कर्म नहीं बनता।

साधक संजीवनी ३ | ३३ परि०··

दूसरे लोगोंको ऐसे ज्ञानी महापुरुष लोकसंग्रहकी इच्छावाले दीखते हैं, पर वास्तवमें उनमें लोकसंग्रहकी भी इच्छा नहीं होती ।... उनके कहलानेवाले शरीरादि पदार्थ स्वतः - स्वाभाविक, किसी प्रकारकी इच्छाके बिना संसारकी सेवामें लगे रहते हैं।

साधक संजीवनी ३ । २५-२६··

यद्यपि सिद्ध महापुरुषमें और भगवान्‌में कामना, ममता आदिका सर्वथा अभाव होता है, तथापि वे जो लोकसंग्रहके लिये कर्म करते हैं, यह उनकी दया, कृपा ही है। वास्तवमें वे लोकसंग्रह करें अथवा न करें, इसमें वे स्वतन्त्र हैं, इसकी उनपर कोई जिम्मेवारी नहीं है।

साधक संजीवनी ४ । २१··

कृतकृत्य, ज्ञातज्ञातव्य और प्राप्तप्राप्तव्य हो जानेसे वह महापुरुष विधि-निषेधसे ऊँचा उठ जाता है । यद्यपि उसपर शास्त्रका शासन नहीं रहता, तथापि उसकी समस्त क्रियाएँ स्वाभाविक ही शास्त्रानुकूल तथा दूसरोंके लिये आदर्श होती हैं।

साधक संजीवनी ३ । १७··

सभी शास्त्र अज्ञानियोंके लिये हैं । तत्त्वज्ञानीके लिये कोई शास्त्र नहीं है।

सागरके मोती ३०··

ज्ञानी महापुरुष भी दूसरोंके हितमें लगे रहते हैं; क्योंकि साधनावस्थामें ही उनका स्वभाव प्राणिमात्रका हित करनेका रहा है—'सर्वभूतहिते रताः ' ( गीता ५। २५; १२ । ४ ) । इसलिये कुछ भी करना, जानना और पाना शेष न रहनेपर भी उनमें सबका हित करनेका स्वभाव रहता है। तात्पर्य है कि दूसरोंका हित करते-करते जब उनका संसारसे सर्वथा सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है, तब उनको हित करना नहीं पड़ता, प्रत्युत पहलेके प्रवाहके कारण उनके द्वारा स्वतः दूसरोंका हित होता है।

साधक संजीवनी ३ । ३३ परि०··

उस महापुरुषके उपयोगमें आनेवाली वस्तुओंका विकास होता है, नाश नहीं अर्थात् उसके पास आनेपर वस्तुओंका सदुपयोग होता है, जिससे वे सार्थक हो जाती हैं। जबतक संसारमें उस महापुरुषका कहलानेवाला शरीर रहता है, तबतक उसके द्वारा स्वतः - स्वाभाविक प्राणियोंका उपकार होता रहता है।

साधक संजीवनी ३ | ३७··

तत्त्वज्ञान, जीवन्मुक्ति होनेपर भी व्यवहार अलग-अलग होते हैं । तत्त्वज्ञान होनेपर व्यवहारमें भिन्नता नहीं रहती - यह बात है ही नहीं।

सीमाके भीतर असीम प्रकाश ९७-९८··

प्राणियोंके खान-पान, गुण, आचरण, जाति आदिका भेद होनेसे उनके साथ ज्ञानी महापुरुषके व्यवहारमें भी भेद होता है और होना भी चाहिये। परन्तु उन सब प्राणियोंमें एक ही परमात्मतत्त्व परिपूर्ण होनेके कारण महापुरुषकी दृष्टिमें भेद नहीं होता। उन प्राणियोंके प्रति महापुरुषकी आत्मीयता, प्रेम, हित, दया आदिके भावमें कभी फरक नहीं पड़ता।

साधक संजीवनी ५। १८··

सुषुप्ति और मूर्च्छामें मनुष्यका शरीरसे अज्ञानपूर्वक सम्बन्ध-विच्छेद होता है अर्थात् मन अविद्यामें लीन होता है; अतः इन अवस्थाओंमें मनुष्यको प्रिय और अप्रियका, शारीरिक पीड़ा आदिका ज्ञान ही नहीं होता । परन्तु जीवन्मुक्त महापुरुषका शरीरसे ज्ञानपूर्वक सम्बन्ध-विच्छेद होता है। इसलिये उसको प्रिय और अप्रियका, शरीरकी पीड़ा आदिका ज्ञान तो होता है, पर उनसे वह हर्षित - उद्विग्न, सुखी - दुःखी नहीं होता।

साधक संजीवनी ५। २० परि०··

ब्रह्मलोकके सुखसे भी अनन्त गुणा अधिक सुख भगवत्प्राप्त, तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त महापुरुषका माना गया है।

साधक संजीवनी ८ । १६··

गुणातीत महापुरुषमें पहले प्रकारका मोह (सत्-असत् आदिका विवेक न होना) तो होता ही नहीं (गीता ४ । ३५ ) । परन्तु व्यवहारमें भूल होना अर्थात् किसीके कहनेसे किसी निर्दोष व्यक्तिको दोषी मान लेना और दोषी व्यक्तिको निर्दोष मान लेना आदि तथा रस्सीमें साँप दीख जाना, मृगतृष्णामें जल दीख जाना, सीपी और अभ्रकमें चाँदीका भ्रम हो जाना आदि मोह तो गुणातीत मनुष्यमें भी होता है।

साधक संजीवनी १४ । २२··

भूलके दो रूप हैं - तादात्म्यरूप भूल और विस्मृतिरूप भूल । जीवन्मुक्त महापुरुषमें तादात्म्यरूप भूल तो रहती ही नहीं, पर व्यवहारमें विस्मृतिरूप भूल हो सकती है । जैसे, उसे रस्सीमें साँप दीख सकता है, पर मोह नहीं हो सकता। जिस धातुकी इन्द्रियाँ, अन्तःकरण आदि हैं, उसी धातुका संसार है। अतः उसे इन्द्रियोंसे संसार दीख सकता है, पर मोह नहीं हो सकता।

सन्त समागम २६··

जिन पूर्वकृत कर्मोंसे स्वभाव बना है, उन कर्मोंकी भिन्नताके कारण जीवन्मुक्त पुरुषोंके स्वभावों में भी भिन्नता रहती है। इन विभिन्न स्वभावोंके कारण ही उनके द्वारा विभिन्न कर्म होते हैं, पर वे कर्म दोषी नहीं होते, प्रत्युत सर्वथा शुद्ध होते हैं और उन कर्मोंसे दुनियाका कल्याण होता है।

साधक संजीवनी १८ । १२ वि०··

तत्त्वज्ञान शरीरके सम्बन्ध ( अहंता - ममता ) - का नाश तो करता है, पर शरीरका नाश नहीं करता । कारण कि जीवन्मुक्त होनेपर संचित और क्रियमाण कर्म तो क्षीण हो जाते हैं, पर प्रारब्ध क्षीण नहीं होता। इसलिये जीवन्मुक्ति, तत्त्वज्ञान होनेपर भी जबतक प्रारब्धका वेग रहता है, तबतक शरीर भी रहता है। अगर शरीर तत्काल नष्ट हो जाय तो फिर ज्ञानका उपदेश कौन करेगा ? ब्रह्मविद्याकी परम्परा कैसे चलेगी ?

मेरे तो गिरधर गोपाल १०१··

अज्ञान मिटनेपर मनुष्य सुखी - दुःखी नहीं होता। उसे केवल अनुकूलता - प्रतिकूलताका ज्ञान होता है। ज्ञान होना दोषी नहीं है, प्रत्युत सुख - दुःखरूप विकार होना दोषी है। इसलिये वास्तवमें ज्ञानीका प्रारब्ध नहीं होता।

साधक संजीवनी १८ । १२ वि०··

ज्ञान होनेपर चिन्ता शोकादि तो मिट जाते हैं, पर प्रारब्धके अनुसार पागलपन हो सकता है। हाँ, पागलपन होनेपर भी ज्ञानीके द्वारा कोई अनुचित, शास्त्रनिषिद्ध क्रिया नहीं होती।

साधक संजीवनी १८ । १२ वि०··

शरीरके बढ़ने, बदलने आदि क्रियाओंके समान शरीर निर्वाहकी व्यावहारिक क्रियाएँ भी स्वाभाविक रूपसे होती हैं; परन्तु राग-द्वेष रहनेसे साधारण पुरुषोंकी तो इन ( व्यावहारिक ) क्रियाओंमें लिप्तता रहती है, पर राग-द्वेष न रहनेसे ज्ञानी महापुरुषकी लिप्तता नहीं होती।

साधक संजीवनी ३ । ३३··

शाप- वरदान अज्ञान होनेपर लगते हैं। बोध होनेपर जीवन्मुक्तको शाप - वरदान नहीं लगते।

सन्त समागम १३··

तत्त्वज्ञान होनेके बाद महापुरुष अपनी आयु दूसरेको दे सकता है। दूसरेको सम्पत्ति देनेका अधिकार बालिगको होता है, नाबालिगको नहीं। जबतक तत्त्वज्ञान न हो, तबतक सब नाबालिग हैं।

स्वातिकी बूँदें १०३··

परमात्मामें तल्लीन होनेसे महापुरुषके भीतर वेद प्रकट हो जाते हैं, क्योंकि वेद परमात्मा के ही श्वास हैं। उस महापुरुषके वचन, आचरण सब आदर्श होते हैं।

स्वातिकी बूँदें १०८··

यदि हमें तत्त्वज्ञान हो गया तो अब सबको तत्त्वज्ञान कैसे हो यह बाकी रह गया।

स्वातिकी बूँदें ८९··

तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त, परमात्माको प्राप्त हुए महापुरुष संसारमें जीते हैं, तो क्यों जीते हैं? संसारमें आकर उन्हें जो काम करना था, वह काम तो उन्होंने पूरा कर लिया; अतः उनको उसी वक्त मर जाना चाहिये था । परन्तु वे अब जीते हैं तो केवल हमारे लिये जीते हैं। उनपर हमारा पूरा हक लगता है। जैसे बालक दुःख पा रहा है तो माँ जीती क्यों है? माँ तो बालकके लिये ही है, नहीं तो मर जाना चाहिये माँको जरूरत नहीं है उसकी। ऐसे ही वे महात्मा पुरुष संसारमें जीते हैं, तो केवल जीवोंके कल्याणके लिये जीते हैं।

साधन-सुधा-सिन्धु ५६६··