साधकको स्वतः स्वाभाविक एकमात्र ' है ' (सत्ता) - का अनुभव हो जाय - इसीका नाम जीवन्मुक्ति है, तत्त्वबोध है। कारण कि अन्तमें सबका निषेध होनेपर एक 'है' ही शेष रह जाता है। वह 'है' अपेक्षावाले 'नहीं' और 'है' – दोनोंसे रहित है अर्थात् उस सत्तामें 'नहीं' भी नहीं है और 'है' भी नहीं है।......उस सत्तामात्रका ज्ञान होना ही तत्त्वज्ञान है और सत्तामें कुछ भी मिलाना अज्ञान है।
||श्रीहरि:||
साधकको स्वतः स्वाभाविक एकमात्र ' है ' (सत्ता) - का अनुभव हो जाय - इसीका नाम जीवन्मुक्ति है, तत्त्वबोध है। कारण कि अन्तमें सबका निषेध होनेपर एक 'है' ही शेष रह जाता है। वह 'है' अपेक्षावाले 'नहीं' और 'है' – दोनोंसे रहित है अर्थात् उस सत्तामें 'नहीं' भी नहीं है और 'है' भी नहीं है।......उस सत्तामात्रका ज्ञान होना ही तत्त्वज्ञान है और सत्तामें कुछ भी मिलाना अज्ञान है।- साधन-सुधा-सिन्धु १४६
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साधन-सुधा-सिन्धु १४६··
यद्यपि सबकी स्थिति 'है' में ही है, पर जड़ताके साथ सम्बन्ध माननेसे 'मैं हूँ' हो गया। जड़ताका सम्बन्ध न रहे तो 'मैं हूँ' नहीं रहेगा, प्रत्युत 'मैं है' रहेगा। इस स्थितिका नाम जीवन्मुक्ति है।
||श्रीहरि:||
यद्यपि सबकी स्थिति 'है' में ही है, पर जड़ताके साथ सम्बन्ध माननेसे 'मैं हूँ' हो गया। जड़ताका सम्बन्ध न रहे तो 'मैं हूँ' नहीं रहेगा, प्रत्युत 'मैं है' रहेगा। इस स्थितिका नाम जीवन्मुक्ति है।- मानवमात्रके कल्याणके लिये ५६
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मानवमात्रके कल्याणके लिये ५६··
शरीर चाहे स्थूल हो, चाहे स्थूल हो, चाहे सूक्ष्म हो, चाहे कारण हो, वह सर्वथा प्रकृतिका है और हम अच्छे- मन्दे कैसे ही हों, सर्वथा भगवान्के हैं। अगर यह बात समझमें आ जाय तो हम आज ही जीवन्मुक्त हैं।
||श्रीहरि:||
शरीर चाहे स्थूल हो, चाहे स्थूल हो, चाहे सूक्ष्म हो, चाहे कारण हो, वह सर्वथा प्रकृतिका है और हम अच्छे- मन्दे कैसे ही हों, सर्वथा भगवान्के हैं। अगर यह बात समझमें आ जाय तो हम आज ही जीवन्मुक्त हैं।- मानवमात्रके कल्याणके लिये २१
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मानवमात्रके कल्याणके लिये २१··
अपनेमें और दूसरोंमें निर्दोषताका अनुभव करना ही तत्त्वज्ञान है, जीवन्मुक्ति है।
||श्रीहरि:||
अपनेमें और दूसरोंमें निर्दोषताका अनुभव करना ही तत्त्वज्ञान है, जीवन्मुक्ति है।- अमरताकी ओर ४६
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अमरताकी ओर ४६··
मुक्त होनेपर कोई विशेषता नहीं आती, प्रत्युत अपनेमें जो कुछ विशेषता दीखती है, वह मिट जाती है । तात्पर्य है कि मुक्त होनेपर विशेषता देखनेवाला (व्यक्तित्व) नहीं रहता । एकदेशीयता मिट जाती है। किसी भी जगह अपना अभाव नहीं दीखता । मुक्त होनेपर 'मैं एक शरीरमें हूँ' - यह भी नहीं होता और 'मैं सब जगह हूँ' - यह भी नहीं होता, प्रत्युत 'मैं' ही नहीं रहता । विशेषता प्रेमसे आती है। ज्ञानमें तो विशेषता मिटती है और एक समता रहती है।
||श्रीहरि:||
मुक्त होनेपर कोई विशेषता नहीं आती, प्रत्युत अपनेमें जो कुछ विशेषता दीखती है, वह मिट जाती है । तात्पर्य है कि मुक्त होनेपर विशेषता देखनेवाला (व्यक्तित्व) नहीं रहता । एकदेशीयता मिट जाती है। किसी भी जगह अपना अभाव नहीं दीखता । मुक्त होनेपर 'मैं एक शरीरमें हूँ' - यह भी नहीं होता और 'मैं सब जगह हूँ' - यह भी नहीं होता, प्रत्युत 'मैं' ही नहीं रहता । विशेषता प्रेमसे आती है। ज्ञानमें तो विशेषता मिटती है और एक समता रहती है।- प्रश्नोत्तरमणिमाला २६२
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प्रश्नोत्तरमणिमाला २६२··
जीवन्मुक्ति हुई कि नहीं हुई— यह पता लगाना नहीं पड़ता । सूर्य निकला कि नहीं निकला - इसके लिये टार्च लाने की जरूरत नहीं पड़ती। भोजन करनेपर तृप्ति हुई कि नहीं हुई - इसकी कोई कसौटी नहीं लानी पड़ती।
||श्रीहरि:||
जीवन्मुक्ति हुई कि नहीं हुई— यह पता लगाना नहीं पड़ता । सूर्य निकला कि नहीं निकला - इसके लिये टार्च लाने की जरूरत नहीं पड़ती। भोजन करनेपर तृप्ति हुई कि नहीं हुई - इसकी कोई कसौटी नहीं लानी पड़ती।- सागरके मोती ८०
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सागरके मोती ८०··
जबतक पूर्णावस्थाका अनुभव करनेवाला है, तबतक (व्यक्तित्व बना रहनेसे) पूर्णावस्था हुई नहीं।
||श्रीहरि:||
जबतक पूर्णावस्थाका अनुभव करनेवाला है, तबतक (व्यक्तित्व बना रहनेसे) पूर्णावस्था हुई नहीं।- साधक संजीवनी ५। २६
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साधक संजीवनी ५। २६··
अहम्के रहते हुए यह अभिमान तो हो सकता है कि 'मेरेको बोध हो गया, मैं ज्ञानी हो गया, मैं जीवन्मुक्त हो गया', पर वास्तविक बोध, तत्त्वज्ञान, जीवन्मुक्ति अहम्का अभाव होनेपर ही होती है। तात्पर्य है कि सत्तामात्रका ज्ञान सत्ताको ही होता है, 'मेरेको' नहीं होता। सत्ता तो ज्ञानस्वरूप ही है और उस ज्ञानका ज्ञाता कोई नहीं है; क्योंकि जब ज्ञेयकी सत्ता ही नहीं, तो फिर ज्ञाता संज्ञा कैसे ?
||श्रीहरि:||
अहम्के रहते हुए यह अभिमान तो हो सकता है कि 'मेरेको बोध हो गया, मैं ज्ञानी हो गया, मैं जीवन्मुक्त हो गया', पर वास्तविक बोध, तत्त्वज्ञान, जीवन्मुक्ति अहम्का अभाव होनेपर ही होती है। तात्पर्य है कि सत्तामात्रका ज्ञान सत्ताको ही होता है, 'मेरेको' नहीं होता। सत्ता तो ज्ञानस्वरूप ही है और उस ज्ञानका ज्ञाता कोई नहीं है; क्योंकि जब ज्ञेयकी सत्ता ही नहीं, तो फिर ज्ञाता संज्ञा कैसे ?- साधन-सुधा-सिन्धु १४८
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साधन-सुधा-सिन्धु १४८··
अपनेमें निरन्तर अकर्तृत्व और अभोक्तृत्व (निष्कामता निर्ममता) - का अनुभव होना ही जीवन्मुक्ति है।
||श्रीहरि:||
अपनेमें निरन्तर अकर्तृत्व और अभोक्तृत्व (निष्कामता निर्ममता) - का अनुभव होना ही जीवन्मुक्ति है।- साधक संजीवनी १३ । ३१ परि०
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साधक संजीवनी १३ । ३१ परि०··
एक बड़ी मार्मिक बात है कि सहजावस्था आपको हमको कोई नयी बनानी नहीं है। वह तो आपकी हमारी स्वतः - स्वाभाविक है। उसका नाम ही सहजावस्था है। 'सहज' का मतलब है कि वह हमारे साथ ही पैदा हुई है। इसके अनुभवमें सांसारिक भोग व संग्रहकी इच्छा ही बाधा है, इसके सिवाय कोई बाधा नहीं है।
||श्रीहरि:||
एक बड़ी मार्मिक बात है कि सहजावस्था आपको हमको कोई नयी बनानी नहीं है। वह तो आपकी हमारी स्वतः - स्वाभाविक है। उसका नाम ही सहजावस्था है। 'सहज' का मतलब है कि वह हमारे साथ ही पैदा हुई है। इसके अनुभवमें सांसारिक भोग व संग्रहकी इच्छा ही बाधा है, इसके सिवाय कोई बाधा नहीं है।- नये रास्ते, नयी दिशाएँ ६५
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नये रास्ते, नयी दिशाएँ ६५··
अगर जीवन्मुक्त होना चाहते हो तो जड़ताका सर्वथा त्याग करो । करोड़ों ब्रह्माण्ड हैं, उनमें तिल- जितनी चीज भी अपनी नहीं है। जड़ चीज हमारे बिल्कुल कामकी नहीं है। नित्य रहनेवाले एक परमात्मा ही हमारे कामके हैं। आप जीवन्मुक्त हो जाओगे।
||श्रीहरि:||
अगर जीवन्मुक्त होना चाहते हो तो जड़ताका सर्वथा त्याग करो । करोड़ों ब्रह्माण्ड हैं, उनमें तिल- जितनी चीज भी अपनी नहीं है। जड़ चीज हमारे बिल्कुल कामकी नहीं है। नित्य रहनेवाले एक परमात्मा ही हमारे कामके हैं। आप जीवन्मुक्त हो जाओगे।- अनन्तकी ओर १६४
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अनन्तकी ओर १६४··
चाहे हमारी मुक्ति हो जाय, कोई कामना नहीं रहे, तो भी हम भजन करेंगे। भजन तो भगवान्का प्यार है, उसको कैसे छोड़ेंगे? भगवान् शंकरको मुक्ति करनी है या तत्त्वज्ञान करना है, क्या प्राप्त करना बाकी है? पर वे भी दिन-रात राम - राम जपते हैं।
||श्रीहरि:||
चाहे हमारी मुक्ति हो जाय, कोई कामना नहीं रहे, तो भी हम भजन करेंगे। भजन तो भगवान्का प्यार है, उसको कैसे छोड़ेंगे? भगवान् शंकरको मुक्ति करनी है या तत्त्वज्ञान करना है, क्या प्राप्त करना बाकी है? पर वे भी दिन-रात राम - राम जपते हैं।- बिन्दुमें सिन्धु तीर्थ ६१